पिछली कड़ियां-1.नाम में क्या रखा है 2.सिन्धु से इंडिया और वेस्ट इंडीज़ तक 3.हरिद्वार, दिल्लीगेट और हाथीपोल 4. एक घटिया सी शब्द-चर्चा 5.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी 6.नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल 7.दुबे-चौबे, ओझा-बैगा और त्रिपाठी-तिवारी 8.यजमान का जश्न और याज्ञिक
पु कौटिल्य ने राज्य प्रशासन में अमात्य के बाद पुरोहित को ही सबसे महत्वपूर्ण बताया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पुरोहित को राष्ट्रगोपः कहा गया है। याद रहे गोपः शब्द का अर्थ होता है राजा या पालनकर्ता। गोपाल शब्द इसी मूल से आया है। गो अर्थात पृथ्वी और पाल यानी पालनकर्ता अर्थात जो भूपति है, राजा है, सबका पालनकर्ता है, वही गोपाल है। राष्ट्रगोपः का अर्थ हुआ सबका स्वामी। शुक्रनीति में भी पुरोहित को पूरे देश का पालनकर्ता कहा गया है। पुरोहित के परिचय में कहा गया है- “जो मंत्र और अनुष्ठानों में कुशल, तीनों वेदों का ज्ञाता, कर्म में तत्पर, जितेन्द्रिय, जित-क्रोध, लोभ-मोह रहित, षडांगों का ज्ञाता, धनुर्विद्या में निष्णात और धर्मरत है। जिसके कुपित हो जाने के भय से राजा धार्मिक जीवन व्यतीत करता है। जिसे नीतिशास्त्र और आयुधों का ज्ञान है। जो शाप और अनुग्रह में समर्थ है, वही पुरोहित, आचार्य है।” सुश्रुत संहिता में पुरोहित को वैद्य से श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि वैद्य वेदों के उपांग आयुर्वेद का अध्येता होता है जबकि पुरोहित वेदों को पढ़ाता है इसलिए अच्छे वैद्य को चाहिए कि हमेशा पुरोहित से परामर्श कर अपने ज्ञान का परिमार्जन करता रहे।
पुरोहित हिन्दू संस्कृति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवयवों में एक है। ऋग्वेद में पुरोहित शब्द का उल्लेख अनेक बार हुआ है। भारतीय समाज में कर्मकांड व धार्मिक आचार सम्पन्न करानेवाला पुरोहित कहलाता है। मोनियर विलियम्स के मुताबिक पुरोहित शब्द बना है पुरस् +हित से। मैक्डोनल और कीथ के वैदिक इंडेक्स के मुताबिक यह पुरो+हित से आ रहा है। अन्य लोग इसे पुरः+ हित से बताते हैं। पुरस् शब्द पूर्व से आ रहा है जिसका अर्थ है पहले से, सामने की ओर, सम्मुख आदि। हित में कल्याण का भाव है। इस तरह पुरोहित का अर्थ हुआ सामने खड़ा रहनेवाला या नियुक्त। भाव है अपने हितार्थ, कल्याणार्थ नियुक्त व्यक्ति। पुरोहित में दूत का भी भाव है। वामन शिवराम आप्टे के अनुसार पुरोहित का अर्थ है कार्यभार सम्भालने वाला, अभिकर्ता या दूत। मूलतः पुरोहित शब्द की अर्थवत्ता धार्मिक कर्मकांड, विधि-विधान का संचालन करने वाले व्यक्ति के रूप में ही स्थापित होती है। आर्यों की घुमक्कड़ी के दौर में विभिन्न जत्थे लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर आप्रवासन करते थे। पुरोहित की भूमिका अग्रदूत की थी जो समूह के नेता की ओर से निर्दिष्ट गंतव्य तक जाकर वहां की व्यवस्था देखता था ताकि उसके पीछे निर्विघ्न समूह के अन्य लोग आ सकें। पुरोहित ही उस स्थान के बारे में अधिक जानकारी रखता था अतः वही लोगों को उस स्थान के भूगोल भोजन, पानी, रिहाइश से संबंधित जानकारियां और दिशा-निर्देश देता था। अग्रदूत से अपने कर्तव्यों की शुरुआत करनेवाला पुरोहित कालांतर में अमात्य, प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्य संरक्षक की भूमिका निभाता नजर आता है।
गौरतलब है कि ऋग्वेदकाल में पुरोहित का कार्य किसी जाति विशेष से जुड़ा हुआ न था। वैदिक युग में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था नहीं थी। गौरवर्ण आर्यों में खुद को कृष्णवर्ण अनार्यों से श्रेष्ठ देखने, फर्क करने की प्रवृत्ति / ग्रंथि जरूर थी। संभवतः चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के बाद यही ग्रंथि समाज में रसौली बनकर उभरी। समूह का पुरोहित परम्परा, तेजस्विता अथवा वरिष्ठता के आधार पर चुना जाता था। वेदों में कहा गया है-तीक्ष्णीयांसः परशोरग्नेस्तीक्ष्णतरा उत। इन्द्रस्य वज्रात् तीक्ष्णीयांसो येषामस्मि पुरोहितः ।। यानी जिस प्रकार के शिक्षक होंगे, वैसे ही शिष्य होंगे। यदि शिक्षक हीनवीर्य्य, हतोत्साह होंगे तो राष्ट्र में उत्साह-बलादि का अभाव रहेगा। विद्वानों के मुताबिक ब्राह्मण धर्मग्रंथों में ऋषियों के कुलनामों की जो सूचियां मिलती हैं, उनमें बहुत घालमेल हुआ। यह सच है कि पुरोहित व्यवस्था के अंतर्गत ही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था अस्तित्व में आई। जिसके तहत पुरोहितों ने खुद को ब्राह्मण वर्ण में रखा। यह जरूरी भी था। भवभूति का एक उद्धरण महत्वपूर्ण है-“ विद्वान ब्राह्मण जिस राष्ट्र का रक्षक पुरोहित होता है वह राष्ट्र न तो व्यथित होता है न जीर्ण और न आपत्ति से आक्रान्त होता है।” स्पष्ट है कि इससे पूर्व पुरोहित पद किसी जाति की बपौती नहीं था किन्तु कुल वंश परम्परा के आधार पर ही पुरोहित पद चलने का प्रचलन था। इतना महत्व द्विजश्रेष्ठ को ही मिलना चाहिए इसीलिए पुरोहित अर्थात यज्ञादि धार्मिक कर्मकांड करानेवाले वाले वर्ग को ब्राह्मण वर्ग में रखा गया। विद्वानों के मुताबिक अथर्ववेद आर्यों के अथर्वन् समूह की संहिता रही होगी। अथर्वन् का अर्थ है अग्निपूजक पुरोहित। अवेस्ता में भी इसी अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है। अग्निपूजक मागियों का रिश्ता मग पुरोहितों से है। अथर्ववेद के मंत्रों से स्पष्ट है कि पुरोहित देवताओं का आह्वान करते थे। मंत्रों में प्राकृतिक शक्तियों के लिए जो सहज संबोधन था, कालांतर में उनमें चमत्कारिक प्रभाव समझा जाने लगा। यहीं से तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके की शुरुआत हुई। उत्तम शक्तियों अर्थात देवताओं का आह्वान करनेवाले पुरोहितों का वर्ग अलग हुआ और निम्न शक्तियों मसलन भूत-प्रेत का आह्वान करनेवाले पुरोहित हीन श्रेणी के माने जाने लगे जिनमें ओझाई करनेवाले भी हैं और श्राद्धकर्म या मृत्यसंस्कार करानेवाले ब्राह्मण भी हैं। मग से ही मागी बना और फिर इससे मैजिक शब्द बना। मशीन शब्द भी इसी कड़ी का हिस्सा है और माया भी। अथर्ववेद से जुड़े जादू-टोने के तार मंत्र-शक्ति की काल्पनिक सर्वव्यापी छवि दिखाते हैं। यह भी समझ में आता है कि अग्नि को ही मनुष्य ने आदिमकाल से परम चमत्कारिक शक्ति माना। इसके ताप, दीप्ति और विनाशक प्रभाव में चमत्कार रचने के सारे अवयव मौजूद हैं। अग्निपूजा से जुड़े भव्य और नाटकीय मंत्रोक्त अनुष्ठानों ने समाज में मंत्रशक्तियों के अलौकिक प्रभाव और भ्रम को रचने में भारी योगदान किया। मगों को इसीलिए पश्चिम में जादूगर के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। ग्रीक उद्धरणों में उनके लिए मगास शब्द का प्रयोग हुआ है। याद रहे, जादूगर जब तक मुंह से आग न निकाल दे अथवा अस्फुट उच्चारों के जरिये शून्य से अग्नि पैदा न कर दे, उसका प्रभाव नहीं जमता।
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