प्रकृति ही संगीत है। अंतर्मन की गहराई से अगर प्रकृति को अनुभव करें तो समूची सृष्टि में संगीत प्रवाह महसूस होगा। प्रकृति का सांगीतिक रूप शब्दों से भी उजागर होता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक चिर परिचित शब्द है नाद जिसका मूलार्थ है ध्वनि। इसके विशिष्ट अर्थों में घोष ,गर्जना, ऊँची आवाज़, दहाड़ अथवा चीख-चिल्लाहट भी शामिल हैं। सिंहनाद शब्द इससे ही बना है जिसका मतलब शेर की दहाड़ होता है। जयनाद जिसका मतलब है विजयी सेना का जयघोष , जीत की हर्षध्वनि। इससे ही बना हर्षनाद। प्राचीन काल से अब तक मांगलिक कार्यों अथवा किसी मनोरथ के पूर्ण होने पर उसकी दूर-दूर तक सूचना कराने के लिए शंख बजाया जाता रहा है। जयघोष के लिए तो शंखध्वनि अनिवार्य थी इसी लिए शंखनाद शब्द बना । जीत की हर्षध्वनि के लिए जयनाद शब्द भी है। नाद शब्द आमतौर पर अनुनासिक ध्वनि के लिए भी प्रयोग मे आता है। संगीत मे नादब्रह्म शब्द भी है जिसका मतलब है औंकार ध्वनि, अव्यक्त शब्द। अनुनाद यानि प्रतिध्वनि भी सांगीतिक शब्दावली का एक आम शब्द है। करुण पुकार के लिए आर्तनाद भी इसी कड़ी में है।
नदिया की धारा रे...
नाद बना है संस्कृत की धातु नद् से जिसमें यही सारे भाव समाए हैं। नद् से ही बना है नदः जिसका अर्थ है दरिया, महाप्रवाह, विशाल जलक्षेत्र अथवा समुद्र। गौर करें कि बड़ी नदियों के साथ भी नद शब्द जोड़ा जाता है जैसे ब्रह्मपुत्रनद। ग्लेशियर के लिए हिमनद शब्द इसी लिए गढ़ा गया। अब साफ है कि नद् शब्द से ही बना है नदी शब्द जो बेहद आम है। गौर करें कि नदी यानि सलिला, सरिता, धारा, तरला, नदिया, सिंधु निर्झरिणी आदि शब्दों के में उजागर प्रवाहवाची भाव पर ।
कलकल में ही छुपी है संगीत की आत्मा
सवाल उठता है नदी शब्द की उत्पत्ति नद् धातु से क्यों हुई जिसके तमाम अर्थ शोर, ध्वनि , गर्जना से जुड़ते हैं ? इसका उत्तर नदी के एक और पर्यायवाची में छुपा है। नदी को शैलबाला, पर्वतसुता या पार्वती भी कहा जाता है। ज्यादातर धाराओं का प्राकृतिक उद्गम पर्वतों से ही होता है। ऊँचे पर्वतों से जब जलधाराएं नीचे की ओर यात्रा शुरु करती हैं तो चट्टानों से टकरा कर घनघोर ध्वनि के साथ नीचे गिरती हैं। यह शोर है। यही गर्जना है। पहाड़ों से नीचे आने पर जब वे मैदानों में बहती हैं तो उनकी गति क्षीण ज़रूर हो जाती है मगर छोटी चट्टानों ,कंकर पत्थरों से संघर्ष तब भी जारी रहता है जिससे कलकल ध्वनि पैदा होती है। यही है संगीत। यही है नाद जिसमें छुपा है नदी के जन्म का रहस्य। और नदी शब्द में छुपा है नाद यानी संगीत का जन्म । चकराइये मत,सभ्यता के विकासक्रम में जब मनुश्य की वाचिक चेष्टाएं अर्थवान होने लगी थीं और भाषा का जन्म होने को था तभी मनुश्य ने पहाड़ी धाराओं की ध्वनि को नद् कहा और कालांतर में , भाषा के विकासक्रम मे इसके अन्य अर्थ विकसित होते चले गए।
यह पडाव कैसा लगा ज़रूर बताएं।
दरिया की सैर जारी है
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले दो पड़ावों शब्दों की तिजौरी पर ताले की हिमायत और क्या है माँ का ऐश्वर्य पर सर्वश्री मनीश जोशी(जोशिम), मीनाक्षी, दिनेशराय द्निवेदी, प्रशांत उदय मनोहर और शास्त्री जेसी फिलिप ,माला तैलंग, अनुराधा श्रीवास्तव, ममता, संजीत त्रिपाठी , पारुल और संजय की टिप्पणियां मिलीं। आप सबको दोनों आलेख पसंद आए इसका बहुत बहुत शुक्रिया।
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Thursday, January 31, 2008
दरिया तो संगीत है.... [नदी-1]
Tuesday, January 29, 2008
शब्दों की तिजौरी पर ताले की हिमायत...
हिन्दी के शुद्धतावाद पर कबाड़खाना में कही गई दिलीप मंडल जी की ज्यादातर बातों से सहमत हूं और मैने शब्दों के सफर में यही लिखा भी है । भाषा तो दरिया है । बहाव में ही शुद्धता भी है और ताज़गी भी। मगर लोक बोली के उच्चारण अगर हिन्दी में न्यायोचित ठहराने की वकालत होगी तो हिन्दी भी गई और लोकभाषा भी गई।
किसी भी अशुद्ध चीज़ के लिए अस्तित्व का संकट कभी नहीं रहा है। दरअसल अशुद्ध चीज़ें ही शुद्ध के अस्तित्व को बताती हैं। मगर कई बार यह भी होता है कि अशुद्ध भारी हो जाता है, चल पड़ता है , दौड़ने लगता है। वह सत्य बन जाता है। शुद्धता का अस्तित्व रहता तो है मगर मिथक के रूप में । हिन्दी जैसे विकसित भाषा के साथ क्या हम ऐसा होने देना चाहते हैं ? आज हिन्दी उच्चारण की वजह से ही तो अन्य बोलियों, शैलियों (लोक) से अलग पहचानी जाती है तो इस उच्चारण का मानक स्वरूप भी होता है। इस पर कोई विवाद नहीं है । श और स का घालमेल न मुद्रित रूप में चलेगा और न ही वाचिक रूप में। हिन्दी को मठवाद से दूर रखा जाना चाहिए । आमजन पर शुद्धता का कोई आग्रह कभी नहीं रहा है। कोई भी भाषा आमजन की ज़बान पर चढ़कर ही प्राणवान होती है। अलबत्ता पढ़े-लिखे लोग, भाषा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग( नाटक, सिनेमा, मीडिया, साहित्य,विज्ञापन) हिन्दी को सलीके से इस्तेमाल करें। कायदे की बात में फायदा तो है खासतौर पर प्रसारण करने वालों के लिए तो यह मंत्र है। वर्ना भौंपू लेकर नेताओं की सभा की मुनादी करनेवाले को भी प्रसारक ही कहा जाता है।
क्या औरत अश्लील शब्द है?
शेरो शायरी का उल्लेख हो और नुक्ता न लगे तो हिन्दी का भी मज़ा नहीं । यह सब दरअसल इसलिए होता है कि हम डिक्शनरी देखना भूल चुके हैं। खुद को सुधारना भूल चुके हैं। अख़बारों , चैनलों के दफ्तरों में डिक्शनरी देखने की ललक तक नहीं है। पूछ कर काम चलाते हैं। चाहे जवाब देने वाले ने भी अंदाज़न ही बताया हो। औरत शब्द अश्लील है और महलों में रहनेवाली स्त्री महिला कहलाती है जैसी मूर्खतापूर्ण धारणाएं पालनेवाले बुद्धिजीवी मैने पत्रकारिता में देखे हैं।
शब्दकोशों में पूरबी की भरमार क्यों ?
एक और बात। क्या हिन्दी की समृद्धि केवल अवधी, भोजपुरी और पुरबिया ज़बानों के शब्दों तक ही सीमित रहेगी ? हिन्दी विकसित होती भाषा है मगर शब्दकोशों में एक क्षेत्र विशेष के शब्द ठूंसने की जो गलती बीते कई दशकों से चल रही है उसका क्या ? दिल्ली और काशी से निकली तमाम शब्दकोशों को देख डालिए, ज्यादातर शब्दों के अर्थ, पर्यायवाची शब्द वही है जो पूरब की शैलियों में इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी के इस खजाने में मालवी, राजस्थानी, कुमाऊंनी के शब्द नहीं मिलेंगे।
दक्कनी शैली की हिन्दी का काशी के मठाधीशों ने कभी खूब मज़ाक उड़ाया था मगर आज वही बॉलिवुड के जरिये कई दशकों से सिरचढ़ कर बोल रही है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी हर साल अन्य विदेशी भाषाओं के आमफहम शब्दों को सघोष अपनाती है मगर हिन्दी के कोशकार ऐसी पहल कतई नहीं करते और हिन्दी वाले शुद्धतावाद का स्यापा करने बैठ जाते हैं। हिन्दी में आए मराठी शब्दों का कभी जिक्र होगा? कन्नड़ से हमने क्या लिया, क्या कभी आम हिन्दी वाला जान पाएगा ? एक ही मूल से जन्मी संस्कृत, हिन्दी , बांग्ला, अंग्रेजी, फारसी , जर्मन आदि भाषाओं के शब्द सदियों से एक दूसरे में आते जाते रहे हैं। हजारों ऐसे शब्द है जो हिन्दी की मूल धारा मे समा गए । उन्होने अपना रूप बदल लिया । शुद्धतावादी क्या इनको पहचान भी पाएंगे? भाषाओं के रक्षक कभी शब्दों के खजाने पर ताला डालकर नहीं बैठते बल्कि शब्दों की तिजौरी तो बिना ताले की होती है। यहां तो हर आगत का स्वागत होना चाहिए।
साहित्य था पत्रकारिता का संस्कार
पत्रकारिता ने हमेशा ही नई भाषा गढ़ी है और हिन्दी के प्रवाह को शायद गति मिली है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले साहित्य पत्रकारिता में रिश्तेदारी थी । आज की पत्रकारिता से साहित्य सिरे से गायब है। पहले साहित्यिक अभिरूचि वाले लोग मीडिया से जुड़ते थे (गौर से पढ़ें मैं साहित्यकारों की बात नहीं कर रहा हूं) मगर आज की पत्रकारिता इसमें कोई योगदान नहीं कर रही है, गुंजाइश नहीं है या वैसा सामाजिक माहौल नही है। खिलाफत जैसा मज़ाक लंबे अर्से से चल रहा है। इरफान सच कहते हैं। प्रसारकों के उच्चारण से लोग सही बोलना सीखते थे। आज के भ्रष्ट उच्चारण वाले प्रसारकों को शायद सीखने की इच्छा भी नहीं है।
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क्या है माँ का ऐश्वर्य ? [अम्मा में समायी दुनिया-3]
माँ के जीवनदायी अर्थों पर गौर करें तो उसमें भी अम्, अम्ब, मम् की छाया नज़र आती है। सृष्टि में जीवन की उत्पत्ति पानी में ही हुई है इसी लिए जीवन-प्राण जैसे लक्षणों के लिए ज धातु की कल्पना की गई।इसी लिए जीवन में, जल में जन्म वाचक यह ज नज़र आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि माता का एक पर्याय जननि भी है जिसका अर्थ जन्म देने वाली इसी ज धातु से है।
( इस पर विस्तार से सफर के किसी और पड़ाव पर चर्चा होगी। )
जल के लिए संस्कृत में एक शब्द है अम्बु । इसका जन्म हुआ है अम्ब् नामक धातु से । इसके दो ही अर्थ हैं। एक तो शब्द करना (अम्, मम्, हुम् ) दूसरा है जाना। इस जाना में अम्बु अर्थात जल का प्रवाही भाव भी छुपा है। अम्ब् से ही बने हैं अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका जैसे शब्द जिसमें माता, दुर्गा, भवानी, देवी जैसे अर्थ समाये हैं। समझा जा सकता है कि जल और अम्बु में क्या रिश्ता है, पानी का , प्राण का जन्मदायी जननि का।
स्त्री की सृजनकारी, जन्मदात्री क्षमताओं के कारण ही उसके लिए भाषा मे आदरसूचक शब्दों का निर्माण हुआ । संस्कृत धातु प्र एवं पृ के विस्तार सूचक भावों से पृथ्वी शब्द जन्मा । पृथ्वी जो सुविस्तृत है, विशाल है। बढ़ाने वाली है। बीज को, धन को , तन को। कहने की ज़रूरत नहीं कि पृथ्वी को वैदिक युग से ही दैवी रूप मिला है, माता का दर्जा दिया गया है। भूलोक के अलावा पृथ्वी का अर्थ हुआ ऐश्वर्य को फैलाने वाली, कीर्ति को फैलाने वाली ।
पृथ्वी अर्थात् दैवी के दो रूप प्रमुख हैं एक उदार दूसरा विकराल। उदार रूप में ही दैवी पृथ्वी सबकी माता है जो सबको धन धान्य देती है ,पालन पोषण करती है। इस रूप में इसके कई नाम हैं जैसे वसुधा, वसुमति, वसुंधरा, धरती माता, अम्बुवाची(वर्षा सूचक लक्षणों से युक्त भूमि) और ठकुरानी इत्यादि। वसु का अर्थ होता है धन दौलत अथवा समृद्धि। पृथ्वी के गर्भ में जितनी दौलत समायी है इसीलिए उसे वसुमति अथवा वसुधा कहा गया है। गर्भस्थ शिशु भी स्त्री के लिए दौलत होता है इसीलिए वसु शब्द का अर्थ शिशु भी होता है। जन्म देने के बाद संतान ही माँ के लिए ऐश्वर्य समान होता है। काली, देवी, दुर्गा, भवानी, कपालिनी, चामुण्डा आदि भी माँ के ही रूप हैं मगर ये सभी रूप माँ को शक्तिरूपिणी दिखाते हैं अर्थात उसके विकराल रूप को दिखाते हैं जिसे अपनी सृष्टि पर आए संकट से रक्षा की खातिर धारण करना पड़ता है। ।
माँ के निर्माणसूचक रूप को दर्शाने वाला शब्द है धात्री जिसका अर्थ हुआ जो वसुधारण करे , पालन करे, निर्माण करे। स्त्री अपने गर्भ में शिशु को धारण करती है , उसका निर्माण करती है। बाद में रूढ़ अर्थों में धात्री से बने धाय शब्द के मायने थोड़े बदल गए औ र इसका अर्थ जन्मदेने वाली नहीं बल्कि पालने पोसने वाली माता अर्थात उपमाता से जुड़ गया। धायमाँ शब्द यही तो कहता है। पर मूलतः धाय में माँ का ही आशय रहा होगा, इसकी गवाही अनेक इलाकों में माँ के लिए धी, धीय, धीया जैसे पदों से भी मिलती है। ये सब रूप धात्री से ही बने हैं। पृथ्वी का एक अन्य पर्याय धारयित्री भी है।
आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली कड़ी सकल जग माँ ही पर सर्वश्री विजयशंकर जी, बोधिसत्व, संजय और विनयजी की प्रतिक्रियाएं मिलीं। आप सबका शुक्रिया।
विजयजी, अच्छा लगा कि आपने प्रियवर के चलन पर
बताया । शील जी के प्रियवर के बारे में और जानने को उत्सुक हूं। जल्दी ही अपने ब्लाग पर कुछ लिखिएगा। सबका स्नेह सिर माथे पर रखता हूँ भाई।
संजयजी, नुक्ताचीनी तो दुनिया में चलती रहेगी। नुक्ता प्रसंग भी दशकों पुराना है। हिन्दी उर्दू फारसी के घालमेल के बाद से ही यह चल रहा है। तब भी नुक्तों पर उंगली उठती थी इसीलिए नुक्ताचीं जैसा शब्द जन्मा। मस्त रहिए। हमें हर किस्म की अति से बचना है, बचाना है। भाषा तो निर्मल दरिया है। जितना समाए उतनी ही समृद्धि आएगी। मराठी में जितने फारसी लफ्ज है उतने देश की किसी भाषा में नहीं होंगे , ऐसा लगता है मुझे। मगर मराठी में फारसी का उच्चारण और लिखने का अंदाज़ है फार्शी । अब कर लीजिए शुद्धता की बात !
बोधिभाई, आभारी आपका हूं कि आपने एक पुण्यकर्म करा लिया मुझसे। अब आपके हवाले है यह आलेख । जैसा चाहें दुरुस्त करें, आपका हक है।
विनय जी, बहुत अच्छी बात पूछी है। मकार के लोप का व्याकरणिक स्पष्टिकरण तो नहीं दे पाऊंगा मगर यह आया अम्ब् से ही है जिसका मतलब माँ और पिता दोनों होता है। म का लोप हो गया। कुछ जान पाऊंगा तो ज़रूर बताऊंगा।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 1:31 AM
Sunday, January 27, 2008
सकल जग माँ ही...[ अम्मा में समायी दुनिया -2]
माँ की महिमा को समर्पित यह आलेख प्रियवर बोधिसत्व जी ने लगातार आग्रह कर लिखवा लिया है। बोधिभाई माँ के विषद, व्यापक रूप पर एक विशिष्ट प्रकाशन की योजना में इन दिनों लगे हुए हैं। मुझे दीवाली पर इस तथ्य की जानकारी मिली। इससे पूर्व माँ पर सफर का एक पड़ाव आ चुका था। बहरहाल, यह आलेख बोधिभाई के मापदण्ड पर कितना खरा उतरता है , इसका अंदाज़ा नहीं। शायद वैसा न बन पाया हो , जैसा वे चाहते हों । उनके काम के लिए शुभकामनाओं के साथ पेश है माँ की महिमा की यह दूसरी कड़ी।
माँ की महिमा समूची भाषा-संस्कृति में न्यारी है। सृष्टि में अगर जीवनदायिनी शक्ति कोई है तो वह सिर्फ माँ है। इसीलिए सीधे-सीधे माता के अर्थवाले संबोधनकारी शब्दों के अलावा भी ऐसे कई शब्द हैं जिनका मूलभाव निर्माण, पालन पोषण,विकास, श्रद्धा आदि से जुड़ता है उन्हें भी माँ के समकक्ष या पर्यायवाची शब्द के रूप में रुतबा
मिल गया । यूं सृष्टि और प्रकृति का अर्थ भी माँ ही होता है। अम्मा और माता शब्द की महिमा के बारे में हम सफर के पिछले पड़ाव अम्मा में समायी दुनिया में देख चुके हैं। भाषाविज्ञानी इसे ‘म’ वर्ण से निकला हुआ नर्सरी शब्द मानते हैं जो ध्वनि-अनुकरण प्रभाव के चलते एक ही आधार से उठकर भारतीय–यूरोपीय भाषा परिवार में फैलता चला गया। गौर करें कि शिशु जिन मूल ध्वनियों को अनायास निकालता है उनमें सर्वाधिक ‘म’ वर्ण वाली ही होती हैं यथा अम् , मम् , हुम्म् आदि। यह माना जाता है कि ये ध्वनियां स्तनपान के समय भी शिशु के मुँह से निकलती हैं। शिशु के मुँह से जब मम्-मम् जैसी ध्वनियां निकलती है तो हम इसे उसके भूखे होने का संकेत ही मानते हैं। इस ध्वनिसंकेत की महिमा देखिये कि समूचे जीवजगत में स्तनपायियों के लिए अंग्रेजी में मैमल शब्द प्रयोग किया जाता है जो बना है लेटिन कि मैम्मा से जिसका मतलब ही है स्तन अथवा पोषणग्रंथि। जो स्तनपान कराए, पालन करे वह माँ । इसलिए अंग्रेजी में माँ के लिए मम्मा, मम्मी जैसे शब्द है। थलचर स्तनपायियों में ज्ञात सबसे विशाल मगर अब विलुप्त हाथी की प्रजाति के लिए भी मैमथ शब्द इसी मूल का है। यही नहीं मातृत्व से जुड़ा मैटरनिटी और मातृकुल को इंगित करनेवाले मैटरनल जैसे शब्द भी इसी मूल से उपजे हैं।
अम्मा की व्यापकता हिन्दी के साथ साथ तमाम उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी है। अम्मा की छाया इतनी गहरी है कि दक्षिणी भाषाओं में तो ज्यादातर रिश्ते ही इस शब्द में समा गए हैं। तेलुगू में माँ के रूप में तो अम्मा है ही नानी के लिए अम्मय्, अम्मसी और अम्माअत्ता जैसे रूप भी हैं। तेलुगू में दादी के लिए अम्माम्मी, मामी के लिए अन्मंति,अम्मे यानि पिता , अम्मी यानी छोटी बहन जैसे शब्द यही साबित करते हैं। इसी तर्ज पर हिन्दी में माँ के भाई के लिए मामा व मामा की पत्नी के लिए मामी जैसे शब्द भी माँ की महत्ता को ही सिद्ध करते हैं । संस्कृत में मामा के लिए मातुल व मातुलानी शब्द भी हैं। दक्षिण की भाषाओं में अम्मा के अलावा अक्का (बड़ी बहन के लिए भी प्रचलित ), अत्ता, अत्तिका, अन्ना, अन्नी ( गौर करें नानी , अंग्रेजी के नैनी या ग्रेनी जैसे शब्दों पर ) के अलावा उर्दू में अम्मी, हिन्दी में मैयां ,महतारी, माई, मातृका जैसे अनेक पर्यायवाची शब्द हैं जो माँ की महिमा का बखान करते हैं। मराठी में पिता की बहन अर्थात बुआ को अत्या , आत्या कहते हैं जो दक्षिणी प्रभाव (संभवतः कन्नड़)है।
अगले पड़ाव पर भी जारी
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव रगड़-रगड़ हथेली...नुक्ताचीं है ग़मे-दिल पर सर्वश्री यूनुस , पारुल, विमल वर्मा, संजय करीर और संजय बैगाणी जी की प्रतिक्रियाएं मिलीं।
यूनुस भाई , आपकी बात सही है। मैने भी यही कहा है कि कम से कम मीडिया वालों को (रेडियो , टीवी )तो उच्चारण की शुद्धता बरतनी ही चाहिए। अखबारों ने अपनी स्टाइल शीट बनाई हुई है, वे उसके हिसाब से चलें। छपे हुए का अभिप्राय समझदार व्यक्ति लगा ही लेता है।
विमल भाई, मराठी के उच्चारण कुछ अलग चलते हैं। जैसे हम नुक्ते को अरबी, फारसी मानते हुए हिन्दी पर लिखने में न थोपने की बात करते हैं वैसे ही मराठीवाले अंग्रेजी शब्दों में झ का प्रयोग ज्यादा करते हैं। इसके अलावा उनकी मात्राएं मराठी व्याकरण के हिसाब से सही होती हैं। हम हिन्दी वाले उसे गलत देखते हैं। मराठी यूं तो आर्यभाषा परिवार की है मगर उसका व्याकरण कन्नड़ पर आधारित है( यह तथ्य हमे प्रख्यात कवि, लेखक, भाषाविद् प्रभाकर माचवे ने बताया था )।
संजयद्वय की बातों से भी सहमत हूं। की बोर्ड की समस्या के चलते सभी जगह नुक्ता ही लिखा गया है। जो आपने लिखा है वह सही है। हमारे नुक्ता का अभिप्राय भी ( अगर हमने गलत लिखा फिर भी ) आपने विषयवस्तु के मद्देनजर उर्दू नुक्ता से ही लगाया न कि मृत्युभोज से जुड़े नुक्ता से:)
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Saturday, January 26, 2008
रगड़-रगड़ हथेली...नुक्ताचीं है ग़मे-दिल...
निर्मल आनंद पर अभयभाई ने भाषायी शुद्धता के संदर्भ में इरफान भाई की आपत्तियों के हवाले से नुक्तों पर एक सामयिक लेख डाला है। इसी बहाने कुछ बातें मैं भी कहना चाहता हूं। अभयजी ने बहुत बढ़िया लिखा, मगर संदर्भ थोड़ा परेशान करने वाला और कन्फ्यूजनकारी था। जनसामान्य के लिए एक भाषा की शुद्धता को दूसरी भाषा पर लादने का आग्रह क्यो ?
रेडियो टीवी जैसे माध्यमों में काम करने वालों , खासतौर पर उद्घोषकों से ही भाषायी शुद्धता की उम्मीद की जानी चाहिए । मगर अफसोस कि टीवी पर ही इसका सबसे भ्रष्ट रूप सामने आ रहा है। यहां मेरा मतलब सिर्फ समाचार चैनलों से ही है। पुरबिया उच्चारण इसमें साफ पहचाना जा सकता है । ऐसा लगता है न्यूज़चैनल वालों को नुक्तों से परहेज है। सईद अंसारी को छोड़कर ज्यादातर उद्घोषकों-एंकरों का उच्चारण सही नही है । श और स का फर्क नहीं पता। कई शब्दों का उच्चारण तो इस कदर हिन्दी उच्चारण से भिन्न होता है कि समझ में नहीं आता कि वे हिन्दी बोल रहे हैं या अपनी क्षेत्रीय बोली। ऐसे लोगों से यही कहा जा सकता है कि अगर बोलचाल के स्तर पर इतना ही स्थानीय बोली / उच्चारण आदि का खयाल था तो इस धंधे में क्यों आ गए जिसमें उच्चारण ही प्रमुख है। खबरें दिखाना , पत्रकारिता करना तो टीवी पर बिसरी बात हो चुकी हैं, भाई लोगों थोड़ी मेहनत उच्चारण पर ही कर लो। एक हिन्दी चैनल के कर्ता-धर्ता जो अक्सर एंकरिंग करने लगते हैं , बार-बार दोनो हथेलियों को रगड़ते हुए ज़ाहिर को जाहिर है , जाहिर है बोलते चले जाने की वजह से काफी शोहरत पा चुके हैं। ये लोग प्रेरणास्रोत हैं उन लोगों के लिए कि जो यह सोचते हैं कि थोबड़ा दिखाना ही ज्यादा जरूरी है, उच्चारण पर क्यों मेहनत की जाए। रेडियों पर उच्चारण सही होता है पर हिन्दी कठिन है। ऐसे में अनिल रघुराज अगर यह कहते हैं कि टीवी न्यूज़ में नुक्ता बचा हुआ है तो अजीब लगता है। यह मुसलमानी बिंदी तो हुजूर, टीवी पर ही सबसे ज्यादा गैरहाजिर नजर आती है।
जहां तक लिखने का सवाल है , हिन्दी में तो नुक्तों का कोई प्रावधान है नहीं। मगर जब अरबी-फारसी के शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं तो इन प्रचलित शब्दों के साथ नुक्ते का प्रयोग यथासंभव तब तो जरूर कर लेना चाहिए जब इसकी मौजूदगी या गैरमौजूदगी के चलते अर्थ का अनर्थ हो रहा हो। भाषा का मुख्य प्रयोजन संवाद है। अगर अर्थसिद्धि हो रही है , सम्प्रेषण हो रहा है तो फिर नुक्ते और दूसरी व्याकरणिक बारीकियों में आमजन को उलझाने का क्या मतलब। हिन्दी इससे नष्ट नहीं हो रही है। हिन्दी का व्याकरण कौन सा सैकड़ों साल पहले का रचा हुआ है। हिन्दी की जितनी भी शैलियां या बोलियां हैं उनमें एक ही शब्द के अलग अलग उच्चारण हैं। मीडिया में इन सभी भाषाई क्षेत्रों के लोग हैं और सबके अपने अपने आग्रह है। कायदे से तो उन्हें एंकर बनना ही नहीं चाहिए जिनका उच्चारण सही नहीं है परंतु धन्य हैं न्यूज़ चैनलों के कर्ताधर्ता जिन्हें शायद इस मूलभूत आवश्यकता की जानकारी नहीं है कि टीवी सिर्फ दिखा ही नहीं रहा होता , सुना भी रहा होता है। अब समाचार चैनलों के पास न तो सुनाने लायक कुछ है , न दिखाने लायक। रही सही कसर एंकरों के भ्रष्ट उच्चारणों ने पूरी कर दी है। किस बेख़याली में ख़याल खयाल हो जाता है और ख्याल सुना जाता है ?
हिन्दी समाचार पत्रों से नुक्ता जो गायब हुआ वह इसी सोच-समझ के साथ हुआ कि यहां भी जिस स्तर के प्रूफ रीडर है उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि उन्हें उर्दू शब्दों का भी ज्ञान हो। उर्दू शब्दों की समझ अगर है तो जरूरी नहीं कि उसका उच्चारण भी वे सही करते हों। इसीलिए अखबारों से नुक्ते गायब हुए । वजह थी शुद्धता के चक्कर में और बड़ी गलती न हो जाए। जिन्हें भाषा की समझ है वे बिना नुक्ते के भी सही अर्थ तक पहुंचेंगे। हां, उर्दू-फारसी की शेरो-शयरी का प्रयोग करते समय नुक्ते अगर लगाए जाएं तो साहित्य के साथ इंसाफ हो जाएगा। बाकी न भी लगाएं तो कोई क्या बिगाड़ लेगा ? हिन्दी में ही कौन सी एकरूपता है। एक ही शब्द के दो दो तरह के उच्चारण शब्दकोशों में मान्य हैं। आँखमिचौनी और आँखमिचौली दोनों सही हैं। मगर इनमें से आँखमिचौनी का प्रयोग करने वाला बड़े ठाठ से , दंभ से आँखमिचौली को गलत ठहरा देता है।
आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछले दो पड़ावों- चश्मेबद्दूर ..रायता फैल गया..और लोक क्या है पर सर्वश्री प्रमोदसिंह, अभय तिवारी, अरविंद मिश्रा, दिनेशराय द्विवेदी संजीत त्रिपाठी अनामदास , तरुण, लावण्या ,माला तेलंग,पंकज सुबीर , अनुराधा श्रीवास्तव और मनीष जोशी (जोशिम)जी की प्रतिक्रियाएं मिलीं।
अनामदास जी , लोक पर आपकी सभी बाते सही हैं। तमाम शब्द लोक से ही उपजे हैं। बस, लोकल का लोक से अर्थ और व्याख्या के नज़रिये से तो रिश्ता है मगर व्युत्पत्ति के आधार पर नहीं।
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चश्मेबद्दूर ... रायता फैल गया...
भारतीय मसालों की महक से पूरी दुनिया सदियों से महक रही है। अगर कहा जाए कि ये भारतीय मसाले ही थे जिनकी वजह से सुदूर पश्चिमी जगत के लिए पूरब के समुद्री द्वार खुले तो कुछ ग़लत नहीं होगा। भारतीय मसालों में एक खास जगह है राई की। एक भी ऐसा भारतीय परिवार न होगा जिसकी रसोई में राई न पाई जाती हो।
छौक तड़के की माया
छौंक या तड़का है। जब तक यह न हो भोजन का आनंद ही नहीं आता । किसी भी कुशल गृहिणी या रसोइये के लिए भोजन को जायकेदार बनाने की जो रस्म होती है वह है तड़का या छौंक। यह कोई आसान काम नहीं है। बहरहाल , बात राई की चल रही थी। राई रबी की तिलहनी फसल है।
राई शब्द बना है संस्कृत के राजिका से जिसका मतलब होता है काली सरसों , पीली सरसों ।
काली राई और सरसों को आमतौर पर वे लोग अलग अलग पदार्थ समझते हैं जिन्हें पाकशास्त्र मे दिलचस्पी नहीं है, मगर मूल रूप से ये एक ही हैं। सरसों और राई एक ही जाति की फसलें हैं , किस्में कई तरह की होती हैं।
राजिका शब्द बना है संस्कृत के राजि या राजी से । इसका अर्थ होता है पंक्ति , कतार धारी , रेखा आदि। इससे मिलते जुलते खेत , क्यारी जैसे अर्थ भी इसके हैं। अब गौर करें कि यूं तो सभी फसलें खेतों में ही उगती हैं और करीब-करीब कतार में ही बोई जाती हैं मगर कतार वाले अनुशासन से जुड़ा नाम पाने का सौभाग्य सिर्फ राई यानी राजिका को ही मिला।
बात रायते की
यह एक ऐसी भारतीय डिश है जिसकी धूम देश-विदेश में उतनी ही है जितनी कि पुलाव की । रायता शब्द के नामकरण में राई का ही कमाल है। रायता दरअसल दही के अंदर उबली सब्जियों से बना वह पदार्थ है जिसे राई से बघारा गया हो। रायते की खासियत ही है उसके जायके में एक खास किस्म की तेजी जो सिर्फ राई से ही आती है। आज सैकडो़ तरह के रायते प्रचलन में हैं मगर जो बात राई के तड़के और हींग के धमार वाले रायते में है , वो और किसी में नहीं। रायता चाहे जितना स्वादिष्ट हो मगर जब फैल जाता है तो न सिर्फ फैलाने वाले की शामत आती है बल्कि बनाने वाले का भी माथा घूम जाता है । और फिर पूरे माहौल का अंदाज़ा लगाना कुछ मुश्किल नहीं।
कहावतों में आई राई
सामाजिक-भाषिक संस्कृति में भी राई का एक अलग ही महत्व है। चश्मेबद्दूर के लिए भी राई का उपयोग आम है । छोटे बच्चों, कम उम्र लड़कियों को नज़र न लग जाए इसके लिए आमतौर पर उनकी माँ राई की पोटली उनकी क़मर से बांधती हैं या कपड़ों में खोंस देती हैं। कहावतों में भी यह बात नज़र आती है जैसे राई नोन करना यानी नज़र उतारना। राई से जन्मी कुछ अन्य कहावतें भी प्रचलित हैं मसलन राई रत्ती का हिसाब, राई का पहाड बनाना या राई रत्ती का हाल जानना। जाहिर है कि इसमें राई के सूक्ष्म आकार को महत्व दिया गया है।
कैसा लगा राई का हाल, तरबूज़ करके बताएं तो जानें।
आपकी चिट्ठियों का हाल जानें अगले पड़ाव में ।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Friday, January 25, 2008
लोक क्या है ?
लोककला, लोक संस्कृति , लोकाचार जैसे तमाम प्रचलित शब्दों में शामिल लोक शब्द वस्तुतः क्या है। इसकी अर्थवत्ता व्यापक है । विभिन्न समूदायों के संदर्भ में जब संस्कृति शब्द का प्रयोग होता है तो उसके साथ काल का उल्लेख महत्वपूर्ण हो जाता है। संस्कृति के साथ पुरातनता अनिवार्य तत्व नहीं है। यह प्राचीन भी हो सकती है आधुनिक भी हो सकती है। संस्कृति निरंतर परिवर्तनशील है। मगर इसके साथ जब लोक शब्द जुड़ता है तो स्वतः ही परंपरा का स्मरण होता है। लोक संस्कृति में पुरातनता और परंपरा दोनों का होना ज़रूरी है।
लोक शब्द सस्कृत धातु लोक् से जन्मा है जिसका मतलब होता है नज़र डालना, देखना अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना । इससे बने संस्कृत के लोकः का अर्थ हुआ दुनिया , संसार। मूल धातु लोक् में समाहित अर्थों पर गौर करें तो साफ है कि नज़र डालने ,देखने अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान करने पर क्या हासिल होता है ? जाहिर है सामने दुनिया ही नज़र आती है। यही है लोक् का मूल भाव। लोक् से जुड़े भावों का अर्थविस्तार लोकः में अद्भुत रहा । पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी प्राणियों मे सिर्फ मनुष्यों के समूह को ही लोग कहा गया जिसकी व्युत्पत्ति लोकः से ही हुई है। लोकः का अर्थ मानव समूह, मनुष्य जाति, समुदाय, समूह, समिति, प्रजा, राष्ट्र के व्यक्ति आदि है।
तीन नहीं चौदह लोक
संसार के अर्थ में लोक ने स्थूल भाव ग्रहण किया । लेकिन जब इसके प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने वाले अर्थ पर मानव ने अमल किया तो कई परिकल्पनाएं भी होने लगीं। तीन लोकों की कल्पना हुई स्वर्ग लोक, पृथ्वीलोक और पाताल लोक । धर्मग्रंथ इससे भी आगे की बातें कहते हैं। विस्तृत वर्गीकरण के मुताबिक तो चौदह लोक हैं। सात तो पृथ्वी से शुरू करते हुए ऊपर और सात नीचे। ये हैं भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक , तपोलोक और ब्रह्मलोक। इसी तरह नीचे वाले लोक हैं-अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल , महातल और पाताल।
भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से गौर करें तो लोक् का रिश्ता अंग्रेजी के लुक से भी जुड़ता है। लोक् धातु का मूलार्थ ही देखना है और अंग्रेजी के लुक का मतलब भी देखना है। अंग्रेजी का लुक प्राचीन जर्मन से आया है। यही बात लोचन में भी है। लोच् शब्द से बना है लोचन जिसमें भी देखने जिसका मतलब होता है आंखें जो देखने का काम करती हैं। लोकः से बने कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं। जैसे लोकतंत्र, लोककथा, लोकगाथा, लोकानुराग, लोकोदय, लोकपाल, लोकमत, लोकप्रिय, लोकनाथ आदि। यह सूची काफी लंबी हो सकती है।
श्रम संस्कृति में लोक
अब अगर लोक् मे समाहित देखने , ज्ञानार्जन जैसे अर्थों पर गौर करें तो सबसे पहले मनुष्यके सामने प्रकृति के जो रूप आए वह थे अग्नि, वायु, पृथ्वी, वर्षा, सूर्य, पानी , प्रकाश, आकाश , मेघ, बिजली, वनस्पति, पशु आदि। इसके अतिरिक्त मनुष्य के प्रत्यक्ष ज्ञान के दायरे में जो कुछ आया मसलन श्रम की विवशता, श्रम से जुडे़ उत्पादन का महत्व और उत्पाद की प्राप्ति, श्रम से जुड़े कला तत्व का ज्ञान, कला का कुशलता से मेल , कला का उत्पादन से मेल, कला से उत्पन्न रंजकता। इन तत्वों का मेल जब मनुष्य के जीवन में रच-बस गया तो जो जीवन शैली थी उसने संस्कृति का रूप लिया । दैनंदिन की कार्यप्रणाली अलग संस्कृति बनी और किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर अपनाई जाने वाली शैली और तौर तरीके अलग संस्कृति बनीं। ये विशिष्ट अवसर ही पर्व कहलाए और शैली लोकाचार में ढल गई। लोक संस्कृति के मूल में यही सारी चीज़ें समायी हैं।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव मैं पीता नहीं हूं, पिलाई गई है पर ज्ञानदत्त पाण्डेय, संजय, दिनेशराय द्विवेदी, ममता, संजीत त्रिपाठी और शिवकुमार मिश्र की चिट्ठियां मिलीं। आपने सबने इसका मज़ा लिया सो हमें भी आनंद आ गया। आभारी हूं।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 1:30 AM
Thursday, January 24, 2008
...मैं पीता नहीं हूं, पिलाई गई है
पीना-पिलाना चाहे एक शब्द हो मगर इसमें दो क्रियाएं शामिल है और दोनों के अर्थ जुदा हैं इसी का फायदा उठाते हुए तो मयकशी के शौकीन बारहा अपने बचाव में कहते हैं -मैं पीता नहीं हूं, पिलाई गई है । गौरतलब है कि भाषा विज्ञान के नज़रिये से भी पीना और पिलाना शब्द अलग अलग मूल के हैं। पीने पर फिर कभी बात होगी फिलहाल पिलाने की बात करते हैं। इस सिलसिले में सभी जानते हैं कि पीने वाला कई बार आऊट हो जाता है क्योंकि पिलाने वाले की तरफ से ओवरफ्लो रहता है। ओवरफ्लो को बाढ़ यानी फ्लड भी कह सकते हैं।
अंग्रेजी में बाढ़ के लिए फ्लड शब्द आमतौर पर काम में लिया जाता है। यह शब्द भारत में भी खासकर हिन्दी में भी खूब प्रचलित है। फ्लड शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है और इसकी उत्पत्ति भारोपीय परिवार की धातु pleu से हुई है। संस्कृत में भी बहना, तैरना , जलप्रलय होना, बाढ़ आना, जल-थल होना जैसे अर्थ प्रकट करने वाली एक धातु है प्लु । इससे ही बना है प्लुत। इससे फ्लड की समानता पर गौर करें। इसका मतलब भी है बाढ़ या जलमय, जलमग्न होना।
गौर करें pleu और प्लु ध्वनि और उच्चारण में लगभग एक हैं और इनसे बने क्रमशः फ्लड और प्लुत में निहित अर्थसाम्य पर। प्लुत से ही बना है प्लव शब्द जिसका मतलब है तैरता हुआ , बहता हुआ, उछलना, कूदना आदि। इसी से बना है प्लावनम् यानी बाढ़ आना। बाढ़ को जल प्लावन भी कहते हैं। प्लव से ही बने है पिलाना या पिलवाना (पीना नहीं) जैसे शब्द। खेती किसानी की शब्दावली में एक शब्द है पलेवा। बुवाई से पहले मिट्टी में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है ताकि बीजों का अंकुरण सही हो सके । इसके लिए खेतों में नहरों अथवा कुओं से पानी छोड़ा जाता है जिसे पलेवा कहते हैं। यह पलेवा भी इसी प्लु से जन्में प्लावन का ही देशज रूप है।
इसी श्रंखला मे आता है अंग्रेजी का फ्लो ( flow) शब्द । इसका मतलब है बहाव, प्रवाह, तैरना आदि। संस्कृत धातु प्लु में भी यही सारी बातें शामिल है। प्लु से जुडे हुए कई शब्द यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित हैं,मसलन । ग्रीक फ्लुओ (बहना), लैटिन फ्लुविउस (नदी ) जर्मन फ्लुट (बाढ़) आदि रूप बने हैं। आज रोजमर्रा की हिन्दी में फ्लाइट, फ्लाइंग, फ्लाईओवर, फ्लो जैसे शब्द खूब बोले जाते हैं जो इसी इसी मूल से जन्मे है।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव अवधू, माया तजि न जाई... तरूण, पंकज सुवीर, संजय , अभय तिवारी, ममता, संजीत त्रिपाठी, संजीव तिवारी, पंकज मुकाती, आशा जोगलेकर और अरूण आदित्य की प्रतिक्रियाएं मिली। साथियों , शुक्रिया खूब खूब। बनें रहें साथ इस आनंद के सफर में।
अभय भाई, अगर मैं यह कहूं कि मुझे पता था आप इसे पकड़ेंगे तो ताज्जुब न करिएगा। क्या बताएं , समय का ऐसा तोड़ा है और सफर की धुन भी सवार है। अवधूत शब्द कल दिमाग़ में ऐसा चढा कि फिर सब्र नहीं हुआ । आनन फानन में लिख डाला। मुझे भी धत्, धतकरम, दुत्कार वाले संदर्भों से इसे शुरू न कर पाने का मलाल है। यह बाद में याद आया। शुक्रिया याद दिलाने के लिए । इसे बाद में संशोधित कर नया रूप दे दूंगा।
अरूण आदित्य जी, आप का साथ तो पहले भी था मगर ब्लागदुनिया में आपको कहीं ज्यादा नज़दीक पा रहा हूं। ये माया हमसे तब तक नहीं छूटेगी जब तक आप रमें रहेंगे। आभार ।
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Monday, January 21, 2008
अवधू माया तजि न जाई...और दुत्कार
अवधू माया तजि न जाई... कबीर बानी में कई बार एक शब्द आता है अवधू । कौन है यह अवधू ? दरअसल अवधूत ही अवधू है। मोटे तौर पर सन्यासियों-साधुओं के एक वर्ग को अवधूत कहते है । कबीरबानी के निहितार्थ से अली सरदार जाफरी ने इस शब्द की व्युत्पत्ति बताई है अ+वधू यानी जिसकी वधू न हो अर्थात अकेला, सांसारिक बंधनो से मुक्त । भाव ग्रहण करने के स्तर पर तो यह व्युत्पत्ति आनंदित कर सकती है मगर यह सही नहीं है। अवधूत बना है संस्कृत के धूत शब्द में अव उपसर्ग लगने से । अव + धूत = अवधूत । अव उपसर्ग का मतलब होता है दूर, परे, फासले पर , नीचे( अवतल ) वगैरह। धूत शब्द भी मूलतः धू धातु से बना है जिसका अर्थ है झकझोरना, हिलाना, अपने ऊपर से उतार फेंकना, हटाना आदि। इससे बने धूत शब्द में हटाया हुआ, भड़काया हुआ, फटकारा हुआ, तिरस्कृत, परित्यक्त, पापमुक्त जैसे भाव उजागर होते हैं। इस तरह देखें तो अवधूत का मतलब निकलता है वह सन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषयवासनाओं का त्याग कर दिया है। सभी प्रकार से मुक्त, धूत अर्थात परिष्कृत ।
वैष्णव एवं शैव अवधूत
अवधूत सन्यासी वैष्णव और शैव दोनों ही सम्प्रदायों में होते हैं। शैव अवधूत वे हैं जो कठोर साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। तपस्या धर्म के पालन में रत रहते हुए वे शरीर पर वस्त्र को भी बंधन मानते हुए उससे मुक्त रहते हैं। प्रतीक स्वरूप सिर्फ भस्म का आवरण शरीर पर धारण करते है। वाणी का तिरस्कार करते हैं अर्थात मौन रहते हैं। योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इसीलिए विचित्र अवधूत कहा जाता है। इसी तरह रामानन्दी वैष्णव साधुओं को भी अवधूत कहा जाता है। स्वामी रामानंद ने जब सामान्य जनो को वैष्णव बनाने का अभियान चलाया तो उन्होंने जातिभेद हटा दिया और जो दीक्षित हुए उन्हें अवधूत कहा । इससे उनका अभिप्राय यही था कि नवदीक्षितों ने अपने पुराने स्वरूप का त्याग कर दिया है ।
और बात दुत्कार की
बोलचाल की हिन्दी में आमतौर पर एक शब्द प्रचलित है दुत्कार । इसका क्रियारूप हुआ दुत्कारना। जब कभी किसी के साथ तिरस्कारपूर्ण शैली में बातचीत हो, या उसका बहिष्कार किया जाए अथवा उसे फटकारा जाए तो इन तमाम बातों को दुत्कारना के अर्थ में ही देखा जाता है। यह दुत्कार भी गौर करें धूत् में शामिल तिरस्कार के भाव से ही आ रही है।
आपकी चिट्ठी
सफर की पिछली कड़ियों छकड़े में समाई शक्ति और फिर तो बाल ठाकरे हुए बिहारी पर कई साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं। सर्वश्री संजय , दर्द हिन्दुसतानी, स्वप्नदर्शी , प्रभाकर पांडे, तरुण, आशा जोगलेकर ,आशीष महर्षि, नृपति, मीनाक्षी और मनीष जोशी ( जोशिम ) इन उत्साह बढ़ाने वाली चिट्ठियों के लिए आप सबका आभारी हूं।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 10 कमेंट्स पर 2:30 AM
Sunday, January 20, 2008
छकड़े में समाई शक्ति
शकट से बने छकड़े में चाहे मरियल, कमजोर, खटारा, जर्जर और जीर्ण जैसे भाव हों फिर भी उसमें शक्ति, बल , ताकत छुपी है। चूंकि शकट वाहन है इसलिए उसमें ढोने की क्षमता होना आवश्यक है। इसकी मूल धातु है शक् जिसमें सामर्थ्य अथवा क्षमता का भाव निहित है। सूक्ष्मता से देखें तो ये दोनों भाव शक्ति में भी शामिल हैं। इसकी वजह यही है कि शक्ति शब्द का जन्म भी शक् धातु से ही हुआ है। गौर करें कि हमारे यहां विजयादशमी को शक्तिपर्व भी कहा जाता है और उस दिन शक्तिपूजा होती है जिसके तहत सभी तरह के औजार, कलपुर्जे, मशीनें यहां तक की वाहन और पशुओं की भी पूजा होती है। ये सभी किसी न किसी रूप में सामर्थ्य, क्षमता और शक्ति के प्रतीक हैं । शक्ति सीधे सीधे समृद्धि से भी जुड़ती है। कार की शक्ति अगर इंजन है तो शकट अर्थात् बैलगाड़ी की शक्ति बैल हैं। हम सबने विजयादशमी पर सजे धजे तिलकधारी वाहन और बैल देखे ही हैं।
शक् में निहित योग्यता और सामर्थ्य जैसे भावों पर गौर करें तो समझ में आता है कि हिन्दी का सकना शब्द इसी शक् धातु की देन है। संस्कृत में इससे एक एक शब्द बना है शक्य जिसका अर्थ होता हैसम्भव, अमल में लाए जाने योग्य , कार्यान्वयन के लायक। शक्य का ही हिन्दी रूप हुआ सकना । मराठी में तो इसे जस का तस शक्य रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है। मसलन संभव नही कहना होगा तो मराठी में कहेंगे-शक्य नाहीं।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव अधोगति-दुर्गति गाथा पर कई साथियों की चिट्ठियां मिलीं। सर्वश्री पंकज अवधिया, संजय, दिनेशराय द्विवेदी, अभय तिवारी, नीलिमा, प्रत्यक्षा, घुघूति बासूती, मीनाक्षी, संजीत त्रिपाठी और आशीष महर्षि ने शब्दों के सफर को पसंद किया । आप सबका आभार।
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Saturday, January 19, 2008
फिर तो बाल ठाकरे हुए बिहारी....
मोहल्ला मे बिहारवाद और बिहारियों पर चल रही बहस में जबर्दस्ती शिरकत करते हुए मैनें दिल्ली किसकी, मुंबई किसकी, बिहार किसका लेख में बताया था कि प्राचीनकाल से अब तक विभिन्न समाजों का
विभिन्न स्थानों पर आप्रवासन बेहद सामान्य घटना रही है। मनुष्य ने सदैव ही रोज़गार की खातिर, आक्रमणों के कारण और अन्य सामाजिक धार्मिक कारणो से अपने सुखों का त्याग कर, नए सुखों की तलाश में आबाद स्थानों को छोड़कर नए ठिकाने तलाशे हैं। उनकी संतति बिना अतीत में गोता लगाए पुरखों की बसाई नई दुनिया को बपौती मान स्थान विशेष के प्रति मोहाविष्ट रही। क्षेत्रवाद ऐसे ही पनपता है। आज जो बाल ठाकरे बिहारियों -पुरबियों को मुंबई से धकेल देना चाहते हैं वे नहीं जानते कि किसी ज़माने में बौद्धधर्म की आंधी में चातुर्वर्ण्य संस्कृति के हामी हिन्दुओं के जत्थे मगध से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए थे। ऐसा तब देश भर में हुआ था। मगध से जो जन सैलाब दक्षिणापथ (महाराष्ट्र जैसा तो कोई क्षेत्र था ही नहीं तब ) की ओर गए और तब महाराष्ट्र या मराठी समाज सामने आया। इसे जानने के लिए यहां पढ़ें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े द्वारा एक सदी पहले किए गए महत्वपूर्ण शोध का एक अंश। उन्होंने तो महाराष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व करते हुए जो गंभीर शोध किए वे एक तरह से अपनी जड़ों की खोज जैसा ही था। उन्हें क्या पता था कि दशकों बाद उसी मगध से आनेवाले बंधुओं को शिवसेना के रणबांकुरे खदेड़ने के लिए कमर कस लेंगे। ।
राजवाड़े जी के लेख का अंश-
``...पाणिनी के युग में महाराज शब्द के दो अर्थ प्रचलित थे। एक , इन्द्र और दूसरा, सामान्य राजाओं से बड़ा राजा। पहले अर्थानुसार महाराजिक इन्द्र के भक्त हुए और दूसरे अर्थानुसार महाराज कहलाने वाले अथवा महाराज उपाधि धारण करने वाले भूपति के भक्त महाराजिक हुए । उक्त दोनों अर्थों को स्वीकार करने के बाद भी प्रश्न उठता है कि महाराजिक का महाराष्ट्रिक से क्या संबंध है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि राजा जिस भूमि पर राज्य करता है उसे राष्ट्र कहते हैं और जो राष्ट्र के प्रति भक्ति रखते हैं वे राष्ट्रिक कहलाते है। इस आधार पर महाराजा जिस भूमि पर महाराज्य करते थे वह महाराष्ट्र और जो महाराष्ट्र के भक्त थे वे महाराष्ट्रिक कहलाए । महाराजा जिनकी भक्ति का विषय थे उन्हें माहाराजिक तथा महाराजा का महाराष्ट्र जिनकी भक्ति का विषय था उन्हें महाराष्ट्रिक कहा जाता था। तात्पर्य यह कि महाराज व्यक्ति को लक्ष्य कर बना महाराजिक तथा महाराष्ट्र को लक्ष्य कर बना महाराष्ट्रिक। महाराष्ट्रिक शब्द वस्तुतः समानार्थी है।
उपनिवेशी महाराष्ट्रिक
यह निश्चय कर चुकने के बाद महाराजिक ही महाराष्ट्रिक थे, एक अन्य प्रश्न उपस्थित होता है कि जस समय दक्षिणारण्य में उपनिवेशन के विचार से महाराष्ट्रिक चल दिए थे उस समय उत्तरी भारत में महाराज उपाधिधारी कौन भूपति थे और महाराष्ट्र नामक देश कहां था। कहना न होगा कि वह देश मगध था। प्रद्योत , शैशुनाग , नन्द तता मौर्य-वंशीयों ने क्रमानुसार माहाराज्य किया था मगध में। माहाराज्य का क्या अर्थ है ? उस युग में सार्वभौम सत्ता को माहाराज्य कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अध्याय क्रमांक 38/39 में साम्राज्य, भोज्य , स्वाराज्य , वैराज्य, पारमेष्ठ्य, राज्य माहाराज्य , आधिपत्य , स्वाश्य , आतिष्ठ्य तथा एकराज्य आदि ग्यारह प्रकार के नृपति बतलाए गए हैं। मगध के नृपति एकच्छत्रीय या एकराट् थे अर्थात् राज्य, साम्राज्य,महाराज्य आदि दस प्रकार के सत्ताधिकारियों से श्रेष्ठ थे, अतः है कि वे महाराज थे। अपने को मगध देशाधिपति महाराज के भक्त कहने वाले महाराष्ट्रिकों ने जब दक्षिणारण्य में बस्ती की तो वे महाराष्ट्रिक कहलाए । ``
कहना न होगा कि उनका निवास ही महाराष्ट्र कहलाया। लेख काफी लंबा है। मगर हमारा अभिप्राय इससे भी पूरा हो रहा है। महाराष्ट्रीय होने के नाते मागधों अर्थात बिहारियों से यूं अपना रिश्ता जुड़ता देख मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।
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Friday, January 18, 2008
छकड़े की अधोगति-दुर्गति गाथा....
शब्दों के रूप वक्त के साथ कितनी तेजी से बदलते हैं , भाषा में इसकी ढेरों मिसालें मिलती हैं। ऐसा ही एक शब्द है छकड़ा। आज आमतौर पर खस्ता , खटारा गाड़ी के लिए ही छकड़ा शब्द का प्रयोग होता है। अगर आप ने किसी से सलाह मशवरा किए बिना कोई चार पहिया वाहन खरीद लिया तो मुमकिन है आपको सुनने को मिल सकता है कि अरे, ये छकड़ा कहां से उठा लाए।
प्यारी सी मिट्टी की गाड़ी भी
छकड़ा मूलतः बना है संस्कृत की धातु शक् से जिसका अर्थ है समर्थ होना , बर्दाश्त करना , योग्य होना आदि। ये छकड़ा किसी ज़माने में इतनी हीन अवस्था में नहीं था और शकटः के रूप में संस्कृत में वाहन के अर्थ में सम्मान के साथ प्रयुक्त होता था।इस अर्थ में शकटः के मायने यान से सहज ही जुड़ते हैं। शकट यानी गाड़ी, वाहन अथवा यान जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाए। शकट का एक अन्य अर्थ सचमुच भारवाही यान भी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि प्राचीनकाल में सभी तरह के वाहन ज्यादातर पशुओं को जोत कर ही चलाए जाते थे इसलिए शकट ने जब हिन्दी के छकड़े का रूप लिया तो इसके मूल में भी बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी का ही भाव था। छोटी गाड़ी के लिए शकटिका शब्द बना। छकड़ा की ही तरह इसके लिए सगड़ा शब्द भी चलता था। ज्यादा नज़ाकत और आकार के चलते छकड़ी जैसे शब्द भी चल पड़े। गौरतलब है कि शकट का निकटतम रूप सगड है और फिर छकड़ा। प्रसंगवश यह भी जान लें कि शूद्रक के विश्वप्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम् अर्थात मिट्टी की गाड़ी या खिलौना गाड़ी में भी यही शकट शामिल है। मिट्टी के संस्कृत पर्याय मृद् के साथ शकट की संधि से बना मृच्छकटिकम्। इस पर शशिकपूर ने बेहद खूबसूरत फिल्म भी उत्सव नाम से बनाई थी।
छकड़ा कहलाएगी टाटा नैनो ?
मोटर कारों का दौर आया तब से इस शब्द की बेक़द्री शुरू हो गई। फर्राटे भरती , चमकीली कारों के आगे चूँ-चर्र की आवाज़ के साथ चलती बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी की कल्पना करें जिसकी खुद की चूलें चलते समय हिलती हैं और सवारी की चूलें भी । जाहिर सी बात है कि इन्हीं सब लक्षणों के आधार पर उसके बाद से ही किसी भी जर्जर, शिथिल, ढीले ढाले, मरियल सी अवस्था वाले वाहन के लिए छकड़ा शब्द आम हो गया। कोई ताज्जुब नहीं कि टाटा नैनो को भी उसके आकार के चलते छकड़ा नाम मिल जाए।
प्राचीनकाल में शकटः का मतलब एक विशेष सैनिक व्यूह रचना भी होती थी। एक समूची गाड़ी भर वज़न की माप को भी उस काल में शकटः कहा जाता था।
आपकी चिट्ठी-
सफर के पिछले दो पड़ावों प्रत्यंचा से छूटे तीर सा हो लक्ष्यवेध और लुधियाने की लड़की पर क्रमशः दिनेश राय द्विवेदी, दर्द हिन्दुस्तानी , संजय , प्रत्यक्षा आशीष महर्षी और मीनाक्षी जी की टिप्पणियां मिलीं। सफर में साथ निभाने के लिए आप सबका शुक्रिया।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 14 कमेंट्स पर 2:50 AM
Thursday, January 17, 2008
लुधियाने की लड़की
इस कविता को किसी भूमिका की दरकार नहीं है । फ़क़त इतना ही बताना चाहूंगा कि ये मेरी उस थाती का हिस्सा है जिसे मैने बड़े जतन से संजोया है और ये सिलसिला जारी है। इसे सुरक्षित रखने की खातिर मैं अपनों से भी बुरी तरह झगड़ने लगता हूं। जगतार पपीहा साहब की यह रचना ज्ञानोदय के अक्तूबर 1961 के अंक से ली गई है यानी मेरे जन्म से भी पहले की है। काफी जर्जर अवस्था में है यह अंक। इस कविता को पढ़ें और देखें कि इसमें क्या आपको आज की दिल्ली नज़र आती है ? लुधियाने की लड़की की चिंताएं अपनी जगह वाजिब हैं मगर मुझे ये सोचकर बड़ा
अच्छा लग रहा है कि देर रात आने वाले पति के साथ उसके दोस्त के बारे में सिर्फ दिमाग मे कूड़े वाली चिंता ही लड़की को परीशां कर रही है कोई और नहीं। सच कह रहा हूं न.....?
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
अकेली इंडिया गेट तक घूमने कैसे जाए
अकेली बाजार से साग -सब्जियां कैसे लाए
अकेली सारा दिन कैसे रहे एक कमरे में बंद
अकेली कैसे ढोलक पर गीत गाए
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
शौहर दस बजे रात को दफ्तर से आता है
अक्सर ही साथ में दोस्त कोई लाता है
करता रहता है मोटी किताबों की भारी भारी बातें
इतना कूड़ा दिमाग में कैसे समाता है
लुधियाने की लड़की बहुत परी शान है
इतनी तेज़ी में कहां भागते हैं सड़को पर इतने लोग
जीवन में मिलता नहीं, कहीं रुकने का संयोग
टैक्सी के नीचे एक बूढ़ी औरत दब जाती है
मौत ही दवा है, इतना कठिन है शहर का रोग
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
आओ, आज घर में ही बैठो, कुछ बात करें
टप्पे गा-गाकर आंगन में फूलों की बरसात करें
लोग पागल कहेंगे, कहे, अपना क्या बिगड़ता है
गीतों की शादी रचाएं, प्यार की बारात करें
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
-जगतार पपीहा
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Wednesday, January 16, 2008
प्रत्यंचा से छूटे तीर सा हो लक्ष्यवेध [जश्न-4]
यज्ञ अर्थात् अग्निपूजा संस्कार से उद्भूत यज्ञोपवीत और उपनयन संस्कारों के बारे में सफर की पिछली कड़ियों में चर्चा हुई । इस कड़ी में जानते हैं इसी संस्कार के एक अन्य नाम मुंज और नवजोत के बारे में ।हिन्दू संस्कारों में उपनयन, मुंज या यज्ञोपवीत विद्यारंभ संस्कार से जुड़ा है। इसके तहत पुराने ज़माने से ही बटुक को गायत्री उपदेश दिया जाता है। मराठीभाषी समाज में उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार इन नामों से भी जाना जाता है मगर इसका सर्वाधिक प्रचलित नाम है मुंज । मुंज यानी एक खास तरह की घास की करधनी जिसे मेखला की तरह बटुक की कमर में बांधा जाता है। मुंज बना है संस्कृत के मौंज से जिससे ही हिन्दी में बना मूंज शब्द जिससे रस्सी बुनी जाती है। जनेऊ, उपनयन या यज्ञोपवीत के वक्त इसे पहनना सबके लिए अनिवार्य कहा गया है चाहे वह ब्राह्मण हो या वैश्य। मुंज के अलावा मूर्वा नामक एक वृक्षलता का भी उल्लेख है जिससे मेखला बनाई जाती थी । गौरतलब है इस लता का सर्वाधिक व्यावहारिक उपयोग प्राचीनकाल में धनुष की प्रत्यंचा बनाने में किया जाता था। धनुष की प्रत्यंचा से से तान कर छोड़ा गया तीर जिस तरह सीधे लक्ष्य के वेधता है वैसे ही गुरू की दीक्षा रूपी कमान से निकल कर शिष्य भी जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ही लेता है। शायद यही प्रतीक रहा होगा मूंज या मुर्वा की मेखला या करधनी बनाने के पीछे।
दिलचस्प बात यह कि अग्निपूजा से जुड़े इस प्रमुख संस्कार का संबंध प्राचीन ईरानियों अर्थात् जोरास्ट्रियन (जरथुस्त्रवादियो) से भी है। उनके यहां भी ऐसी ही क्रिया होती थी जिसे अब
नवजोत कहा जाता है। नवजोत पारसियों अथवा जरथुस्त्रवादियों की एक परम पवित्र रस्म होती है जिसे अग्नि की उपस्थिति में किया जाता है। दरअसल यह जनेऊ क्रिया ही है। इस रस्म के बिना पारसी कुल में जन्मा कोई भी व्यक्ति पारसी नहीं कहला सकता । नवजोत का मतलब भी यही है नव यानी नया और जोत यानी पूजा , भक्ति । इस तरह नवजोत का अर्थ हुआ नया भक्त । अर्थात पंथ का नया सेवक । इसके बिना पारसी धर्म में प्रवेश नहीं माना जाता। इसके अंतर्गत सदरः नाम का एक विशेष अंग वस्त्रम और कश्ती नाम का एक धागा जो जनेऊ जैसा ही होता है , आजीवन धारण करना अनिवार्य होता है । ब्राह्मणों में भी जब तक बच्चे का जनेऊ नहीं हो जाता उसे ब्राह्मण नहीं समझा जाता है। भारतीय पारसियों के अलावा नवजोत रस्म नौजूद के नाम से आज भी ईरानी जरथुस्त्रवादियों में प्रचलित है। नौजूद और नवजोत की समानता गौरतलब है। इनका मूल अवेस्ता ही है जो संस्कृत की बहन है।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव गुरू के पास जाना ही उपनयन पर कई साथियों की चिट्ठियां मिलीं। इनमें सर्वश्री संजय, दर्द हिन्दुस्तानी, संजीव तिवारी , मीनाक्षी , इष्टदेव सांकृत्यायन, नारायणप्रसाद, जाकिर अली रजनीश, दिनेशराय द्विवेदी और संजीत त्रिपाठी हैं। आपका आभार। नारायणप्रसाद जी ने इस पोस्ट में जा रही एक चूक की तरफ ध्यान दिलाया । उनका आभारी हूं। और सावधानी बरतने का प्रयास करूंगा। भूल सुधार ली गई है। दर्द हिन्दुस्तानी जी भी सफर के हमराही बन गए हैं। उनका स्वागत है और उन्हें सफर से जोड़े रखने का प्रयास रहेगा। जाकिर अली रजनीश का भी स्वागत है।
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Sunday, January 13, 2008
गुरू के पास जाना ही उपनयन [जश्न-3]
जनेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार के लिए ही एक अन्य प्रचलित शब्द है उपनयन संस्कार । वास्तव में यह हिन्दुओं के सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। उपनयन का अर्थ है ले जाना, निकट लाना, खोजना, काम पर लगाना वगैरह ।
उपनयन बना है नी धातु में उप् उपसर्ग के प्रयोग से। इस तरह जो शब्द बना वह था उपनयः जिसका मतलब हुआ उपलब्धि, खोज ,काम पर लगाना, वेदाध्यन करना, दीक्षा देना आदि। यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं जिनमे ले जाना अथवा नेतृत्व के भाव शामिल हैं।
गौर करें कि उपनयन के संदर्भ में जो बार बार ले जाना , जाना, काम पर लगाना जैसे भाव सामने आ रहे हैं तो उसका वास्तविक अभिप्राय क्या है। धर्मग्रंथों मे इस शब्द का संदर्भ मूलतः विद्यारंभ से जोड़ा गया है। डॉ पाण्डुरंग वामन काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के मुताबिक इसे दो प्रकार से समझाया जा सकता है। (1) बच्चे को आचार्य के सन्निकट ले जाना (2) वह संस्कार या कृत्य जिसके जरिये बच्चा आचार्य के पास ले जाया जाए। इस संदर्भ में गौरतलब है कि पहला अर्थ आरंभिक अवस्था का है मगर जब इसे विस्तारपूर्वक किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ ही प्रमुख हो गया इस संस्कार के बाद ही बालक या बटुक द्विज अर्थात जिसका दो बार जन्म हुआ हो, कहलाता है। । प्राचीनकाल में इसके पीछे भाव यह था कि बच्चे का भौतिक जन्म तो उसके माता-पिता से होता है परंतु सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं और नैतिक बल उसे विद्याध्यन से मिलता है जो गुरुकुल में आचार्य प्रदान करते हैं। अतः यह माना गया कि बच्चे को दूसरा जन्म उसके गुरू प्रदान करते हैं। इसलिए द्विज शब्द चलन में आया। उपनयन के लिए आदर्श उम्र पांच वर्ष व अधिकतम आयु पच्चीस वर्ष निर्धारित है।
यह संस्कार अब भी समाज में प्रमुखता से होता है मगर अब इसका संबंध विद्यारंभ से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाता। यह सिर्फ एक पारिवारिक , धार्मिक संस्कार भर रह गया है जो उत्सव यानि जश्न का निमित्त बनता है।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव जनेऊ में जश्न का आनंद उल्लास( जश्न-2) पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, संजय, मीनाक्षी, दिलीप मंडल, और संजीव (छत्तीसगढ़िया) की चिट्ठियां मिलीं। शुभकामनाओं के लिए आप सबका एक बार फिर आभार।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 10 कमेंट्स पर 11:25 PM
जनेऊ में जश्न का आनंद-उल्लास [जश्न -2]
जनेऊ एक संस्कार है जो हिन्दुओं में होता है। आमतौर पर माना जाता रहा है कि सिर्फ ब्राह्मण ही जनेऊ के अधिकारी हैं। धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि वर्णव्यवस्था के तहत प्रथम तीन वर्ण जनेऊ धारण कर सकते हैं । आर्यसमाज ने इसके खिलाफ आंदोलन चलायाथा। उनका मानना था कि चारों वर्ण इस संस्कार के अधिकारी हैं।
जनेऊ शब्द बना है यज्ञोपवीत से। एक मान्यता के मुताबिक इस शब्द के मायने हुए यज्ञ के दौरान शरीर पर धारण किया हुआ वस्त्र। यह वस्त्र मृगचर्म अथवा कपास का हो सकता था। माना जाना चाहिए कि यज्ञ की अग्नि के ताप से बचने के लिए यह व्यवस्था रही होगी मगर बाद में इस वस्त्र का रिश्ता यज्ञ करने के अधिकार और रुतबे से जुड़ गया।
यज्ञोपवीत की व्युत्पत्ति को अगर देखें तो इसके उपरोक्त भाव में आंशिक फर्क नज़र आता है। यह बना है यज्ञ + उपवीत से। इसका प्राकृत रूप हुआ जण्मोवअं जिसने हिन्दी मे जनेऊ रूप धारण किया। संस्कृत के उपवीत का शब्दार्थ है उपनयन संस्कार जो हिन्दुओं के प्रथम तीन वर्णों के लिए मान्य है। यह शब्द बना है वे धातु से जिसमें बुनना, गूंथना, बनाना जैसे भाव शामिल है। जाहिर है कि ये सीधे-सीधे वस्त्र से न जुड़ते हुए सूत्र यानी धागे से ज्यादा जुड़ते हैं और जनेऊ इसे ही कहते हैं। हिन्दू धर्मकोष के मुताबिक ब्राह्मण के लिए कपास, क्षत्रिय के लिए अलसी और वैश्य के लिए ऊन का जनेऊ होना चाहिए।
यज्ञ के अर्थ में देखें तो प्रायः हिन्दुओं के सभी धार्मिक संस्कारों में अग्निपूजा जुड़ी हुई है जिसमें हवन अनिवार्य है। इस रूप में गौर करें की यज्ञोपवीत जब अपने प्राचीन रूप से आगे बढ़कर द्विजों के प्रमुख उपनयन संस्कार का पर्याय बन गया तो इसकी महत्ता लगातार बढ़ती चली गई। कालांतर में अन्य वर्णों में भी यह होने लगा। मूलतः जनेऊ भी सामूहिक उपस्थिति वाला प्रमुख हिन्दू संस्कार बन गया । आज के दौर में चाहे जनेऊ पहनना कोई पसंद न करे मगर इसके जरिये होने वाले उत्सवी आनंद यानी जश्न से कोई वंचित नहीं रहना चाहता इसलिए ज्यादातर हिन्दू परिवारों मे विवाह योग्य पुरुषों का इस रस्म से गुज़रना अनिवार्य माना जाता है। ब्राह्मणों में तो खासतौर पर ।
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव यजमान तो डूबा है जश्न में ( जश्न-1) पर कई सहयात्रियों ने चिट्ठी लिखी। सर्वप्रथम दिनेशराय द्विवेदी, संजय , ममता, पल्लव, जोशिम, मीनाक्षी, संजीत और मनीष। आप सबने हमारी यजमानी भी देख ली । जश्न में हम डूबे रहे और आपको शुक्रिया तक न कह सके। क्षमा चाहते हैं। कुछ विवादी सुरों से विचलित होते लग रहे थे खुद को। मगर आप सब का ख्याल आया और फिर जुट गए।
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Friday, January 11, 2008
शुक्रिया ब्लागजगत का और सफर के हमराहियों का...
ये संयोग ही था कि गुरूवार को सफर का पड़ाव था यजमान तो डूबा है जश्न में .....[जश्न-1] और इस पड़ाव पर ही हमारा जन्मदिन भी आने वाला है ये खयाल नहीं था। ब्लाग पर , फोन पर साथियों की मुबारकबाद ने दिन को खुशनुमा बनाए रखा । मगर देर शाम करीब आठ बजे मैथिलीजी की मेल में सृजन-सम्मान वाली सूचना मिली जिसने सचमुच मन मे जश्न वाला भाव पैदा कर दिया।
मैं छत्तीसगढ़ की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान का आभारी हूं कि उन्होने हिन्दी ब्लागिंग को एक घटना के रूप में देखा और उसे सम्मान-मान्यता दिलाने के लिए प्रतीक स्वरूप हर वर्ष कुछ नाम तय करने का काम शुरू किया है। संयोग से इस वर्ष मेरा नाम भी इसमें है। इसके लिए सृजन-सम्मान के नियामकों, निर्णायकों और सबसे ऊपर समूचे ब्लाग जगत का मैं आभारी हूं जिसने बमुश्किल छह महिने पहले शुरू हुए शब्दों के सफर की जबर्दस्त हौसला अफज़ाई की। निर्णायक श्री रविरतलामी जी ने एकदम सही कहा है कि-
हर चिट्ठाकार और उसका हर चिट्ठा महत्वपूर्ण है।वो हर मामले में परिपूर्ण होता है। कोई भी पुरस्कार या प्रशस्ति उसकी परिपूर्णता में बालबराबर भी इजाफ़ा नहीं कर सकती।
बालेंदुजी और रविजी ने चयनित तीनों ब्लागों का जिस आत्मीयता से परिचय दिया है उससे भी मैं अभिभूत हूं। मुझसे कोई बातचीत , पूर्वपरिचय हुए बिना जिस तरह से इन्होंने शब्दो के सफर के बारे में बातें कहीं हैं, वो सब जैसे मेरे ही मन की बातें हैं। संयोजक जयप्रकाश मानस को इस आयोजन के लिए बधाई।
वाद-विवाद होते रहेंगे। ये ज़रूरी भी है चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने के लिए। मगर सृजन-सम्मान के उद्धेश्य में कोई खोट ढूंढना या निर्णायकों के परिश्रम में शॉर्टकट तलाशना बहुत ग़लत बात होगी।
शब्दों का सफर शुरू करने से पहले मैने नहीं सोचा था कि लोगों को इतना पसंद आएगा अलबत्ता इतना ज़रूर पता था कि यह लंबा चलेगा क्यों कि अपने काम के आकार का मुझे अंदाजा अब पहले से था।
सफर के एकदम शुरुआती दौर में मेरे साथियों अनूप शुक्ला , अभय तिवारी अनामदास, अविनाश, संजीत , हरिराम , शास्त्री जेसी फिलिप,और उड़नतश्तरी ने ( कुछ नाम छूट भी गए हों तो क्षमा करेंगे ) मेरी जबर्दस्त हौसलाअफ़जाई की जिसकी वज़ह से हर हफ्ते एक पोस्ट लिखने का मंसूबा बांधकर ब्लागिंग करने निकला यह यायावर बीते छह महिनों से क़रीब करीब रोज़ ही एक पोस्ट लिखने की हिम्मत जुटा सका है। आगे ये क्रम कब तक जारी रहेगा , कह नहीं सकता , मगर सफर तो चलता रहेगा। अनूप जी और ममता जी को भी मेरी ओर से हार्दिक बधाइया।
एक बार फिर आप सबका शुक्रिया.....
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 29 कमेंट्स पर 1:38 AM
Thursday, January 10, 2008
यजमान तो डूबा है जश्न में .....[जश्न-1]
एक ही मूल से उत्पन्न होते हुए भी कई बार दो शब्दों का अर्थ ठीक उसी तरह अलग अलग होता है जैसे दो जुड़वां इन्सानों का रूप रंग एक होते हुए भी स्वभाव एकदम अलग हो। हिन्दी उर्दूमें एक शब्द है जश्न या जशन। इसका अर्थ है उत्सव, समारोह या जलसा। अपने मूल रूपप में तो यह शब्द फारसी का है। पुरानी फारसी यानी अवेस्ता में यह यश्न रूप में मौजूद है। संस्कृत का यज्ञ ही फारसी का यश्न है। दरअसल भारतीय आर्यो और ईरानियों का उद्गम आर्यों के एक ही कुटुम्ब से हुआ जिसकी बाद में दो शाखाएं हो गई। गौरतलब है कि प्राचीन ईरानी या फारसवासी अग्निपूजक थे। पारसी आज भी अग्निपूजा करते है । पारसी शब्द भी अग्निपूजकों के एक समूह के फारस से पलायन कर भारत आ जाने के कारण चलन में आया। । यज्ञ की परंपरा भारतीय और ईरानी दोनों ही दोनों ही आर्य शाखाओं में थी। फारसी और हिन्दी भी एक ही भाषा परिवार से संबंधित हैं। फारसी का प्राचीन रूप अवेस्ता में जिसे यश्न कहा गया है और हिन्दी के प्राचीन रूप संस्कृत में जो यज्ञ के रूप में विद्यमान है। उत्तर पश्चिमी भारत में कई लोग इसे यजन भी कहते हैं। यह माना जा सकता है कि इरान में इस्लाम के आगमन के बाद यज्ञ ने अपने असली मायने खो दिए और यह केवल जलसे और उत्सव के अर्थ में प्रचलित हो गया । जबकि भारत में न सिर्फ यज्ञ की पवित्रता बरकरार रही बल्कि यज्ञ न करने वालों के लिए एक मौका जश्न का भी आ गया।
यज्ञ करे सो यजमान
संस्कृत और फारसी के यज्ञ/यश्न शब्द की मूल धातु है यज् जिसका मतलब होता है अनुष्ठान, पूजा अथवा आहुति देना। ये सभी शब्द कहीं न कहीं समूह की उपस्थिति, उत्सव-परंपरा के पालन अथवा सामूहिक कर्म का बोध भी कराते हैं । जाहिर है ये सारे भाव जश्न में शामिल हैं जो अंततः यज्ञ के फारसी अर्थ में रूढ़ हो गए। इससे ही बन गया यजमानः जिसके हिन्दी में जजमान, जिजमान, जजमानी वगैरह जैसे कई रूप प्रचलित हैं। यजमान के सही मायने हैं जो नियमित यज्ञ करे। वह व्यक्ति जो यज्ञ के निमित्त पुरोहितों को चुनता है और व्यव वहन करता है। दानकर्म आदि करता है। इसी तरह यज्ञकर्मी ब्राह्मण के शिष्य को भी यजमान कहा जाता है। समाज के धनी, कुलीन, आतिथेयी अथवा प्रमुख पुरूष को भी यजमान कहने का चलन उत्तर भारत में रहा है।चार वेदों में प्रमुख यजुर्वेद को यह नाम भी यज् धातु के चलते ही मिला है क्यों कि ज्ञान का यह भंडार यज्ञ संबंधी पवित्र पाठों का संग्रह है। इसकी दो प्रमुख शाखाएं है कृष्णयजुर्वेद और शुक्लयजुर्वेद ।
आपकी चिट्ठी
सफर की पिछली पोस्ट इक बंगला बने न्यारा .... पर जिन हमराहियों की चिट्ठियां मिलीं उनमें हैं सृजनशिल्पी, प्रत्यक्षा, मीनाक्षी, राजेश रोशन और संजीत। आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया। प्रत्यक्षा और मीनाक्षी जी , आप दोनों को मेरी बहुत बहुत शुभकामनाएं कि जल्दी ही अपने अपने मनभावन बंगले में जाएं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Wednesday, January 9, 2008
इक बंगला बने न्यारा ... एक पुरानी पोस्ट [संशोधित]
औसत हिन्दुस्तानी के दिल में एक सुंदर-सलोने घर की फैंटेसी को जिंदा कर देने
वाले कुंदनलाल सहगल के इस मशहूर गीत में बंगला शब्द की जगह अगर कोई दूसरा शब्द होता तो मुमकिन है न तो इस नगमे को न इतनी शोहरत हासिल होती और न ही हिन्दी को रूमानियत और रोबदाब से भरपूर बंगला जैसा लफ्ज मिलता। आखिर ये बंगला या बंगलो आया कहां से? ये हिंदी लफ्ज है या अंग्रेजी का? अंग्रेजी और हिन्दी में मिलते-जुलते उच्चारण वाला ये शब्द मूलत:अंग्रेजी का है मगर जन्मा भारत में ही है और बंगाल से इसका गहरा रिश्ता है। बंगले के पीछे जो शख्स खड़ा नजर आता है वह है जाब चार्नक । गौरतलब है कि सन 1615 में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथमने मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में सर टामस रो को राजदूत बना कर भेजा जो तीन साल यहां रहा मगर भारत से कारोबारी रिश्ते बनाने की काबिलियत न दिखा सका। इससे पहले तक अंग्रेजों को देश के दक्षिण-पश्चिमी तट के रजवाडे़ ही व्यापार की सीमित अनुमति देते रहे। टामस रो, जहांगीर को चाहे प्रभावित न कर पाया हो मगर उसके बेटे शहजादा खुर्रम (शाहजहां) से सूरत औरत भरुच का कारोबारी फरमान लेने में सफल रहा । खुर्रम उन दिनों गुजरात का सूबेदार था। इसके बाद अंग्रेजों ने पूर्वी तट पर अपनी निगाहें जमाई जहां उनसे काफी पहले ही डच लोगों ने अपनी धाक जमा रखी थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी यहां भी कामयाब रही और 1651 तक हुगली, मुर्शिदाबाद , ढाका और कासिम बाजार तक उसकी व्यापारिक कोठियां खड़ी हो गई। करीब साढ़े तीन सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की इसी कासिम बाजार कोठी का फर्स्ट आफिसर था जाब चार्नक जो बाद में कंपनी एजेंट बना। इसी आदमी ने 1690 के आसपास सूतानटी नामक जगह पर कोलकाता की नींव डाली और कंपनी के अफसरों-कारिंदों के लिए खास शैली के मकान बनवाए। जैसे-जैसे बंगाल में कंपनी बहादुर का कामकाज जमता गया वैसे-वैसे कंपनी के आला मुलाजिमों के लिए भी मकान बनने लगे। इन एकमंजिला मकानो के आगे लंबा लान, घर के अंदर खुली जगह, वरांडा और दूसरे मकानों से सटा हुआ न होना इन्हें विशिष्ट बनाता था । देश के बाकी इलाकों मे जैसे-जैसे अंग्रेज पहुचते गए इन मकानों के लिए बंगाल स्टाइल हाउसेज़ जैसा शब्द चल पड़ा जिसे बाद में बंगलो कहा जाने लगा। इसी से बना बंगला शब्द आज तक उसी शान से हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियाभर की भाषाओं में मौजूद है।
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Tuesday, January 8, 2008
साधुवाद-साधुवाद समीर जी.....
हिन्दुस्तानी उड़नतश्तरी जो बीते करीब नौ बरसों से कनाडा में पाई जाती थी और वहीं से शुभ संकेत ब्लागजगत पर भेज रही थी , अब लगातार हिन्दुस्तान में भी नज़र आती रहेगी। हाज़रीन समझ ही गए होंगे की हम समीर लाल की बात कर रहे हैं। उड़नतश्तरी का डेरा सोमवार को भोपाल में था।
समीर भाई रविवार को सीहोर आए थे। पंकज सुबीर जी ने वहां काव्य सन्ध्या का आयोजन किया और समीर जी ने इस मंगल अवसर को ऐसे थाम लिया जैसे स्पीलबर्ग की फिल्मों के एलियन अक्सर थामा करते हैं। भोपाल से सीहोर करीब चालीस किमी है और हमने भी वहां जाने का मंसूबा बांधा था, मगर तय नही किया था पर सुबीर भाई ने इस समाचार को बेसब्र रिपोर्टर वाले अंदाज़ में प्रसारित कर दिया। रविवार शाम सुबीर जी का फोन आया और उन्होने समीर जी से बात कराई । तय हुआ कि चूंकि समीर भाई को भोपाल होते हुए ही जबलपुर लौटना है इसलिए सोमवार को झीलों की नगरी में ही मुलाकात ठहरी। समीर जी ने फोन पर ही बता दिया कि वे अलसुबह ही हमें फोन कर देंगे। अब हम लगातार इंतजार करते रहे कि फोन आएगा , मगर नहीं आया। हारकर हमने ही जब फोन लगाया तो पता चला की सुबीर जी ने काव्यसंन्ध्या के बाद इस क़दर दाल बाफले खिलाए कि श्रीमानजी की नींद बारह बजे खुली।
खैर, समीर जी से उनके मुकाम मोटेल शीराज़ में मुख्तसर सी मुलाकात हुई। बड़े भले से और समृद्ध सेहत के प्राणी है समीर जी। कनाडा में नौ बरसों से है। उनसे जब पूछा कि आपका वर्तमान भूगोल कनाडा की देन है ? एक अच्छे भारतीय की तरह उन्होंने इसका आधा श्रेय अपनी जन्मभूमि को भी दिया। समीरजी अपने उड़नतश्तरी रूप में इस क़दर लोकप्रिय हैं कि सीहोर जैसी छोटे कस्बे में भी लोग उन्हें जानते है। कालेज की एक लड़की ने उन्हें बताया कि उन्होने आज तक उड़नतश्तरी नहीं देखी थी, मगर अब वो अपने घर और कालेज में सबको ज़रूर बताएगी कि उसने उड़नतश्तरी न सिर्फ देखी है बल्कि उसकी कविताएं भी सुनी हैं। समीर जी, ईर्ष्या हो रही है आपसे ।
समीरजी से बातचीत में कुछ ब्लागिंग से जुड़ी कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई हमने जब पूछा कि ब्लागजगत में वे साधुवाद के जनक है मगर अब यह साधुवाद संस्कृति जबर्दस्त विवाद में आ गई है तो वे मुस्करा कर रह गए। अलबत्ता उन्होने इतना ज़रूर कहा कि वे ब्लागजगत में विवाद पसंद नहीं करते । उन्होंने बताया कि एक बार किसी पोस्ट पर विवाद होने की शुरूआत के चंद लम्हों के भीतर ही उन्होने वह पोस्ट हटा ली थी। उनका ऐसा ही रुख साधुवादी उपकरण के प्रति भी रहेगा या नहीं , इस पर बात नहीं हो पाई। अब वे मुंबई आ रहे हैं।
समीर जी ने एक अच्छा संकेत यह दिया कि वे भारत में बने रहने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं और फिलहाल मार्च तक इधर ही डेरा है। उनके दोनो युवा पुत्र बहुत अच्छे तरीके से अमेरिका , कनाडा में सैटल हो गए हैं। अब समीर भाई को ससुर बनने की जल्दी है सो साथियों , तैयार हो जाइये एक बेहतरीन न्योते के लिए । छह महिने से साल भर के भीतर बैंडबाजे बज सकते हैं समीर जी के धाम जबलपुर में। समीर जी से बातें करते हुए वक्त तेजी से बीता और हमारे दफ्तर जाने का वक्त आ गया। चलने से पहले उन्होने हमारे साथ एक तस्वीर ली जो उनक साथ आए एक मित्र ने खींची। हमारे पास सिर्फ मोबाइल था सो यह तस्वीर जो यहां छापी जा रही है हमने एक हाथ समीर जी के कंधे पर रख, दूसरे से झट खींच ली। कुछ इफैक्ट्स वगैरह डाल कर इसे छापने लायक बना लिया है।
समीर भाई, आपसे मिलकर अच्छा लगा। कुछ बातें सार्वजनिक कर दी हैं, बुरा न मानियेगा। आप जिस आत्मीयता, स्नेह से मिले उसके लिए साधुवाद-साधुवाद...सम्पर्क-संवाद होता रहेगा।
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Sunday, January 6, 2008
घास चरने से ही कुशाग्र बुद्धि
किसी कार्य को बहुत ही चतुराई और उत्तम प्रणाली से करने के लिए हिन्दी में आम प्रचलित शब्द है कुशल। खैरियत , मंगल और प्रसन्नता के अर्थ में भी कुशल शब्द का प्रयोग होता है। कुशल-क्षेम , कुशल-मंगल से यह साफ जाहिर है। यह बना है संस्कृत के कुशः से । हिन्दी में यह भी काफी आम है और इससे बने शब्द खूब प्रचलित हैं। संस्कृत के कुशः का मतलब होता है एक प्रकार की वनस्पति, तृण, पत्ती,घास जो पवित्र-मांगलिक कर्मों की आवश्यक सामग्री मानी जाती है। प्रायः सभी हिन्दू मांगलिक संस्कारों में इस दूब या कुशा का प्रयोग पुरोहितों द्वारा किया ही जाता है।
तेज, नुकीला
कुशः से ही बना है कुशाग्र। हिन्दी के इस शब्द का मतलब होता है अत्यधिक बुद्धिमान, अक्लमंद। चतुर आदि। गौर करें कुशः के घास या दूब वाले अर्थ पर । यह घास अत्यंत पतली होती है जो अपने किनारों पर बेहद पैनी हो जाती है। चूंकि इसका आगे का हिस्सा नोकीला होता है इसलिए इस हिस्से को कुशाग्र कहा गया अर्थात कुश का अगला हिस्सा ( जो नोकीला है )। जाहिर सी बात है कि कालांतर में बुद्धिमान व्यक्ति की तीक्ष्णता आंकने के लिए कुशाग्र बुद्धि शब्द चल पड़ा। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में जो लिखा वो एक प्रसिद्ध उक्ति बन गई- पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे अचरहिं ते नर न घनेरे
दूब-दर्भ-दुर्वा
कुशः या कुश का एक अन्य नाम है दुर्वा या दूब। मांगलिक कार्यों के लिए इसके उपयोग से सभी परिचित हैं और इसीलिए कुश की तुलना में दूब नाम ज्यादा प्रचलित है। आयुर्वेद में दूब को महौषधि भी कहा गया है क्योंकि रोजमर्रा की आम व्याधियों में इसके जरिये किए उपचार को रामबाण माना गया है। पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख दूर्वा, अनंता, गौरी , भार्गवी और शतपर्वा जैसे नामों से भी है। यह बना है दर्भः से । संस्कृत में इसका अर्थ है एक प्रकार की घास जो यज्ञानुष्ठानों में काम आती है। दर्भः ने ही हिन्दी में दूब का रूप लिया । मराठी में इसे दुर्वा कहते है। यह वही घास है जो प्रायः भारत के मैदानों में उगती है और जिस पर जमी ओस पर चलना नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए काफी फायदेमंद माना जाता है। जाहिर है कि नेत्र ज्योति बढ़ने से दुनियादारी की समझ तो ज्यदा ही होगी सो अक्ल के घास चरने वाले मुहावरे में ज्यादा अर्थ नज़र नही आता क्योंकि घास चरने से नही, मगर घास पर चलने से तो अक्ल तेज़ हो ही रही है न...।
कुश पर कुछ और जानते हैं अगले पड़ाव में ...
आपकी चिट्ठी
सफर के पिछले पड़ाव दोपहर की पहरेदारी और प्रहार पर कई साथियों से मिलना हुआ। कुछ ने पास आकर दस्तक दी। इनमें हैं सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, अफलातून, संजय, मीनाक्षी, राजेश रोशन , सिद्धेश्वर और ममता। आप सबका आभार। अफलातून जी की चिट्ठी पर साभार मैं संबंधित पोस्ट पर भी दे चुका हूं।
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दोपहर की पहरेदारी और प्रहार
हिन्दी शब्द प्रहार का अर्थ होता है आघात करना,चोट पहुंचाना,वार करना, घायल करना आदि जबकि पहरेदार का मतलब होता है निगरानी करने वाला,रक्षा करने वाला आदि। एक अन्य शब्द है पहर जिसका मतलब होता है तीन घंटे की अवधि। मोटे तौर पर इन तीनों ही शब्दों में इसके अलावा कोई समानता नज़र नहीं आती कि इनमें प वर्ण समान रूप से विद्यमान हैं। मगर इनमें न सिर्फ गहरी रिश्तेदारी है बल्कि ये एक ही मूल से जन्में भी हैं।
गौरतलब है कि संस्कृत में पहर को प्रहरः कहा जाता है। पहर यानी दिन का आठवां भाग अर्थात तीन घंटे का समय । गौरतलब है कि प्राचीनकाल में चौबीस घंटों को तीन-तीन घंटों के हिसाब से आठ हिस्सों में बांटकर कालगणना की जाती थी। इस हिसाब से चार पहर का दिन और चार पहर की रात। प्रत्येक तीन घंटे की सूचना राज्यसत्ता की ओर से घंटे को बजाकर दी जाती थी जो प्रायः नगर के मुख्य स्थान पर होता था। इस घंटे पर जोरदार आघात अर्थात प्रहार करने से जो ध्वनि होती थी उसे ही प्रहरः यानी पहर कहा जाता था। गौर करें कि सूर्योदय के दो पहर बीत चुके समय तक छह घंटे व्यतीत हो चुके होते हैं इसीलिए बारह बजे के आसपास के समय को दोपहर कहा जाता है जो इससे ही बना है। बाद में अलग अलग बोलियों में दुपहरिया, दोपहरी जैसे शब्द रूप भी बन गए। चूंकि आठों पहरों की सूचना के लिए लगातार , दिन-रात एक ही व्यक्ति घंटा नहीं बजा सकता थी, इसलिए अलग-अलग व्यक्ति एक-एक या दो-दो पहर के लिए बारी बारी से घंटा बजाने का काम करते थे। इसी वजह से उन्हें प्रहरिन् कहा जाता था। इसी प्रहरिन् का हिन्दी रूप हुआ प्रहरी । अर्से बाद प्रहरिन के बजाए घंटे की घनघोर गूंज में खुद प्रहरी इस क़दर गुम हुआ कि उसकी जगह आ गया पहरी , जिसने फिर कभी घंटा नहीं बजाया और सिर्फ चौकसी ही करता रहा कि कोई आ न जाए, या ग़ायब न हो जाए-प्रहरिन की तरह। इस शब्द के साथ कालांतर में निगरानी का भाव भी जुड़ गया सो पहरी का अर्थ हुआ सुरक्षाकर्मी । बाद में इससे ही बना पहरा शब्द जो उर्दू-फारसी में भी गया। पहरे के साथ प्रमुखता से सुरक्षा का भाव चस्पा हो गया। इसमें फारसी का दार प्रत्यय लग जाने से बना पहरेदार। अर्थात् रक्षक, चौकीदार, रखवाला आदि।
आपकी चिट्ठी
सफर की पिछली कड़ी अफीमची और पोस्ती पर कई हमराहियों की टिप्पणियां मिलीं जिनमें है लावण्याजी, संजीत त्रिपाठी, ज्ञानदा, सागरचंद नाहर, मीनाक्षी,पद्मनाभ मिश्र और ममताजी। आप सबका आभार ।
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Thursday, January 3, 2008
अफीमची और पोस्ती
अफीम शब्द मूलत: यूनानी भाषा का शब्द है न कि एशियाई। इसका मूल अर्थ है एक खास किस्म के पौधे पौपी का रस। पौपी को हिन्दी उर्दू में पोस्त के नाम से जाना जाता है। यूनानी भाषा में इसे opion कहा जाता है। पोस्ते के रस से अफीम का निर्माण संभवत: सबसे पहले यूनान से ही शुरू हुआ हो। यूनान से निकला ये शब्द आज दुनियाभर में रोज इस्तेमाल होता है। यूनान से यह पहुंचा लैटिन में और इसका रूप हो गया ओपिअम। लैटिन से ही जर्मन , फ्रैंच, अंग्रेजी, आदि कई भाषाओं में थोड़े बहुत परिवर्तन केसाथ ये यूरोप में फैल गया। यूनान से ही इस शब्द ने एशिया की यात्रा की और सबसे पहले अरब पहुंचा afyun यानी अप्यून के रूप में। वहां से ये ईरान होते हुए भारत पहंचा। यही शब्द हिन्दी में अफीम, गुजराती व मराठी में अफीण, मालवी में आफू आदि रूपों में इस्तेमाल किया जा रहा है। अफगानिस्तान से सिल्क रूट के जरिये ये शब्द चीन भी गया और इसने चीनी रूप ग्रहण कर लिया अ-फू-युंग जो मूलत: अरबी रूप अफ्यून का ही रूपांतर है।
बात पोस्त और पोस्ट की
संस्कृत में अफीम के लिए अहिफेन नाम मिलता है। अहि का मतलब होता है सांप, अजगर आदि। फेन का मतलब हुआ झाग अर्थात सांप के मुंह से निकला फेन। फारसी में अफीम के आदी के लिए अफीमची शब्द खूब चलता है और इसे हिन्दी - उर्दू में भी बोला जाता है। फारसी में अफीम को पोस्तः कहते हैं। मज़ेदार बात ये कि इस ज़बान में अग्रेजी का पोस्ट शब्द हो जाता है पोस्तः यानी पोस्ता। अब कई बार यह ग़लतफहमी हुई है कि कह ये जाता रहा कि पोस्ती है अर्थात अफीमची है और सुना ये जाता रहा कि चिट्ठी आई है। पोस्त से बना पोस्ती यानी अफीमची या मदकची। हिन्दी की प्रसिद्ध कहावत नौदिन चले अढ़ाई कोस को अगर आप पूरा सुनें तो यही पोस्त नुमायां होता है। पूरी कहावत है-पोस्ती ने पी पोस्त, नौ दिन चला अढ़ाई कोस।
गौरतलब है कि चीनी लोग अफीम के इतने लती रहे कि चीन पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने लंबे समय तक अफीम के जरिये राजनीति की। यही नहीं अफीम का जन्मदाता चाहे यूनान हो मगर दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम की पैदावार उससे हजारों किलोमीटर दूर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और चीन जैसे एशियाई इलाकों में होती है।
चित्र-लेख के बीच में दिया गया चित्र ट्यूनिशिया के चित्रकार अली बिन सालेम की प्रसिद्ध कृति ओपियम का है।
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आपकी चिट्ठी
सफर की पिछली धारावाही कड़ियों छैला-छबीला और छमक छल्लो पर सर्वश्री संजय , दिनेशराय द्विवेदी, हरिराम, महर्षि, काकेश , रवीन्द्र प्रभात, संजीत त्रिपाठी डा अजीत की टिप्पणियां मिलीं। आप सबका आभार ।
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