अक़बर इलाहाबादी साहब किसी के परिचय के मुहताज नहीं। मेरी पसंद के एक और शायर। इनकी तंजिया निगाह से भी कोई नहीं बच पाया। १८४६ में जन्में और करीब ए सदी पहले गुज़र भी गए पर उनका लिखा इतना खरा कि आज भी लगे कि कल ही की बात है। अंगरेजी हुकुमत के दौर में रहकर भी अकबर फिरंगियों के रहन-सहन और सोच की खिल्ली उड़ाते रहे। गवर्नमेंट तो हमेशा से उनके निशाने पर रही ये अलग बात है कि वे उसी की मुलाजमत मे भी रहे। समाज में आ रहे बदलावों के साथ लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति तत्कालीन समाज में क्या गुल खिला रही थी इस पर भी उनकी खास नज़र रहती थी। और हां, अकबर इलाहाबादी रेल के आविष्कार से भी बहुत प्रभावित थे । उनके कई शेरों में रेल की महिमा नज़र आती है। लीजिए मज़ा ऐसे ही कुछ फुटकर अशआर का। पसंद आएगा तो फिर आपके लिए लाएंगे कुछ नगीने -
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
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मक्के तक रेल का सामान हुआ चाहता है
अब तो इंजन भी मुसलमान हुआ चाहता है
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हुक्काम पर बम के गोले हैं,
और मौलवियों पर गाली है
कॉलेज ने ये कैसे सांचे में
लड़कों की तबीयत ढाली है
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उनसे बीवी ने फ़क़त स्कूल ही की बात की
ये न बतलाया कहां रखी है रोटी रात की
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बेपर्दा नज़र आई जो कल चंद बीबियां
अक़बर ज़मी में गैरते कौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ?
कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया
-अकबर इलाहाबादी
Monday, October 1, 2007
अकबर इलाहाबादी की तंजियानिगाह
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 4:14 AM
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4 कमेंट्स:
सुंदर पेशकश। अकबर इलाहाबादी का वाकई जवाब नहीं है। क्या खूब लिखा है कि...
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं।
जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं।।
बहुत सही सरकार । अकबर इलाहाबादी की एक पुस्तक पिछले दिनों पढ़ रहा था दफ्तर की लाईब्रेरी में । बहुत तीखा और सीधा लेखन था उनका । जितना आपने प्रस्तुत किया उससे हमारा पेट नहीं भरा हां नाश्ता जरूर हुआ है ।
बेहतरीन!!!बेहतरीन!!!बेहतरीन!!!
--और कुछ भी कहना महत्ता को कम करना होगा.
शानदार!! अगर और पढ़वा सकें तो बेहतर!!
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