ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश और मीनाक्षी धन्वन्तरि को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं कोलकाता के शिवकुमार मिश्र से । शिवजी अपने निराले ब्लाग पर जो कुछ लिखते हैं वो अक्सर ब्लागजगत की सुर्खियों में आ जाता है। आइये मिलते हैं बकलमखुद के इस छठे पड़ाव और चौबीसवें सोपान पर मिसिरजी से।
बुद्धि है पर गहरा नाता नहीं
ब्लॉग-गीरी शुरू करने का किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. साल २००७ के फरवरी महीने में ज्ञान भैया को ब्लॉग-कीड़े ने काट लिया. जब इस बात की खोज हुई कि ये ब्लॉग-कीड़ा मिला कहाँ तो पता चला भैया रतलामी सेव नामक व्यंजन बनाने की विधि की खोज में निकले थे. रतलामी सेव बनाने की विधि मिली या नहीं लेकिन उनकी मुलाक़ात रवि रतलामी जी के हिन्दी ब्लॉग से हो गई. रवि रतलामी जी के हिन्दी ब्लॉग में भैया के लिए शायद कोड वर्ड में संदेश लिखा था, "अब यहाँ आ गए हैं, तो एक काम कीजिये, आप भी ब्लॉग-समाज की सदस्यता ले लीजिये." बस फिर क्या था. भैया ने लिखना शुरू किया और इस बात की सूचना मुझे दी. मैं उनका लिखा हुआ पढ़ता और रोमनागरी (रोम नगरी न समझा जाय. वहाँ के पुरूष बहुत बुद्धिमान और महिलाएं बुद्धिमती होती हैं. और मेरा बुद्धि से नाता गहरा नहीं है.) में टिपण्णी लिख देता था. टिपण्णी क्या, कभी-कभी टिपण्णी के रूप में पोस्ट लिख डालता. मेरी लिखी हुई टिप्पणियों को पढ़कर भैया ने बताया कि मेरे अन्दर एक ब्लॉगर छिपा बैठा है. उन्होंने मुझे सलाह दी कि अन्दर बैठे हुए ब्लॉगर को बाहर निकालने की कोशिश करनी चाहिए. बस इसी कोशिश की वजह से ब्लॉग-गीरी पर उतर आए.
औकात भर खुराफातें जारी रहीं...
ऐसा नहीं है कि पहले मैं नहीं लिखता था. पहले भी लिखता था लेकिन मेरा लिखा हुआ पढ़कर झेलने का काम हमारे नीरज भैया करते थे. मैं नीरज भैया को लगभग रोज चिट्ठी लिखता. नीरज भैया पढ़ते और उसका जवाब भी देते. क्या करते, उन्हें लगता होगा कि जवाब नहीं दिया तो ये आदमी कहीं घर छोड़कर भाग नहीं जाए. नीरज भैया को लिखी गई चिट्ठियां बड़ी दिलचस्प होती थीं. कभी कविता के ऊपर कुछ भी तो कभी सिनेमा के ऊपर, कभी बम्बैया भाषा में चिट्ठी तो कभी नीरज भैया की नई गजल की 'आलू-चना'. जितनी खुराफात करने की औकात थी, उतनी करता. पूरे हंड्रेड परसेंट कैपेसिटी यूटीलाईजेशन के साथ. बाद में जब ब्लॉग-गीरी पर उतरे तो नीरज भैया तो बच गए, लेकिन और बहुत सारे लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. बेचारे अभी तक भुगत रहे हैं. मुझे याद है, जब पहली पोस्ट लिखी और पब्लिश की तो बार-बार देखता, किसी ने पढ़ा या नहीं. एक टिपण्णी मिली, वो भी मेरी लिखी गई बात के ख़िलाफ़. पढ़कर दिल बैठ गया. मुझे लगा इसका मतलब ज्ञान भैया मेरा मन रखने के लिए कहते थे कि मेरे अन्दर एक ब्लॉगर छिप कर बैठा हुआ है. खैर, उसके बाद मैंने एक और पोस्ट लिखी. इस पोस्ट पर एक भी टिपण्णी नहीं आई. अब टिपण्णी का भूखा मैं देखता ही रह गया. मन में बहुत लाऊडली बोला; "कोई एक टिपण्णी दिला दो भैया." लेकिन किसी ने मेरे मन की इस लाऊड बात को नहीं सुना. नतीजा ये हुआ कि अगले दो महीने में केवल तीन पोस्ट लिख पाया.
वयंग्य से पहली बार साक्षात्कार..
बाद में मैंने मन बना लिया; "आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे" टाइप, और निश्चित किया कि सप्ताह में कम से कम तीन पोस्ट जरूर लिखूंगा. मेरे भाग्य से मुझे देवनागरी लिखने का साफ्टवेयर मिल गया. अब पोस्ट लिखने में विशेष परेशानी नहीं होती थी. साफ़्टवेयर के अलावा बहुत से ब्लॉगर मित्रों ने हौसला भी बढाया. ये कहकर कि लिखते रहना, छोड़ना मत. बस, तभी से लिखे जा रहे हैं. आलोक पुराणिक ने एक दिन कहा; "कसम खाओ कि व्यंग लिखोगे, व्यंग के सिवा और कुछ नहीं लिखोगे" टाइप. उन्होंने अपनी एक टिपण्णी में लिखा; "ज्ञान जी की संगत में बिगड़ मत जाईयेगा. केवल और केवल व्यंग लिखियेगा." उनकी बात गाँठ बाँध ली. वो गाँठ अभी तक बंधी है. लिख रहा हूँ, जो भी मन में आता है. ब्लॉगर मित्र भी हैं कि झेले जा रहे हैं. व्यंग से पहली बार साक्षातकार हुआ १९८६ में. धर्मयुग के दीवाली अंक में अशोक चक्रधर जी की कविता 'राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव' छपी. कविता पढ़कर बहुत अच्छा लगा. दूसरी बार पढ़ी तो आधी कविता याद हो गई. तीसरी बार पढ़ने से पूरी कविता याद हो गई. अभी तक याद है. उसके बार अशोक चक्रधर जी की कवितायें खूब पढता. होली के शुभ अवसर पर दूरदर्शन पर कवि सम्मेलन दिखाया जाता. उसमें अशोक जी जो भी कवितायें सुनाते, उसे मैं याद कर लेता था. बाद में सं १९८७ में परसाई जी के निबंधों का संकलन 'विकलांग श्रद्धा का दौर' पढा. पढ़कर लगा, कोई ऐसा भी लिख सकता है. उसके बाद परसाई रचनावली के साथ-साथ के पी सक्सेना की मूंछ-मूंछ की बात नामक किताब पढ़ी. इसके साथ शरद जोशी के लिखे गए व्यंग पढ़कर लगा कि 'भइया हमारा समाज और काल ऐसा है कि इसके ऊपर व्यंग ही खूब जमता है.' व्यंग के साथ ऐसा अटूट रिश्ता जुड़ा कि ये रिश्ता देखकर 'धरम-वीर' भी शरमा जाएँ.
बातें ब्लाग समाज की...
व्यंग पढने और लिखने के अलावा बहुत सारे विषयों पर पढने और जानकारी लेने का धुन सवार रहता है. कुछ विषय तो मेरे मित्रों को बड़े अटपटे लगते हैं. जैसे मैंने उड़न तस्तरी (समीर भाई, ध्यान दें) और दूसरी दुनियाँ में जीवों की संभावित उपस्थिति पर खूब पढ़ाई की है. मेरे मित्र इसे पागलपन कहते हैं लेकिन अब क्या करें, है तो है. इसके साथ-साथ विश्व अर्थव्यवस्था और विश्व की भौगोलिक स्तिथि के बारे में पढ़ना बड़ा दिलचस्प लगता है. कविता में रूचि बचपन से थी, इसलिए आगे चलकर इस रूचि का विकास ही हुआ. दिनकर जी का लिखा हुआ पढने के बाद तो जीवन जैसे बदल सा गया.
अब बात करते हैं ब्लॉग-समाज की. पहली बार जब ब्लॉग पढ़ा तो लगा कि; 'भइया, ब्लॉग पर लिखनेवाले जिस स्तर का लिखते हैं, हम तो कभी ऐसा नहीं लिख सकेंगे. और अगर इस स्तर का नहीं लिख सकेंगे तो फिर इस अंतर्जाल-महाजाल पर लिखने की जरूरत नहीं है.' मेरा लेखन तो मुहल्ले के सरस्वती पूजा के शुभ अवसर पर छपने वाली पत्रिका में जाने लायक तो है लेकिन ब्लॉग पर? कभी नहीं. विषय इतने गंभीर और व्यापक कि मैं तो क्या मेरा साया भी घबड़ा कर बैकगीयर लगा ले और दूसरी दिशा को कृतार्थ करे. फिर मेरा ख़ुद का 'मौलिक विचार' मन में आया; "बालक, विश्व में छ सौ पचास करोड़ लोग रहते हैं. सभी अगर एक ही स्तर और सोच के हो जाएँ, तब तो कोई समस्या नहीं रहेगी." और ये दुनिया बगैर समस्या के चल नहीं सकती. इसलिए अपनी इस सोच को त्यागकर, जो मन में आता है, लिख.
बस फिर क्या था, लिखना शुरू किया. मजे की बात ये कि पहली बार अभय तिवारी जी के ब्लॉग पर गए, और उनसे झमेला कर आए. जैसा कि मैंने कहा; "बुद्धि से नाता दूर का है." अभय जी ने कॉर्पोरेशन के बारे में अपने विचार व्यक्त किए थे. मुझे लगा उनके दिए गए विचार किसी भी देश के कम्पनीज एक्ट में लिखे हुए हैं. बस, भैया मैंने अभय जी के ब्लॉग पर रोमनागरी में टिपण्णी दे डाली. उन्होंने मेरी टिपण्णी का जवाब दिया और मैंने उनकी टिपण्णी का. बाद में लगा कि ये तो गलती हो गई. इस तरह की टिपण्णी लिखने का कोई तुक नहीं था. लेकिन अब गलती हो गई थी तो हो गई थी. वो है न, हाँ, तीर कमान से और बात जुबान से वाली बात. वही बात यहाँ भी हो गई. खैर, ये बात आई-गई हो गई.
[ अगली कड़ी में समाप्त ]
Wednesday, April 30, 2008
और शिवजी उतर आए ब्लागगीरी पर [बकलमखुद -24]
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15 कमेंट्स:
तो आप भी आलोक जी के बिगाडे हुये है,वो हमे भी इधर ही जाने के लिये धकियाते रहते है,पर हम है कि सुधर कर नही देते,हमे लगता है कि अगर यथो नाम तथो गुण यानी ब्लोग के नामानुसार पंगा नही लिया तो, इमेज खराब हो जायेगी, कई बार तो उन्ही से पंगा ले आते है जी :)
देख रहे हैं दिनकर की कवितायें पढ़कर केतना बड़का अमदी बन गये.. खैनी-सैनी छूट गया? कि अभी भी पैजामा में चुनौटी खोंसे हुए टहलते हैं?..
मैं नहीं टहलता हूं.. माने चुनौटी खोंसकर.. दिनकर की कविता न पढ़ने का इतना फ़ायदा हुआ..
ग़ज़ल गीत पढने का शौक तो बचपन से था लेकिन लिखने का नहीं. एक बार अचानक लिखना शुरू किया और अपनी ग़ज़लें ई -बज्म पर डालनी शुरू की तो सिलसिला चल निकला. वहीं शिव अपनी टिप्पणियों से लोगों की टांग खिचाई करने आया करते थे. मेरी एक ग़ज़ल पढी देखा कोई नयी मुर्गी हैतो टांग खिचाई के लिए लिख दिया की नीरज जी आप की रचना पड़ कर राजेश रेड्डी की याद आ जाती है.हम समझ गए की जनाब फुर्की खींच रहे हैं. हमने भी अनजान बन कर अपनी तारीफ सुन ली और राजेश रेड्डी जो किस्मत से मेरे बाल सखा रह चुके हैं अपनी तुलना भी मंजूर कर ली. बस फ़िर जो आपस में मेल मेल लिखने का खेल चला वो अब तक जारी है.सोचता हूँ किसी दिन उन सब को एक साथ लिख कर एक पोस्ट बना दूँ.
शिव में गज़ब की प्रतिभा है और मैं मानता हूँ की मुझे ग़ज़ल लिखने से अगर कोई फाइदा हुआ है तो वो है शिव से सम्पर्क होना. ऐसे व्यक्ति जीवन में बहुत मुश्किल से मिला करते हैं. उसी ने मुझे ब्लॉग जगत में धकेला और आज जो चार लोग मेरे नाम से वाकिफ हैं वो सब उसी की वजह से हैं.
वो हमेशा खुश रहे ये ही मेरी दुआ है.
नीरज
शैली की वही सरस
और सुलझी हुई पकड़.
परसाई जी को पढ़ने का प्रभाव
साफ़ दिख रहा है.
ब्लॉग-दुनिया में अपनी दस्तक को भी
आपने रंजक और व्यंजक बनाकर
पेश कर दिया ....... चटपटा तो है ही
रतलामी एफेक्ट जो है!
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बुद्धि से दूर का नाता
कल्याणकारी है मिसिर जी.
इसीलिए तो हृदय से सगे नाते के
अधिकारी बन गये है आप!
लेकिन बुद्धि पर आपके बयान में भी
व्यंग्य की धार सिर चढ़ कर बोल रही है.
सच कह रहा हूँ .....
बुद्धि से नहीं .....दिल से!
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बधाई
डा.चंद्रकुमार जैन
सही है-कभी इत्मिनान से बैठकर आपसे उड़न तश्तरी और दूसरी दुनिया की गाथायें भी सुनेंगे..सही चल रहा है बकलमखुद-अगली कड़ी का इन्तजार है.
बडा अच्छा असर हुआ हिन्डी साहित्य के मूर्धन्य लिखनेवालोँ की प्रेरणा से आप भी लिखने लगे
शिव भाई ..अच्छी रही जीवन गाथा ..
-- लावण्या
इतनी टिप्पणियाँ देखकर हम भी एक टिपण्णी किये देते हैं :)
बड़े भैया ने प्रतिभा तलाश की और पुराणिक जी ने अपनी मंडली में डाल लिया। जरा शिव जी बताएंगे उन्होंने क्या किया?
@ प्रमोद जी,
आपने दिनकर जी को नहीं पढा तो पैजामा में चुनौटी खोंस कर नहीं टहलते...हम तो पहले चुनौटी खोंस कर टहलते थे...दिनकर जी की कवितायें पढ़ने के बाद चुनौटी खोंसकर टहलने की आदत चली गई....इसलिए कहते हैं कि कवि समाज का भला ही करता है...सब का...जो नहीं पढे उसका भी...और जो पढ़ ले, उसका भी...दिनकर जी से हमदोनो ने लाभ लिया...आख़िर हम ब्लॉगर जो ठहरे.....:-)
उत्तम है जी। जेतना अच्छा ये वाला पोस्ट पढ़ने में लगा उससे खराब ये लग रहा है कि अगली पोस्ट आखिरी होगी इस सिलसिले की। फिर से चलाइये न!
@मिसरा जी, सुकुल जी सही कह रहे हैं. जिनगानी की कहानी दी एंडिन छुय रही हो तो कुछ मनगढ़ंते, कल्पटंटे सजाय डालिये.. दुय किस्त अऊर चढ़ाय डालिये.. एतना कल्पनाशील आप हैं, और एतना ऐंठों है कि कोई कहे का कोसिस करेगा कि मनगढ़त लिख रहे हैं त लखेदो लेंगे.. लेंगे ना?
चलाए रहिए अभी सही जा रहा है।
रोचक. अगली कड़ी का इंतजार है.
सुकुल जी ने एक्दम सही बात कही, अपन उनसे सहमत हैं।
प्रमोद सिंह (अजदक) मेरे युवा जमाने से प्रिय लेखक रहे हैं। यहां शिव से उनकी नोक-झोंक पढ़ना बहुत रोचक लगा। मैं वक्र टिप्पणी करना चाहता था, पर शिव ने ही मना कर दिया।
शिव दिनकर जी को पढ़ कर बड़े आदमी बने हों या न बने हों, पर वक्र टिप्पणी करने को मना करने से वे बड़मनई जरूर हो गये!
चलिये, शिव छोटे भाई हैं - इसलिये इससे ज्यादा भाव नहीं देना चाहिये! :)
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