कलनिर्मल आनंद में देखा कि अभय भाई के मन में भी पांडेय जी के मन वाली मानसिक हलचल चल रही थी। अभयजी का मौलिक चिंतन-फल क्यों मीठा होता है? पढ़ कर अच्छा लगा। चंद्रभूषणजी ने उसकी बहुत अच्छी विवेचना की है। मुझे लगता है कि मानव में श्रेष्ठताबोध आ जाए इसलिए तथाकथित ईश्वर ने सृष्टि-रचना नहीं की होगी। दरअसल सारा संसार ही ईश्वर का रूप है और इसमें मनुश्य पशु जैसा कोई भेद नहीं । समूची सृष्टि में जो कुछ जड़,चेतन, चराचर है सब ईश्वरमय है। अभय भाई की चंद पंक्तियों ने ही दरअसल इस पोस्ट के लिए प्रेरित किया। ये अलग बात है कि उनके चिंतन से ये कितना जुड़ पाती है।
संस्कृत के परम विद्वान डॉ पांडुरंग राव ने सहस्रधारा में बहुत सुंदर विवेचना करते हुए लिखा है कि सृष्टिकर्ता की सृष्टि में जितने पशु-पक्षी हैं, पेड़-पौधे हैं,ज़ड़-चेतन पदार्थ हैं सबको भगवान के रूप में ही प्रकट किया गया है। बरगद, अंजीर , पीपल आदि वृक्षों में, किरणों में, पानी में, हवा में, आग में, वीरों में, शूरों में, धीरों में, प्राणियों में , प्राण में, प्रणव में , प्रमाण में , बीज में, स्तुति में, स्तोता में, धाता में, विधाता में, आधाता में, अर्थ में, अनर्थ में, योग में, भोग में, बैल में, सांप में, सिंह में, कमल में, चांद में, सूरज में , सोने में, सुगंध में सर्वत्र परमात्मा का अंश विद्यमान बताया जाता है। विष्ण सहस्रनाम का पहला श्लोक है-
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद् भूतभृद् भावो भूतात्मा भूतभावनः ।।
इसकी व्यख्या में आगे वे लिखते हैं -विश्व ब्रह्म का वाचक है। सारा संसार जिसे विश्व कहा जाता है, विश्वात्मा का व्यक्त रूप है। मूल विराट् परमात्मा का न कोई रूप है और न कोई रंग। प्रणवनाद की तरह वह के वल शब्द ब्रह्म के रूप में आकाश में सर्वत्र फैला है। जबतक वह आकाश रूपी ब्रह्म में व्याप्त रहता है, उसे न कोई सुन सकता है, न छू सकता है, न देख सकता है, न पा सकता है। वही निराकार, निर्लिप्त, निरंजन और निस्स्वन जब सुनने,छूने, देखने , पऱखने और लेने-देने का जीता-जागता रूप धारण कर लेता है तब वह विश्व के रूप में हमारे सामने आता है।
विश्व की उत्पत्ति विश् धातु से होती है जिसका मतलब है प्रवेश करना। निराकार ब्रह्म साकार जगत् की रचना करके उसमें प्रवेश करता है। स्रष्टा अपनी स्रष्टि में इस प्रकार समा जाता है कि स्रष्टि भी स्रष्टा में समाविष्ट दिखाई पड़ती है।
भगवान विष्णु का नाम भी विश्वात्मा के विश्वतोमुखी रूप को ही प्रकट करता है। यह भी विष् धातु से निकला हुआ शब्द है विश्व शब्द में मंगल सूचक वकार है तो विष्णु में निश्चय सूचक नुकार है। निराकार प्रणव जब साकार होकर विश्व का रूप धारण करता है तो उसका पालन पोषण करने का दायित्व भगवान विष्णु अपने ऊपर ले लेते है।
ऐसे में श्रेष्ठताबोध ही मनुश्य की दुर्बुद्धि है। विष्णु सहस्रनाम में सृष्टि के समस्त रूपों को ईश्वर या विश्वात्मा कहने का अभिप्राय ही यह है कि समुच्चय में इसका आनंद लिया जाए। मगर मनुश्य ने स्वयं को श्रेष्ठ समझ कर प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने विनाश का रास्ता खोल दिया है। धर्मग्रंथो की बातों को तथाकथित मठाधीशों के मंदिरवासी ईश्वर से जोड़कर संकुचित कर दिया गया है वर्ना जिस रूप में डॉ राव व्याख्या कर रहे हैं, उस रूप में तो मनुश्य अपने आस-पास के वातावरण को नष्ट कर ईश्वर को ही कष्ट पहुंचा रहा है ?
Friday, August 17, 2007
विश्व ही भगवान विष्णु
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:23 PM
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3 कमेंट्स:
राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे
अंजन बानी, अंजन बेद
अंजन कीकर, अंजन सेब
अंजन किया नाना भेद
अंजन विद्या, अजन पाठ पुराना
अंजन गोपी संग गोबिंद रे भाई
राम निरंजन न्यारा रे...
चेतन है वह प्रभु है...आत्मा परमात्मा का ही अंश है...सृष्टि और सृष्टा अलग नहीं, ख़ुद हम हैं तो ख़ुदा भी है...
सुंदर है. अच्छा लिखा, आनंद आया, थोड़ी देर सोचता रहा फिर कुमार गंधर्व याद आ गए....
उमा दारुजोषित की नाईं
सबहि नचावत राम गोसाईं
वडनेरकर जी, यह पोस्ट भी तो उन्ही विष्णु का विधान है. वो न प्रेरित करते, न आप लिखते, न हम पढ़ते.
सब में उन्हीं का प्रवेश है.
बढ़िया - शब्दज्ञान से तत्त्वज्ञान की ओर जाने में देर नहीं लगती. :)
अच्छी बात आगे बढ़ाई आपने.. धर्म ग्रंथों में कभी तो गढ़ा हुआ चातुर्य मिलता है.. और कभी अनगढ़ अनूठा रत्न.. आप ने अच्छे रत्न को निकाला..
शब्द ज्ञान ही तत्व ज्ञान है..शब्द ही ब्रह्म है..
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