आजादी के साठ बरस पूरे होने की सभी को बधाई
इब्ने इंशा भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत बड़े शायर हैं। इंशाजी मुझे प्रिय है न सिर्फ इसलिये कि उनकी शायरी में रूमानियत एकदम जुदा अंदाज़ में नज़र आती है बल्कि इसलिए भी कि उनकी मानवीय संवेदना जिसके दायरे में एक अकाल पीड़ित बच्चा भी आ जाता है। यहां पेश है इंशा साहब की एक नज़्म
जौ बकौल उनके एक सूखाग्रस्त मरियल बच्चे ने उनसे लिखवाई है। इस नज्म को कालेज के ज़माने से में पढ़ता रहा हूं और हर बार एक अजीब सी उदासी मन को घेर लेती है। ये नज्म जाहिर है कि कई दशक पहले की है मगर दुनिया में आज भी ऐसे बच्चे है जो इस नज्म को पढ़े बिना भी हमें अपने चारों ओर नज़र आते हैं। इस कविता के बारे में डॉ अब्दुल बिस्मिल्लाह के शब्दों में कहें तो आखिर तक पहुंचते पहुचते ये एक बच्चे भर की नज्म नहीं रह जाती बल्कि वह एक ठोस जीवन-दर्शन आपके सामने रख देती है। इंशाजी अपने स्वाभाविक भोलेपन के साथ घोषणा करते है कि इस जग में सबकुछ रब का है, जो रब का है वो सबका है। इस नज्म ने मुझ पर बहुत गहरा असर डाला है। आप भी इसमें शामिल हों। आपसे गुजारिश है कि इस नज्म को एकबारगी पूरा पढ़ जाएं और फिर ये आपको सोचने पर मजबूर कर देगी।
(१)
यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा काला काला सा
यह काला सा मटियाला सा
यह बच्चा भूखा भूखा सा
यह बच्चा सूखा सूखा सा
यह बच्चा किसका बच्चा है ?
जो रेत पे तन्हा बैठा है
ना इसके पेट मे रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी अब्बू हैं
ना इसके आपा खाला हैं
यहा सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
(२)
यह सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल हैं
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में खो़शा है
ना इस सहरा में सब्ज़ा है
ना इस सहरा में साया है
यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का सहरा है
(३)
यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है
यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किसकी दुनिया है
(४)
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्ज़ा है
कहीं बादल घिर-घर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊंचे महल अटरिया हैं
कहीं महफिल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाजार सजे
यह रेशम है ,यह दीबा है
कहीं गल्ले के बाजार सजे
सब गेहूं धान मुहय्या है
कहीं दौलत के संदूक भरे
हां, तांबा, सोना रूपा है
तुम जो मांगो सो हाजिर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सहरा है?
वो किस धरती के टुकड़े हैं
यह किस दुनिया का हिस्सा है?
(५)
हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
वह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फर्क नहीं
इस धरती पर हक सबका है
(६)
यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहां बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
(क्या मुश्किल है हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हां,दूध यहां बहुतेरा है )
इस बच्चे का कोई तन ढांके
(क्या कपड़ों का यहां तोड़ा है)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इन्सान जो अब तक जिंदा है)
फिर देखिये कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है !
(७)
इस जग में सबकुछ रब का है
जो रब का है वो सबका है
सब अपने हैं कोई गैर नहीं
हर चीज़ में सबका साझा है
जो बढ़ता है, जो उगता है
वह दाना है या मेवा है
जो कपड़ा है या कंबल है
जो चांदी है, या सोना है
वह सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है, जो मेरा है
यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा सबका बच्चा है
8 कमेंट्स:
अति मार्मिक और अनेकों प्रश्न लिये हुये.
अपनी सरलता में भयानक गहराई लेकर चलते हैं इंशाजी..
भई वाह ही वाह
क्या कहने इंशाजी के।
व्यंग्यकार बड़े थे, शायर बड़े थे।
अब के तमाम बाबा और बाबियों के देखकर उनकी दो लाइनें बहुत याद आती हैं-
ये जो महंत बैठे हैं राधा के कुंड पे
अवतार बनकर टूटेंगे परियों के झुंड पे
वाह वाह
मेरे प्रिय शायर हैं इब्ने इंशा । आपने आज का दिन बना दिया उन्हें पेश करके ।
उनकी एक गजल गुलाम अली ने गाई है । मुझे बहुत पसंद है---
ये बातें झूठी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम ना लो
इंशा तो सौदाई हैं
सरजी
ये उल्लू के पठ्ठे शब्द की पैदाइश और विकास यात्रा पर अगर हो सकें, तो प्रकाश डालें अपनी शब्दावली में।
इब्ने इंशाजी की खूबसूरत रचाना पेअश करने के लिए आपके प्रति हार्दिक आभार।
अजितभाई...
शायर जो देखता है वही लिखता है..अपना परिवेश,अपनी तहज़ीब,अपने लोग और अपने समाज के चित्रों को शब्द देता है शायर.शब्दों के सफ़र में सबसे मर्मस्पर्शी प्रविष्टि है इब्ने इंशा की नज़्म.पंद्रह अगस्त पर इसके पढ़ने की सार्थकता है...शायर/कवि का लिखा कालातीत होता है इस पसेमंज़र में इस नज़्म को देखिये लगता है आज ही की बात है.वंदेमातरम.
इंशा जी बला के तंजनिगार थे. उनकी 'उर्दू की आख़िरी किताब' जो नागरी में भी प्रकाशित हो चुकी है उनकी प्रतिभा का नायाब नमूना है.
शायरी में वे सीधे सादे देशज शब्दों का इस्तेमाल बख़ूबी करते थे. और इसकी वजह से उनकी ग़ज़लों/नज़्मों में जो ज़मीन की ख़ुशबू आती है वह अनूठी है.
उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी अक्सर उनकी शायरी में झाँकता है,
पीत करना तो हमसे निभाना सजन, हमने पहले ही दिन था कहा
ना सजन?
तुम ही मजबूर हो, हम ही मुख़्तार हैं, ख़ैर माना सजन, ये भी
माना सजन :)
और फिर उनका वो रूप जो आपकी पेश की हुई नज़्म में झाँकता है.
उन्हीं का एक शे'र है,
सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग
'मीर', 'नज़ीर', 'कबीर' और 'इंशा' सब का एक घराना हो
सचमुच नज़ीर और कबीर के घराने के शायर.
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