साठ के दशक की मुंबइया फिल्मों में अक्सर अक्सर खलनायक का नाम भी बांके हुआ करता था | | |
खू ब बन-ठन कर रहनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में बांका भी कहा जाता है। अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि बांका जो भी होगा वह सजीला भी होगा। कोई भी व्यक्ति या तो पैदाइशी सुंदर होता है या बनाव-सिंगार से सजीला बनता है। पुरुषों में जब सजीले सलोनेपन की बात आती है तो कृष्ण की छवि ही मन में उभरती है। इसीलिए कृष्ण को बांकेबिहारी नाम भी मिला हुआ है।
बांका शब्द हिन्दी की अनेक बोलियों में भी प्रचलित है। अवधी से लेकर बृज, बांगड़ू, राजस्थानी, मालवी आदि कई भाषाओं में यह खूब प्रचलित है। गौरतलब है कि सजीले जवान के तौर पर बांका शब्द खूब प्रचलित है और इसमें श्रीकृष्ण की मनोहर मूरत भी नजर आती है मगर साठ के दशक की मुंबइया फिल्मों में अक्सर अक्सर खलनायक का नाम भी बांके हुआ करता था जिसकी करतूतों से यूं तो पूरा कस्बा मगर खासतौर पर नायिका ज्यादा परेशान रहती थी। कम से कम किसी नायक का नाम तो हमने बांके नहीं सुना। नायक और खलनायक की खूबियों वाले इस शब्द की जन्मकुंडली परखना दिलचस्प होगा। संस्कृत में एक एक धातु है वङ्क (वंक) जिसका अर्थ होता है टेढ़ा-मेढ़ा, मोड़ नदी का घुमाव आदि। वङ्क अथवा वंक से ही बना है संस्कृत-हिन्दी का वक्र शब्द जिसका मतलब होता है कुटिल, टेढ़ा, चक्करदार, घुमावदार आदि। दरअसल इसी वंक/वक्र से बना है बांका जिसमें कुटिलता और आकर्षण का भाव समाया हैं।
गौर करें कि कुटिल व्यक्ति हमेशा गोलमोल, घुमावदार बातें करता है, धोखेबाजी करता है, चक्कर में डालता है। उसके समूचे व्यक्तित्व में वक्रता होती है। इसीलिए वंक से बने बांके शब्द में खलनायक का भाव है। प्रसिद्ध रीतिमुक्त कवि घनानंद एक कवित्त में कहते हैं-अति सूधो सनेह को मारग है, जहां नैक सयानप बांक नही... अर्थात प्रेममार्ग में ज्यादा बांकपन यानी चतुराई नहीं चलती। सजीले, गबरू के तौर पर बांके शब्द का निहितार्थ समझना भी कठिन नहीं है। सज-धज के बाद चाल-ढाल भी बदल जाती है। जिसे अपने रूप, जवानी, और सज-धज का गुमान होता है वह जरा अकड़ कर चलता है। यह अकड़ ठीक वैसी ही होती है जिसका प्रयोग शतरंज के मुहावरे प्यादे से फ़र्जी भया, टेढ़ो टेढ़ो जात...में पूरी सटीकता से हुई है। अर्थात तरक्की होते ही चाल में अकड़ आ जाना। चाल की यह अकड़ ही व्यक्ति को बांका बनाती है। गौर करें तो पाएंगे कि अकड़ में ही टेढ़ापन है। बांका शब्द का खूबसूरती से कोई रिश्ता नहीं है। बल्कि बेहतर व्यक्तित्व के लिए बांका-सजीला होना जरूरी है। सिर्फ बांकपन से काम नहीं चलता। जिनके पास बांकपन के साथ सजीलापन नहीं होता दर असल वे बांकेबिहारी की जगह सिर्फ बांके बनकर रह जाते हैं। श्रीकृष्ण भी हर मुद्रा में बांकेबिहारी नहीं कहे जाते बल्कि होठों पर बांसुरी लगाए, कदम्ब के वृक्ष से कमर टिकाए हुए,एक पैर में दूसरे को फंसाए हुए तीन कोण पर झुकी हुई मुद्रा में ही उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है।
वंक का ही एक अन्य रूप है
वंग जिसका अर्थ होता है लंगड़ाना। मालवी में किसी चीज़ के टेढ़ा होने को भी बांका होना कहा जाता है। इसी तरह टेढ़ी चाल वाले या अपाहिज व्यक्ति को देशी अंदाज़ में ढके छिपे ढंग से
आड़ा-बांका भी कहा जाता है। वंग का ही एक रूप है
...श्रीकृष्ण भी हर मुद्रा में बांकेबिहारी नहीं कहे जाते बल्कि होठों पर बांसुरी लगाए, कदम्ब के वृक्ष से कमर टिकाए हुए,एक पैर में दूसरे को फंसाए हुए तीन कोण पर झुकी हुई मुद्रा में ही उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है।
भङ्ग या भंग। संस्कृत में भङ्ग का मतलब भी टेढ़, तिरछा, मोड़ा हुआ, सर्पिल, घुमावदार आदि ही होता है। गौर करें भंगिमा शब्द पर। हाव-भाव के लिए नाटक या नृत्य में अक्सर भंगिमाएं बनाई जाती हैं। चेहरे पर विभिन्न हाव-भाव दर्शाने के लिए आंखों, होठों की वक्रगति से ही विभिन्न मुद्राएं बनाई जाती हैं जो
भंगिमा कहलाती हैं। इस संदर्भ में
बांकी चितवन या तिरछी चितवन को याद किया जा सकता है जिसका अर्थ ही चाहत भरी तिरछी नज़र होता है। श्रीकृष्ण की बांकेबिहारी वाली मुद्रा को इसी लिए त्रिभंगी मुद्रा भी कहते हैं। त्रिभंगीलाल भी उनका एक नाम है। भंग के टेढ़े-मेढ़े अर्थ में ही टूट फूट भी समायी हुई है। भंगुर या
क्षणभंगुर का मतलब होता है टूटने योग्य जो इसी मूल से बना है। इस वंक या भंग से जब व और भ वर्ण (व्यंजन) को लुप्त किया जाता है तो शेष बचता है
अंग या
अंक जिसमें फिर टेढ़ा-मेढ़ा का भाव है। गौर करे कि शरीर के अंग अर्थात हाथ या पैर इसी वजह से अंग हैं क्योंकि इनमें मुड़ने, घूमने का स्वभाव निहित है। अंग से बनी हैं
अंगुलियां जो अगर टेढ़ी न होतीं तो डिब्बे में से कभी घी भी नहीं निकलता अर्थात मुश्किल कामों को अंजाम नहीं दिया जा सकता था।
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15 कमेंट्स:
बड़ी बांकी जानकारी पूर्ण पोस्ट रही.. :)
बांकेबिहारी लाला की जै ...बहुत सुन्दर !!
सुन्दर! लखनऊ के परिवेश पर लिखे कहानी ’दो बांके’ याद आ गयी!
कोटा से बून्दी होते हुए चित्तौड मार्ग पर एक स्थान पर सड़क एक दम 135 डिग्री मुड़ जाती है। इसी मोड़ पर एक छोटा सा गांव है, नाम है बांका।
बांके की इतनी सीधी जानकारी जय हो .
आपका मुँह होली पर काला हो गया कैसे , कहाँ
बांकी चितवन पर लिखते-लिखते अपने चेहरे का बांकपन कहां छुपा गये! अभी एक ब्लोग पर आपका कमेंट देखा और साथ में प्रोफाइल चित्र भी । सच में डर गया ।
आलेख के लिये धन्यवाद । चित्र बदल दीजिये या कोई विशेष प्रयोजन हो तो स्पष्टीकरण ...
अजित जी,
घनानंद का उद्धरण देकर
आपने आनंदित कर दिया.
आपसे हमारे नेह मार्ग भी कुछ ऐसा ही है.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बाँकी-सजीली मेल के लिए धन्यवाद.उत्तम मेल.
पोस्ट पर अपनी फ़ोटो भी लगा देते तो भी हम समझ जाते बांका कौन है? बुरा न मानो होली का खुमार उतरा नही है,मस्त-मस्त बांकी पोस्ट्।
साठ के दशक की मुंबइया फिल्मों में अक्सर अक्सर खलनायक का नाम भी बांके हुआ करता था"
क्या अंग्रेज़ी में बांके को राबर्ट कहते है:)
भगवान् कृष्ण को बांके बिहारी उनकी इस मुद्रा के लिए कहा जाता है ये नई बात पता चली ।
बहुत सारी जानकारी मिली. श्रीकृष्ण की विशेष मुद्रा के लिए उन्हें बांकेबिहारी कहते हैं, यह पता नहीं था.
बड़ी बांकी पोस्ट है, अजित भाई.
बहुत जानकारी से ओत-प्रोत आपका चिठ्ठा है। गुजरातीमे भी कृष्ण को "वनमाळी वांको"(अर्थात, बनमाली बांका)कहते हैं। आपकी शैली सराहनीय और जिज्ञासा को प्रदीप्त करने मे सफल है। पूरी सज्जता से प्रस्तुति करते हैं। धन्यवाद
mjhaveri@umassd.edu
waah ji...badi baanki post hai!achchi jaankari rahi.
बस कहूँगी......वाह ! वाह ! और केवल वाह !!!!
बांकेबिहारी जी की जय !!!
आपपर हमपर सबपर उनकी सतत कृपा बनी रहे....
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