Friday, March 5, 2010

भये प्रकट कृपाला दीनदयाला…[माइक्रोपोस्ट]

ज़र आने, दिखने के या उद्घाटित होने के अर्थ में हिन्दी में प्रकट शब्द का इस्तेमाल आम है। इस संदर्भ में रामचरितमानस की सर्वाधिक याद आने वाली पंक्ति है -भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। यहां प्रकट में एक संकेत अवतार लेने का भी छिपा हुआ है। आम तौर पर किसी महत्वपूर्ण घटना या व्यक्ति के सामने आने ama के संदर्भ में संस्कार-शिष्टाचारयुक्त भाषा में प्रकट शब्द का प्रयोग होता है। यह बना है प्र + कट् + अच् के मेल से। संस्कृत के प्र उपसर्ग में आगे, पहले, सामने, दूर, अत्यंत, बहुत अधिक, प्रमुखता, अभाव, वियोग या अनस्तित्व जैसे भाव है। इसी तरह संस्कृत की कट् धातु का अर्थ है जाना या ढकना। इस तरह प्रकट का अर्थ हुआ सबके सामने आ जाना, उद्घाटित होना, प्रकाशित होना, रोशनी में आना, स्पष्टतः, उजागर, जाहिरा तौर पर, प्रतीतमान, दृष्यमान, बेपरदा, खुला हुआ जैसे भाव हैं। कट् में निहित ढकना जैसे भावों से उजागर जैसे अर्थ का सृजन करने में भी प्र उपसर्ग में निहित विलोम का भाव सहायक हो रहा है अर्थात जो ढका हुआ न हो वही प्रकट है। प्रकट का देशज रूप प्रगट होता है। वर्णक्रम का अगला अक्षर है और अक्सर क और ग में अदला बदली होती है। आजकल प्रकट विशेषण है और हिन्दी में इसका क्रिया रूप इसके साथ करण प्रत्यय लगाने से बनता है अर्थात प्रकटीकरण यानी सामने लाने, उजागर करने या प्रकट करने की क्रिया। इसके लिए साहित्यिक हिन्दी में प्रकटीभवन शब्द का प्रयोग भी हुआ है। प्रकट का क्रिया रूप प्रकटना भी होता है जो संस्कृत के प्रकटन का ही देसी रूप है। देशज रूपों में परगट भी मान्य है और खूब प्रचलित है। खासतौर पर हिन्दी की पश्चिमी शैलियों और पंजाबी में। वहां तो परगटसिंह नाम भी होता है।
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13 कमेंट्स:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

प्रकट तो अब समस्याए होती है ,महंगाई होती है लेकिन ईश्वर नहीं

उम्मतें said...

अजित भाई
आपने एक अच्छा शब्द प्रयुक्त किया है 'निहित' ! कट धातु में निहित 'ढकना' और प्र उपसर्ग में निहित विलोम का भाव ...बड़ी अर्थपूर्ण बात है ये ! यानि कि 'ढकने' और उसके विलोम 'प्रकटने' को निहित के बिना समझ पाना असंभव है ! यहां मामला 'होनें' ( अस्तित्व ) बनाम अनस्तित्व का है ही नहीं ! अनस्तित्व केवल हमारी समझ का फेर है... भ्रम है ! दरअसल 'अनस्तित्व' की प्रतीति होती है पर वो होता नहीं है ! मेरे लिए ईश्वर तब प्रकटे जब वे निहित थे अन्यथा प्रकटते ही नहीं ! आशय ये कि सब कुछ निहित है ...ढकना भी और प्रकटना भी ...भले ही प्रकटना अनस्तित्व की प्रतीति / बोध से समझाया जाये ! सृष्टि / प्रकृति में जो निहित है वही अभिव्यक्त हो पायेगा और जो है ही नहीं वो भला कैसे अभिव्यक्त होगा ! अतः 'कट' और 'प्र' दोनों ही 'निहित' से अभिन्न नहीं हैं ! कुछ यूं कहें कि प्रकट हो जाना एक भ्रम का टूट जाना अथवा प्रतीति से बाहर आना मात्र है वर्ना वो तो पहले से ही मौजूद है...निहित है !


( इसके बाद शम्म-ए- महफ़िल मंसूर अली साहब और बासी जी की जानिब सरका दी गयी है )

अनूप शुक्ल said...

हम तो आपकी पोस्ट के लिये ही कह रहे हैं- भये प्रकट कृपाला दीनदयाला पाठक हितकारी।
जय हो!

Udan Tashtari said...

भये प्रकट कृपाला -आज तो आप भी. :)

अजित वडनेरकर said...

@अलीभाई
वेदों में आदि-अनादि का जो सृष्टिचिंतन हुआ है, बहुत कुछ उसी रास्ते पर जा रहा है प्राकट्य का यह दार्शनिक आयाम जो आपने प्रस्तुत किया।
बहुत खूब। आभार।

अजित वडनेरकर said...

अनूपजी और समीरभाई की जै हो....

Arvind Mishra said...

एक श्लोक अर्धांश अनूप शुक्ल के लिए क्योंकि उन्हें संस्कृत के श्लोक और और तुलसी की चौपाईयां बहुतै प्रिय हैं !
नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सतः
जो सत है उसी का प्राकट्य है -जो असत है वह तो अस्तित्वहीन है.
जादूगर वही प्रगट करता है जो पहले से ही मौजूद होता है जो है ही नहीं वह कहाँ प्रगटता है -

और इसे अली सा की टिप्पणी के संदर्भ में देखा जाय!

अजित वडनेरकर said...

अरविंदजी, बहुत सुंदर संदर्भ लाए हैं आप। अलीभाई की बात को आगे बढ़ाता हुआ। आभार

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

सब कुछ साफ़ साफ़ बताया है.
वैसे कभी अकाट्य पर भी प्रकाश डालेंगे.

Baljit Basi said...

मैं तो धर्म से थोडा दूर ही रहता हूँ. फिर भी जो आता है प्रकट करता हूँ.
गुरबाणी में सौ से भी अधिक वार परगट शब्द आया है. कुछ अलग अर्थ पेश कर रहा हूँ:

मंनै मारगि ठाक न पाइ
मंनै पति सिउ परगटु जाइ - गुरू नानक
यहाँ परगटु का भाव प्रसिद्ध है. जो परमात्मा में विश्वास करता है उसके रस्ते में कोई रुकावट नहीं, वह इस दुनिया में शोभा के साथ प्रसिधी पाकर जाता है.
*
परगटि पाहारै जापदा- गुरू नानक
यहाँ तो दृष्टिगोचर जगत में परमात्मा प्रकट ही प्रकट है, गुप्त हुआ ही नहीं
*
आपे घटि घटि रहिआ बिआपि
दइआल पुरख परगट परताप- गुरु अर्जन देव
*
कहु कबीर परगटु भई खेड ॥ लेले कउ चूघै नित भेड
राम रमत मति परगटी आई ॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई
पहली तुक में परगटु का अर्थ समझ में आना है और दूसरी में बुधि
का जाग पढना है( अर्थात बुधि मन के पीछे नहीं लग रही).

शरद कोकास said...

चलिये हम भी यहाँ प्रकट हो गये । पहले से ही थे ना इसलिये ।

Mansoor ali Hashmi said...

कुछ प्रगट करने का मूड बनाया था मगर पहले अली साहब ने जो फलसफे का रंग चढाया पढ़ कर नर्वस होगया, बाकी कसर बासी जी ने निकाल दी धरम का बघार करके........दोनों ही चेम्पियन है! मैरें तो 'पर' ही 'कट' गए,कल्पना उड़ान न भर सकी.

आर डी सक्सेना said...

साकार के प्रागट्य पर अनेक आख्यान मिलते हैं । सम्भव है, निराकार उपासक के लिये, बुद्ध की सम्बोधि-प्राप्ति जैसी अनुभूति भी प्रगटीकरण ही हो ।

चूंकि साकार ब्रह्म की कल्पना भक्त अपनी भक्ति भावना के ही वशीभूत करता है इसलिये भक्ति का चमोत्कर्ष भी ‘प्रागट्य’ ही है !

रमेश भाई ओझा अपने एक दार्शनिक लेख में प्रागट्य का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि भक्ति का संबंध हृदय से है; ज्ञान का संबंध बुद्धि से, कर्म का संबंध हाथ से। यदि सत्य स्वरूप भगवान का अवतरण बुद्धि में हो जाए, उसी को ज्ञान कहते हैं । ज्ञान क्या है ? बुद्धि में भगवान का प्रागट्य होना।

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