ग़ालिब साहब कि एक बड़ी मशहूर ग़ज़ल है – इब्ने मरियम हुआ करे कोई / मेरे दुख की दवा करे कोई. साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त भारतीय कवि मुहम्मद अल्वी एक खूबसूरत सी नज्म का शीर्षक भी यही है। देखिये कितनी गहरी बात कही है-
इब्ने मरियम हुआ करे कोई.....
तो फिर यूं हुआ
इब्ने मरियम ने
एक भेड़ की ऊन में
उंगलियां डाल कर
उस की उलझी हुई ऊन सुलझाई
और मुस्करा कर कहा-
‘सैंकड़ो रोग हैं
और मेरे पास उन की दवाई है
मगर भाई
तू कौन से रोग में मुब्तला है ?’
तो मैने कहा
मेरी उलझनें मेरे अंदर हैं
वो भेड़ की ऊन की तरह
बाहर नहीं है
उन्हें आप सुलझा सकेंगे !
तो फिर यूं हुआ
इब्ने-मरियम ने मेरी तरफ़ देख कर
अपनी नज़रें झुकाईं
और ज़मीन पर
एक सीधी
एक खड़ी
दो लकीरें बनाई
और फिर
अपने अंदर कहीं खो गया !
उर्दू से लिप्यंतरणः खुर्शीद अकरम
( समकालीन भारतीय साहित्य, अप्रैल-जून १९९४)
Friday, October 5, 2007
इब्ने मरियम हुआ करे कोई....
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 11:58 AM
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1 कमेंट्स:
bahut gaharii baat kahii hai shair ne. shukriyaa
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