लस्सी तरावट पैदा करती है इससे यह न समझा जाए कि यह सिर्फ गर्मियों में पीने की चीज़ है। लस्सी बारहों महिने पी जा सकती है…
Wednesday, January 28, 2009
लस्सी दा जवाब नहीं…[खानपान-3]
दुनिया का सबसे स्वादिष्ट पेय कौन सा है ? अगर दार्शनिक किस्म का जवाब चाहिए तो हम पानी का नाम ले देंगे पर पेय-सूची से अगर उसे भूल जाएं (क्योंकि वो तो सबमें है ही) और बात अगर स्वाद और सेहत से जुड़ते पेयों की हो रही हो तो लस्सी का जवाब नहीं है। स्वादिष्ट में भी हमारा मत नमकीन जीरा लस्सी के पक्ष में जाएगा। क्योंकि इसमें गुलाबजल की ज़रूरत नहीं है। मीठी लस्सी में अगर गुलाबजल के छींटे न हों तो बर्फ चाहे जितनी डाल दीजिए, तरावट का एहसास जीभ को हो जाता है, दिमाग़ को नहीं होता। लस्सी की व्युत्पत्ति जानने से पहले यह भी जान लें कि इसका संबंध डांस से भी है। लस्सी lassi तरावट पैदा करती है इससे है यह न समझा जाए कि यह सिर्फ गर्मियों में पीने की चीज़ है। लस्सी बारहों महिने पी जा सकती है। लस्सी का डंका तो विदेशों में भी बज रहा है। सुना है कि यूरोप की किसी पेय-स्पर्धा में लस्सी को सर्वश्रेष्ठ पेय घोषित किया जा चुका है। लस्सी बनाहै संस्कृत के लसीका से जिसमें तरल पदार्थ के साथ गन्ने के रस का भी भाव है। यह बना है संस्कृत की लस् धातु से जिसमें प्रकाश में आना, चमकना, नचाना, क्रीड़ा करना, खेलना, लहराना, फड़फड़ाना, फूंक मारना, किलोल करना, आवाज़ करना, ध्वनि करना, गूंजना आदि भाव शामिल हैं। नृत्य के लिए संस्कृत-हिन्दी में एक खास शब्द है लास्य। जिस नृत्य में आंगिक चेष्टाओं और विन्यास के जरिये मनोभावों को प्रकट किया जाता है वही लास्य है। लस्सी का इस लास्य से गहरा संबंध है। लस् में निहित उक्त भावों पर गौर करें तो पता चलता है कि ये तमाम गत्यात्मक भाव है अर्थात इन सभी क्रियाओं में गति, रफ्तार, झलक रही है। लस्सी बनाने की प्रक्रिया अर्थात दही बिलोने की प्रक्रिया को देखें। यह तरल बनाने की प्रक्रिया है। दही की अवस्था अर्धठोस होती है। इसे तरल बनाकर ही इसमें गति पैदा की जा सकती है। लगातार दही मिश्रित पानी का आलोड़न होता है। यह क्रिया नृत्य जैसी ही है। पानी में जैसे किलोल के दौरान लहरे उत्पन्न होती हैं वही दही बिलोने के दौरान भी होती है। इसमें लस् में निहित सभी अर्थ उजागर हो रहे हैं। लसीका (अपभ्रंश लस्सी) नाम के तरल को एक विशिष्ट पेय बनाने में यही क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। लस् धातु से बने कुछ अन्य शब्द भी हैं जिनमें तरलता का भाव है मगर ये शब्द और इनके अर्थ सुहावने नहीं हैं। एक शब्द हिन्दी में आमतौर पर मुहावरे की तरह इस्तेमाल करते हैं लिजलिजा अर्थात चिपचिपा, ढीला। जिससे हम दूर रहना चाहें, जिसके व्यक्तित्व में स्थिरता न हो, जो अनावश्यक आपसे जुड़ना चाहे। ऐसे व्यक्तित्व अक्सर चिपकू भी कहलाते हैं। इस लिजलिजा की रिश्तेदारी भी लस् से ही है जिससे लिसलिसा और लसलसा जैसे शब्द बने जो चिपचिपा के अर्थ में प्रयोग होते हैं। लिसलिसा का ही प्रतिरूप है लिजलिजा। साफ है कि कि थूक अथवा लार के लिए लसिका शब्द का प्रयोग क्यों होता है और इन्हें स्रावित करने वाली अति सूक्ष्म नलिकाएं लसिका ग्रंथि कहलाती हैं। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:22 AM
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11 कमेंट्स:
घनघोर औऱ सार्थक लेखन...आपके ब्लॉग से अक्सर विचरता हूं और अक्सर हैरान होता हूं...तहेदिल से बधाई..
वाह!! वाकई इस पोस्ट के नाम पर आपके लिए एक लस्सी की तो बनती है जी. उम्दा जानकारी.
लस्सी गुलाब जल डली, उपर से हल्की दही की मलाई और खूब झाग वाली आहा !!
लिसलिसा से ज्यादा सिलसिला अच्छा है ना ? :)
लास्य देवी पार्बती का नृत्य है और शँकर देव का ताँडव -
ये सफर भी मजेदार रहा
- लावण्या
मुंह मे पानी आ रहा है पर अभी ठंड है जी.:) बहुत लाजवाब.
रामराम.
अच्छा ? लस्सी भी धातु से बनी है ! लगती तो हल्की सी है :)
वाह दादा,इस लेख से तो हरिद्वार की लस्सी की याद आ गयी.खाने-पीने का जो मज़ा उत्तर भारत में है वो दक्षिण भारत में नहीं.आपकी नयी फोटो भी शानदार है,ऐसा लग रहा है कि गोवा में खिंचवायी है :-)
अच्छी जानकारी दी आपने। बस, एक बात बहुत ही बुरी हुई। अब किसी भी नृत्यांगना की प्रस्तुति देखते समय लस्सी याद आने लगेगी।
हमारे कॉलेज में लस्सू शब्द कुछ ख़ास तरह के लोगों के लिए इस्तेमाल होता था... उनके चरित्र में चिपकू होना भी शामिल था. खैर... आपकी नई फोटू तो बड़ी मस्त है !
लस्सी का नाम पढ़ कर ही मुहं में पानी (लसिका रस)आने लगा।
लस्सी नही नही लसीका पीना हो तो आइये हमारे पास शुद्ध दूध ,दही का इस्तमाल करते है क्योंकि गाय भैस पालते है .
"कविता करके तुलसी न लसे, कविता ही लसी पा तुलसि कला" यहाँ 'लसी' किंवा लास्य का तात्पर्य प्रतिष्ठा से है अर्थात् दही का प्रतिष्ठित रूप है लस्सी !
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