Monday, November 30, 2009

चौधरी की चौधराहट

...अंग्रेजों नें भारतीयों को पदवियों की खूब रेवड़ियां बांटीं। चौधरी भी इनमें से एक है...
हि न्दी मे चौधरी शब्द बड़ा आम है और किसी खास या सम्मानित व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है। इस लिहाज से देखें तो न सिर्फ उत्तर भारत या हिन्दीभाषी क्षेत्रों में बल्कि दक्षिण में भी,खासकर आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में यह नज़र आता है। यही नहीं, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी चौधरी की धाक देखी जा सकती है। किसी समूह-समाज के मुखिया के लिए भी चौधरी शब्द आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है। कहीं यह जातीय विशेषण है तो कहीं पदवी और रुतबे का प्रतीक। कहीं यह सिर्फ सरनेम या उपनाम है। कहीं यह आगे लगता है कहीं पीछे। अपने आसपास के नामों पर गौर करें तो इसे समझ सकते हैं मसलन चौधरी रामसिंह या रामसिंह चौधरी। कुल मिलाकर इससे जुड़ा महत्व और सम्मान का भाव ही उभर कर आता है।
चौधरी की व्युत्पत्ति के अलग अलग आधार बताए जाते है। जॉन प्लैट्स के कोश में  इसकी व्युत्पत्ति चक्र + धर यानी चक्रधर या चक्रधारिन् से बताई गई है। इसका विकासक्रम कुछ यूं रहा होगा चक्रधर > चक्कधर > चव्वधर > चौधरी। गौरतलब है कि संस्कृत में चक्र का अर्थ गोल, घेरा या वृत्त के अलावा राज्य, प्रांत, जिला, सेना समूह, दल आदि समुच्चय से संबंधित भी होता है। चक्र का एक अर्थ होता है क्षेत्र, इलाका। राजस्व शब्दावली में चक का अर्थ भूक्षेत्र ही है। यह चक दरअसल  चक्र से ही बना है। धर यानी रखनेवाला या ch संभालनेवाला। इस नाते चक्रधर का मतलब राज्यपाल, शासक, प्रान्तपाल  से लेकर ज़मीदार और किसी क्षेत्र के मुखिया भी होता है. आदि। चक्रधर शब्द का एक मतलब होता है प्रभु या भगवान विष्णु। साफ है कि इस शब्द के साथ सम्मान शुरू से ही जुड़ा हुआ है। समझा जा सकता है कि राजाओं के जमाने में इलाका विशेष अथवा सेना या अन्य समूह के मुखिया के तौर किसी की नियुक्ति जब की जाती थी तो उसे चक्रधर की उपाधि दी जाती थी। इसी का बदला हुआ रूप चौधरी है जो समाज में अब सिर्फ सरनेम या जाति विशेषण के तौर पर नज़र आता है। हिन्दी शब्द सागर में चौधरी की व्युत्पत्ति चतुर्धारीन से होने का संकेत भी किया गया है जिसका मतलब होता है प्रमुख व्यक्ति या मुखिया।
क बात और । अंग्रेजों ने भी अपने राजकाज के दौरान चौधरी के रुतबे को भुनाया। उन्होने जिन्हें ऊपर उठाना चाहा उन्हें खुलकर चौधरी के तौर पर स्थापित कराया, उपाधि बांटी। अलबत्ता भूस्वामी के तौर पर चौधरी की महिमा हमेशा ज़मींदार से नीचे ही रही। चौधरी शब्द से जुड़ी मुखिया की माया इस क़दर प्रभावी रही है कि आज देश की ज्यादातर जातियों में चौधरी विद्यमान है। तथाकथित सवर्ण और अवर्ण के नज़रिये से भी अपने आसपास देखने पर इसे समझ सकते हैं। यही नहीं, इसकी प्रभावशाली अर्थवत्ता ने चौधराहट जैसे मुहावरे को भी जन्म दिया है। यही नहीं चौधरी की पत्नी कहां पीछे रहती सो वो भी ठसक के साथ बन गई चौधराइन–[संशोधित पुनर्प्रस्तुति]

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Sunday, November 29, 2009

चक्रव्यूह, समूह और ऊहापोह

View [शब्दों का सफ़र बीते पांच वर्षों से प्रति रविवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित होता है]

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Friday, November 27, 2009

क्या हिंदी व्याकरण के कुछ नियम अप्रासंगिक हो चुके हैं?

n सुयश सुप्रभ दिल्ली में रहते हैं और अनुवादक हैं। उनका एक ब्लाग है-अनुवाद की दुनिया,  जिसके बारे में वे लिखते हैं... हिंदी को सही अर्थ में जनभाषा और राजभाषा बनाने के लिए सामूहिक प्रयत्न की आवश्यकता है। इस ब्लॉग में मैंने हिंदी पर अंग्रेज़ी के अनुचित दबाव, हिंदी वर्तनी के मानकीकरण आदि पर भी चर्चा की है...  यह आलेख उन्होंने हिन्दी भाषा समूह पर सदस्यों की राय के लिए डाला था। उनसे पूछ कर हम इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं। 

अं ग्रेज़ी के संपर्क में आकर हिंदी सालों से बदलती आई है और अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बदलाव से हिंदी हमेशा समृद्ध होती है या इसके कुछ\ नकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। संसार की हर भाषा दूसरी भाषाओं से प्रभावित होती है और हिंदी कोई अपवाद नहीं है। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर भाषाएँ अंग्रेज़ी या अन्य भाषाओं से प्रभावित होने के बदले आतंकित होने लगती हैं। संसार की हर भाषा के व्याकरण में एक बात बिल्कुल स्पष्ट होती है कि बहुवचन बनाने के लिए दूसरी भाषा के व्याकरण का पालन नहीं किया जाता है। लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं हो पाता है। हिंदी व्याकरण के अनुसार स्कूल के दो बहुवचन बन सकते हैं - स्कूल या स्कूलों। आज लोग 'स्कूल्स' जैसा बहुवचन बनाते हैं। यही बात ब्लॉग, वेबसाइट, चैनल आदि शब्दों पर लागू होती है। लोग यह भूल जाते हैं कि ये शब्द हिंदी में विदेशज शब्दों के उदाहरण हैं और विदेशज शब्दों पर भी हिंदी का व्याकरण लागू होता है क्योंकि इन विदेशज शब्दों का मूल भले ही किसी विदेशी भाषा में हो लेकिन हिंदी के शब्द बनने के बाद ये शब्द विदेशी नहीं रहते हैं। मैंने रेडियो-टीवी पर कुछ हिंदी समाचारवाचकों के मुँह से 'जपैन' जैसा उच्चारण सुना है। क्या हिंदी का जापान शब्द उन्हें देहाती-सा लगता है?
अंग्रेज़ी के समृद्ध होने की एक बहुत बड़ी वजह यह है कि इसने संसार की अनेक भाषाओं से शब्द लेने में कभी कंजूसी नहीं की। हिंदी को भी ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन उदार होने का मतलब रीढ़विहीन होना नहीं होता है। हमें कुछ मूलभूत सिद्धांतों का पालन अवश्य करना चाहिए। अंग्रेज़ी में जब भारतीय भाषा का jungle शब्द लिया गया तो इसका बहुवचन बनाने के लिए हिंदी व्याकरण का प्रयोग नहीं किया गया। अंग्रेज़ी में jungle का बहुवचन Jungle या junglon (हिंदी के जंगल या जंगलों की तरह) नहीं होता है। हिंदी में कुछ लोग ब्लॉग (कृपया ध्यान दें, मैं अभी हिंदी के ब्लॉग शब्द का उल्लेख कर रहा हूँ।) का बहुवचन ब्लॉग्स बनाते हैं। जब 'ब्लॉग' हिंदी शब्द बन चुका है तो इसका बहुवचन अंग्रेज़ी व्याकरण के अनुसार क्यों बनाया जाता है? यहाँ मैं मौखिक और लिखित भाषा में अंतर को भी स्पष्ट करना चाहूँगा। मौखिक हिंदी में अंग्रेज़ी के कई शब्दों का प्रयोग होता है। हम बोलचाल में ब्लॉग्स, चैनल्स, वेबसाइट्स जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, लेकिन क्या इन प्रयोगों को लिखित भाषा में सही कहा जाना चाहिए? हर भाषा अपने लिखित और मौखिक रूपों में भिन्न दिखती है और हिंदी इसका अपवाद नहीं है।
मैंने कुछ लोगों को अपने आलेखों में चैनलों (बहुवचन में) और चैनल्स का प्रयोग करते देखा है। कभी आप यह वाक्य पढेंगे - "भारत में विदेशी चैनलों के आगमन से दूरदर्शन के दर्शकों की संख्या में कमी आई।" उसी आलेख में आपको यह प्रयोग भी देखने को मिलेगा - "विदेशी चैनल्स के कारण दूरदर्शन को कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।" मैंने हिंदी के कई विद्वानों से ऐसे प्रयोग के औचित्य के बारे में पूछा है। अधिकतर विद्वान इसे गलत मानते हैं। मुझे मीडिया में भी ऐसे लोग मिले हैं जो ऐसे प्रयोगों को गलत मानते हैं। कुछ लोगों को भाषा के नियमों से संबंधित जानकारी नहीं होती है, लेकिन वे सही नियम जान लेने के बाद अंग्रेज़ी के अंधानुकरण को गलत बताते हैं। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नही है जो 'सब कुछ चलता है' का सिद्धांत अपना चुके हैं।
मैं आप सबसे यह जानना चाहता हूँ कि दूसरी भाषाओं से हमारी भाषा में आने वाले शब्दों पर हमें अपनी भाषा का व्याकरण लागू करना चाहिए या नहीं। इस सवाल से जुड़ा एक दूसरा सवाल भी महत्वपूर्ण है : क्या हमें अंग्रेज़ी की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए बहुवचन बनाने के लिए अंग्रेज़ी व्याकरण का पालन करना चाहिए?

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Wednesday, November 25, 2009

बेअक्ल, बेवक़ूफ़, बावला, अहमक़!!!!

feldstein

बुद्धिहीन व्यक्ति के लिए हिन्दी में कई तरह की व्यंजनाएं हैं। मूढ़, मूढ़मति, मूर्ख, बुद्धू जैसे शब्दों के साथ ही अरबी-फारसी मूल के भी कई शब्द इसमें शामिल हैं जैसे बेवकूफ़, नादान, कमअक्ल, अहमक़ वगैरह। मूर्ख के अर्थ में ही पागल शब्द प्रयोग भी कर लिया जाता है हालांकि इसकी अर्थवत्ता भिन्न है और इसका मतलब होता है विक्षिप्त या बावला। हालांकि बारहा मूर्ख के लक्षण भी बावलों जैसे ही होते हैं, किन्तु कई दफा मूर्खता चेहरे से झलकती है और कई दफा बोली-बर्ताव से। कई मूर्ख अगर मुंह न खोलें तो बेहद ज़हीन और अक्लमंद नज़र आते हैं। मूर्ख जैसे दिखनेवाले लोग जब बोलते हैं तब  एहसास होता है कि इन्हें समझने में भूल हुई है। बैजूबावरा अपने ज़माने में संगीत के जीनियस थे, मगर संगीत की लगन के चलते वे ज़माने को बौराए से लगते थे। बावरा, बावला, बउरा या बाऊल (बांग्ला लोकशैली) का रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। प्रसंगवश, बुद्ध से ही मूर्ख के अर्थ में बुद्धू शब्द का जन्म हुआ क्योंकि मंदमति व्यक्ति बुद्धमुद्रा में जड़ होकर एक ही स्थान पर बैठा रहता है। हालांकि इसकी शुरुआत ध्यानस्थ व्यक्ति को बुद्ध कहने से हुई होगी,बाद में समाज ने पाया कि जड़बुद्धि व्युक्ति भी लोंदे की तरह ही बैठा रहता है, सो उसे बुद्धू कीउपाधि से नवाज़ा जाने लगा।
तिमंद या विक्षिप्त के अर्थ में ही अरबी का अहमक़ शब्द भी हिन्दी में प्रयोग किया जाता है। यह बना है सेमिटिक धातु हम्क h-u-m-q से, जिसमें विक्षिप्तता, पागलपन, मंदता का भाव है। इसकी अर्थवत्ता में कुंद-ज़हनी या उद्धतता का भाव भी है। यह उद्धतता या उद्दण्डता नशे से उपजे क्रोध की ओर संकेत करती है। नशा मस्तिष्क पर कब्जा कर लेता है और मनुष्य की सोचने-समझने की क्षमता प्रभावित हो जाती है। यही भाव है इसमें। इसी मूल से बना है हिमाक़त शब्द जिसका अर्थ है उद्दण्डता या मूर्खतापूर्ण कृत्य। अरबी में एक शब्द है वुक़ूफ़ जिसका अर्थ है स्थिर होना, खड़ा होना। इस शब्द का उल्लेख कुरआन में हुआ है। हज को जानेवाले जायरीन रेगिस्तान में वुक़ूफ़ की रस्म अदा करते हैं। बताया जाता है कि पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने अराफ़ात के मैदान में खड़े अपने अनुयायियों को  संदेश दिया था। वुक़ूफ़ में खड़े रहने का भाव दरअसल किसी पैगम्बर से मार्गदर्शन प्राप्त करना ही है। जो व्यक्ति खड़ा है, स्थिर है, जाहिर है, वह सम्यक रूप से परिस्थिति के साथ तादात्म्य बैठा रहा है। परिस्थिति से तादात्म्यता से भाव चीज़ों को समझने-बूझने या ज्ञान हासिल करने से है। वुक़ूफ़ का अर्थ बाद में ज्ञान, समझ, जानकारी होने के अर्थ में समझा जाने लगा। इससे ही बना है वाकिफ़ जिसका अर्थ है जानकार, ज्ञानी, समझदार और अनुभवी आदि। बुद्धिमान व्यक्ति के लिए भी इसका प्रयोग होता है। जान-पहचान वाले को हम वाकिफ़कार कहते हैं। वाक़फियत का मतलब होता है जानकारी buddhaहोना, परिचित होना, अवगत होना। वुक़ूफ़ में फारसी का बे उपसर्ग लगने से बनता है बेवुक़ूफ़ अर्थात अज्ञानी, मूर्ख या बुद्धिहीन। हिन्दी में आमतौर पर इसका बेवक़ूफ़ रूप ही प्रचलित है। अज्ञानी बेकूफ़ भी बोलते हैं।
क अन्य हिन्दी शब्द है बेअकल जो मूर्ख या बुद्धिहीन के अर्थ में खूब इस्तेमाल होता है। इसका शुद्ध रूप है बेअक्ल जो अरबी के अक़्ल में फ़ारसी के बे उपसर्ग के मेल से बना है। अक्ल बना है सेमिटिक धातु अ-क़-ल a-q-l से। इस धातु का रिश्ता अरबी के अक़ाला से है जिसका मतलब होता है ऊंट का लंगड़ाकर चलना, उसे बांध कर रखना या रस्सी से जकड़ना। अकाला से बनी अ-क़-ल a-q-l धातु में मूलतः बांध कर रखने का भाव स्थिर हुआ। ध्यान दें बांधने की क्रिया पर। बांधने से किन्हीं पृथक वस्तुओं को एक रखा जाता है। इससे एकजुटता आती है। इसमें केन्द्रित करने का भाव उभर रहा है। इससे बना है अक्ल यानी बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, चातुरी, प्रवीणता आदि। गौर करें ये सभी गुण मस्तिष्क से जुड़े हुए हैं जहां से समूचे शरीर का कार्यव्यापार संचालित होता है। मस्तिष्क का केन्द्रीय अंग होना ही उसे महत्वपूर्ण बनाता है। मस्तिष्क जब एकाग्र होता है तभी बुद्धि सक्रिय होती है, इसलिए अ-क़-ल a-q-l धातु में निहित बंधन का भाव, जिसमें एकाग्रता की अर्थवत्ता है, से अक्ल जैसा शब्द बना। अक़्ल जब फारसी में दाखिल हुआ तो इसमें बे उपसर्ग लगा कर मूर्ख, मूढ़ या मंदबुद्धि व्यक्ति के लिए बेअक़्ल शब्द बना लिया गया जो हिन्दी में भी खूब प्रचलित है।
ब आएं संस्कृत के विक्षिप्त शब्द पर। अक्ल में बुद्धि के केन्द्रित होने की बात उजागर हो रही है, उसका विलोम नज़र आता है विक्षिप्त शब्द में। संस्कृत के क्षिप्त शब्द में वि उपसर्ग लगने से बना है विक्षिप्त। क्षिप्त बना है क्षिप धातु से जिसमें मूल भाव है बिखेरना, अलग-अलग करना। इस तरह क्षिप्त का अर्थ हुआ बिखरा हुआ, टूटा हुआ, अस्त-व्यस्त। इसका एक अर्थ पागल, भ्रमित, भान्त व्यक्ति भी है। स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति की बुद्धि ठिकाने पर न हो, उसका चित्त ही डावांडोल रहता है। भ्रमित व्यक्ति को क्षिप्तचित्त भी कहते हैं। अस्थिर-चित्त भी इनका एक विशेषण है। बौराना शब्द का अर्थ है पागलपन, विक्षिप्तता, वातरोगी या सनकी। मंदबुद्धि शब्द बना है मंद+बुद्धि के मेल से। संस्कृत की मंद धातु की व्यापक अर्थवत्ता है। मूलतः मंद में जड़ता का भाव है। मंद यानी कुंद बुद्धि, जड़मति, धीमा, स्थिर आदि। मन्द का प्रयोग आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू व्यक्तियों के लिए भी किया जाता है। मन्द एक विशेषण है जिसमें सुस्ती, जड़ता, ढिलाई, धीमापन, मूर्खता जैसे भाव हैं। इसके साथ ही मन्द में नशेड़ी, बीमार, आलसी, दुर्बल, कमजोर या शिथिल की अर्थवत्ता भी है। बुद्धि बना है संस्कृत धातु है बुद् से जिसका अर्थ है किसी बात का ज्ञान होना, जागना । इससे बने बुद्ध, बुध, बुद्धि, और बोधि जैसे शब्द जिनके भीतर भी समझना, जानना, प्रकाशमान और जागा हुआ जैसे भावार्थ छुपे हैं। अब इस बुद्धि के आगे अगर मंद की अर्थवत्ता समा जाए तो अर्थ निकलता है कम बुद्धिवाला अर्थात मूर्ख या मूढ़।

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Tuesday, November 24, 2009

शुक्रिया दोस्तों,ब्लागिंग चलती रहेगी[बकलमखुद-115]

... वकील साब दिनेशराय द्विवेदी उर्फ सरदार के बकलमखुद की अन्तिम कड़ी...

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही की अन्तिम कड़ी, बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 114वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
पिछली कड़ी-सरदार की ब्लागरी शुरु
हाँ से सरदार के विदा लेने का वक्त आ गया है। यूँ तो किसी का भी समूचा लेखन बकलम खुद ही होता है। जो भी लिखता है, वह या तो खुद के बारे में या फिर दुनिया के बारे में जो कुछ वह जानता, सोचता और समझता है लिखता है। किसी का भी लिखा हुआ हर शब्द कुछ और कहे या न कहे, खुद लिखने वाले के बारे में बहुत कुछ कह देता है। वकालत के तीस बरसों में सरदार ने देखा कि झूठ बोलना कितना सहज हो सकता है और सच बोलना कितना दुष्कर? उस ने यह भी देखा कि कुछ सचाइयों को छुपाना गुनाह नहीं, पर एक झूठ के सहारे खड़ी इमारत किस वक्त गिर पड़े? कुछ नहीं कहा जा सकता। सच की रोशनी हजार पर्दों में भी नहीं छुपती वह कभी न कभी बाहर आ जाती है। लेकिन झूठ कभी भी उस का स्थान नहीं ले सकता, वह कभी न कभी झूठ सिद्ध हो जाता है। सरदार के परिचित के पुत्र ने अपनी सहपाठिन को पत्नी बनाना तय कर लिया और उसे परिवार की स्वीकृति मिल गई, इस समाचार पर कल रात सहसा मुहँ से यह टिप्पणी निकली कि ‘चलो माँ-बाप का वजन उतरा’। सुबह सवेरे पत्नी ने ‘वजन’ शब्द पर ऐतराज कर दिया और कहा कि ‘जिम्मेदारी कम हुई’ ऐसा कहना चाहिए था। सरदार को लगा कि अभी तो भाषा में सीखने को बहुत कुछ है। भाषा में ही नहीं दुनिया में उसने बहुत कम सीखा है। अभी बहुत कुछ सीखना शेष है। सीखने की प्रक्रिया जीवन भर जारी रहे तो जीवन है। जिस दिन लगे कि अब कुछ सीखना शेष नहीं, तो समझ लीजिए जीवन शेष हो चुका।
ब्लागीरी आरंभ हुई तो नए-नए लोगों से परिचय हुआ। केवल और केवल ब्लाग ने बहुत बेहतरीन लोगों को जानने का अवसर दिया। ब्लागीरी ने जो संबंध बनाए, वे कहने को आभासी भले ही रहे हों, लेकिन उन का आधार वे शब्द थे, जो टाइप-कुंजियों पर उंगलियों की पौरों के स्पर्श की ऊर्जा से उपजे थे। वे सच भी थे औऱ झूठ भी, लेकिन उन शब्दों में उन के व्यक्तित्व का अक्स था जो आइने में दिख रहे बिंब की तरह सच बोलता था। जब रिश्ते की बुनियाद ये शब्द हों तो वे रिश्ते आभासी कैसे हो सकते हैं? ये वे रिश्ते हैं, जिन में लेन-देन का हिसाब नहीं है, कोई स्वार्थ नहीं है। तीसरा खंबा पर पहली टिप्पणी ज्ञानदत्त जी पाण्डे की थी जो वजनदार भी थी। इस ने उत्साह बढ़ाया और उन रिश्तों का आरंभ हुआ जो मुद्दों पर आधारित थे। दो दिन बाद ही सीधे माथे पर आ कर लगी एक टिप्पणी ने सरदार के सिर को मथनी की तरह बिलो दिया। टिप्पणीकर्ता थीं घुघूती जी, उन्हों ने लिखा- ‘इसीलिए लोग मुकदमे नहीं करते’। बात बिलकुल सही थी। बिलोई हुई खोपड़ी तेजी से चलने लगी। न्याय-प्रणाली की दुर्दशा का मूल आधार निर्णयों में देरी और उस का कारण अदालतों की अति न्यूनता थी। अन्य कारण भी इसी एक कारण से उत्पन्न हो रहे थे, या बल प्राप्त कर रहे थे। इसी विषय को लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश चिंतित थे। सरदार ने अदालतों की कमी को तीसरा खंबा का आधार बना डाला। लेकिन ब्लाग पर हरदम यही तो नहीं लिखा जा सकता। इस कारण कानूनों की सरल भाषा में प्रस्तुति और बाद में कानूनी विषयों पर सलाह आरंभ की गई, जिस ने ब्लाग को लोकप्रिय बनाया। आज तीसरा खंबा पर एग्रीगेटरों से आने वाले पाठकों के दस गुना पाठक सर्च के माध्यम से या सीधे ब्लाग पर आ रहे हैं।
नवरत तो ब्लाग जगत से बातचीत के माध्यम के रूप में आरंभ हुआ था। उसने भी ब्लागीरी में सरदार की पहचान बनाने में मदद की। अनेक विषयों पर उस के माध्यम से अपने विचारों को प्रेषण हुआ। वहाँ सब से बड़ी उपलब्धि ‘जनतंतर कथा’ रही, जो छत्तीस कड़ियों में जा कर समाप्त हुई।
IMG_0798  भिलाई में पाबला जी के घर पाबला जी और संजीव तिवारी के साथ
आम चुनावों के दौरान अपने को अभिव्यक्त करने की चाहत से उस का जन्म हुआ था। लेकिन आजादी के बाद के पहले चुनाव से ताजा चुनाव तक के संक्षिप्त तथ्य उस की लोकप्रियता का आधार बने। उस दौरान टिप्पणियों के माध्यम से उपजी बहसों ने भी विचारों के आदान-प्रदान को तीव्र किया। यदि वैचारिक बहस इसी तरह चले तो मतभेद होते हुए भी बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलता है। ब्लाग जगत की विलक्षणता भी यही है कि कुछ एक ब्लागरों को छोड़ दिया जाए तो विचारधारात्मक मतभेदों के उपरांत भी सभी को एक उस रास्ते की तलाश है, जो देश और दुनिया को उस रास्ते पर ले जाए जहाँ सभी मनुष्य एक श्रेष्ठ जीवन जी सकें। यदि किसी भी व्यक्ति में इस रास्ते की तलाश शेष हो तो तमाम दुराग्रहों के उपरांत भी वह एक इंसान हो सकता है। तलाश के इस मार्ग में वह लोगों को सुनने-गुनने और स्वयं में परिवर्तन के लिए सदैव तैयार रहे तो सरदार का विश्वास है कि ऐसे तमाम लोग मतभेदों के बावजूद लक्ष्य की ओर चल सकते हैं, लक्ष्य के निकट पहुँचते-पहुँचते सब एक ही रास्ते के राही होंगे।
ब्लागीरी ने बहुत लोगों से सरदार के आत्मीय संबंध बनाए जिन में पाबला जी, अजित वडनेरकर, संजीव तिवारी, संजीत त्रिपाठी, अनिल पुसदकर, त्र्यंबक शर्मा, अरुण अरोरा, मैथिली जी, सिरिल गुप्त, अविनाश वाचस्पति, आलोक पुराणिक, एस. करीर, विष्णु बैरागी, अजय कुमार झा, खुशदीप सहगल, राजीव तनेजा, श्रीमती संजू तनेजा, विनीत उत्पल और कार्टूनिस्ट इरफान  से उसे प्रत्यक्ष भेंट का अवसर मिला और सभी आशा के बहुत कुछ अनुरूप ही मिले।
Delhi-blogger-dwivedi-pabla दिल्ली में श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, दिनेशराय  द्विवेदी,  अजय कुमार झा, खुशदीप सहगल और बी.एस. पाबला
सा भी नहीं है कि प्रत्यक्ष से ही संबंध आत्मीय होते हों। जिन से कभी मिलना नहीं हुआ, और हो सकता है उन में से बहुतों का शायद कभी जीवन में प्रत्यक्ष न हो, लेकिन ब्लागीरी ने उन से भी आत्मिक संबंध बनाए हैं। इन में ज्ञानदत्त  पाण्डे, रवि रतलामी, अनूप शुक्ला, डॉ. अरविंद, अभिषेक ओझा, अफलातून, डॉक्टर अमर कुमार, अनिता कुमार व विनोद जी, अरुण कुमार झा, बेजी जैसन, जे.सी. फिलिप शास्त्री, घुघूती जी, काजल कुमार, समीर लाल, बवाल, मंसूर अली हाशमी, मीनाक्षी धन्वंतरी, नीरज रोहिल्ला, निर्मला कपिला, नितिन बागला, पल्लवी त्रिवेदी, प्रमोद सिंह, प्रशांत प्रियदर्शी, प्रियंकर, रचना सिंह, राज भाटिया, सागर नाहर, संदीप, सतीश सक्सेना, शिव मिश्रा, सुनील दीपक, विजय गौड़, अशोक कुमार पाण्डेय, उन्मुक्त, कुन्नू सिंह, गिरिजेश राव, डॉ. अनुराग, बाल सुब्रह्मण्यम, भुवनेश शर्मा, युनुस, योगेन्द्र मोदगिल, रंजू भाटिया, रक्षंदा, लावण्या दी, शरद कोकास, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, अभय तिवारी प्रमुख हैं। बहुत नाम यहाँ छूटे हैं, लेकिन सरदार के लिए सब का उल्लेख कर पाना संभव भी तो नहीं।
हिन्दी ब्लागीरी संबंधों को एक नई परिभाषा प्रदान कर रही है। आत्मिक संबंध कहाँ साक्षात के मोहताज है? चित्त में ही मूर्त होने वाले (चिन्मात्र मूर्तये) से भी लोग आजीवन संबंध बनाए लेते हैं। ब्लागीरी में कम से कम आभासी पर्दे पर तो लोग मूर्त हैं। सरदार का ब्लागीरी से संबंध अटूट और आजीवन है, सरदार जब तक है यहाँ बना रहेगा। सब के लिए बेहतर जीवन की उस की तलाश जारी रहेगी। [समाप्त]

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Sunday, November 22, 2009

डाकिया बीमार है…कबूतर जा…

book आज की दुनिया वहां न होती अगर संवाद की इच्छा और उसे पूरा करने की ललक मनुष्य में न रहती। इस हफ्ते एक और खास पस्तक की चर्चा। लेखक- अरविंदकुमार सिंह/ प्रकाशक-नेशनल बुक ट्रस्ट/ पृष्ठ-406/ मूल्य-125 रु./

बीते कुछ हफ्तों से पुस्तक चर्चा नहीं हो पाई। कोशिश यही है किscan0002 अनियमितता का यह सिलसिला चलता रहे। इस बीच पठन-पाठन तो होता रहा, नई पुस्तकें भी संग्रह में आईं, मगर व्यस्ततावश चर्चा नहीं हो सकी। आप पूछ सकते हैं कि शब्द-चर्चा तो होती रही है, क्या वहां व्यस्तता आड़े नहीं आती? दरअसल शब्दों का सफर भी उस व्यस्तता का हिस्सा है। इसीलिए भरोसे से कह रहा हूं कि अनियमितता का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, इस बार एक संग्रहणीय और स्थायी महत्व की किताब की चर्चा। सेलफोन, सेटेलाईट फोन और इंटरनेट जैसे संवाद के सुपरफास्ट साधनों के इस युग में भी चिट्ठी का महत्व बरक़रार है। आज डाकिये की राह चाहे कोई नहीं देखता, पर दरवाज़े पर डाकिये की आमद एक रोमांच पैदा करती है। कुछ अनजाना सा सुसंवाद जानने की उत्कंठा ने इस सरकारी कारिंदे के प्रति जनमानस में हमेशा से लगाव का भाव बनाए रखा है, जो आज भी उतना की पक्का है। सूचना और संवाद क्रांति के इस दौर में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भारतीय डाक सेवा पर एक समग्र और शोधपूर्ण पुस्तक लिखी हैः भारतीय डाक-सदियों का सफ़रनामा, जिसमें सैकड़ों साल से देश के अलग-अलग भागों में प्रचलित संवाद प्रेषण प्रणाली के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया गया है।
रीब साढ़े तीन सौ साल पहले अंग्रेजों 1688 में अंग्रेजों ने मुंबई में पहला डाकघर खोला। ज़रूरत इसलिए  पड़ी क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करना था। डाक विभाग के जरिये सैन्य और खुफिया सेवाओं की मदद का मक़सद भी खास था। आज जब इस किताब की चर्चा हो रही है, तब आदिमकाल से चली आ रही और अब एक संगठन, संस्कृति का रूप ले चुकी संवाद प्रेषण की इस परिपाटी के सामने सूचना क्रांति की चुनौती है। इसके बावजूद दुनियाभर में डाक सेवाएं अपना रूप बदल चुकी हैं और कभी न कभी पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे, दक्षिण एशियाई देशों में भी यह चुनौती देर-सबेर आनी ही थी। किसी ज़माने सर्वाधिक सरकारी कर्मचारियों वाला महक़मा डाकतार विभाग होता था। उसके बाद यह रुतबा भारतीय रेलवे को मिला। डाकतार विभाग का शुमार आज भी संभवतः शुरुआती पांच स्थानों में किसी क्रम पर होगा, ऐसा अनुमान है।
पूरी किताब दिलचस्प, रोमांचक तथ्यों से भरी है। गौरतलब है कि पुराने ज़माने में ऊंटों, घोड़ों और धावकों के जरिये चिट्ठियां पहुंचाई जाती थीं। राह में आराम और बदली के लिए सराय या पड़ाव बनाए जाते थे। बाद में उस राह से गुज़रनेवाले अन्य मुसाफिरों के लिए भी वे विश्राम-स्थल बनते रहे और फिर धीरे-धीरे वे आबाद होते चले गए। चीन में घोड़ों के जरिये चौबीस घंटों में पांच सौ किलोमीटर फासला तय करने के संदर्भ मिलते हैं, इसका उल्लेख शब्दों का सफर में डाकिया डाक लाया श्रंखला में किया जा चुका है।

कविता डाकिये परcotton copyमोबाइल क्रान्ति के इस युग में रामकुमार कृषक के यह ग़ज़ल बहुत से लोगों को चकित कर सकती है। मगर सिर्फ एक दशक पहले तक इस देश में डाकिये के संदर्भ वाले य़े नज़ारे हुआ करते थे।

अरविंदकुमार सिंह की किताब बताती है कि मुहम्मद बिन तुगलक ने भी संवाद प्रेषण के लिए चीन जैसी ही व्यवस्था बनाई थी। गंगाजल के भारी भरकम कलशों से भरा कारवां हरिद्वार से दौलताबाद तक आज से करीब सात सदी पहले अगर चालीस दिनों में पहुंच जाता था, तो यह अचरज से भरा कुशल प्रबंधन था। ये कारवां लगातार चलते थे जिससे पानी की कमी नहीं रहती थी। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि तुगलक पीने के लिए गंगाजल का प्रयोग करता था।
मेघों को हरकारा बनाने की सूझ ने तो कालिदास से मेघदूत जैसी कालजयी काव्यकृति लिखवा ली। मगर कबूतरों को हरकारा बनाने की परम्परा तो कालिदास से भी बहुत प्राचीन है। चंद्रगुप्त मौर्य के वक्त  यानी ईसा पूर्व तीसरी – चौथी सदी में कबूतर खास हरकारे थे। कबूतर एकबार देखा हुआ रास्ता कभी नहीं भूलता। इसी गुण के चलते उन्हें संदेशवाहक बनाया गया। लोकगीतों में जितना गुणगान हरकारों, डाकियों का हुआ है उनमें कबूतरों का जिक्र भी काबिले-गौर है। इंटरनेट पर खुलनेवाली नई नई ईमेल सेवाओं और आईटी कंपनियों के ज़माने में यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि करीब ढाई सदी पहले जब वाटरलू की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब ब्रिटिश सरकार लगातार मित्र राष्टों को परवाने लिखती थी और गाती थी-कबूतर, जा...जा ..जा. ब्रिटेन में एक ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी थी जिसने पैसठ मील की कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी। बाद में इसे आयरलैंड तक विस्तारित कर दिया गया था। बिना किसी वैज्ञानिक खोज हुए, यह निकट भूतकाल का एक आश्चर्य है। भारत में कई राज्यों में कबूतर डाक सेवा थी। उड़ीसा पुलिस ने सन् 1946 में कटक मुख्यालय में कबूतर-सेवा शुरू की थी। इसमें चालीस कबूतर थे।
भारतीय डाकसेवा में कब कब विस्तार हुआ, कैसे प्रगति हुई, कब इसकी जिम्मेदारियां बढ़ाई गई और कब यह बीमा और बचत जैसे अभियानों से जुड़ा, यह सब लेखक ने बेहद दिलचस्प ब्यौरों के साथ विस्तार से पुस्तक में बताया है। डाक वितरण की प्रणालियां और उनमें नयापन लाने की तरकीबें, नवाचार के दौर से गुजरती डाक-प्रेषण और संवाद-प्रेषण से जुडी मशीनों का उल्लेख भी दिलचस्प है। डेडलेटर आफिस यानी बैरंग चिट्ठियों की दुनिया पर भी किताब में एक समूचा अध्याय है। एक आदर्श संदर्भ ग्रंथ में जो कुछ होना चाहिए, यह पुस्तक उस पैमाने पर खरी उतरती है। इस पुस्तक से यह जानकारी भी मिलती है कि भारत की कितनी नामी हस्तियां जो अन्यान्य क्षेत्रों में कामयाब रही, डाक विभाग से जुड़ी रहीं। ऐसे कुछ नाम हैं नोबल सम्मान प्राप्त प्रो. सीवी रमन, प्रख्यात उर्दू लेखक-फिल्मकार राजेन्द्रसिंह बेदी, शायर कृष्णबिहारी नूर, महाश्वेता देवी, अब्राहम लिंकन आदि।
त्रकारिता से जुडे़ लोगों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे यह पुस्तक संदर्भ में होनी चाहिए। मेरी सलाह है कि अवसर मिलने पर आप इसे ज़रूर खरीदें, आपके संग्रह के लिए यह किताब उपयोगी होगी।

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Saturday, November 21, 2009

राजनीति के क्षत्रप

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भा रतीय राजनीति में भी क्षेत्र शब्द की व्याप्ति जबर्दस्त है। क्षेत्रवाद जैसे शब्द का प्रयोग अक्सर राजनीतिक संदर्भों में ही ज्यादा पढ़ने-सुनने को मिलता है। क्षत्रप भी एक ऐसा ही शब्द है जिसका इस्तेमाल राजनीति के मंजे हुए ऐसे खिलाड़ियों के लिए किया जाता है जो क्षेत्रीय अर्थात इलाकाई प्रभुत्व रखते हैं और जिनकी हैसियत किसी राजनीतिक दल या धड़े के मुखिया की है। क्षत्रप का अर्थ होता है राज्यपाल। इतिहासकारों और भाषाविदों का मानना है कि इस शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले ईसा से भी पहले ईरान में शुरु हुआ। पौराणिक-वैदिक संदर्भों में राज्यप्रमुख के लिए राजा, नरेश जैसे शब्दों का संदर्भ तो आता है मगर क्षत्रप का नहीं है। आपटे कोश के अनुसार क्षत्र शब्द में उपसर्ग लगने से बना है क्षत्रप जिसका अर्थ है राज्यपाल अथवा उपशासक। क्षत्र का अर्थ होता है शक्ति, सामर्थ्य, प्रभुता, अधिराज्य और क्षत्रिय जाति का पुरुष। क्षत्रिय भी इसी मूल से जन्मा है जिसका अर्थ है दूसरे वर्ण या फौजी तबके का व्यक्ति। भारत की एक क्षत्रिय जाति खत्री कहलाती है। प्राचीनकाल में इस समुदाय के लोग उत्तर पश्चिमी भारत से निकल कर पश्चिमी और पूर्वी भारत में फैले। नेपाल में छेत्री कहलाते है।

क्षत्रप शब्द ईरान में शत्रप / खत्रप रूप में प्रसारित था जहां से यह ग्रीस तक पहुंचा। ग्रीक ग्रंथों में ईरान और भारत के क्षत्रपों का उल्लेख इसी शब्द से हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन ईरानी के क्षत्रपवान से मानी जाती है जिसका अर्थ है राज्य का रक्षक। इसमें क्षत्र +पा+वान् का मेल है। क्षत्र यानी राज्य, पा यानी रक्षा करना, पालन करना और वान यानी करनेवाला। गौर करें इससे ही बना है फारसी का शहरबान शब्द जिसमें नगरपाल का भाव है। इसे मेयर समझा जा सकता है। याद रखें संस्कृत के वान प्रत्यय का ही फारसी रूप है बान जैसे निगहबान, दरबान, मेहरबान आदि। संस्कृत वान के ही वन्त या मन्त जैसे रूप भी हैं जैसे श्रीवान या श्रीमन्त। रूपवान या रूपवंत।
भारत में सबसे पहले शकों के ज़माने में क्षत्रप शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। ईसा की पहली से तीसरी सदी तक भारत में इनका शासन रहा और गुप्त काल में इनका पतन हुआ मगर तब तक शकों ने विदेशी 00140lm चोला उतार फेंका था और इन्होंने हिन्दू आचार-विचार अपना लिए। उस समय तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी और नासिक इनकी प्रमुख राजधानियां थीं। गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र भी इनके प्रभुत्व में था। इन स्थानों के प्रधान शक शासक महाक्षत्रप कहलाते थे जबकि कनिष्ठ शासक या उप शासक क्षत्रप कहलाते थे। सत्रप शब्द का प्रसार इतना था कि ऐशिया में जहां कहीं यूनानी साम्राज्य के अवशेष थे, उन स्थानों के गवर्नर या राज्यपालों का उल्लेख भी खत्रप / ख्वातवा/ शत्रप  के रूप में ही मिलता है। शक जाति के लोक संभवतः उत्तर पश्चिमी चीन के निवासी थे। वैसे जब ये भारत में आए तब तक इनका फैलाव समूचे मध्य एशिया में हो चुका था। ईरान की पहचान शकों से होती थी। दक्षिणी पूर्वी ईरान को सीस्तान कहा जाता था जिसका अर्थ था शकस्थान। संस्कृत ग्रंथों में भारत से पश्चिम में सिंध से लेकर अफ़गानिस्तान, ईरान आदि क्षेत्र को शकद्वीप कहा गया है अर्थात यहां शकों का शासन था।
संस्कृत के क्ष वर्ण में नाश, अन्तर्धान, हानि, नरसिंहावतार, क्षेत्र, भूमि, किसान और रक्षक का अर्थ छुपा है। जिसे हम लम्हा या पल कहते हैं, उसे संस्कृत में क्षण कहा जाता है। इसमें निमिष का भाव है। आप्टे कोश के मुताबिक सैकेंड के 4/5वें भाग की कालावधि क्षण कहलाती है। क्षण् की व्युत्पत्ति भी इसी क्षः से हुई है। नष्ट या अंतर्धान होने वाले अर्थों से क्षः धातु से क्षण का जन्म हुआ है। काल का चरित्र है, लगातार क्षरण होते जाना। समय लगातार नष्ट होता जाता है। जो आज है , वह कल नहीं होगा। जो अभी है, वह अगले क्षण नहीं होगा। पल-छिन जैसा समास भी हिन्दी में गढ़ा गया है।  क्षण में चाहे काल के भंगुर अर्थात नष्ट होने की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है किन्तु किन्तु इसमें काल को पकड़ने का भाव भी है। इसका एक अर्थ होता है किसी का काम करने का वचन देना। क्षण्+क्विप से जन्मा है क्षत्र जिसके तमाम अर्थों अर्थात शक्ति, अधिराज्य, सामर्थ्य या इससे बने क्षत्रिय शब्दों पर गौर करें तो क्षण् में निहित वचन का महत्व स्पष्ट होता है। एक क्षत्रप यानी प्रजापालक, एक क्षत्रिय यानी सैनिक हमेशा ही समाज के प्रति उसकी सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए वचनबद्ध होता है। जख्मी अथवा चोटिल के अर्थ में क्षत् या विक्षत् शब्दों के मूल में भी क्षण् धातु ही है। मैदान, भूमि, इलाका, राज्य, जन्मभूमि के अर्थ में क्षेत्रम् का जन्म भी क्ष से ही हुआ है और पृथ्वी के अर्थ में क्षिति शब्द का मूल भी यही है।
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Friday, November 20, 2009

शहर का सपना और शहर में खेत रहना [आश्रय-23]

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खे त का रिश्ता गांव से जुड़ता है मगर शब्द व्युत्पत्ति के रास्ते में शहर और खेत एक दूसरे के पड़ोसी नज़र आते हैं। बड़ी नगरीय बसाहट के लिए आमतौर पर हिन्दी में शहर शब्द का इस्तेमाल ही होता है। हिन्दीभाषियों में अंग्रेजी के सिटी शब्द का यही सबसे पसंदीदा विकल्प है। शहर के अर्थ में नगर शब्द का इस्तेमाल बोलचाल में कम होता है अलबत्ता लेखन में इसका प्रयोग खूब होता है।  नगर के विशेषण रूप यानी महानगर का प्रयोग आम ज़बान में होता है। महानगर के अर्थ में शहर का कोई विशेषण रूप नहीं है, मगर इसका प्रयोग नगर, महानगर दोनों अर्थो में होता है। यूं शहर का अर्थ नगर, पुरी, आबादी या बस्ती से है, जो ग्राम से बड़ी हो। शहर हमेशा एक सपना रहा है। गांववालों के लिए तो सपना समझ में आता है पर शहरवालों के लिए भी ताउम्र शहर एक ख्वाब ही बना रहता है। सपनों का शहर मुहावरा चाहे जितनी बार दोहरा लिया जाए, शहर दरअसल सपना नहीं, छलावा है।

हर इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और एशियाई भाषाओं में इसका इस्तेमाल खूब होता है। हिन्दी में इसकी आमद फारसी से हुई है। प्राचीन ईरान के निवासी जरथ्रुस्तवादी अग्निपूजक थे। इनकी भाषा अवेस्ता थी जिससे संस्कृत का  बहनापा रहा है और इसीलिए इन दोनों भाषाओं में
2753337378_22d22b02ee CityLife hiroshima_and_ng borobudur शहर के जन्म का मूल है क्ष अक्षर जिसमें विस्तार के साथ आघात, क्षेत्र, राज्य जैसे भाव हैं।  जंग में मारे जाने के लिए एक मुहावरा खेत रहना भी प्रचलित है जिसका अभिप्राय यही है कि शरीर से प्राणों की मुक्ति जो आत्मा का विस्तार ही है।
काफी समानता भी है। मोटे तौर पर अवेस्ता से संस्कृत की समानता कही जा सकती है, पर मूलतः उसे वैदिकी कहना ठीक होगा। अवेस्ता में अर्यनम-क्षथ्र (arynam kshathta) नाम मिलता है, जिसका अर्थ है आर्यशासित क्षेत्र। इस इलाके से तात्पर्य समूचे मध्यएशिया से था। गौरतलब है, ईरान शब्द आर्याणाम से ही निकला है। अवेस्ता के क्षथ्र का अर्थ हुआ इलाका या राज्य। गौर करें, क्षथ्र संस्कृत के क्षेत्र का ही रूपांतर है जो त्र के स्थान पर थ्र हो जाने से हुआ है। संस्कृत का मित्र अवेस्ता में मिथ्र हो जाता है जिसका अर्थ सूर्य है। ईरानी और फिर फारसी में क्षथ्र का रूप बदला। क्ष व्यंजन से ध्वनि का लोप हुआ और शेष रहा । फिर थ्र से ध्वनि का लोप हुआ और ध्वनि का वियोजन होने से और ध्वनियां अलग-अलग हो गई। इस तरह क्षथ्र का फारसी रूप हुआ शह्र जो उर्दू में भी शह्र और हिन्दी में शहर बन कर प्रचलित है। स्थान नाम के साथ क्षेत्र शब्द का इस्तेमाल हमारे यहां होता रहा है। खेत इसका ही रूपांतर है जैसे सुरईखेत, छातीखेत, साकिनखेत, रानीखेत। ये सभी स्थान उत्तराखण्ड में आते हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह अपने मूल स्वरूप में नज़र आ रहा।
हर की खासियत होती है उसका फैलाव या विस्तार। जरथ्रुस्तवादी (पारसी) अगर अपने देश को आर्याणाम-क्षथ्र कहते थे तो उसमें आर्यों के विशाल क्षेत्र में फैलाव का भाव ही था, जो सिन्धु से लेकर वोल्गा तक विस्तृत था। देवनागरी के क्षः वर्ण में ही विस्तार छुपा है। क्षः (क्षह्) का अर्थ भी क्षेत्र, खेत और किसान ही होता है। संस्कृत के क्षेत्र का अर्थ होता है भूमि, मैदान अथवा स्थान। यह बना है क्षि धातु से जिसमें आघात करना, प्रलय, उथल-पुथल जैसे भावों के साथ शासन करना या राज्य करना जैसे भाव भी हैं। क्षि धातु से ही क्षत, क्षति जैसे शब्द बने है, जिनमें चोट, जख्म, हानि, बर्बादी जैसे भाव शामिल हैं। जंग में मारे जाने के लिए एक मुहावरा खेत रहना भी प्रचलित है जिसका अभिप्राय यही है कि शरीर से प्राणों की मुक्ति। क्षि जिससे बने क्षिति शब्द के मायने व्यापक हैं। क्षिति यानी पृथ्वी, घर आदि। आसमान के अर्थ में क्षितिज में इसका विस्तार समझना मुश्किल नहीं है।  यूं इसका अर्थ हुआ, जो क्षिति से जन्मा हो। गौर करें क्षितिज-रेखा पर। पृथ्वी से आसमान जहां मिलते नजर आते हैं। शायद प्राचीन मानव को यहां से आसमान उगता नज़र आया हो!!! यानी प्राचीन मानव ने आसमान को पृथ्वी से उत्पन्न समझा। हिन्दी में यूं तो क्षेत्र से कई शब्द बने हैं, पर कुछ शब्दों का इस्तेमाल खूब होता है। जैसे, क्षेत्रफल यानी किसी इलाके की लंबाई-चौड़ाई का आंकड़ा। क्षेत्रीय का अर्थ खेत संबंधी भी होता था, अब यह सिर्फ इलाकाई या आंचलिक के अर्थ में बरता जाता है। क्षेत्रपाल एक क्षत्रियों का एक सरनेम भी है। क्षेत्राधिकार, वनक्षेत्र, भूक्षेत्र आदि।
क्षह् का अगला रूप ह् होता है। खः में निहित अंतरिक्ष, आकाश, ब्रह्म जैसे भावों और क्ष से बने अक्षर शब्द के अविनाशी, ब्रह्म जैसे अर्थों पर अगर गौर करें, तो देखते हैं मूलतः इनमें खालीपन और विस्तार का ही भाव समाया है, जिसे अंग्रेजी मे स्पेस कहा जाता है। यह  अरबी के ख़ला (खाली स्थान, शून्य, अंतरिक्ष), ख़ल्क़ ( संसार, राज्य) जैसे शब्दों में भी साफ हो रहा है। क्षेत्र ने ही खेत का रूप लिया। पृथ्वी की सतह पर जितनी भी खाली जगह है, क्षेत्र कहलाती है।  भूमि का वही क्षेत्र खेत कहलाता है, जिसे जोता जा सके। धरती के कठोर सीने को हल की नोक से छील कर मुलायम मिट्टी मे तब्दील करने की प्रक्रिया ही जुताई है। यहां आकर क्षिति शब्द में अंतर्निहित हानि, विनाश अथवा आघात जैसे शब्दों का अर्थ जुताई के संदर्भ में साफ़ होता है। क्षि धातु से ही क्षत, क्षति जैसे शब्द बने है जिनमें चोट, जख्म, हानि , बर्बादी जैसे भाव शामिल हैं। जंग में मारे जाने के लिए एक मुहावरा खेत रहना भी प्रचलित है जिसका अभिप्राय यही है कि शरीर से प्राणों की मुक्ति।
ह्र या शहर के मायने चाहे उर्दू हिन्दी मे सीमित हैं मगर इसके मूल शब्द क्षेत्र की व्यापकता ही शहर में भी है। शहर का अर्थ चान्द्रमास भी होता है और ईरानी कैलेंडर के हर महिने में एक भाव या संकेत है। एक महिना होता है शहरेवर (शह्रेवर) जो 23 अगस्त से 22 सितम्बर के दरमियान आता है। मद्दाह के मुताबिक यह क्वार का महिना हुआ मगर यह कातिक और अगहन के बीच पड़ता है। इसका भाव है राज्य-प्राप्ति की अभिलाषा। शहरेवर शब्द मूलतः अवेस्ता से आया है जहां इसका रूप था क्षथ्र-वैर्य (Kshathra Vairya) जिससे बना शहरेवर (Shahrivar). स्पष्ट है कि शहर यानी राज्य और वैर्य यानी अभिलाषा यानी वर। फारसी में शहर शब्द के साथ कई तरह के विशेषण भी लगते हैं जैसे शहरबंद यानी दुर्गनगरी। शहरबदर यानी जिसे बस्ती से निकालने का फ़रमान हुआ हो। शहरयार यानी शासक, राजा, बादशाह। इसके अलावा शहरी, शहरियत, शहराती जैसे शब्दों की आमद भी इधर से ही हुई है। शहर अपने आप में बस्ती है, पर नगर की तरह इसके आगे भी कुछ संज्ञाएं लगने से कई बस्तियां जानी जाती हैं जैसे बुलंदशहर, अनूपशहर, नवांशहर आदि।
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Wednesday, November 18, 2009

क़स्बे का कसाई और क़स्साब [आश्रय-22]

2279944033_9cdb19c499_o पिछली कड़ियां-मोहल्ले में हल्ला [आश्रय-21] कारवां में वैन और सराय की तलाश[आश्रय-20] सराए-फ़ानी का मुकाम [आश्रय-19] जड़ता है मन्दिर में [आश्रय-18] मंडी, महिमामंडन और महामंडलेश्वर [आश्रय-17] गंज-नामा और गंजहे [आश्रय-16]

रि हाइश के लिए मनुष्य सबसे पहले किसी स्थान का चयन करता है। वहां कोई आश्रय बनाता है जिसमें मुख्यतः निर्माण के नाम पर चाहरदीवारी और छप्पर ही खास होता है। सभ्यता के विकास के साथ आश्रयों की निर्माण तकनीक और बसाहट में परिष्कार हुआ। सुव्यवस्थित आशियाने बनें और उनके समूह को धीरे-धीरे बस्ती का रूप मिलता गया। किसी सामूहिक रिहाइश के लिए आज बस्ती, पुर, कटरा, कस्बा, मोहल्ला, नगर, किला, मण्डी, सराय, शहर, गंज, सिटी और शहर जैसे अनेक नाम मिलते हैं। दिलचस्प यह कि ये सभी नाम किसी वक्त सिर्फ छप्पर और चहादीवारी से बनी एक आवासीय इकाई भर थे। बाद में सामूहिक बसाहटों के नाम भी इन्हीं से बनते चले गए। भारत में क़स्बा qasba एक आम शब्द है। गांव से कुछ बड़े और नगर से छोटी बसाहट को क़स्बा कहा जाता है। ज़िला या तहसील जैसी कोई प्रशासनिक परिभाषा के दायरे में क़स्बा नहीं आता यह अपने आप में एक ऐसी बसाहट होती है जिसमें नगरोन्मुखी संस्कार होता है। क़स्बा मूलतः सेमिटिक शब्द है और इसकी अर्थवत्ता व्यापक है। इसका अरबी रूप qasbah होता है।
क़स्बा बना है अरबी की क़स्ब qasb धातु से जिसमें काटना, आघात करना, जिबह करना, खोखला करना, पृथक करना, आंत, बांस, वंशी, सरकण्डा, नरकुल, पाईप, पानी का नल, नहर, एक्सल, अक्षदण्ड, आधार स्तम्भ, क़िला, कोठी जैसे अर्थ निहित हैं। इन सभी अर्थों पर गौर करें तो क़स्ब में खोखला, रिक्त या खाली स्थान का भाव उभरता है। खोखलेपन का यही भाव बांसुरी, बांस में विस्तारित हुआ। जानवरों को जिबह करने के बाद उनके आंतरिक अंगों को निकालने के बाद सिर्फ img_1233खाल की खोखल ही बचती है जिसमें भूसा भर कर मृत जीवों के वास्तविक मॉडल बनाए जाते थे। पुराने ज़माने में पशुओं की खाल से तम्बू, शामियाने बनाए जाते थे। आश्रय निर्माण की प्राचीन तकनीक पहाड़ी कोटरों को चौड़ा कर, काट छांट कर रहने योग्य बनाने की ही थी। कहने का मतलब यह कि चारों और से घिरे, सुरक्षित रिक्त स्थान का भाव ही कस्ब में मुख्यतः है जो इसे आश्रय से जोड़ता है।
यूं काटने, आघात करने जैसे भावों का विस्तार जिबह करने में हुआ। उर्दू का क़साई शब्द इसी मूल से निकला है। क़स्ब से बना क़साब Kasab या क़स्साब Qassab / Kassab जिसका मतलब है पशुओं को जिबह करनेवाला, खाल उतारनेवाला। इस वर्ग के लिए पूर्वी प्रांतों जैसे बिहार, बंगाल में बक्र-कसाब यानी बकरा जिबह करनेवाला शब्द भी है। हिन्दुओं में खटीक या खटिक जाति होती है जो अति पिछड़े और निम्न वर्ग में आती है। मूलतः ये लोग मांस का धंधा करते हैं। बक्र-कसाब की तरह इनके लिए भी हिन्दी शब्दसागर में बकर खटीक शब्द मिलता है। खटीक शब्द संस्कृत के खट्टिकः से बना है। इसमें शिकारी का भाव है। शिकार के लिए आखेट इसी मूल से आ रहा है। हिन्दी में शिकारी को अहेरी कहते हैं जो आखेटकः से बना है और आखेटकः > आखेड़क > आहेड़अ > आहेड़ा > अहेरी के क्रम में रूपांतरित हुआ।
क़स्ब धातु में निहित काटने, पृथक करने के भाव की व्याख्या कुछ विद्वान एक किले की संरचना में देखते हैं। उनके मुताबिक क़स्बा यानी किले की ऊंची दीवारे उसे शेष इलाके से काटती हैं, पृथक करती है, इसीलिए गढ़ी या दुर्ग के लिए अरबी में क़स्बा नाम पड़ा।  किले की दीवार को भी फ़सील इसलिए कहते हैं क्योंकि यह वीराने और आबादी में फ़ासला बताती है। फ़सील और फ़ासला एक ही मूल से जन्मे हैं। यह भी माना जा सकता है कि क़ला (किला) या मोहल्ला की तरह क़स्बा भी किसी ज़माने में फौजी पड़ाव रहा होगा। गढ़ी या दुर्ग के बाहर भी खेमे लगते होंगे और उन्हें भी कस्बे की अर्थवत्ता मिली होगी। बाद में जब दुर्ग-नगर को नया नाम मिला तब भी इस बस्ती की पहचान कस्बा के रूप में सुरक्षित रही। ठीक वैसे ही जैसे कई शहरों में छावनी, पड़ाव, कैंट जैसी आबादिया मिलती हैं। खेमों से कस्बा का सादृष्य क़स्ब धातु में निहित अर्थ आधार-स्तम्भ या अक्षदण्ड से उभरता है। किसी भी निर्माण के लिए आधारस्तम्भ का होना बहुत ज़रूरी है। तम्बू का आधार एक मुख्य स्तम्भ ही होता है। अरबी स्थापत्य कला में मीनारों का स्थान महत्वपूर्ण है। किसी मीनार के बीचोबीच जिस मुख्य स्तम्भ या पोले पाईप के सहारे सीढ़ियां ऊपर जाती हैं, उसे भी क़स्बा ही कहते हैं। ये सभी संदर्भ तार्किक और प्रामाणिक है। पर्वतीय गुफा को चौड़ा करते हुए भी उसमें आधार-स्तम्भ बनाना आवश्यकत होता था वर्ना छत के ढहने का खतरा था।
क़स्बा के जो प्रचलित अर्थ शब्दकोशों में मिलते हैं, जैसे गांव से बड़ी बसाहट, छोटा शहर, बड़ी बस्ती वगैरह, वह दरअसल दुर्ग-नगर वाले अर्थ का विस्तार है। क़स्बा किसी ज़माने में दुर्ग था। उससे भी पहले सिर्फ पहाड़ी आश्रय था। बाद में इसमें दुर्ग-नगर की अर्थवत्ता ग्रहण की क्योंकि यह छोटी आबादी ही होती है। प्रसिद्ध दुर्गों के नाम वाली बस्तियां बाद में उन्हीं के नामों से प्रसिद्ध हो गईं जैसे पठानकोट, सियालकोट, कोट्टायम, कोटा और दुर्ग आदि। मगर ये अब बड़े शहरों में तब्दील हो चुके हैं। जाहिर है कि दुर्ग के भीतर की बसाहट हमेशा सीमित होती है। आबादी का विस्तार परकोटे से बाहर जब होता है तब दुर्ग-नगर क़स्बा के स्थान पर नगर या शहर कहलाता है। क़स्बा का दुर्ग-नगर वाला अर्थ बाद में उन सभी छोटी आबादियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा जहां दुर्ग का अस्तित्व नहीं था। एशिया के कई शहरों में कस्बा नाम की बस्तियां हैं। मध्यप्रदेश के सीहोर में कस्बा बस्ती है। कोलकाता का एक उपनगर क़स्बा ही कहलाता है। अरब में अल-कस्बाह नाम की कई आबादियां है। मलेशिया में जॉर्जकस्बा नाम का एक पर्यटन स्थल है। स्पेन में एक जगह है अल्काज्बा या अल्काज्वा। जाहिर है यह अरबी के अल-कस्बाह का ही रूपांतर है। आज का कस्बा अपनी आबादी के लिए कम और मानसिकता के लिए अधिक जाना जाता है। कस्बे की संकुचित सीमाओं का बयान ही कस्बाई मानसिकता मुहावरे में भी झलक रहा है जिसका अर्थ होता है छोटी, संकुचित या अपरिष्कृत सोच होना।

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Tuesday, November 17, 2009

मांझे की सुताई

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मांझा की मज़बूती के बिना न तो पतंग ऊंची उड़ेगी और न ही तगड़े पेच लड़ेंगे।
कि सी कार्य में सिद्धहस्त और निष्णात व्यक्ति को मंजा हुआ कहा जाता है। किसी कला में पारंगत होने के लिए  व्यक्ति को अभ्यास के जरिये उसे मांजना पड़ता है। जिस मांजना शब्द का मुहावरेदार प्रयोग यहां हो रहा है उसका प्रयोग ही बर्तन मांजने में भी होता है। दरअसल अभ्यास, परिष्कार के संदर्भ में मांजना शब्द का मूल अर्थ है चमकाना या निखारना। संस्कृत के मार्जः शब्द से हिन्दी में कई शब्द बने हैं जिन्हें हम आए दिन इन्हीं अर्थों में प्रयोग करते हैं।  मार्जः बना है मृज् धातु से जिसमें धोना, पोंछना, साफ करना, बुहारना जैसे भाव निहित हैं। आप्टे कोश के मुताबिक मार्जः का अर्थ स्वच्छ करना, निर्मल करना है। विष्णु का एक विशेषण भी मार्जः है। सुबह उठकर दांतों को साफ़ करने की क्रिया को दांत मांजना या मंजन करना कहते हैं। यह मार्जन से बना है जिसमें शरीर पर उबटन लगाना, रगड़ कर पोंछना के साथ साथ बुहारना भी शामिल है। टूथपेस्ट और टूथपाऊडर को मंजन कहा जाता है अर्थात दांत साफ करने की ओषधि। किसी कला, क्रिया अथवा व्यवहार में परिष्करण के अर्थ में परिमार्जन शब्द का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है जो इसी मूल से आ रहा है।
मार्जः से एक और शब्द भी बना है मांझा जो हिन्दी के सभी रूपों और शैलियों में एक समान जाना जाता है। पतंग जिस सहारे पर आसमान में उड़ती है वह जाहिर है डोर होती है। यह डोर सामान्य डोर न होकर खास किस्म के अवलेह यानी लेई से आवेष्टित या लिपटी रहती है। सूखने पर यह लेई डोर को मज़बूती प्रदान करती है। इसी डोर को मांझा कहा जाता है। डोर की विशेष किस्म के लेपन से सुताई होती है अर्थात उसकी मंझाई होती है ताकि वह मज़बूत हो सके। यह manjhaमांझना शब्द भी मार्जः शब्द से ही आ रहा है। इसका अभिप्राय भी वही है जो ऊपर उल्लेखित मांजना का है अर्थात रगड़ना, चिकना करना आदि। सूतना यानी सूत्रण अर्थात धागा अथवा सूत बनाना। जाहिर है सूतना क्रिया किसी रस्सी की बटाई और उसे मज़बूती देने की क्रिया के अर्थ में इस्तेमाल हो रहा है। पतंग के पेच लड़ाने में मांझे की मज़बूती बहुत ज़रूरी है। ये सभी अर्थ यहां सिद्ध हो रहे हैं।

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Monday, November 16, 2009

भरी जवानी, मांझा ढीला [मध्यस्थ-4]

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ती र्थंकर, ऋषि या सन्त के अर्थ में मुनि शब्द हिन्दी के प्रचलित शब्दों में शुमार है। मुनि का अर्थ होता है महात्मा, सन्त, महर्षि, सन्यासी आदि। मुनि शब्द बना है मन् धातु से जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है और इसका प्रसार भारोपीय परिवार की कई भाषाओं में हुआ है। उसकी चर्चा फिर कभी, फिलहाल मुनि की बात जिसमें धर्मपुरुष, चिन्तक, विचारक के भाव भी निहित हैं। मन् का अर्थ होता है सोच-विचार करना, पूजा-आराधना करना, विश्वास, कामना, चिन्तन, देखना, आदर आदि करना। चित्त, हृदय के अर्थ में हिन्दी का मन शब्द भी इसी मूल का है। इस तरह प्रकारांतर से मुनि शब्द में विचारक, चिन्तक, दार्शनिक, ध्यानी, तपस्वी जैसे अर्थ भी स्थापित हुए। यह भी समझा जाता है कि मुनि का रिश्ता मौन शब्द से है। यह इसी मूल का शब्द है। मन् में निहित विचार, चिन्तन जैसे भावों से स्पष्ट है कि व्यक्ति जब चुप रहता है तभी सोचता है, सो मौन से मुनि का रिश्ता सही है। मुनि अपनी तपश्चर्या करते हुए अधिकांश समय मौन-साधना में ही व्यतीत करते है। संस्कृत में मौनिन् शब्द है जिसका अर्थ हुआ चुप रहने की साधना पर अडिग सन्यासी। मुनि अथवा साधु। आप्टेकोश में मौन की व्युत्पत्ति मुनेर्भावः बताई गई है। मुनि से बने शब्दों में मुनिवर, मुनीश, मुनीश्वर जैसे शब्द भी हैं।
alhbdblog 019न् धातु से ही बना है मध्य शब्द जिसका प्रचलित अर्थ है बीच का। यह बीच दरअसल किन्ही दो बिन्दुओं के दरमियान होता है इसलिए इसमें अंदर वाला भाव भी शामिल है। मन अर्थात चित्त की स्थिति शरीर के भीतर समझी जाती है। वैसे भी मन की सत्ता भौतिक कम, आध्यात्मिक अधिक है। जो कुछ भी गूढ़, अबूझ है वह सब आभ्यंतर का विषय है। स्थूल, दृष्यमान और ज्ञात की स्थिति बाह्य मानी जाती है। सो मन, अंदर का विषय है इसलिए इससे बने मध्य में भीतर का भाव भी निहित है। संस्कृत के मध्य का अर्थ बीच का, मध्यवर्ती होता है। मध्यस्थ का अर्थ हुआ जो मध्य में स्थित हो। व्यक्ति या पदनाम के अर्थ में मध्यस्थ निश्चित तौर पर न्यायकर्ता, पंच या प्रधान की जगह पर विराजमान नज़र आता है। तराजू पर गौर करें। उसका संतुलन भी मध्य में ही स्थित होता है। शरीर का आधार मुख्यत पैर हैं, पर संतुलन कमर से ही कायम होता है। इसीलिए उसे मांझा कहा जाता है। मध्यस्थ बिचौलिया भी है। दलाल भी है और ब्रोकर भी। नाविक भी नाव का मुखिया होता है, इसलिए उसे मांझी कहा जाता है।
प्राकृत में मध्य (मध्यम) से मज्झम, मज्झियम, मज्झिम जैसे रूप बनते हैं जिनसे हिन्दी में माँझा, मँझा जैसे शब्द बने। नदी के कछार, तटवर्ती या दोआब का रेतीला इलाका। पंजाब के एक क्षेत्र को माझा कहा जाता है। पंजाब नाम से जाहिर है, Punjabdoabs यह पज+आब अर्थात पांच नदियों रावी, चनाब, सतलुज, व्यास और झेलम का क्षेत्र है, इसीलिए इसे प्राचीन काल में पंचनद कहा जाता था। नदियों के बीच पड़नेवाले क्षेत्र को मांझा (माझा) कहा जाता है। पंजाब में  व्यास और सतलज के बीच का क्षेत्र माझा कहलाता है। मध्य में कटिप्रदेश यानी कमर का हिस्सा, पेट, नितंब, कूल्हा आदि भी होता है। मांझा शब्द में कटि प्रदेश का अर्थ भरी जवानी, ढीला मांझा वाली कहावत से स्पष्ट होता है। यहां मांझा का अर्थ पतली कमर से है। गौरतलब है पतली कमर पर अक्सर वस्त्र ढीले ही रह जाते हैं मांझा ढीला रहता है। बीच की संतान को मंझला या मंझली कहा जाता है। माध्यमिक यानी मध्यम दर्जे का, किसी विकल्प या जरिया के लिए माध्यम, बीच की उंगली के लिए मध्यमा जैसे शब्द इसी मूल से उपजे हैं। दोपहर को सूर्य ठीक सिर के ऊपर यानी आसमान के बीचोंबीच होता है इसलिए परिनिष्ठित हिन्दी में दोपहर के लिए मध्याह्न शब्द चलता है।

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Sunday, November 15, 2009

मियां बराक, ब्रोकर और डीलर [मध्यस्थ-3]

barack_obama_cartoon पिछली कड़ियां-1.मियां करे दलाली, ऊपर से दलील!![मध्यस्थ-2]2.मियांगीरी मत करो मियां [मध्यस्थ-1]

ध्यस्थ के लिए प्रचलित दलाल के लिए अंग्रेजी में ब्रोकर शब्द है। इससे ही मिलता जुलता शब्द है डीलर। गौर करें कि हिन्दी के मध्यस्थ और फारसी के मियांजी शब्दों को अगर छोड़ दिया जाए तो दलाल, बिचौलिया, डीलर, ब्रोकर जैसे तमाम शब्दों का रिश्ता कारोबार या सौदेबाजी से ही जुड़ रहा है। अंग्रेजी के ब्रोकर और डीलर शब्द भी भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। डीलर, डीलिंग, डील, स्टॉकडीलर, डीलरशिप, शेयरब्रोकर, स्टॉकब्रोकर, स्टॉक एक्सचेंज, स्टॉकिस्ट, स्टॉक मार्केट जैसे शब्दों का प्रयोग बोलचाल की हिन्दी में खूब होता है। समानार्थी शब्दों पर गौर करें तो पता चलता है कि शब्द निर्माण की प्रवृत्ति अलग-अलग भाषाओं में भी एक सी ही रहती है। दलाल शब्द में छोटे दुकानदार, रिटेलर, खुदरा व्यापारी का जो भाव है वही भाव अंग्रेजी के डीलर और ब्रोकर में भी है। हालांकि इन सभी शब्दों का अर्थ मोटे तौर पर कमीशन एजेंट ही है। इन सभी शब्दों की मूल धातु पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि इनमें अंश, टुकड़ा, काटना, विस्तारित करना जैसे भाव समाहित है। खुदरा व्यापारी या फुटकर दुकानदार थोक में सामग्री खरीदता है और फिर उसे कई हिस्सों में बांटता है। विभाजित करने की यह प्रक्रिया एक तरह से उस वस्तु का विस्तार ही है। खुदरा शब्द हिन्दी में फारसी से आया। मूलतः यह संस्कृत के क्षुद्र का रूपांतर है जिसका अर्थ होता है अत्यंत छोटा अंश, कम, तुच्छ यानी छोटी वस्तु, लघु इकाई, टुकड़ा आदि। क्षुद्र से फारसी में बना खुर्द जिसमें यही सारे भाव हैं। गौर करें खुर्दबीन यानी सूक्ष्मदर्शी पर। फारसी के खुर्द का हिन्दी में वर्ण विपर्यय हुआ और बन गया खुदरा। खुदरा व्यापारी का अर्थ हुआ छोटा किरानी, फुटकर सामान बेचनेवाला।
ब्रोकर शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में अलग-अलग मत हैं।  ब्रोकर broker एंग्लो-नार्मन brocour या abrocour शब्द का रूपांतर है जिसका अर्थ होता है छोटा व्यापारी, रिटेलर, किरानी, दुकानदार आदि। मूलतः यह वल्गर लैटिन के brocca से रूपांतरित हुआ है जिसका अर्थ होता है नुकीली सलाई, सलाख, छेदना, टुकड़े करना आदि। एक अन्य मत के अनुसार ब्रोकर शब्द स्पैनिश के alboroque का रूपांतर है। अमेरिकन हैरिटेज डिक्शनरी के
dealerअंग्रेजी का ब्रोकर शब्द मूलतः अरबी मूल का है जहां से वह स्पैनी भाषा में पहुंचा
अनुसार इसका अर्थ किसी व्यावसायिक सौदे के सम्पन्न होने की खुशी में होने वाला जलसा या इस मौके पर सौदे के निमित्त दिया जाने वाला उपहार है। इसमें एक मध्यस्थ नज़र आ रहा है, जो सौदा कराने की एवज में उपहार या पारितोषिक प्राप्त करता है। यह दलाल या ब्रोकर है। यूरोप में ब्रोकर शब्द के साथ एक पारम्परिक रस्म यूं ही नहीं जुड़ गई। इस शब्द के अरबी मूल में शुभप्रसंग और मंगलकामना का भाव पहले से विद्यमान है।
स्पैनिश का alboroque दरअसल मूल अरबी शब्द है। गौरतलब है कि मध्यकाल में अरबों ने समूचे भूमध्यसागरीय क्षेत्र पर अपना दबदबा कायम किया था और तब की महाशक्ति स्पेन का एक बड़ा हिस्सा अरबी उपनिवेश था। स्पेन की भाषा-संस्कृति पर अरबों का बहुत गहरा असर है। अरबी शब्द al-baraka (या al-barack) का बना है सेमिटिक धातु b-r-k (बा-रा-काफ) से जिसका अर्थ होता है आशीर्वाद देना, प्रशंसा करना, उपकृत करना, धन्य करना आदि। अरबी के अलावा हिब्रू में भी यह धातु है। al-baraka में भी यही भाव हैं। समृद्धि, वृद्धि या खुशहाली के अर्थ में हिन्दी में इसी मूल से बना बरक्कत शब्द प्रचलित है। मांगलिक अवसरों पर शुभकामना देने के लिए अक्सर मुबारकबाद दी जाती है। यह मुबारक भी इसी मूल से आ रहा है और बराक में मु उपसर्ग लगने से बना है। जाहिर है बराक का अर्थ हुआ शक्तिशाली, विशिष्ट, मांगलिक, समृद्ध आदि। अमेरिका के राष्ट्रपति के नाम के पहले चरण में जो बराक शब्द है वह इसी मूल का है। इस नाम के महत्व को विश्व में इस महाशक्ति की विशिष्ट भूमिका के संदर्भ में देखें तो अल-बराक शब्द से रूपांतरित ब्रोकर शब्द और भी अर्थवान नज़र आता है। दुनियाभर के इस स्वयंभू पंच की सौदागरी को ध्यान में रख कर आप मध्यस्थ, दलाल, ब्रोकर या डीलर क्या कहना चाहेंगे? चाहें तो अंकल सैम की तर्ज पर अमेरिका के लिए मियां सैम विशेषण भी चला सकते हैं।
ब आते हैं डीलर शब्द पर। यह प्रोटो-इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है और अंग्रेजी के डील से बना है। इसका मतलब है सौदा, हिस्सा, अंश, मात्रा या परिमाण जिनमें अंततः बंटवारा, विभाजन का ही भाव है। इसके अलावा इसमें न्याय करने का भाव भी है। किसी भी किस्म का बंटवारा या विभाजन एक सुलझाव है। इसे न्याय कहना भी तार्किक है। जाहिर है डीलर शब्द का अर्थ हुआ छोटा दुकानदार, सौदेबाज, कमीशन एजेंट आदि। यह बना है पोस्ट जर्मनिक के डैलाज़ dailaz से। लिथुआनी में इसका रूप होता है dalis, डच में यह deel के रूप में उपस्थित है। मूलतः ये सभी शब्द dal जर्मनिक धातु dailiz से निकले हैं। प्रख्यात भाषाविद् जूलियस पकोर्नी के मुताबिक इसकी रिश्तेदारी भारोपीय धातु दा (?) से है। हमारा मानना है कि यह संस्कृत की दल् धातु से मिलती-जुलती होनी चाहिए जिसमें विभक्त होना, विस्तारित होना, फैलना, तोड़ना, ढेर बनाना आदि भाव हैं।  हिस्सा, अंश या विभाजन के रूप में डील की तुलना संस्कृत के दलम् शब्द से करें। दल में बंटवारे का भाव स्पष्ट है। किसी वस्तु को महीन करना, खण्ड खण्ड करना, तोड़ना, पीसना, जैसे भाव दल में हैं। दल से हिन्दी के कई शब्द बने हैं। दलित, दलन, दलना, दलिया, दलगत, दलीय, दल-बदल आदि। राजनीतिक पार्टी के लिए दल शब्द बहुचर्चित है। दलपत एक व्यक्तिनाम है। इसका मूल रूप है दलपति अर्थात किसी समूह या धड़े का स्वामी। अरबी के दलाल में, फारसी के मियांजी में और जर्मनिक के dailiz में समाए न्यायकर्ता के भाव से दलपति की अर्थवत्ता का मिलान करना दिलचस्प होगा। अंग्रेजी के डीलर और अरबी के दलाल शब्द को हिन्दी के दल शब्द की छाया में तौल कर देखें तो एकरूपता दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है सेमिटिक परिवार के दलाल शब्द का रिश्ता भी सस्कृत के दल शब्द से निकले किन्ही शब्दरूपों से रहा होगा।  -जारी
ये कड़ियां ज़रूर देखें- 

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  • पामीर खुर्द से चीन कलां तक...[क्षुद्र-5]
  • बाटला खुर्द से देहली खुर्द तक...[क्षुद्र-4]
  • बेईमानी-साजिश की बू है खुर्दबुर्द में [क्षुद्र-3]
  • छुटकू की खुर्दबीन और खुदाई [क्षुद्र-2]
  • खुदरा बेचो, खुदरा खरीदो [क्षुद्र-1]

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