Tuesday, May 4, 2010

[नामपुराण-12] वाचस्पतिजी के संबंधी हैं वाजपेयीजी

rishis1पिछली कड़ियां-1.नाम में क्या रखा है 2.सिन्धु से इंडिया और वेस्ट इंडीज़ तक 3.हरिद्वार, दिल्लीगेट और हाथीपोल 4. एक घटिया सी शब्द-चर्चा 5.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी 6.नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल 7.दुबे-चौबे, ओझा-बैगा और त्रिपाठी-तिवारी 8.यजमान का जश्न और याज्ञिक.9.पुरोहित का रुतबा, जादूगर की माया.10.वाजपेयीजी की गति, जोश और शक्ति.11.घुड़दौड़ वाले वाजपेयीजी

यूं तो वाज् के कई अर्थ हैं जिनकी चर्चा हो चुकी है। इसी कड़ी में यज्ञ की पूर्णाहूति के मंत्र को भी वाजः कहा जाता है। दरअसल यहां मंत्र में निहित ध्वनियां प्रमुख हैं। वाजः या वाजम् का एक अर्थ ध्वनि भी है। एक ही वर्णक्रम के अक्षरों में प्रायः अदला बदली भी होती है। वर्णक्रम में ही आता है। जाहिर है वाज् पूर्वरूप वाच् रहा होगा जिसमें ध्वनि, वचन, वाणी, भाषा आदि का भाव है। वाच् से बना है वाचस्पतिः जो ब्राह्मणों का प्रसिद्ध उपनाम है। मूलतः यह भी उपाधि ही है  जिसका अर्थ है जिसे वाणी सिद्ध हो चुकी है। गौरतलब है कि शब्द तब तक सम्पूर्ण नहीं है जब तक उसमें नाद नहीं है। तभी शब्द ब्रह्म होता है जब उसमें नाद अर्थात ध्वनि भी हो। वाणी को इसीलिए सरस्वती कहा गया है जो ज्ञान का प्रतीक है।  जिसे सरस्वती सिद्ध हो चुकी है वही वाचस्पति है। देवों के गुरु बृहस्पति का एक विशेषण वाचस्पति भी है। वाचस्पति का अर्थ होता है वाणी का स्वामी। इस तरह वाजस्पतिजी के संबंधी हुए वाजपेयीजी। वाजः का अर्थ पंख, डैना, बाजू भी होता है। इसके अलावा घी, यज्ञसामग्री, श्राद्धपिण्ड अथवा अन्य हविष्य को भी वाजः कहा जाता है।

क वैदिक संहिता का नाम है वाजसनेयी संहिता। यह शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा है जिसके प्रवर्तक याज्ञवल्क्य माने जाते हैं।वाज का अर्थ अन्न है। संहिता यानी संकलन। सन का अर्थ है उपासना करना, प्रेम करना, पूजा करना, सम्मान करना, प्राप्त करना आदि। अर्थात जो अन्न को प्राप्त करता है, वृद्धि करता है, कृतार्थ करता  है वही वाजसन है। सूर्य को भी वाजसन कहते हैं। इस तरह वाजसनेयी का अर्थ हुआ अन्नोत्पादन करनेवाली परमशक्ति की उपासना करना। स्पष्ट है कि यह कृषि संस्कृति से उपजा लोकाचार था जो बाद में लोकोत्सव में तब्दील हुआ। शासन, शक्तिप्रदर्शन, सत्ताप्राप्ति और प्रभावी होने की कामना जैसी बातें वाजपेय के साथ बाद में जुड़ीं। ऐसा माना जाता है कि याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु के रुष्ट होने पर उनकी दी हुई सारी विद्या तज दी थी। कालांतर में सूर्य की कृपा से उन्हें पुनः इसकी प्राप्ति हुई।
वाजपेय शब्द का वाजसनेयी से रिश्ता है। इससे जुड़ी पौराणिक कथा बड़ी दिलचस्प है और कुछ नामों के जन्मसूत्रों का खुलासा भी इनसे होता है। गौरतलब है कि यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं। यूं कहें कि यजुर्वेद इन्हीं दो शाखाओं में विभाजित है और इसी में पूर्ण होता है। 1) तैत्तिरीय संहिता और 2) वाजसनेयी संहिता। यजुर्वेद का जन्म ऋग्वेदेतर स्फुट ऋचाओं और ऋग्वैदीय ऋचाओं से हुआ है। इसमें बाद में कुछ गद्यांश भी जोड़े गए। मूलतः इसे पद्धतिग्रंथ कहा जा सकता है जिसे पौरोहित्य प्रणाली के अंतर्गत यज्ञक्रियाओं की जानकारी संग्रहीत है। यजुर्वेद का विभाजन दो संहिताओं में क्यों हुआ,
... कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न गद्य-पद्य शैलियो में लिखा गया एक अपरिपक्व ग्रन्थ है जबकि शुक्ल यजुर्वेद इस दोष से मुक्त है ...vedas
इसका कोई तार्किक और प्रामाणिक आधार नहीं है अलबत्ता प्रयोजन सिद्धि के लिए काल्पनिक कथाआधार विष्णु पुराण व वायुपुराणों में मिलता है।
हानी यूं कुछ यूं है। वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने अपने शिष्यों को यजुर्वेद पढ़ाया। दुर्योग से ऋषि पर अपने भांजे की मृत्यु का कलंक लगा। याज्ञवल्क्य बड़े मेधावी और गुरु के प्रिय शिष्य थे। वैशम्पायन ने पाप के प्रायश्चित के लिए सभी शिष्यों को यज्ञ के निमित्त बुलाया मगर याज्ञवल्क्य ने उन शिक्षाधीन ब्राह्मणों का साथ देने से मना कर दिया। इस पर विवाद हुआ। रुष्ट वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य से वह ज्ञान लौटाने को कहा जो उन्हें दिया गया था। याज्ञवल्क्य ने भी तत्काल यजुःग्रन्थ के ज्ञान का वमन कर दिया। विद्या के कण रक्त से सने हुए भूमि पर गिरे। अन्य शिष्यों ने तित्तिर ( तीतर, तीतरी )बनकर उन उगले हुए ज्ञानकणों को चुग लिया। इस प्रकार ग्रहण किया हुआ यजुर्वेद का वह हिस्सा तैत्तिरीय संहिता कहलाया। कृष्णवर्णी होने के नाते इसके साथ कृष्ण यजुर्वेद शब्द भी जुड़ा।
धर याज्ञवल्क्य इस घटना से खिन्न हुए और सूर्य का तप करने लगे। सूर्य ने प्रसन्न होकर अश्व अर्थात वाजि का रूप धारण किया और उन्हें वह यजुःग्रन्थ सौंपा जो गुरु वैशम्पायन के पास भी नहीं था। वेद के इस भाग के पुरोहित वाजिन कहलाने लगे, ज्ञान संहिता का नाम वाजसनेयी हुआ तथा सूर्य द्वारा प्रदत्त होने से इसे शुक्ल यजुर्वेद भी कहा गया क्योंकि यह सूर्य के प्रकाश से आलोकित था। सूर्य का एक नाम वाजसन भी है। डॉ राजबली पाण्डेय इस कथा से बोधगम्य तार्किक आधार ग्रहण करते हैं। उनके मुताबिक याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाते थे क्योंकि वे वाजसन ऋषि के वंशज थे सम्भव है याज्ञवल्क्य के पिता का ही नाम वाजसन था। इसी तरह यास्क के एक शिष्य का नाम तित्तिर था। वेबर के मुताबिक इस कथा के आधार पर कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद का तार्किक आधार यह भी है कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न गद्य-पद्य शैलियो में लिखा गया एक अपरिपक्व ग्रन्थ है जबकि शुक्ल यजुर्वेद इस दोष से मुक्त है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

6 कमेंट्स:

अविनाश वाचस्पति said...

संबंधी तो वागीश भी हैं
होंगे तो और भी कई
बोलने वालों के ईश
वैसे बड़े संबंधी सबके
इनके तो श्रोता होते हैं।

होते जैसे लेखकों के पाठक
बिना पाठक क्‍या उठापटक
बिना श्रोता बोलने का रस
श्रोता सामने तो बोल उठें
बेरूके नेता जैसे बरबस।

दिनेशराय द्विवेदी said...

कथा बहुत प्रतीकात्मक है। अनेक अर्थ हो सकते हैं इस के। बहुत कामयाब पोस्ट।

Mansoor ali Hashmi said...

यज्ञ की पूर्णाहूती का मन्त्र क्या है?, वाज: है,
और वुज़ूअ भी तो इबादत का ही इक आगाज़ है.
मन्त्र में ध्वनि निहित एक साज़ सी आवाज़ भी,
गर्ज़* है मंत्रो,दुआओं की तो बस परवाज़* है.

गर्ज़=उद्देश्य, परवाज़=उड़ना [बुलंदी की तरफ]
-मंसूर अली हाश्मी

अविनाश वाचस्पति said...

वाग्‍मी भी इसी बिरादरी से हैं।

Gyan Dutt Pandey said...

इम्प्रेसिव!

शरद कोकास said...

पढ़ रहे हैं अजित भाई । अच्छा लग रहा है ।

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin