Wednesday, March 3, 2010
निकम्मों की लीद और खाद निर्माण
चौ पायों की विष्ठा को लीद कहते हैं, जिसमें गधे, घोड़े, हाथी और ऊंट आते हैं। गोबर की तरह लीद शब्द में भी मुहावरेदार अर्थवत्ता है। बेकार के काम में मशगूल रहना, अनुत्पादक कर्म करने को भी मुहावरेदार भाषा में लीद करना कहा जाता है। जाहिर है विष्ठा सर्वाधिक अनुपयोगी पदार्थ है। वह अपशिष्ट है, त्याज्य है इसलिए अनुपयोगी कर्म या काम का बिगड़ जाना लीद या गोबर का दर्जा पा जाता है। हालांकि रिसाइकल के दौर में हर चीज़ की उपयोगिता प्राचीनकाल से रही है। गोबर या लीद भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। लीद या गोबर के खाद रूपी प्रयोग के चलते एक नया मुहावरा सामने आया है जिसने निठल्लों निकम्मों के नाकारापन को कुछ इज्जत बख्शी है। कुछ बरस पहले हमारे बालसखा राजगढ़ से आए थे जिनकी ज़बानी हमें इस नए मुहावरे की खबर लगी। राजगढ़ (ब्यावरा) मालवा के उस कोने में स्थित है जो राजस्थान के हाड़ौती अंचल से सटता है। इस इलाके को यहां उमठवाड़ कहते हैं। हमने अपने किसी परिचित के बारे में सवाल किया, जो अपने निकम्मेपन के चलते लगातार ठाले रहते थे। मित्र का उनके बारे में जवाब था कि सब सही चल रहा है और वे खूब खाद बना रहे हैं। अर्थ समझने में कुछ वक्त लगा, पर समझने पर लोकभाषा की समृद्धि पर गर्व हुआ। खाद बनाने वाली सूचना से यह स्पष्ट हुआ कि वो महानुभाव अभी बेकार ही हैं। मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं, खाते हैं और निकालते हैं। यानी खाद बनाते हैं। इस मुहावरे से निठल्लों, नालायकों, निकम्मों को राहत मिल सकती है कि जाने-अनजाने वे खाद निर्माण तो कर ही रहे हैं।
लीद की व्युत्पत्ति को लेकर शब्दकोश एकमत नहीं हैं। ख्यात विद्वान कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्तिकोश में लीद को पलीद से जोड़ा गया है। याद करें मिट्टीपलीद मुहावरे को जो बना है हिन्दी के मिट्टी और फारसी के पलीद से। जिसमें बेइज्जती, नष्ट करने, मटियामेट करने का भाव है। शब्दकोशों में पलीद के भी अलग अलग रूप मिलते हैं जैसे पिलीद, पलीद, पलीदीह (सभी पह्लवी) पिलद्दी, पिलद्दा आदि जिसमें नीच व्यक्ति, बहुत गंदी वस्तु, पशुओं का उच्छिष्ट, मैली चीज़, विष्ठा, मल, गंदगी जैसे भाव हैं। मराठी व्युत्पत्ति कोश में भी लद्दी, लिद्दा जैसे रूपांतरों का उल्लेख है जो प्राकृत रूप हैं। जॉन प्लैट्स लीद की व्युत्पत्ति संस्कृत के लिप्त से मानते हैं। जिसमें गीलेपन, तर, दूषित, मलिन, खाया हुआ, सना हुआ जैसे भाव है। कृ.पा. कुलकर्णी भी इसकी यही व्युत्पत्ति सही मानते हैं। लिप्त > लित्त > लीद यह इसका विकासक्रम रहा होगा। मगर प्रसिद्ध भाषाशास्त्री श्रीपाद जोशी इसी कोश के संशोधनपत्र में लीद की व्युत्पत्ति पलीद से मानते हैं, किन्तु फारसी में पलीद की आमद संस्कृत, अवेस्ता, तुर्की या अरबी, किस भाषा से हुई इसका कोई संकेत नहीं करते। उनका मानना है कि भारतीय भाषाओं में इसी पलीद से प का लोप होकर पशुमल के रूप में लीद शब्द की व्याप्ति हुई। अलबत्ता मिट्टीपलीद में यह पलीद शब्द अपने मूल रूप में नजर आ रहा है। यह मुहावरा जाहिर है फारसी में नहीं है बल्कि इसका जन्म हिन्दुस्तानी में हुआ क्योंकि हिन्दी का मिट्टी शब्द फारसी में प्रचलित नहीं। स्पष्ट है कि पलीद शब्द फारसी से अपने मूल रूप में हिन्दी में आया मगर बतौर विष्ठा, उसमें से प वर्ण का लोप होकर लीद शब्द प्रचलित हुआ।
एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार संस्कृत के लेण्डम् शब्द का अर्थ है विष्ठा या मल जिससे लीद बना है। लेण्ड शब्द से ही हिन्दी में लेंडी, लेंड़ी जैसे शब्द बने हैं जिसका अर्थ होता है छोटे चौपायों जैसे बकरी, भेड़ आदि की विष्ठा या मींगनी। लेण्ड शब्द का एक रूप लण्डम् भी होता है जिसमें भी विष्ठा या मल, अथवा पिंड का भाव है। लीद की व्युत्पत्ति लेण्ड या लण्डम् से ज्यादा तार्किक लगती है क्योंकि मलपिंड के लिए हिन्दी में इससे बने लेण्डा, लेंडी, लेंड़ी जैसे शब्द प्रचलित रहे हैं। कश्मीरी में लीद के लिए लेंद शब्द है। कश्मीरी भी इंडो-ईरानी भाषा परिवार की ज़बान है। कश्मीरी लेंद सीधे सीधे संस्कृत के लेंड का रूपांतर नज़र आता है। कश्मीरी भाषा में ट-ठ-ड जैसे कठोर वर्णों की बजाय कोमल तालव्य ध्वनियों जैसे त-थ-द का प्रयोग होता है और इसीलिए लेंड का लेंद रूपांतर तार्किक है और लेंद से लीद का रिश्ता जुड़ता है। एक संभावना और बनती है। अगर लिप्त से लीद की व्युत्पत्ति को सही माना जाए तो फारसी के पलीद शब्द के जन्म की गुत्थी सुलझने लगती है। संस्कृत के लिप्त का अवेस्ता में वर्ण विपर्यय के जरिये प्लित् या प्लीत् रूपांतर मुमकिन है और फिर इसने ही पलीत होते हुए पलीद का रूप लिया हो। यूं देखें तो पलीद शब्द स्वतंत्र रूप में बहुत कम इस्तेमाल होता है।
छोटे चौपायों की विष्ठा को मेंगनी या मींगनी कहते हैं। बकरी, भेड़, ऊंट, चूहे आदि छोटी छोटी गोलियों के आकार की विष्ठा करते हैं। एक खास बात पर गौर करें। मनुष्य खुद को चाहे जितना श्रेष्ठ समझे, किन्तु सर्वाधिक घृणा उसे मानव विष्ठा से ही होती है। खुद के मल का प्रयोग खाद के रूप में करने की कल्पना भी वह नहीं करना चाहता जबकि पशुओं को वह निकृष्ट समझता है इसके बावजूद उनकी विष्ठा से उसे घ्रणा नहीं होती। हर तरह के पशु की विष्ठा को वह हाथों से उठाता है और पोषक तत्वों की प्राप्ति के लिए उसे खेतों में डालता है जहां पैदा हुए अन्न पर वह पलता है। गाय के गोबर से आज भी घर लीपे जाते हैं ताकि वे साफसुथरे नजर आएं। मींगनी या मेंगनी शब्द हिन्दी के ही हैं। जॉन प्लैट्स के हिन्दुस्तानी इंग्लिश कोश के अनुसार मेंगनी या मींगनी शब्द हिन्दी के मींग या मींज शब्द से बना है जिसका अर्थ गूदेदार पदार्थ, बीज, सार, दाने आदि होता है। मींज या मींग का मूल है संस्कृत का मज्जा शब्द जो बना है मृज् से जिसमें सार, निष्कर्ष, गूदा आदि है। अपशिष्ट के अर्थ में ये सारे भाव समझे जा सकते हैं। पक्षियों के मल को बीट कहा जाता है जैसे कबूतर, चिडिया या कव्वे की बीट। यह शब्द मूलतः संस्कृत के विष्ठा शब्द का सरल रूपांतर है जो विष्ठा > बिष्टा > बिट्ठा> बीट के जरिए बना है। विष्ठा में अपवित्रता और अशौच का भाव हैं मगर मूलतः से मल से ही जोड़ा जाता है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:56 AM लेबल: animals birds, पदार्थ, व्यवहार
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10 कमेंट्स:
बड़ी विस्तार से जानकारी दी...आभार.
लीद की व्युत्पत्ति लेण्ड या लण्डम् से ही जायज लगती है. पंजाबी में लींडा, लीन्डी शब्द हैं. लेडा और लेदा भी है खास तौर पर ऊँट का. बकरी, भेड, चूहे की मींगन होती है. पक्षी की 'बिठ' होती है.
पशु के विष्टा खास तौर पर ताजे ताजे को, "धद" भी बोलते हैं क्योंकि इसके गिरते ही ऐसी आवाज आती है.
दूध पीते बचे या बछड़े का सखत और लम्बा पीस 'डासा' होता है.
पंजाबी में 'मिट्टी पलीत होना' होता है.
कहावतें( हिंदी में अनुवादत): भैंस बेचकर घोड़ी ली, दूध पीने से गए और लीद उठानी पड़ी.
गधे की लाद का पापड़ बने तो उड़द मूंग को कौन पूछे?
बकरी ने दूध दिया पर मेंगनी भर.
मुहावरा 'लीद करना' का और रूप 'बिठ करना' भी है.
भारत जैसे गरीब देश में लीद, मींगन वगैरा बड़े काम की चीजें हैं, खाने पीने की चीजों में डालो तो तादाद बढ़ जाती है.
अच्छा विषय शुरू किया है, अभी बहुत मल पड़ा है, उम्मीद है जारी रखने से घबराएंगे नहीं.
बढ़िया जानकारी मिली.
बहुत विस्तार से दी है जानकारी। धन्यवाद
अजित भाई
जो इंसान लीद से संभाले नहीं संभलते उन्हें बिल्लियां इज्ज़त बख्श देती हैं !
नीद्फुल [needful] पदार्थ उपजाया आपके लीद्फुल [फुल ऑफ़ लीद] लेख ने.
लीद ही लीद ऊपर से नीचे तक.
एक बेचारे चिरकिन मियां थे कब्ज़ के मारे........
" कब्ज़ से ये हाल है साहब,
पादना भी मुहाल है साहब.
खैर उनकी यार को तो ये शिकायत नहीं थी, तभी तो चिरकिन ताउम्र पुरउम्मीद रहे की....
"पड़ा रह तू भी ऐ चिरकीं बराबर पायखाने में ,
वो बुत हगने को आएगा मुक़र्रर पायखाने में."
आदमी का ....... ना लीपने का ना पोतने का
बहुत अच्छा लेख। मनुष्य खुद को चाहे जितना श्रेष्ठ समझे, किन्तु सर्वाधिक घृणा उसे मानव विष्ठा से ही होती है।
ये नजर भी कमाल की है। शब्द व्याख्या करते हुये इस तरह की बात कहते रहना ही आपके लेखन को रोचक और सारगर्भित बनाता है।
जै हो।
vishthaa ke liye úchchhisht shabd kaa prayog uchit naheen prateet hotaa . uchchhisht kaa arth hotaa hai, joothaa, khaane ke baad chhodaa gayaa. haan apshisht kaa istemaal shaayad behtar hogaa .
मेरी असावधानी की ओर ध्यान दिलाने का शुक्रिया विनयजी।
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