बा त 1996 की है। लन्दन में प्रोफ़ेसर मोनाको के क्लीनिक में एक केस आया। एक ऐसे परिवार का जिसकी तीन पीढियों के लगभग आधे सदस्य कुछ खास ध्वनियों का उच्चारण नहीं कर पाते थे। प्रोफ़ेसर के शोधछात्रों ने खोज-बीन की। इस परिवार के डीएनए के सातवें chromosome पर FOXP2 नाम की एक gene में गड़बड़ थी। FOXP2 नाम तो बाद में इस gene की खोज होने पर इसे दिया गया। Speech-defect में इसी FOXP2 gene के आधे हिस्से का कमाल था।
अब आगे की बात, जो ज्यादा दिलचस्प है। मनुष्यों के सबसे निकटतम बंधु यानि चिम्पांजी (chimpanzee) और मनुष्य के FOXP2 प्रोटीन में केवल दो Amino-acid का ही फर्क है। अब ये बताने की तो ज़रुरत नहीं की चिम्पांजी भाषा के मामले में अति-विकसित प्राणी है। वैज्ञानिक मानते हैं की अमीनो एसिड का ये फर्क भी कुछ बहुत पुराना नहीं है. बस दो लाख साल। अब दो बातें हैं, या तो इस फर्क से मनुष्य ने भाषा का विकास कर लिया और एक वर्ग अलग हो गया। या जो वर्ग अलग हो गया उसमें gene का फर्क आ गया और भाषा का विकास हो गया। आज जैसी परिष्कृत भाषा का विकास पचास हज़ार साल पहले माना जाता है. मगर परिवर्तन तभी से यानि दो लाख साल पहले से आना शुरू हो गया होगा। इसका एक अर्थ यह भी हुआ की एक समूह-विशेष के भीतर एक विशेष भाषा (ज्यादा ठीक शब्द होगा -लहजा) को बोलने के अनुवांशिक गुण भी होते हैं।
यहाँ से मेरी दिलचस्पी बनी कि भाषा पर ईवोल्यूशन Evolution या ईवोल्यूशन पर भाषा का कितना गहरा प्रभाव रहा है। कुल मिलाकर क्या भाषा में भी विकासवाद जैसा कुछ है? भाषा सिर्फ शब्दों, व्याकरण या ध्वनियों या संस्कृति Culture का खेल तो नहीं ही है। चार्ल्स डार्विन ने विकासवाद के सिद्धांत में भाषा पर विचार किया और विकासवाद के भाषा पर प्रभाव की संक्षिप्त में चर्चा भी की. आज के वैज्ञानिक भी उसी विचार को मानते हैं मगर ठीक उलट दिशा से। डार्विन ने Natural Selection और transmutation की बात की थी। यानि प्रकृति खुद सबसे योग्य प्रजाति को जीवित रहने के लिए चुनती है, साथ ही हर प्रजाति अपने परिवेश के हिसाब से अपने भीतर परिवर्तन लाती चलती है। मसलन फिंच Finch नाम की चिडिया में समय के साथ क्या परिवर्तन हुआ
[1] खान-पान की आदतों और जल-वायु के परिवर्तन के लिहाज़ से फिंच ने अपने को बदला। क्या भाषा भी ऐसा ही करती है? क्या कुछ शब्द, ध्वनियां, या कभी कभी एक भाषा ही नया स्वरुप ले लेती है या पूर्णत: विलुप्त ही हो जाती है? जी हाँ, ऐसा होता है। …और ऐसा अचानक से नहीं हो जाता।
... चार्ल्स डार्विन ने अपनी विख्यात खोजी यात्रा के दौरान दक्षिण अमेरिका के गैलापगौस द्वीप समूह के विभिन्न द्वीपों पर एक खास चिड़िया फिंच देखी जिसकी चोंच की आकृति विभिन्न समूहों में अलग अलग थी। यहां से विकासवादी सिद्धांत का सूत्र उन्हें हाथ लगा…[1]
या यूँ कहें की अक्सर अचानक नहीं हो जाता। इन सबके भी कारण होते है। हम सभी लोग जाने-अनजाने इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं।
भाषा की सबसे पहली कसौटी होती है व्यक्त करना, मगर आसानी से। इंग्लिश में कहें तो "expressiveness with simpicity". अब कितने सर्वनाम और कितनी क्रियायें एक भाषा को चाहियें? किस स्तर पर एक बच्चा भाषा को सीखना शुरू कर पायेगा? कौन सी ध्वनियां और कौन से शब्द हम आसानी से बोल पाते हैं? जैसी बातों का निर्णय अपने आप होता रहता है। आर्यों की भाषा में घोड़ों और गायों[2] से सम्बंधित बहुत शब्द थे। कारण था, उनके आसपास ये सब था-जिससे उनका जीवन चलता था। मेरी आपकी भाषा में Save, Delete, File create, mobile, Bollywood, ATM जैसे तमाम शब्द हैं जो आज से बीस साल पहले किसी ने देखे सुने न थे। अगर पहले वाले उदाहरण से चलें और थोड़ा कल्पना को उड़ान दें तो इस सब नयी शब्दावली के लिए भी हमारे भीतर जैविक रूप से कुछ परिवर्तन चल रहे होंगे। अब इसका अर्थ यह नहीं की यह गुण कल सुबह दिखने लगेंगे। हां शायद एक लाख साल बाद कोई एक gene, हम देखेंगे transmutate कर चुकी होगी। इसका मतलब यह हुआ की human genome प्रोजेक्ट की तरह से अगर हम भाषा का जीनोम प्रोजेक्ट कर सकें तो शायद हम ढूंढ पायें की हमारे पूर्वज वास्तव में किस राह से चल कर यहाँ तक पहुंचे। वैज्ञानिक इसको थोडा सरल तरीके से करते हैं। वे एक विशेष शब्द समूह को पकड़ कर उसकी खोज करते हैं। इसी खोज से पता लगा की अधिकतर North और South अमेरिका की भाषाएँ Amerindian नाम के भाषा समूह से उपजी हैं।
[इससे आगे अगली कड़ी में ...कौन सा शब्द लुप्त हुआ और कौन सी भाषाएँ बनीं.]
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23 कमेंट्स:
हमेशा की तरह कुछ दिमागी खुराक मिली।
उदयप्रकाश
"आज फिरआपका ब्लाग पढ़ गया । तपस्या कहूं कि लगन कि साधना ...or a passionate pursuit ...? Whatever, you are doing a very useful job ...kudos ! big ..big..kudos !"
मामला तगड़ा है। यह तो मेरे साथ भी है, मैं भी कुछ खास शब्दों को नहीं बोल पाता हूं। दिमाग की भूख शांत करने के लिए शुक्रिया
शब्दों के संसार में,
भाषा की है छाप,
बिन भाषा के व्यर्थ हैं,
सारे तप और जाप।
मेने भी महसूस किया है कुछ शब्द अटकते जरुर है . मैं एक बच्चे को जानता हूँ जो हर शब्द अस्सानी से बोल देता है लेकिन कप को पक बोलता है चाहे क प् अलग अलग कहलवाओ लेकिन मिला कर वह पक ही कहता है . इसीतरह लखनऊ को न्ख्लाऊ के लोग कहते है हमारी तरफ
जब पढ़ना शुरू किया तो लगा की कुछ ज्यादा ही मुश्किल मामला है, समझ के परे... पर आखिरी हिस्से ने सब साफ़ कर दिया.. भाषा का ईवोलुशन तो हुआ है, इस बात में कोई शक नहीं है. अपने माँ बाप से बात करते वक़्त ही फर्क महसूस होता है. कई ऐसे शब्द हैं जो उनकी वोकेबुलरी में हैं, पर हमने सुने भी नहीं, और कई बार अपनी बात समझाना उन्हें मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हमारे पास शब्द कम पड़ते हैं.
सौरभ दादा को लेख के लिए शुक्रिया...
सौमित्र
!-जी सच लगता है कि जीन की कोई भूमिका जरूर है -मैंने खुद देखा है कि एक प्रमुख राजनीतिक दल से जुडी जाति और उनके मुखिया के बोले गए शब्द बहुत स्पष्ट नही होते ! वे कुछ अस्पष्ट सा बोलते हैं !
२-'अब ये बताने की तो ज़रुरत नहीं की चिम्पांजी भाषा के मामले में अति-विकसित प्राणी है।'
-यह वाक्य भ्रामक लगता है चिम्पांजी में वोकल कार्ड और वेर्बैलायिजेशन की क्षमता अल्प विकसित ही रह गयी जिससे वह काफी बुद्धिमान होने के बावजूद मनुष्य की तुलना में बहुत पिछड़ गया -कृपया इस वाक्य को सही ढंग से समझ बूझ के ही बने रहने दें -मुझे भ्रम हुआ है तो कुछ समस्या अवश्य मानिये ! बाकी आपकी मर्जी -हाँ यह जरूर बता दूं मैं इस मामले में विशेषग्य कतई नहीं हूँ -यह तथ्य के पुनर्सत्यापन के लिए बस एक आग्रह भर है !
३-डार्विन की द्विशती में उनका उल्लेख अच्छा लगा -ऐसा अन्वेषी शायद न भूतो न भविष्यत है -इन्होने पशु और मानव व्यवहार और रहन सहन का शायद ही कोई पहलू हो जो अध्ययन से परे रखा हो !
मेहमान की कलम शानदार है। जानकारी पूर्ण लेख! शुक्रिया मेहमान का!
बहुत लाजवाब
रामराम.
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख है। डार्विन का नेचुरल सलेक्शन सिद्धान्त ठीक है. लेकिन मनुष्य पर इस का प्रभाव कम हो गया। उस ने खुद को प्रकृति के अनुकूल बनाने के स्थान पर प्रकृति को अपने अनुकूल बनाना प्रारंभ कर दिया। इस का नतीजा है कहीं यह तो नहीं कि मनुष्य जहाँ प्रकृति को नष्ट कर रहा है वहीं उस की अनुकूलन क्षमता का भी ह्रास हो रहा है।
वडनेरकर साहब , इस सफ़र में ये आलेख भी एक शोध पत्र की भूमिका सा है, ज्यादा वैज्ञानिक चर्चा नहीं करना चाहूँगा हाँ साहित्यिक दृष्टि से आश्वस्त हूँ कि भाषा नए शब्दों को स्वीकार करती रहेगी और लाख चाहने पर भी क्लिष्ट शब्द कोष सौन्दर्य का साधन बने रहेंगे, किन्तु इस डर से शब्दों पर धूल नही ज़माने दी जा सकती यही शब्दों के सफ़र की सार्थकता है.
ये तो और भी बड़ी बात हुई,
स्वागत इस शुरूआत का.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
पूरा लेख पढ़ने के बाद ध्यान में आता है कि कई सारे ऐसे शब्द हमारी वोकेब्यूलरी में जुड़ गए हैं जिनके बारे में कुछ साल पहले तक सुना भी नहीं था। और यह सबकुछ अनजाने में होता रहा है। भाषा के निर्माण और विकास यात्रा को आसान शब्दों में समझाने के लिए शुक्रिया।
भाई को आज बहुत दिनों बाद पढ़ा। पढ़वाने के लिए भी शुक्रिया।
स्वागत है अतिथी लेखक सौरभ जी का।कंही से भी ऐसा नही लगा कि एक मराठी भाषी का लेख पढ रहे हैं।ऐसा लगा कि हमेशा की तरह आपके साथ ही सफ़र कर रहे हैं।
बहुत उम्दा जानकारी .
भाषा के बारे में इतना खोज कहाँ से कर लाते है ,
धन्यवाद
Amitabh
ajitji, sach kahu to itna gyaan aakhir kese sambhaal kar rakhu?
aapke dvara jo shbdgyaan karya chal raha he yeh safar vakai kaabile taareef he..me to kaayal ho gaya hu ji aapka aour aapke blog kaa.
शब्दों के सफर में भाषा के महत्त्व का यह नया पड़ाव भी बहुत ज्ञानवर्धक लगा.. टिप्पणी न देने पर भी यहाँ से हमेशा ज्ञान के 'टिप्स' लेकर ही जाते हैं... आभार
मीनाक्षी जी से सहमत हूँ.
पराग चापेकर
"blog padhne ke baad wakai ye lagta hai ki guru ki panga le liya.aaj ke dour main padhelikhe log durlabh prajati hai .dunaywee log kehte hai ye prajati khatarnak bhi hoti hai , inse jitni dur raha jaye achha hai .aise log vicharo par akraman bhi kar sakte hai. par unhe ye nahi pata aisa shikar banane main bhi kitna sukh hai-jai ho"
aapne itni achhi ghanvardhak baat kahi hai uske liye dhanywad bahut achha laga ise padkar........more about c.g. & raipur pls log on- www.helloraipur.com
वाह दादा बहुत ही बढ़िया लेख लिखा हैं आपने भाषा विज्ञान पर .बहुत ज्ञानवर्धक ,आपको बहुत बहुत बधाई ,ब्लॉग जगत में आपका स्वागत
आभार एक बेहतरीन आलेख प्रस्तुत करनेके लिये -Special thanx to ajit bhai + Saurabh budhker ji
थोड़ा सा भ्रम हुआ, जिस चीज की आशा की थी, वह नहीं मिल पाई यहां। मैं इस पन्ने पर इस सूचना को देखकर आया था कि इसमें भाषा के बारे में लिखा मिलेगा। शब्दों का सफर में आपने शब्दों का पोस्टमार्टम जिस मंजे हुए हाथ से किया है, सोचा था उतनी ही मुस्तैदी और कुशलता से आप भाषा (हिंदी)के प्रयोग पर टिप्पणी करेंगे। आपने तो भाषा का अर्थ ही कुछ और ले लिया है।
यह विषय भी रोचक है, पर कम प्रासंगिक और उपयोगी।
1970 में किशोरीदास वाजपेयी के बाद हिंदी भाषा प्रयोग पर किसी ने गहनता से नहीं लिखा है। इसकी बहुत आवश्यकता है। हिंदी की आपकी मजबूत पकड़ को देखते हुए आपको इस मैदान में उतरना होगा। आशा है इस चुनौती को स्वीकारेंगे।
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