मांसाहार के विरोध में दुनियाभर में अब काफी जागरुकता आ गई है। आदिमकाल से
लगातार कुछ न कुछ सीखते आ रहे मनुश्य के सचमुच संस्कारित होने का वह पहला क्षण रहा होगा जब उसके मन में मांसाहार के विरुद्ध भाव आए होंगे। बहरहाल ये शब्द मैं मांसाहार पर प्रवचन देने के लिए नहीं लिख रहा हूं और न ही मैं मांसाहार निषेध जैसी किसी मुहिम से जुड़ा हूं अलबत्ता सौ फीसद शाकाहारी ज़रूर हूं। दरअसल, मांसाहार का विरोध और समर्थन प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय विवाद रहे हैं । शास्त्रों पुराणों मे भी इसके बारे में काफी कुछ लिखा गया है। मूलतः ज्यादातर हिन्दू ग्रंथों में मांसाहार को ग़लत ही ठहराया गया है मगर मांसाहार एकदम वर्जित भी नहीं है। अगर मांसाहार करना हो तो कब करें, और क्या भक्ष्य है इसका भी उसमें उल्लेख है। डा पांडुरंग वामन काणे लिखित भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास पुस्तक में इसी बारे में कुछ दिलचस्प जानकारियां पढ़ीं। लेखक ने आपस्तंबसूत्र,वसिष्टधर्मसूत्र,विष्णुधर्मसूत्र आदि का हवाला देते हुए बताया है कि किन पक्षियों का मांस खाना चाहिये और किन का नहीं इसकी लंबी लंबी सूचियां इन ग्रंथों में हैं। इनमें बताया गया है कि कच्चा मांस खाने वाले पक्षियों (गिद्ध, चील) के अलावा चातक, तोता, हंस, कबूतर, बक या बिलों को खोदकर अपना भोजन ढूंढने वाले पक्षियों का मांस भक्षण वर्जित है। घोड़ा, बैल, बकरा , भेड़ आदि की बलि भी हो सकती है और वे भक्ष्य भी है। जंगली मुर्ग एवं तीतर को भोज्य माना गया है। गौरमृग, ऊँट आदि की न तो बलि हो सकती है और न ही वे खाए जा सकते हैं।
इसी तरह मछली के बारे में भी साफ निर्देश हैं। मकर प्रजाति के मत्स्य (मगरमच्छ या घड़ियाल) के भक्षण के लिए इन ग्रंथों में मनाही है। इसके अलावा सर्प जैसे सिर वाली मीन, शवों को खानेवाली मछली अथवा विचित्राकृति वाली मछली नहीं खानी चाहिए। मनुस्मृति में मछली भक्षण को मांसभक्षण में निकृष्टतम् माना है। इसके बावजूद आनुष्ठानिक कार्यों के निमित्तार्थ पाठीन, रोहित, राजीव के अलावा सिंह की मुखाकृति वाली और शल्क वाली मछलियों को खाने की छूट दी गई है।
इन तमाम निर्देशों के बावजूद मांसाहार के लिए जीवहत्या धर्मशास्त्रों में निकृष्ट कर्म और पाप माना गया है। यह तक कहा गया है कि पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं , पशुहंता उतने ही जन्मों तक स्वयं मारा जाता है। अब पुनर्जन्म में यकीन रखने वाले हिन्दूसमाज को अगर इस बात का ज़रा भी भय होता तो भारत भूमि से पशुहत्या बंद हो जाती। मगर बोटियां चबाते हुए
मनुश्य रसना के माध्यम से सिर्फ उदरचिंतन कर रहा होता है ठीक वैसे ही जैसे कफ़न के घीसू-माधव करते हैं। पुनर्जन्म और फिर फिर मरण जैसे चिंतन से ज़ायका बिगड़ता है। बोटी जिंदाबाद...
Friday, October 19, 2007
कृपया मगरमच्छ न खाएं ....
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:19 PM
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3 कमेंट्स:
आप बहुत रोचक तथा ज्ञानवर्धक लेख लिखते हैं। इसमें हर बार कोई न कोई ऐसी जानकारी होती है जो हमारे लिए नई होती है।
आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इसे जारी रखें।
-आनंद
लेख की पहली पंक्तियाँ ही गहनार्थ लिए हैं फिर पूरे लेख की तो बात ही क्या!
वाकई रोचक जानकारी है। नये विषयों को लगातार छूने के लिये आपका धन्यवाद।
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