Monday, April 14, 2008

उधार लो, उद्धार करो...

ज के दौर में अगर दुनिया चल रही है तो सिर्फ एक शब्द यानी उधार के दम पर उधार एक ऐसी व्यवस्था है जिसे पुराने ज़माने में चाहे बोझ माना जाता हो मगर आज तो विश्व की अर्थव्यवस्था सिर्फ और सिर्फ इसी उधार नाम के बंदोबस्त पर टिकी है। उधार में ही सबका उद्धार छुपा है। चार्वाक की 'ऋणं कृत्वा , घृतं पिवेत्' जैसी प्रसिद्ध उक्ति में भी यही सिद्ध होता है कि उधार लो , उद्धार करो [ किसका ?]। ये अलग बात है कि उद्धार के रूप अलग अलग होते हैं। समझदारी से चुकारा करते जाने पर उधार सचमुच लेने वाले का उद्धार कर देता है मगर उधार न चुकाया जाए तो कई बार लेने वाले के साथ साथ देने वाले का भी ‘उद्धार’ हो जाता है। उधार की वसूली न होने से ही बैंक दिवालिया होते हैं । उधार न चुकाने से ही सरकारें कमज़ोर होती हैं, लोग खुदकुशी करते हैं ।
धार के मूल में जितनी अधोगति छुपी है, उसके मूल उद्धेश्य और अर्थ में दरअसल सचमुच सद्गति और उद्धार का भाव ही था। अंग्रेजी के लोन, संस्कृत के ऋण या उर्दू के कर्ज़ जैसे शब्दों के हिन्दी पर्याय उधार का जन्म सचमुच संस्कृत के उद्धार शब्द से ही हुआ है। उद्धार का अर्थ होता है उठाना, ऊपर करना, मुक्ति, बचाव, छुटकारा। उद्धार बना है संस्कृत धातु उद् से । उद् धातु एक प्रसिद्ध उपसर्ग है जो नाम, पद या शक्ति की दृष्टि से श्रेष्ठता , उच्च या अतिशय ऊंचाई वाले भाव प्रकट करने के लिए शब्दो से पहले लगाया जाता है । जैसे उद् + सह् के मेल से बना उत्साह जिसका मतलब हुआ शक्ति, प्रयत्न , ऊर्जा आदि। उद्धार के धन-सम्पत्ति से जुड़े अर्थों में पैतृक सम्पत्ति का वह हिस्सा जो सबसे बड़े पुत्र को मिलता है। अथवा युद्ध या लूट का छठा हिस्सा भी उद्धार कहलाता था जिसका हकदार राजा होता था। इसी तरह ऋण और खोई सम्पत्ति का फिर मिलना भी इसमें शामिल हैं। गौर करे कि बड़े पुत्र का हिस्सा और राजा का अंश भी किसी न किसी रूप में उच्चता, वरिष्ठता या शक्ति की ओर ही इशारा कर रहे हैं।
द्धार उद्+हृ के मेल से बना है । हृ धातु मे भी ऊपर उठाना, ले जाना, बचाना , मुक्त करना जैसे भाव शामिल हैं। स्पष्ट है कि धन की कमी से मनुश्य का जीवनस्तर गिरता है । सो ऋण ही इस अवस्था से उबारने का एक महत्वपूर्ण जरिया अनादि काल से रहा है। इसीलिए आर्थिक संकट से उबारने की व्यवस्था के रूप में उद्धार शब्द का चलन हुआ जो पाकृत में उधार के रूप में ढल गया ।
माज के विकास के साथ शब्दों के अर्थ भी बदलते है जिनमें अर्थ की उन्नति भी होती है तो अवनति भी । उद्धार शब्द के साथ भी यही हुआ है । बोलचाल की हिन्दी में उद्धार शब्द की अवनति हुई है । आज कोई काम अगर बिगड़ जाए तो कहा जाता है – इसका उद्धार कर दिया । किसी नालायक के सिपुर्द अगर कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंपा जाने वाला हो तो सावधान करने के लिए भी यही कहा जाता है कि वह तो उसका उद्धार कर देगा यानी बर्बाद कर देगा। कुल मिलाकर उद्धार शब्द की भी हिन्दी हो चुकी है। इस शब्द की अवनति के पीछे शायद एक बड़ी वजह यह भी रही है कि उद्धार करने वालों ने अक्सर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन सही ढंग से नहीं किया इसलिए उबारने के प्यारे से भाव वाले इस शब्द का उद्धार हो गया । अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, April 12, 2008

अरब के रंग-ढंग और अपना ये हाल ! [बकलमखुद - 17]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला की पंद्रह कड़ियों में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह और काकेश को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं दुबई में निवासी मीनाक्षी धन्वन्तरि से । मीनाक्षी जी प्रेम ही सत्य है नाम का ब्लाग चलाती हैं और चिट्ठाजगत का एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी के परिवेश से दूर रहते हुए भी वे कविताएं लिखती हैं खासतौर पर उनके हाइकू बहुत सुंदर होते हैं जिन्हें उन्होने त्रिपदम् जैसा मौलिक नाम दिया है। तो शुरू करतें बकलमखुद का पांचवां चरण और सत्रहवी कड़ी -

चिट्ठी आई है , वतन से...

सी बीच परिवार में एक और नया सदस्य आ गया बेटे विद्युत के रूप में. समय बीतता गया और हम धीरे धीरे साउदी कानून समझने लगे. काले बुरके के साथ काला दुपट्टा पहनना कभी न भूलते. जानते थे कि अगर कभी मतुए ने पकड़ लिया तो सबसे पहले पति का इक़ामा(परिचय-पत्र) नम्बर नोट कर लिया जाएगा. तीन बार नम्बर नोट हुआ तो देश से बाहर. जहाँ फैमिली एलाउड होती वहीं जाते चाहे वह बाज़ार हो , रेस्तराँ हो या पार्क हो. कभी कभी कार में बैठे रहते और विजय वीडियो लाइब्रेरी से कैसेटस ले आते क्योंकि औरतें दुकान के अन्दर नहीं जा सकतीं. कुछ बाज़ार हैं जो सिर्फ औरतों के लिए हैं. पति और ड्राइवर बाहर बैंचों पर ही बैठे रहते हैं. कुछ बाज़ार सुबह औरतों के लिए और शाम को फैमिलीज़ के लिए हैं. बैचलर्ज़ के लिए शुक्रवार का दिन होता. भिनभिनाती मक्खियों से दूर दूर तक फैले हुए आदमी दिखाई देते. एक-दूसरे से मिलते. देश जाने वाले लोगों को पैसे और सौगात भेजते, आने वालों से चिट्ठी-पत्री और और घर से आई सौगात लेते. अपने अपने परिवारों का हाल-चाल पूछते. घर की नहीं, पूरे गाँव की खबर सुनते और बस इसी में ही सन्तोष पा जाते.

इस शहर में जी का लगाना कैसा !

साउदी अरब एक ऐसा देश है जहाँ नमाज़ के वक्त सारे काम बन्द हो जाते हैं.फज़र की नमाज़ तो सुबह सवेरे चार बजे के करीब होती. उसके बाद की चार नमाज़ों की अज़ान होते ही शटर डाउन. मतुओं की बड़ी बड़ी ज़ी एम सी गाड़ियाँ घूम घूम कर कामकाज बन्द कर के नमाज़ पढ़ने की हिदायत देती हुई दिखाई देतीं. एक और खास बात कि साउदी अरब एक ऐसा देश है जहाँ स्टेडियम में हज़ारों पुरुष खेल देखने के लिए एक साथ बैठते. यह बात गिनिज़ बुक में भी दर्ज़ है.
अन्य धर्मों के पूजा स्थल नहीं और न ही मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल. वीकैण्ड्स पर कुछ दोस्त एक-दूसरे के यहाँ मिलते और बारबीक्यू करते. बस यही एक मनोरंजन का साधन होता. कभी कभी शहर से दूर इस्तराहा (एक विला जिसमें कुछ कमरे स्विमिंग पूल और खेलने का छोटा सा स्थान) बुक कराके 8-10 परिवार जन्मदिन और शादी की सालगिरह भी मना
लेते.

कुछ खट्टा , कुछ कड़वा, कुछ तीता

जीवन नई नई कहानियों के साथ पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ता गया. वहाँ रिश्तेदारों को वीज़ा मिलना मुश्किल है सो दोस्त ही रिश्तेदारों की भी भूमिका निभाते हैं. एक दूसरे के दुख सुख में काम आते लेकिन वह भी पति के भरोसे, जो काम से लौट कर ही कहीँ मिलने मिलाने ले जा पाते. दिल को खुश रखने के लिए सोचा करते कि हम बेगम से कम नहीं. पति शौहर ही नहीं शौफ़र भी हैं जो चौबीस घंटे डयूटी बजाते हैं.
कभी कभी जीवन में ऐसा कुछ घट जाता है कि अन्दर ही अन्दर तोड़ देता है लेकिन इस बदलाव को सहज रूप से लेना सीख लें तो जीना आसान हो जाता है. काली घटाओं में कड़कती बिजली को हम किसी दूसरे ही रूप में देखते और तस्वीर में उतारने की कोशिश करने लगते हैं. सुरमई बादलों के बीच में चाँदी सी रेखा जब चमकती तो लगता जैसे साँवली सलोनी ने चाँदी का हार पहन लिया हो. वैसे भी ज़िन्दगी में सिर्फ मीठा ही नहीं, कुछ खट्टा है, कुछ कड़वा है, कुछ नमकीन भी है. जीने का मज़ा भी उसी में है.

रियाद के स्कूल में बच्चों के बीच...

हिन्दी पढ़ाने के लिए इंडियन एम्बैसी के स्कूल में एप्लाई किया तो फट से नौकरी मिल गई. एक साल लड़कियों को पढ़ाने के बाद जब लड़कों को पढ़ाने को कहा गया तो रात भर नींद नहीं आई थी. प्रिंसीपल साहब ने कहा कि दो बेटों के साथ एक ही स्कूल में लड़कों को पढाना ज़्यादा सही निर्णय होगा. जैसे तैसे हिम्मत करके दसवीं क्लास में पहला कदम रखा तो फिर लगातार दस साल तक पैर वहीं जमे रहे. इतने साल लड़कों को पढाने के अनुभव से जाना कि लड़के व्यवहार में सरल और सहज होते हैं. उतना ही लड़कियों को पढ़ाना पेचीदा लगता. अक्सर लड़कियाँ जिक्र कर देतीं कि हमें लड़के ज़्यादा अच्छे लगते हैं या लड़कियाँ. लड़के कभी सवाल न करते लेकिन लड़कियाँ सवाल का जवाब पाने को बेताब. हम कैसे कहें कि लड़के अच्छे या लड़कियाँ. उदाहरण देते कि हमारे लिए लड़कियाँ नदी की बलखाती धारा सी हैं और लड़के चट्टानों से टकराता समुन्दर. हमें तो दोनो प्यारे लगते हैं. साउदी अरब के कानून को देखते हुए वहाँ पढ़ने वाले सभी बच्चे कुछ ज़्यादा ही प्यारे थे.

बशीर बद्र और मंज़र भोपाली के साथ मंच पर पढ़ी कविता...

पनी उम्र के बच्चों से आपस में मिलने जुलने का कम ही अवसर मिलता. एक स्कूल ही ऐसी जगह थी, जहाँ बच्चे एक दूसरे से मिल कर खुश होते. हम कोशिश करते बच्चों को वह खुशी मिल सके. अपना साथी मानकर दोनों स्कूलों के बच्चे आज भी हमें अपने मन की बात करते हैं तो उनकी खुशहाली की दुआ करते हैं. स्कूल के वार्षिक उत्सव पर कविता, पैरोडी, कव्वाली और नाटक करते हुए खूब मज़ा आता. स्कूल की मैगज़ीन में एडीटर के रूप में अपनी मन-पसन्द काम करने में घंटों बिता देते. उसी दौरान रियाद में हुए शाम ए अवध में और शायर बशीर बद्र और मज़र भोपाली के साथ अपनी कविता पाठ करने का सुखद अवसर मिला. हालात कुछ ऐसे बने कि स्कूल से इस्तीफा देना पड़ा. दिल्ली रहने का विचार किया तो दुबई पहुँच गए

दिल्ली जा बसने का इरादा, पर...

बेटे ने बाहरवीं पास कर ली थी सो दिल्ली जाकर रहने का निश्चय किया. छोटे बेटे को गोएंका स्कूल में डाला. बड़े बेटे को दो कॉलेज में एडमिशन होने पर भी वहाँ का माहौल कुछ जँचा नहीं तो दुबई बिटस में एडमिशन लेकर होस्टल रहने का निश्चय किया. अभी छह महीने भी न बीते थे कि हम भी छोटे बेटे के साथ दुबई शिफ्ट हो गए. रियाद में कई साल रहने के कारण एक बार भी मन शंकित नहीं हुआ कि हम दोनों बेटों के साथ अकेले कैसे रहेंगें. दुबई में आते ही 15 दिन में बेटे को हॉस्टल से घर ले आए. छोटे बेटे को डी.पी.एस. दुबई में डाला तो हमारा लम्बा अध्यापन का अनुभव देखकर हमें भी मिन्नत करके पढ़ाने का न्यौता दे दिया. चाहते हुए भी इंकार न कर सके. दुबई के स्कूल में 18 महीने पढ़ाने का अनुभव भी अपने आप में यादगार बन गया. रियाद के बच्चे तो दोस्त थे ही अब दुबई के बच्चे भी दोस्त बन गए.
(डी पी एस दुबई के अध्यापन के दौरान आबू धाबी में भारतीय राजदूत श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लिया, जिसमें यू.ए.ई के शिक्षा मंत्री नाह्यान भी थे)


आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली तीन कड़ियों [ चतुर चालों के माहिर, उस लड़की ने मजनूं की नाक तोड़ दी और शोरगुल के साथ खारापन ] पर घोस्टबस्टर, मीनाक्षी , दिनेशराय द्विवेदी, डॉ चंद्रकुमार जैन, जोशिम, नीरज रोहिल्ला , ज्ञानदत्त पांडे, काकेश , बेजी, स्वप्नदर्शी, अर्बुदा, संजीत त्रिपाठी, प्रमोदसिंह, सिद्धेश्वर, अजित,अरुण, नीलिमा सुखीजा अरोड़ा, मीनाक्षी, पारुल, अनूप शुक्ल, कंचनसिहं चौहान, हर्षवर्धन, नीरज गोस्वामी और यूनूस जैसे लाजवाब साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं । आप सबका शुक्रिया...

@नीरज गोस्वामी-

भाई, बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने शोरगुल वाली पोस्ट को पसंद किया । मगर एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि हम
ज्ञानी-वानी नहीं हैं । अपने शौक मे आप सबको साथ लिए चल रहे हैं बस्स । बहुत कुछ बिखरा पड़ा है ज़मानेभर में सो बांच रहे हैं, जांच रहे हैं । समेट रहे हैं, सहेज रहे हैं और सबसे साझा भी कर रहे हैं । ज्ञानी कह कर शर्मिंदा न करें, यही गुजारिश है :) अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, April 11, 2008

शोरगुल के साथ खारापन ....


फारसी के शोर-गुल शब्द का आमतौर पर कोलाहल के अर्थ में हिन्दी में भी खूब इस्तेमाल होता है। यह बड़ा अनोखा शब्द है। यह शोर+गुल से मिलकर बना है। इन दोनों ही शब्दों का अर्थ समान है यानी कोलाहल, चीख-पुकार वगैरह।
शोर शब्द बना है संस्कृत के क्षार से । क्षार रासायनिक पदार्थ होते हैं और आयर्वेद में इनका उपयोग है। कुछ क्षार जड़ी-बूटयों को जलाकर बनाए जाते हैं। इसी तरह कुछ क्षार खनिज के तौर पर प्राकृतिक रूप में भी मिलते हैं जैसे बारूद बनाने के काम आने वाला श्वेतक्षार या सफेद क्षार। फारसी में इसे कहा गया शोर:। इसका यह रूप बना क्षार से ही मगर अर्थ हो गया तेज आवाज करनेवाला। जाहिर सी बात है कि बारूद की भीषण आवाज की वजह से ही शोरे को यह अर्थ मिला। बाद में शोर: का मतलब ही हो गया चिल्लाहट या तेज आवाज। नमक के लिए भी क्षार शब्द है इसीलिए नमकीन के अर्थ में खारा शब्द ज्यादा चलता है। राख शब्द भी क्षार से ही बना है। इस तरह क्षार से शोर: और फिर शोर शब्द बन गए। इससे ही शोरगर यानी पटाखे बनाने वाला और शोर-शराबा जैसे शब्द बने।
अब आते हैं गुल पर। फारसी में गुल का अर्थ भी कोलाहल, शोर या चीख-पुकार ही है। फारसी का गुल शब्द भी संस्कृत के कल से ही बना है जिसका अर्थ होता है शब्द करना, आवाज करना। पंजाबी के की गल्ल ऐ वाली गल में भी यही कल गूंज रहा है। इससे हिन्दी में कई शब्द बने हैं जैसे कोलाहल, कलरव या कलकल यानी मन्द गति से पानी बहना। गौरतलब है कि फारसी में भी कलकल शब्द का पर्याय है गुलूलअभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, April 9, 2008

उस लड़की ने मजनूं की नाक तोड़ दी....[बकलमखुद- 16]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला की पंद्रह कड़ियों में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह और काकेश को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं दुबई में निवासी मीनाक्षी धन्वन्तरि से । मीनाक्षी जी प्रेम ही सत्य है नाम का ब्लाग चलाती हैं और चिट्ठाजगत का एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी के परिवेश से दूर रहते हुए भी वे कविताएं लिखती हैं खासतौर पर उनके हाइकू बहुत सुंदर होते हैं जिन्हें उन्होने त्रिपदम् जैसा मौलिक नाम दिया है। तो शुरू करतें बकलमखुद का पांचवां चरण और सोलहवी कड़ी -

शुरू से शुरू करते हैं

अजित जी का मेल मिला कि शब्दों के सफर में हमसफर एक-दूसरे को जाने-पहचाने, इसलिए अपना आत्मकथ्य लिख भेजिए. एक पल के लिए हम झिझके लेकिन दीदी सम्बोधन ने हमें बाँध लिया. निश्चय कर लिया कि किसी भी तरह से अपने जीवन का एक सरल रेखाचित्र तो ज़रूर भेजेंगे. चार-पाँच बार लिखने बैठे, लिखने की बहुत कोशिश की लेकिन उंगलियाँ कीबोर्ड पर आते ही सन्न सी हो जाएँ. क्या लिखें कहाँ से शुरु करें......
[ मैं ये कहना चाहूंगा कि मीनाक्षीदी और अनितादी को ही सबसे पहले हमने अपने बकलमखुद के बारे में सबसे पहले बताया था और उनसे लिखने का आग्रह किया था ]

बचपन के मस्ती भरे दिन...

न्म से ही शुरु करते हैं. दिल्ली में पैदा हुए. मम्मी बताया करती हैं, जब हम जन्मे तो
अपने देश की रीत के अनुसार दादी रोईं थी लेकिन डैडी ने विपरीत किया, झट से हमें मीठी मधु कह कर गोद में ले लिया था. पाँच साल के बाद छोटी बहन आ गई. दोनों को अपने बाज़ू कह कर डैडी दोनों बाँहों में हम दोनों बहनों को उठा लेते. फिर आया नन्हा-मुन्ना भाई और राखी बाँधने की हमारी चाहत पूरी हुई.
हमकितने भी बड़े हो जाएँ लेकिन बचपन नहीं भूलता, उसकी यादें साँसें बनी दिल में धड़कती रहती हैं. अप्रैल 7 को 48 साल के हो गए लेकिन फिर भी लगता जैसे बचपन छूटा नहीं. पल पल महसूस होता है कि परिपक्व होने में कसर रह गई है. अभी बहुत कुछ सीखना है, बहुत कुछ जानना समझना है. इसी सीखने की राह पर चलते चलते कभी दो पल रुक कर पीछे मुड़कर देखने को जी चाहता है. रुकते हैं, पीछे छूटे पलों को हसरत भरी निगाहों से देखते हैं और सपनों में खो जाते हैं. बार बार पीछे मुड़ मुड़ कर बचपन को हसरत भरी नज़रों से देखते ही रहते हैं.
बचपन के मस्ती भरे दिन नानी के घर बीते. जहाँ गौ मूत्र और गोबर की महिमा जानी. गेहूँ चुनकर, धो-सुखाकर चक्की पर पीसने का आनन्द अभी भी ताज़ा है. चाँदनी रात में खुले गगन के अनगिनत तारों के नीचे छत पर सोते समय नानी के मधुर स्वर में गीता का पाठ सुनना कानों में मिश्री सी घोल देता था. गर्मी की छुट्टियों में कुल्लू मनाली मौसी के घर पहाड़ों पर सपनों के बादल छूने की होड़ लगती तो हम सबसे आगे होते

बस, नाक पर बैठा गुस्सा भन्ना उठा...

तितली बन उड़ निकले थे अकेले दिल्ली से कश्मीर की वादियों में. प्रकृति की सुन्दरता ने मन को ऐसा मोह लिया कि मैदान वापिस जाने से पहले ही हमने सपनों की अपनी एक दुनिया बना ली. बस तो फिर क्या था, उन्हीं सपनों में खोए कॉलेज खत्म किया. सपनों की दुनिया में आकर अगर कोई छेड़खानी करता तो आग-बबूला हो जाते. कई बार चाचू को साथ लेकर उन सभी लड़कों को तमाचे लगाए जो अपने आप को मजनू के वंशज समझते थे. एक दिन डैडी जूडो कराटे के क्लब में ले गए. बोले कब तक दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रखकर चलाओगी. खुद सामना करना सीखो. इसी से जुड़ी घटना याद आ गई. एक बार हम जूडो-करांटे के कम्पीटशन के लिए ट्रेन से कलकता जा रहे थे. सफर के दौरान देखा कि अपने ग्रुप की एक लड़की के साथ कुछ लड़के छेड़खानी करने लगे. बस फिर क्या था नाक पर बैठा गुस्सा भन्ना उठा. आव देखा न ताव लड़के के नाक पर हाथ पड़ा तो लगा कि उसका नाक ही टूट गया. उसी पल अपने ग्रुप के लड़के भी आ गए जिन्हें देखकर छेड़खानी करने वाले लड़के नज़र नीची करके दूर जा बैठे

और जा पहुंचे धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के मानतलाई आश्रम

र तक बात पहुँची तो गुस्सा शांत करने के लिए योगा करने के लिए धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के आश्रम मानतलाई भेज दिया गया. हमने भी ईमानदारी से गुस्से को मारने की कोशिश की लेकिन थोड़े बेईमान हो गए और उसे दिल में गहरे बहुत गहरे दबा दिया. मानतलाई आश्रम की बनावट , उसकी सुन्दरता हमारे लिए अद्भुत थी. आश्रम बहुत बड़े इलाके में था. चीड़ के पेड़ , हरी भरी घास और चारों ओर रंग-बिरंगे फूल जिनमें बैठकर ध्यान लगाने का एक अलग ही आनन्द था. सन्ध्या के समय जब शिव के मन्दिर में बैठ कर ध्यान लगाते तो आकाश में टिमटिमाते तारे और दूर कुद शहर के पहाड़ों के घरों की टिमटिमाती बत्तियों में कोई फर्क न दिखाई देता. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जी जहाँ रहते थे, वहाँ जाने की मनाही थी लेकिन जहाँ वे समाधि में लीन होते , वह गुफा दिखाई गई. हमारा और लड़को का होस्टल कुछ दूरी पर ...शुद्ध देसी घी में शाकाहारी खाना बनता था . सुना था कि गाय, शाक भाजी फल और वनस्पति भी आश्रम की सम्पत्ति थे. योग पर अलग अलग पुस्तकों की लाइब्रेरी जिसमें घंटों बैठकर थ्योरी पेपर की परीक्षा के लिए हम नोटस तैयार करते.
सुबह षटकर्मा की क्रिया करके कुछ देर के अंतराल में नाश्ता करते. उसके बाद योग और आसन के लिए जाते, फिर कुछ घंटे क्लास में थ्योरी पढ़ने जाते. दोपहर आराम करके शाम फिर योग और आसन करते. उसके बाद ही ध्यान और समाधि लगाने की प्रक्रिया में सभी सभी अपने अपने पसन्दीदा स्थान पर एकांत भाव से ध्यान में मग्न हो जाते या होने का प्रयास करते.

बिजनेसवुमैन बनने का शौक...

वापस लौटने पर बिजनेसवुमैन बनने का अनुभव लेने के लिए मौसेरे भाई भाभी के ऑफिस जाकर बैठने लगे. हिन्दी भाषा को सपनों की भाषा समझते थे सो पत्राचार से हिन्दी मे एम.ए किया. मम्मी बार बार पैरों पर खड़ा होने की नसीहत देतीं तो दूसरी तरफ हमारी मस्ती देखकर डैडी बस मुस्कुरा कर रह जाते. मम्मी मनाती रह गईं कि बी.एड कर लेते तो टीचर बन जाते, जितना वह कहतीं उतना हम उस विषय को बदलने की कोशिश करते. मशरूम उगाने का बिजनेस करने का भूत जो सवार था सो भइया के ऑफिस में काम करते हुए सपना देखते कि एक दिन हम भी बिजनेस की दुनिया में नाम कमाएँगें.

सपनों की दुनिया से निकल कर बसना परदेश में ...

भाग्य में कुछ और कहानी लिखी थी. साउदी अरब से एक इंजीनियर लड़का आया. बँध गए एक नए बँधन में. शादी हुई...अपना देश छोड़ा और साउदी अरब के होकर रह गए. 1986 में नन्हें वरुण रेगिस्तान में स्वाति नक्षत्र की स्वाति बूँद बन कर आए . विजय अक्सर पति का पद छोड़कर दोस्त बन जाते और शांत भाव से हमारा जीना आसान कर देते. 'love it or leave it' का महामंत्र हमे बहुत आसानी से सिखा दिया. कभी कभी विचारों में टकराव होता है जो स्वाभाविक है, ऐसा होना भी चाहिए. कम बोलना और खाना देख कर कभी कभी हैरानी होती है क्योंकि हम बिल्कुल विपरीत स्वभाव के हैं. उनके शौक हैं संगीत और सर्फिंग के साथ साथ ऑनलाइन दोस्ती करना. मेहमान नवाज़ी में उनका कोई जवाब नहीं. जारी अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, April 8, 2008

चतुर चालों के माहिर

त् धातु से बने चत्वरम् के हिन्दी रूप चार की महिमा नगर व्यवस्था (चौक , चौराहा) रसोई ( चौका-बासन ), भूगोल (चतुर्दिक), सुरक्षा-गुप्तचरी (चौकीदार, चौकसी) आदि कई क्षेत्रों में नज़र आती है। चार की संख्या बहुत महत्वपूर्ण है और इस अंक की खूबी यही है कि इससे बने कई शब्द संस्कृत, हिन्दी , उर्दू, फारसी में नजर आते हैं। पशुओं के लिये चौपाया और शय्या के लिए चारपाई, किसी घिरे हुए अहाते, इमारत के लिए चारदीवारी, खानेदार कपड़े के लिए चारखाना या चौखाना आदि शब्द इसे साबित भी करते हैं। चार से बनी कई कहावतें भी हिन्दी में मशहूर हैं जैसे चारोंख़ाने चित्त होना, चौकड़ी भूलना, आंखें चार होना, चार चांद लगना आदि।

खेलों की दुनिया में भी पोलो के लिए चौगान जैसा शब्द इसी की देन है। यही नही, दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेलों में एक शतरंज में भी इसी चत् यानी चार की महिमा उजागर हो रही है। इसे चतुराई का खेल यूँ ही नहीं कहते। भारत में जन्मे और चार तरह के मोहरों से खेले जाने वाले इस खेल का नामकरण संस्कृत में हुआ और दुनियाभर में इसी के रूप चल रहे हैं। शतरंज दरअसल असल् चत् से बने चतुर् (चार) और अंग से मिलकर बना है। इसका सही रूप है चतुरंग। प्राचीनकाल में सेना के चार अंग होते थे जिसे चतुरंगिणी सेना कहा जाता था जिसके चार प्रमुख अंग होते थे-पदातिक, हस्तिसेना, अश्वसेना और रथसेना । शतरंज के खेल को भी किसी सेना की व्यूहरचना के आधार पर तैयार किया गया है। 

संस्कृत का चतुरंग ही फारसी में जाकर शत्रंज बन जाता है। इस खेल को बुद्धिमानों का खेल माना जाता है और कहा जाता है कि इसके जैसा तार्किक और बुद्धिमानीपूर्ण खेल आज तक कोई दूसरा नहीं बना। मराठी में इस खेल को बुद्धिबऴ ही कहते हैं। इसमें निहित चतुर् के दूसरे भाव यानी चतुराई , अक्लमंदी की सार्थकता भी इसमें साबित हो रही है। चतुरंग से शत्रंज होता हुआ अरबी में इसने शतरंज का रूप ले लिया । अरबी में इसकी व्याख्या शतरंज यानि सौ रंज (दुख) से भी की जाती है। अरबी से शतरंज शब्द ने स्पेनी में ajedrez रूप ग्रहण किया जहां से पुरानी फ्रैंच में esches और फिर अंग्रेजी के chess में ढल गया।

शतरंज यानी चेस की विभिन्न चालों में सबसे महत्वपूर्ण चाल होती है शह। यह राजा को दी गई चुनौती है। राजा इसे नहीं बच पाता तो उसे शह-मात कहते हैं। यह जो शह शब्द है वह भी फ़ारसी के शाह से ही आ रहा है। बादशाह पर गौर करें। शह यानी लक्ष्य, वेध, बाधा, चुनौती आदि। अंग्रेजी में शह मात का जस का तस रूपान्तर हुआ चेकमेट। शह से बरास्ता फ़ारसी ओल्ड फ्रेंच में एस्चेक शब्द बना और बाद में मात का रूपान्तर भी हो गया मेट। इस तरह फ़ारसी की टर्म शहमात ही चेकमेट के रूप में सामने आई। दिलचस्प यह भी कि चौखाना वाले अर्थ में अंग्रेजी के चेक प्रिन्ट की तुलना शतरंज की बिसात के चौखानों से आसानी से की जा सकती है। यह असल रिश्तेदारी है।
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Monday, April 7, 2008

अधूरी इच्छाएं काकेश की....[बकलमखुद-15]

शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और पंद्रहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)की अंतिम कड़ी

शिफ्टों में बंटी जिंदगी

लकत्ता जाके फैक्ट्री में काम करना था. कॉलेज से निकले थे तो ख्वाब थे की अपन तो इंजीनियर हैं किसी ए.सी. वाले कमरे में बैठेंगे और बैठे बैठे ऑर्डर देंगे. लेकिन फैक्ट्री में जाके सारी हकीकत सामने आयी. मशीनों के शोर, बहुत अधिक ह्यूमेडिटी (आर्द्रता) और फैक्ट्री के अन्दर सामान्य से अधिक गर्मी से सारे ख्वाब हवा हो गये. ऊपर से कलकत्ता की फैक्ट्री. फैक्ट्री में सात सात युनियन. आये दिन वर्कर और मैनेजमैंट के बीच तकरार होते रहती थी.अपन ना तो वर्कर थे ना मैनेजमेंट लेकिन वर्कर हमें मैनेजमैंट का आदमी समझते और सीनियर समझते की हम जान बूझ कर वर्कर्स का पक्ष रखते हैं ताकि खुद भी काम से बच सकें.उन दिनों हम शिफ्ट में काम करते थे तो ना सोने का कोई निश्चित समय, ना खाने का.इसी तरह एक साल गुजर गया. जिन्दगी बोझ सी लगने लगी. तभी उस फैक्ट्री का कम्प्यूटरीकरण होना था जिसके लिये एक टीम बन रही थी. हमने भी अपना नाम दे दिया. एक इंटरव्यू हुआ और हम चुन लिये गये. कॉलेज के समय के कंप्यूटर को देखे पढ़े के अनुभव काम आये.फिर तो कंप्यूटर के कई कोर्स कर डाले फिर तो धीरे धीरे कंप्यूटर अपना सा लगने लगा और हम कंप्यूटर डिपार्टमेंट में ही शिफ्ट हो गये.

जब मन रम गया बंगाल की राजधानी में

ब जिन्दगी थोड़ी नियमित हो गयी थी. तो लगा कि कलकत्ता में जैसे मेरी कल्पनाओं को विस्तार मिल गया.नाटकों में रुचि कॉलेज के समय से ही थी. पहले संस्थान के लिये कुछ नाटक किये और फिर एक थियेटर ग्रुप ‘प्रयास’ जॉइन किया. कई नाटक किये. डा. शिवमूरत सिंह जैसे गुरु से परिचय हुआ. उनके लिखे नाटक ‘गांधारी’ और ‘पुरुष पुराण’ में अहम भूमिका निभायी.इनका मंचन कलकत्ता के अलावा गाजीपुर में भी हुआ.इसके अलावा “संजोग”,”ढाई आखर प्रेम का”,”आत्महत्या की दुकान”,”चरनदास चोर”, “हनीमून” जैसे कई नाटक किये.स्थानीय टीवी चैनल में न्यूज रीडिंग भी की.और भी बहुत कुछ... कुल मिला कर काफी कुछ सीखा जो अच्छा लगा.

ज्यादातर वेज, कभी-कभी नानवेज

दादा-दादी के जमाने में घर में प्याज-लहसुन भी बैन था.अब प्याज लहसुन तो घर में आने लगा लेकिन नॉन वेज, यहाँ तक की अंडा भी, अभी तक बैन है.लेकिन मैं बाहर मौका मिलने पर कभी कभी नॉन वेज खा लेता हूँ. हर जगह के कुछ व्यंजन बहुत पसंद हैं खासकर पहाड़ी व्य़ंजन जैसे भट की चुणकाणी, भट के डुबके, जौला या फिर पुए,सिंगल और बड़ा. इसके अलावा बंगाल का ईलीस-माछ-भात, पॉम्फ्रेट मछ्ली, राजस्थान का दाल-बाटी-चूरमा या बिहार का लिट्टी-चोखा सभी पसंद हैं.
शौक में पढ़ने का बहुत शौक है.जो मिल जाय वह पढ़ लेता हूँ. आजकल फिलहाल ब्लॉग का चस्का है तो अधिकतर समय ब्लॉग ही पढ़ता हूँ.

कुछ इच्छाऐं जो ना जाने कब पूरी होंगी.

फिलहाल एक कंपनी में मजदूरी कर रहा हूँ. सुबह 7.30 से शाम 9 बजे तक पूरी तरह मजदूरी. छुट्टियां मिलना भी आसान नहीं है. लेकिन ख्वाहिश है कि फक्कड़ी करूँ. खूब घूमूँ नयी नयी चीजें देखूँ उनके बारे में लिखूँ.राहुल सांस्कृत्यायन की तरह. उत्तराखंड के दूरस्थ गांवों मे जाकर जिन्दगी के नजदीक से दर्शन करूँ.जब ना नौकरी की चिंता हो ना घर की. घर में एक पुस्तकालय हो, जहाँ तरह तरह की किताबें हों. नयी नयी भाषाऐं सीखूँ. (उर्दू व फारसी सीखने की बहुत तमन्ना है.) नये नये लोगों से मिलूँ.काफी कुछ है दिल में.देखिये ना जाने कब ऐसा कर पाता हूँ.

ब्लॉगिंग की दुनिया में हम


ब्लागिंग से परिचय 2003 में हुआ. फिर 6 महीने तक अंग्रेजी ब्लॉगिंग की.कुछ साइट भी बनायी पर ऑफिस की व्यस्तता बढ़ती गयी और ब्लोगिंग से मोह भंग हो गया.फिर एक दिन इसी अवस्था में सब कुछ डिलीट कर दिया. फिर दिल्ली शिफ्ट हो गया. एक दिन नैट पर भटकते हुए दिल्ली के बारे में कुछ ढूंढ रहा था कि अमित जी के ब्लॉग पर पता चला कि 6 घंटे चली दिल्ली की ब्लॉगर वार्ता इसी से घूमते घूमते कई ब्लॉग पढ़े.लगा कि हिन्दी में तो मैं भी लिख सकता हूँ.फिर कंप्यूटर पर हिन्दी लिखनी सीखी और अंतत: हम भी इस नशे का शिकार हो गये.

धीरे धीर बढ़े दोस्त

ब्लागिंग की दुनिया में धीरे धीरे परिचय बढ़ा. कुछ लोग थे जिन्होने शुरुआती दिनों में टिप्पणीयों से बहुत सहारा दिया वरना हम तो कभी के लुढ़क चुके होते. जीतू भाई , अनूप जी , रवि जी , मसिजीवी , देबाशीष जी , रमण कौल जी , सागर भाई , संजय बैंगाणी जी , सृजन शिल्पी जी . श्रीश जी ,ई-स्वामी बहुत से ऐसे नाम हैं जो शुरुआती दौर में उत्साहवर्धन करते रहे.शुरु शुरु में चिट्ठाजगत के विवादित विषय़ों पर भी कलम चलायी उससे हिट तो मिली लेकिन फिर लगा कि इन सब पचड़ों से दूर रहकर कुछ सार्थक लेखन करें तो ज्यादा ठीक रहेगा.[काकेश के चिरंजीव वेदांत- पूत के पांव... ]

मेरी पसंद

बहुत से लोगों से आत्मीय संबंध भी बने. कुछ से उनके लेखन के जरिये कुछ से उनके व्यक्तित्व के जरिये. आइये अपने पसंद के कुछ चिट्ठों और कुछ आत्मीय ब्लॉगरों की बात करें, मैथिली जी जो ब्लॉगवाणी के संचालक और बहुत ही आत्मीय हैं उनसे एक ब्लॉग मीट में ही पहचान हुई. लेकिन देखते ही देखते कुछ ऐसा रिश्ता बना कि लगता ही नहीं हम एक दूसरे को इतने कम समय से जानते हैं. वो एक बड़े भाई की तरह समय समय पर अपनी सलाह भी देते रहते हैं लेकिन कई बार मैं उनकी सलाह नहीं भी मानता और वह बुरा भी नहीं मानते.
पंगेबाज यानि अरुण अरोरा जब पंगे लेते हैं तो किसी को भी नहीं छोड़ते लेकिन काफी संवेदनशील और मस्त आदमी हैं.दिल के साफ हैं जो मुंह में आता है बक देते हैं. आजकल अच्छा लिखने भी लगे हैं.उनसे भी कुछ ऐसा संबंध है कि लगता ही नहीं कि हाल ही में मिले हैं.
घुघुती जी का जब से नाम सुना तब ही यह तो अंदाजा था कि उन्होने अपना नाम उत्तराखंड की एक चिड़िया के नाम पर रखा है. लेकिन फिर धीरे धीरे उनके लेखन के जरिये उनसे और पहचान बनी. उनकी मार्मिक संवेदनाऐं बहुत अच्छी लगती है.वह गद्य कम ही लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं जानदार लिखती हैं. उनके गद्य का मैं मुरीद हूँ. उनके पास अनुभवों की पूंजी हैं लेकिन वो उसे हमसे बहुत धीरे धीरे बांटती हैं.मैं आशा करता हूँ कि वह ज्यादा से ज्यादा अनुभव हम से बांटें.
आलोक पुराणिक बेशक व्यंग्य की तोप हैं. हर दिन कम से कम एक व्यंग्य लिखना कोई आसान काम नहीं हैं लेकिन फिर भी आलोक जी उसे कितना सहज बना देते हैं. उनकी मुझसे शिकायत है कि मैं ज्यादा व्यंग्य नहीं लिखता जबकि मुझे केवल व्यंग्य पर ही फोकस करना चाहिये. मैं अक्सर उनकी सलाह पर अमल नहीं करते हुए इधर उधर भटक जाता हूँ. लेकिन फिर भी उनका स्नेह मुझे मिलता रहा है.
टिप्पणी किंग समीरानंद हमें अपना मित्र कहते हैं.कहते ही नहीं बल्कि मानते भी होंगे ऐसा मुझे लगता है. मित्र मानने का कारण शायद यह हो कि उनकी तरह हम भी भयानक डील डौल के मालिक हैं. लेकिन कारण जो भी हो उनकी टिप्पणियां हमेशा से उत्साह वर्धन करती रही हैं.
अजदक या यानि प्रमोद सिंह जब कुछ बुरा लगता है तो हड़का देते हैं और बुरा भी नहीं लगता.उनकी भी सारी पोस्ट पढ़ता हूँ कहीं टिप्पणी करता हूँ, कहीं नहीं लेकिन उनके लेखन से कई चीजें सीखने को मिलती है.
ज्ञान जी को मैं हमेशा छेड़ता रहता हूँ राखी सावंत के बारे में बातें करके.उन्हें बुरा लगता होगा लेकिन जब तक वह राखी सावंत के बारे में अपने विचार सार्वजनिक ना कर दें तब तक उन्हें छेड़ता ही रहुंगा.
इसके अलावा बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें पढ़ता रहा हूँ और उनके लेखन से उनसे परिचित होता रहा हूँ.
निर्मल आनंद अभय जी, फुरसतिया जी,शिव कुमार जी,अनीता जी, विमल जी, बेजी जी, मनीषा जी, संजीत त्रिपाठी जी, मसिजीवी, सुजाता जी,रचना जी, सृजन शिल्पी, अनिल रघुराज, प्रत्यक्षा, संजय और पंकज बैंगाणी, अविनाश जी,अजीत जी,उन्मुक्त जी,श्रीश,अतुल शर्मा,तरुण, इरफान, युनुस,मनीष, बोधि भाई, रवि रतलामी,संजय तिवारी, सागर भाई, नीरज रोहिल्ला,नीरज गोस्वामी,चंद्रभूषण सभी को नियमित पढ़ता हूँ.
नये ब्लॉगरों में डा. प्रवीन चोपड़ा, डा. अमर कुमार, दिनेश राय जी, विनीत हैं जिन्हें पढ़ता हूँ. बहुत से लोगों को शिकायत रही है कि मैं टिप्पणी नहीं करता.उनकी शिकायत जायज है लेकिन ऐसा समयाभाव के कारण होता है. विश्वास कीजिये अधिकतर चिट्ठे पढ़ता हूँ लेकिन टिप्पणी कर पाना हमेशा संभव नहीं हो पाता.

ब्लागिंग का शुक्रिया-फिर हिन्दी किताबें मिलीं

हिन्दी ब्लॉग लेखन से कम से कम मुझे एक लाभ हुआ है कि हिन्दी किताबों में रुचि फिर से बढ़ने लगी है.जब से प्राइवेट सैक्टर में नौकरी प्रारम्भ की तब से अधिकतर काम अंग्रेजी में ही होता है इसलिये अंग्रेजी ज्यादा रास आने लगी थी…और फिर अंग्रेजी किताबें पढ़ने का सिलसिला भी चालू हुआ. हिन्दी किताबें छूटती ही जा रहीं थी.हालाँकि रस्म अदायगी के तौर पर हिन्दी किताबें कम से कम साल में एक बार खरीदता रहा लेकिन सब किताबें पढ़ी जायें ये संभव नहीं हो पाया. अब ब्लॉग लेखन के बाद हिन्दी की किताबों में दिलचस्पी फिर से बढ़ी है.इसीलिये कुछ नयी किताबें खरीद रहा हूँ कुछ पुरानी पढ़ रहा हूँ.राजकमल की ‘पुस्तक मित्र योजना’ का भी सदस्य बन गया हूँ.कई अच्छे लोगों को जानने का मौका मिला ब्लॉग से जिसे अपने जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ.अजीत भाई ने लिखने का अवसर दिया.इसी बहाने कुछ पुराने लम्हों को फिर से जी पाया,कुछ अपने बारे में कह पाया इसके लिये उनका शुक्रिया. अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, April 6, 2008

चौथ वसूली और करवा चौथ [चौक-2]

हिन्दी के चार शब्द के मूल में है चत् धातु जिससे बने चतुर् अथवा चत्वारः जैसे शब्दों से बना है चार । इसी तरह चौथ शब्द के मूल में है चतुर्थ या चतुर्थी । क्रम कुछ यूं रहा- चतुर्थ > चउत्थो > चउथ > चौथ । चतुर्थी पूर्णिमा से चौथे दिन की तिथि होती है। साल भर मे क़रीब पच्चीस ऐसे व्रत होते हैं जो चतुर्थी यानी चौथ के दिन पड़ते हैं। गणेश चतुर्थी और करक चतुर्थी ऐसे ही प्रमुख पर्व हैं। करक चतुर्थी को करवा चौथ के नाम से ज्यादा पहचाना जाता है। इस व्रत-पर्व का विधान सिर्फ महिलाओं के लिए है।
तुर्थ या चतुर्थी से बने हुए और भी रूप प्रचलित हैं जैसे चौथ वसूली, चौथाई, और चौथा जैसे शब्द। भारत में चौथ वसूली एक बहुत आम मुहावरा है जिसका मतलब मौजूदा दौर में रंगदारी, जबरिया वसूली आदि है। चौथ शब्द से अभिप्रायः चौथे हिस्से से है। दरअसल चौथ एक विशेष कर या टैक्स का नाम था जो मराठा साम्राज्य में वसूला जाता था। सत्रहवीं सदी में छत्रपति शिवाजी ने अपने अधीन और पड़ौसी राज्यों से इस कर की वसूली शुरू की थी जिसके तहत कुल लगान का चौथा हिस्सा मराठा साम्राज्य के खजाने में जाता था । इसे ही चौथ कहा जाता था। सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में जब मराठों का सूर्य समूचे भारत में चमक रहा था , मराठों ने राजस्व बढ़ाने के लिए कुछ नए कर लगाए और व्यवस्थित रूप से उस पर अमल कराया। शिवाजी इस वसूली के जरिये पड़ौसी राज्यों को सुरक्षा का भरोसा दिलाते थे। मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ स्वराज्य के संघर्ष में होने वाले खर्च की पूर्ति के लिए वे इस चौथ वसूली को जायज़ मानते थे। स्वाधीनता के संघर्ष से जुडे चौथ वसूली जैसे शब्द की आज इतनी अवनति हो गई है कि व्यवहारतः इस किस्म के किसी टैक्स का कोई अस्तित्व चाहे अब न हो मगर जबरिया वसूली जैसे मुहावरे में चौथ वसूली का अस्तित्व अब भी है।
त् या चतुर् शब्द की महिमा अरबी-फारसी में भी नज़र आती है। पोलो एक प्रसिद्ध खेल है जिसे घोड़ों पर बैठकर खेला जाता है, इसे फारसी में चौगान कहते हैं। इसे यह नाम चौकोर आकृति के मैदान में खेले जाने की वजह से ही मिला। फारसी में ही चबतरा भी रूप बदलकर चौतरा हो जाता है और बरास्ता उर्दू के साथ साथ हिन्दी में भी अपनी जड़ें जमा लेता है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

काकेशजी , आपका बीए हो गया ?

शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और चौदहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)का अगला हिस्सा। खुद काकेश इसे कोलकता प्रवास की मूर्खताएं कहते हैं।

अक्लमंदों की सलाह

लकत्ता जाना अपने आप एक नया अनुभव था. इससे पहले सिवाय दिल्ली के उत्तर प्रदेश के बाहर नहीं गया था. घर से इतनी दूर कलकत्ता तब सोच कर भी डर लगता था.कलकत्ता जाने से पहले, जैसे कि हर व्यक्ति खुद को बुद्धिमान और सामने वाले को निरा मूर्ख मानकर बहुत सा ज्ञान दे देता है,कई लोगों ने बहुत ज्ञान दिया. किसी ने कहा वहाँ का पानी तो एकदम खराब है बाल एकदम सफेद हो जायेंगे. किसी ने कहा कि वहाँ बच के रहना वहाँ का काला जादू बहुत चलता है. किसी ने कहा वहाँ कम्यूनिस्ट कल्चर है वो लोग किसी को कुछ नहीं समझते इसलिये लोगों से संभल कर बातें करना.किसी ने वहाँ के मौसम को कोसा तो किसी ने वहाँ की भाषा को. तो कलकत्ता जाने से पहले एक अनजाना डर था मन में. लेकिन वहाँ कई साल रहने के बाद अधिकतर डर झूठे ही साबित हुए.

कोलकाता में काकेश हिन्दुस्तानी

मेरे साथ फैक्ट्री में जो भी मजदूर काम करते थे उनमें बंगाली और हिन्दी भाषी (अधिकतर भोजपुरी बोलने वाले) दोनों तरह के लोग शामिल थे.एक दिन किसी ने पूछा कि “आप बंगाली हैं या हिन्दुस्तानी.” सवाल बड़ा अजीब सा था. मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया पर मैने पूछा क्या बंगाली लोग हिन्दुस्तानी नहीं हैं. तब मेरे को बताया गया कि बंगाल में हिन्दी बोलने वाले को हिन्दुस्तानी कहते हैं और बंगला बोलने वाले को बंगाली.तो जी हम कलकत्ता में जाके हिन्दुस्तानी हो गये. शुरु शुरु में बंगला भाषा बिल्कुल भी नहीं आती थी.हाँलाकि उससे कोई परेशानी तो नहीं हुई लेकिन कई बार मजेदार स्थितियाँ जरूर बन गयीं.
शुरु शुरु में एक दिन अपने शिफ्ट के कुछ मजदूरों से बात कर रहा था. तो एक मजदूर ने हाथ में खैनी मलते मलते पूछा “ साहेब आपका बीए हो गया” मुझे लगा इन लोगों को शायद यह नहीं मालूम कि इंजीनियर करने के लिये बी.टैक करना पड़ता है बी.ए. नहीं और फिर ये लोग यह जानना चाहते हैं कि मैं ग्रेजुएट हूँ कि नहीं. तो मैने कहाँ “हाँ हो गया”. तो साहेब आपकी फैमिली भी आपके साथ रहती है. मैने कहा नहीं वो लोग तो अल्मोड़ा में रहते हैं. तो साहेब फैमिली को यहाँ कब ला रहे हैं. मैने कहा यहाँ नहीं ला रहा वो लोग वहीं रहेंगे. वो वहीं रहेंगे ?? साहेब आपके बच्चे कितने हैं मैने कहा अरे अभी शादी ही नहीं हुई तो बच्चे कहाँ से आयेंगे.यह सुनकर सभी लोग बड़े जोर से हँसे. बाद में मुझे मालूम हुआ कि बंगला में “शादी” को “बीए” कहते हैं और फैमिली से मजदूरों का मतलब मेरी पत्नी से था. मुझे भी यह सुनकर हँसी आ गयी.[नाटक पुरुष पुराण के एक दृश्य में काकेश ]


तुम रात में घूमता क्यों नही ?

सी ही एक घटना हुई मेरे बंगाली सहयोगी और मित्र श्री मंडल के साथ. उन्होने और मैने एक ही दिन जॉइन किया था. वह बंगला भाषी थे और बंगला मिश्रित टूटी फूटी हिन्दी बोलते थे. एक बार नाइट शिफ्ट में वह और मैं एक साथ थे.हम दोनों को एक दूसरे से बातें करने में काफी कठिनाई आयी लेकिन फिर भी हम लोगों को एक दूसरे को जानने का अच्छा मौका मिला. चुंकि उस दिन नाइट शिफ्ट में हम दोनों लोग नये थे तो इस बात का मजदूरों ने बहुत फायदा उठाया. रात भर हम कई तरह की समस्याओं से जूझते रहे. कभी कोई मशीन खराब हुई तो कभी किसी मशीन की स्पीड कम करनी पड़ी. कभी कोई मजदूर सो गया तो कभी कोई मजदूर बीमार हो गया. जाहिर है सुबह हमारी शिफ्ट का उत्पादन (प्रोडक्शन) निर्धारित उत्पादन से काफी कम रहा. हमारे मिल के मैनेजर सुबह सात बजे आते थे और रात वाले इंजीनियरों को अपने प्रोडक्शन के बारे में उनसे बात करके ही घर जाना होता था. सुबह वह आये तो हमारा प्रोडक्शन देख कर हमें डांटना व गाली देना शुरु कर दिया. हम सर झुकाये गाली खाते रहे. बीच में वह बोले-

“आप लोग रात को घूमते ही नहीं होंगे केबिन में बैठे रहते होंगे.”
मंडल तुरंत बोले “नहीँ सर हम रात को नहीं घुमाता हूँ”.
“हाँ वही तो मै भी बोल रहा हूँ रात को तुमको घूमना चाहिये था ना खाते (शॉपफ्लोर) में.”
”नहीं सर हम बिल्कुल नहीं घुमाया सर. “ .
“यू...$%ं#ं%# ..इसीलिये तो प्रोडक्शन का यह हाल है. .....“ .


अब ना मंडल जी कुछ बोले ना हम.चुपचाप गाली खाके बाहर आ गये.बाहर निकल कर मैने मंडल को समझाया कि हम लोग रात को घूम तो रहे थे तो फिर तुमने यह क्यों बोला हम नहीं घूमे. तब जब पूरी बात समझ में आयी तो पता चला कि बंगला में “घूमना” मतलब “सोना” होता है मंडल यह कह रहे थे कि वह रात को घुमाये नहीं मतलब सोये नहीं.जब मैने उनको हिन्दी वाला घूमना समझाया तो हम दोनों देर तक हँसते रहे.

इत्ता सारा खाना सिर्फ दस रूपए में !

बंगाल में चीजों के दाम अन्य जगहों के मुकाबले तब काफी सस्ते थे.अभी भी हैं.इसका एक उदाहरण देता हूँ.अपने शुरुआती दिनों में ही एक बार मैं और मेरे एक मित्र कलकत्ता से दूर एक जगह मिदनापुर जा रहे थे.हमारी ट्रेन को वहाँ शाम को सात बजे पहुंचना था.लेकिन किसी कारणवश ट्रेन लेट हो गयी और हम रात दस बजे वहाँ पहुंचे. स्टेशन पहुंच कर जिस गैस्ट हाउस में हमें ठहरना था वहां फोन कर (उस समय मोबाइल नहीं थे) उन्हे बताया कि हम आ गये तो उन्होने कहा कि खाना खाकर ही आना क्योंकि गैस्ट हाउस में इतनी रात अब खाना नहीं मिलेगा. हम दोनों लोग स्टेशन के पास ही एक रैस्टोरेंट में चले गये जहाँ शिफ्ट से छूटे कई लोग खाना खा रहे थे. कोई वेटर टाइप आदमी आया और उसने बंगला में कुछ कहा. मैं और मेरे मित्र दोनों हिन्दी भाषी थे. हमने उसे हिन्दी में खाने के लिये कहा तो उसे कुछ समझ नहीं आया. तो हमने भी जो बाकी लोग खा रहे थे उसकी ओर इशारा करके कहा कि हमें भी वही दे दो.तो वह लाया माछ-भात यानि मछली और चावल साथ में एक सूखी भाजी (सब्जी),थोड़ी सी दाल ,चटनी,अचार,प्याज.उस समय भूख बहुत लगी थी तो खाना बहुत स्वादिष्ट लगा हमने एक बार चावल और मांगा.उस समय आमतौर पर शाकाहारी खाने के दाम करीब 15 रुपये प्लेट होते थे. तो हमने अनुमान लगाया कि चुंकि मछली है, सब्जी है और दो बार चावल भी लिया है तो तकरीबन 50 रुपये तो होंगे ही. तो खाना खाने के बाद हमने 50 का नोट काउंटर पर दिया. उसने पूछा “ खुजरो नई” (छुट्टा नहीं है). तब तो यह समझ नहीं आया था इसलिये हमने सोचा शायद 50 का नोट कम है इसलिये मैं जेब से 100 का नोट निकलने लगा. तो साथ में एक दस का नोट भी निकला काउंटर वाले ने कहा कि वह दस का नोट दो. मैने वह नोट दिया और उसने मेरे दिये 50 रुपये वापिस कर दिये. यानि जिस खाने को हम 50 रुपये के ऊपर का समझ रहे थे वह मात्र दस रुपये का था.

याद आता है पुस्तक मेला

क चीज जो मुझे कलकत्ता में बहुत पसंद आती है वह है वहाँ का पुस्तक मेला. हांलाकि उसमें हिन्दी की बहुत कम किताबें मिलती है पर फिर भी ऐसा माहौल होता है जो मुझे दिल्ली के अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेले में भी नहीं मिला. तब यह मेला “मैदान” , जो कि एक जगह का नाम है और यहां पर बहुत बड़ा मैदान भी है , में लगता था. इस मेले का माहौल देखते ही बनता था.बंगला के कुछ प्रमुख प्रकाशको के स्टालों पर अन्दर घुसने के लिये दो दो घंटे लाइन में लगना पड़ता था और लोग लाइन में लगे भी रहते थे.इसके अलावा कई लेखक अपनी पुस्तकों को साइन करके भी देते थे. इसके लिये भी लंबी लाइन लगती थी. मैने भी शोभा डे,अरिंदम चौधरी की किताबें इसी तरह लाइन में काफी देर तक खड़े होकर खरीदीं. [जारी] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

चौमासे में चौकन्ना चौकीदार [ चौक 1]

स शीर्षक में प्रयुक्त तीनों शब्दों में अर्थसाम्य चाहे न हो मगर वर्णसाम्य है। तीनों शब्दों में चौ वर्ण समान रूप से आया है। जाहिर है इनका उद्गम एक है और इनमें रिश्तेदारी भी है। इन सभी शब्दों के मूल में संस्कृत शब्द चतुर् है। चतुर् का अर्थ है – चार की संख्या। इसी से बना है चतुष्क, जिसका मतलब है चार कोनों वाला, चार का समूह या चौकोर वस्तु। चतुष्क से चौकी का विकासक्रम यूं रहा चतुष्कम् > चऊक्खअं > चउक्कअं > चउक्का > चउका या ( चौकी ) । हिन्दी के चौकी, चौक, चौकोर या चौकोन जैसे शब्द इसी श्रंखला से बंधे हैं।

कड़ी या पत्थर के चार पायों या कोनों वाले तख्त या आसन को चौकी कहा जाता है। चार पायों वाली शय्या के लिए चारपायी शब्द भी प्रचलित है। पुराने ज़माने में पहरेदारी के लिए लकड़ी का एक चौकोर तख्त होता था जिसे आमतौर पर चौराहे के बीचों बीच इसलिए रखा जाता था ताकि चारों दिशाओं में निगरानी रखी जा सके। इस तख्त को चौकी की संज्ञा मिली। जो प्रहरी इन चौकियों पर खड़े होकर निगरानी का काम संभालते उन्हें चौकीदार के नाम से नई पहचान मिल गई। चौकी पर कर्त्तव्यपालन यूं तो निगरानी ही था मगर इसे एक नया नाम और मिल गया- चौकसी। अब चौकीदार का काम अगर चौकसी बरतना है तो उसमें चौकन्नापन तो बेहद ज़रूरी है सो चौकन्ना जैसा शब्द भी इसी श्रंखला से जन्मा है। आमतौर सावधानी, निगरानी, सजग और होशियार रहने के भावार्थ वाले इन शब्दो को यह अर्थ भी इनमें निहित चार के अंक की वजह से मिला। चौकन्ना यानी जो चारों और से सावधान हो । जिसे अपने आस-पास की चीज़ों का भान हो। यही बात चौकस या चौकसी से भी जुड़ती है। चतुर् नाम की मूल धातु यहां अपने शब्दार्थ का स्थायी आधार प्राप्त करती है।

र्षाकाल के चार महिनों के लिए चौमासा शब्द का प्रयोग होता रहा है। यूं यह शब्द बना है चातुर्मास से । ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतुओं की अवधि चार-चार मास की होती है इस तरह चातुर्मास शब्द दरअसल प्राचीनकाल में प्रत्येक ऋतु के आरंभ में होने वाले वैदिक यज्ञों – अनुष्ठानों और व्रत-उत्सवों के लिए प्रयोग होता था मगर बाद में सिर्फ वर्षाकाल के चार महिनों के लिए रूढ हो गया। चातुर्मास का अर्थ हुआ वर्षाकाल में होने वाले विशिष्ट धार्मिक कृत्य। साधु संत भी आमतौर पर वर्षाऋतु में यात्राएं स्थगित रखते हैं और एक ही स्थान पर विश्राम करते हैं । उनकी यह अवकाश अवधि भी चातुर्मास कहलाती है। चौमासा का एक अर्थ वर्षा ऋतु से जुड़ा काव्य भी है।

हिन्दू परिवारों में रसोई बनाने के स्थान को भी चौका कहा जाता है। यह भी चतुष्क से ही बना है। गौरतलब है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में पाक कर्म एक बेहद पवित्र कार्य माना जाता रहा है और इसी के चलते भोजन बनाने के स्थान को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। चूंकि भारतीय समाज में ईश्वर को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण न करने की प्रथा रही है इसलिए स्वाभाविक है कि पाकशाला में भोजन दरअसल बनता ही ईश्वर के लिए है , मनुश्य तो सिर्फ उसका प्रसाद पाता है। ऐसे उच्च चिंतन वाले समाज में स्वच्छता और पवित्रता के भाव चलते भोज्य सामग्री को पकाने का कम सतह से कुछ ऊंचे आसने या चबूतरे पर किया जाता था, इसी लिए इस स्थान के लिए चौका शब्द प्रचलित हो गया। पाक-कर्म के लिए चौका-बासन एक आम शब्द है। बासन शब्द बना है वास् से जिसमें गंध और बसने का भाव शामिल है। -जारी

कृपया सफर की यह कड़ी भी ज़रूर देखें- दोपहर की पहरेदारी और प्रहार

आपकी चिट्ठियां

सफर की पिछली तीन कड़ियों - [जाति , वंश परंपरा का शब्द विलास, गोत्र यानी गायों का समूह, चिडिया चुग गई खेत ] पर सफर के सहयात्रियों में सर्वश्रीसंजय, दिनेशराय द्विवेदी, चंद्रभूषण, प्रत्यक्षा, डॉ चंद्रकुमार जैन, लावण्या शाह, अनिताकुमार, आशा जोगलेकर , मिलिंद काऴे, संजय तिवारी, आशीष , जोशिम मनीष, तरुण, संजीत त्रिपाठी, घोस्टबस्टर और मीनाक्षी की टिप्पणियां मिलीं। आप सबका आभार ।

@दिनेश राय द्विवेदी- सचमुच हिन्दी की वेबसाइटों की संख्या भी अंग्रेजी के मुकाबले कम है और उसमें शोधपरक, मौलिक और स्तरीय सामग्री का अभाव भी है। विभिन्न विषयों से संबंधित अंग्रेजी में उपलब्ध मानक सामग्री का प्रतिनिधि हिन्दी अनुवाद हिन्दी में आना बहुत ज़रूरी लगता है। पर यह काम कौन करेगा ? अंग्रेजी हमारा हाथ शुरू से तंग रहा है वर्ना अभी तक इस दिशा में मैं कुछ सहयोग देने की स्थिति में रहता।
फिर भी मुझे लगता है कि एक ऐसा फोरम ज़रूर हम लोग बना सकते हैं जिसमें अपने अपने दायरे से बाहर निकल कर हिन्दी विकिपीडिया प्रोजेक्ट में हम सभी को सहयोग देना चाहिए। जितने भी संदर्भों के बारे में हम हिन्दी में लिख सकें , लिखना चाहिए तभी इंटरनेट पर हिन्दी अन्य भाषाओं के सामने खड़ी नज़र आएगी। हेनरी मोर्गन की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद सचमुच पढ़ने की आपने ललक जगा दी है।

@डॉ चंद्रकुमार जैन-आपने और चंदूभाई ने अपनी टिप्पणियों में गोठ का हवाला दिया था । इस बारे में सफर के पिछले किसी पड़ाव पर लिखा जा चुका था, इसीलिए प्रसंगवश उसका संदर्भ भी डाल दिया। एक अन्य पोस्ट भी गोसंस्कृति से जुड़े शब्द पर थी- ग्वालों की बस्ती में घोषणा ( कृपया ज़रूर देखे )
आप यूं ही सार्थक हस्तक्षेप करते रहें। आपके ज्ञान, अनुभव और चिन्तन-मनन का लाभ सभी ले रहे हैं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, April 5, 2008

जाति , वंश , परंपरा का शब्द विलास...

गोत्र पर पिछले पड़ाव पर प्रत्यक्षा, चंद्रभूषण , डॉ चंद्रकुमार जैन, घोस्टबस्टर, संजीत , मनीष जोशिम की प्रतिक्रियाएं मिलीं । समाज को जानने-समझने की दिलचसी शुरू से रही है। जाति-वंश-परंपरा, खानदान, कुनबा आदि के संदर्भ जो कुछ जानने-समझने को मिलता रहा है , उसे आप सबसे बांटता रहा हूं। गोत्र शब्द के बारे में जो लिखा है दरअसल वह सिर्फ गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति से संबंधित था। कुल, वंश, परंपरा या जाति जैसे शब्दों की सीमाएं छूने की कोशिश नहीं थी। फिर भी अच्छा ये लगा कि इससे संकेत ग्रहण कर इन्ही के बारे में और साझा करने की चाह हमारे साथियों ने जाहिर की है। दरअसल समाज के विकासक्रम में मानव का पशुओं से साहचर्य बहुत सामान्य बात रही है। गाय, बैल, घोडा आदि ऐसे ही सहचर रहे हैं मनुष्य के जिन्होंने स्वयं मानव समाज के साथ अपनी समरसता स्थापित कर अपनी महत्ता स्थापित की बल्कि मनुष्य को भी नए अनुशासन और संस्कारों मे ढलने का अवसर दिया। जाति ,वंश और परंपरा मेरे प्रिय विषय रहे हैं । इतिहास-अतीत में गहन दिलचस्पी रही है। यूं इन विषयों का कभी अनिवार्य और व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया। जहां तक जाति, परंपरा, वंश, कुनबे, गोत्र आदि का प्रश्न है, गोत्र पर ताजी पोस्ट मेरी एक पुरानी पोस्ट की ही पुनर्प्रस्तुति थी। दरअसल इन तमाम बातों पर बहुत कुछ कहा जा चुका है और बहुत कुछ कहना बाकी है। हम और आप तो सिर्फ ये मौका उपलब्ध करा रहे हैं। मनुष्य का हजारों वर्षों से पशुओं से साहचर्य रहा है। कई पशु तो मनुष्य के साथ सहजतापूर्ण साहचर्य के चलते ही महत्वपूर्ण हो गए। ऐसे अनेक साक्ष्य संस्कृति में हमे नज़र आते हैं। इन पशुओं मे गाय , बैल और घोड़ा प्रमुख रहे है। गाय ने तो भारतीय समाज पर गहरी छाप छोड़ी है। ऐसे दर्जनों शब्द है जिन्हें हम रोज़ सुनते - बोलते हैं । ये सभी शब्द हिन्दुस्तान की गोसंस्कृति को पोषित करने वाली पहचान से जुड़े हैं। एक नज़र देखें इधर- फीस दो या पशु, बात एक ही है... हिन्दी के पशु और अंग्रेजी के फीस शब्द में भला क्या रिश्ता हो सकता है? एक का अर्थ है मवेशी या जानवर जबकि दूसरे का मतलब होता है शुल्क या किसी किस्म का भुगतान। हकीकत में दोनों शब्द एक ही हैं। दोनों ही शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के हैं और इनका उद्गम भी एक ही है। संस्कृत में एक शब्द है पाश: जिसका अर्थ है फंदा ,डोरी , श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। जाहिर है जिन पर पाश से काबू पाया जा सकता था वे ही पशु कहलाए। हिन्दी में पशु शब्द का जो अर्थ है वही फीस के प्राचीन रूप फीओ (fioh) शब्द का भी मतलब था यानी जानवर। विस्तार से देखें यहां फांसी का फंदा और पशुपतिनाथ संस्कृत-हिन्दी का बेहद आम शब्द है पशु जिसके मायने हैं जानवर, चार पैर और पूंछ वाला जन्तु, चौपाया , बलि योग्य जीव । मूर्ख व बुद्धिहीन मनुष्य को भी पशु कहा जाता है। पशु शब्द की उत्पत्ति भी दिलचस्प है। आदिमकाल से ही मनुष्य पशुओं पर काबू करने की जुगत करता रहा। अपनी बुद्धि से उसने डोरी-जाल आदि बनाए और हिंसक जीवों को भी काबू कर लिया। संस्कृत में एक शब्द है पाश: जिसका अर्थ है फंदा ,डोरी , श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। विस्तार से देखें यहां कुलीनों की गोष्ठी में ग्वाले बैठक महफिल,मीटिंग,सम्मेलन आदि के अर्थ में हिन्दी में आमतौर पर बोला जाने वाला शब्द है गोष्ठी। आज की आपाधापी वाले दौर में जिसे देखिये मीटिंगों में व्यस्त है। हर बात के लिए गोष्ठी का आयोजन सामान्य बात है। गोष्ठियां बुलाना और उनमें जाना संभ्रान्त और कुलीन लोगों का शगल भी है। मगर किसी ज़माने में यह शब्द महज़ चरवाहों की बैठक के तौर पर जाना जाता था। गोष्ठी शब्द भारतीय समाज में गाय के महत्व को सिद्ध करनेवाला शब्द है। इससे पहले हम गोत्र शब्द की उत्पत्ति के संदर्भ में भी इसकी चर्चा कर चुके हैं। विस्तार से देखें यहांगो , गोस्वामी , गुसैयाँ भारतीय समाज में गो अर्थात गाय की महत्ता जगजाहिर है। खास बात ये कि तीज-त्योहारों, व्रत-पूजन और धार्मिक अनुष्ठानों के चलते हमारे जन-जीवन में गोवंश के प्रति आदरभाव उजागर होता ही है मगर भाषा भी एक जरिया है जिससे वैदिक काल से आजतक गो अर्थात गाय के महत्व की जानकारी मिलती है। हिन्दी में एक शब्द है गुसैयॉं, जिसका मतलब है ईश्वर या भगवान। इसी तरह गुसॉंईं और गोसॉंईं शब्द भी हैं । विस्तार से यहां देखें - उपनामों की महिमा रअसल जाति पर चर्चा एक अलग विषय हो जाता है और सामूहिक पहचान एक अलग विषय। गोत्र शब्द की व्युत्पत्ति सामूहिक पहचान से जुड़ी है न कि नस्ली पहचान से । जैसा कि मनीश जोशिम कहना चाहते हैं और मैं यहां कह भी चुका हूं कि मामला सिर्फ पहचान का है। समूहों की पहचान हमारे यहां ज्यादा आसान रही है न कि जातियों की। जाति के स्तर पर बहुत घालमेल और मनमानी चलती रही है। किन्हीं विवशताओं ने मानव समूहों को जातीय व्यवस्था के लिए मजबूर किया होगा वर्ना तो समूह की पहचान ही प्रमुख थी। प्रायः समूहों के तौर पर मनुष्यों ने स्वयं की पहचान भी उन्ही संकेतों-प्रतीकों से जोड़ी जो स्वयं ज्ञात विश्व में ख्यात हो चुके थे मसलन नदियां। अनादिकाल से ही जलस्रोतों ने मानव समूदायों की अस्तित्व रक्षा की और उन्हें पहचान दी। ब्राह्मण समूदायों के कुछ उपनामों में झांकती नदियों के नामों को सहज ही पहचाना जा सकता है- नार्मदीय, सरयुपारीय, सारस्वत, गांगेय, व्यास आदि। पारिवारिक गोत्र की पहचान के अलावा शिक्षा भी सामूहिक पहचान बनती रही है । कई उपनामों में आप प्रमुक शिक्षाओं या ग्रंथों के नामो को पहचान सकते हैं जैसे वेदी, बेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, चौबे, वेदालंकार, विद्यालंकार, विद्यावाचस्पति , दीक्षित, दीक्षितर, जोशी , जुत्शी (ज्योतिषि) आदि स्थानों से जुड़ाव भी मानव समूहों की पहचान की वजह बना । दुनियाभर में अपने जन्मस्थान की पहचान अपने उपनाम के साथ जोड़ने की परिपाटी रही है। इसकी वजह यही रही क्योंकि मानव समूहों में भ्रमणशीलता एक सहज वृत्ति रही। गौर करे अपने आसपास के ऐसे कई उपनामों पर जिनमें किसी कस्बे या शहर का नाम झांकता नज़र आता है- वडनेरकर, खन्ना, भिंडरांवाला, सोमपुरा, देवपुरा, तलवंडी, सोपोरी, मंगेशकर, कोल्हापुरी, इंदौरी, शुजालपुरकर, मीनाई, बिहारी, नेपाली .मंबइया, मुंबइकर, बनारसी, कश्मीरी वगैरह। देखें यहां व्यवसाय से जुड़े सामूहिक पहचान के नाम भी बाद में जातीय पहचानों से जोड़े जाने लगे जैसे - लोहार, सुथार, सुनार, कसेरा, पटेल, पाटीदार,पंसार, पंसारी, बनिया, वणिक, दारूवाला, बाटलीवाला आदि। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, April 4, 2008

गोत्र यानी गायों का समूह


जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। यह जानना दिलचस्प होगा कि आज जिस गोत्र का संबंध जाति-वंश-कुल से जुड़ रहा है , सदियों पहले यह इस रूप में प्रचलित नहीं था। गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह। दरअसल संस्कृत में एक धातु है त्रै-जिसका अर्थ है पालना , रक्षा करना और बचाना आदि। गो शब्द में त्रै लगने से जो मूल अर्थ प्रकट होता है जहां गायों को शरण मिलती है, जाहिर है गोशाला मे। इस तरह गोत्र शब्द चलन में आया।
गौरतलब है कि ज्यादातर और प्रचलित गोत्र ऋषि-मुनियों के नाम पर ही हैं जैसे भारद्वाज-गौतम आदि मगर ऐसा क्यों ? इसे यूं समझें कि प्राचीनकाल में ऋषिगण विद्यार्थियों पढ़ाने के लिए गुरुकुल चलाते थे। इन गुरूकुलों में खान-पान से जुड़ी व्यवस्था के लिए बड़ी-बड़ी गोशालाएं होती थीं जिनकी देखभाल का काम भी विद्यार्थियों के जिम्मे होता था। ये गायें इन गुरुकुलों में दानस्वरूप आती थीं और बड़ी तादाद में पलती थीं। गुरुकुलों के इन गोत्रो में समाज के विभिन्न वर्ग भी दान-पुण्य के लिए पहुंचते थे। कालांतर में गुरूकुल के साथ साथ गोशालाओं को ख्याति मिलने लगी और ऋषिकुल के नाम पर उनके भी नाम चल पड़े। बाद में उस कुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी अपनी पहचान इन गोशालाओं यानी गोत्रों से जोड़ ली जो सदियां बीत जाने पर आज भी बनी हुई है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, April 2, 2008

चिड़िया चुग गई खेत ....


खेतों की समृद्धि ही किसी भी देश को सोने की चिड़िया बना सकती है,जैसा कि सदियों पहले भारत था और कहावतों में अब भी है ... जब चिडिया चुग गई खेत जैसा पछतावे का एहसास ही नज़र आता है । पृथ्वी का असीम विस्तार ही मनुश्य के लिए सुख-दुख की वजह रहा है। इसकी व्याख्या फिर कभी, फिलहाल इतना ही कि यही विस्तार क्षेत्र कहलाता है जिससे खेत जैसा शब्द जन्मा है। क्षेत्र शब्द की मूल धातु है क्षि जिससे बने क्षितिः शब्द के मायने व्यापक हैं। क्षितिः यानी पृथ्वी, आवास , घर आदि। इसके अलावा इस शब्द के कुछ अन्य अर्थ भी हैं जैसे हानि, विनाश, आघात आदि। इसी तरह क्षः वर्ण का अर्थ भी क्षेत्र, खेत और किसान ही होता है।
क्षका अगला रूप खः होता है। खः में निहित अंतरिक्ष, आकाश , ब्रह्म जैसे भावों और क्ष से बने अक्षर शब्द के अविनाशी, ब्रह्म जैसे अर्थों पर अगर गौर करें तो देखते हैं मूलतः इनमें खालीपन और विस्तार का ही भाव समाया है जिसे अंग्रेजी मे स्पेस कहा जाता है। जो कि अरबी के ख़ला(खाली स्थान, शून्य, अंतरिक्ष), ख़ल्क़ ( संसार, राज्य) जैसे शब्दों में भी साफ हो रहा है। जाहिर है क्षेत्र में भी मूल भाव विस्तार और खालीपन और रिक्तता का ही है। क्षेत्र ने ही खेत का रूप लिया है। पृथ्वी की सतह पर जितनी भी खाली जगह है क्षेत्र कहलाती है मगर भूमि का वही क्षेत्र खेत कहलाता है जिसे जोता जा सके।
जुताई क्या है ? धरती के कठोर सीने को हल की नोक से छील कर मुलायम मिट्टी मे तब्दील करने की प्रक्रिया ही जुताई है। यहां आकर क्षितिः शब्द में अंतर्निहित हानि, विनाश अथवा आघात जैसे शब्दों का अर्थ जुताई के संदर्भ में साफ़ होता है। क्षि धातु से ही क्षत, क्षतिः जैसे शब्द बने है जिनमें चोट, जख्म, हानि , बर्बादी जैसे भाव शामिल हैं। जंग में मारे जाने के लिए एक मुहावरा खेत रहना भी प्रचलित है जिसका अभिप्राय यही है कि शरीर से प्राणों की मुक्ति।
में शामिल शून्य, विस्तार, खालीपन जैसे भाव इससे बने संस्कृत के खलकः जैसे शब्द में भी शामिल है जिसका अर्थ है घड़ा। सूफी कवियों ने घड़े की व्याख्या भी ब्रह्म और आकाश के रूप में ही की है। गौर करें की खेत की उपज अन्न कहलाती है । शास्त्रों में अन्न को भी ब्रह्म की ही उपमा दी गई है। अन्न अपने आप मे ब्रह्म है और अन्न भूख नाम के उस अविनाशी तत्व का आंशिक शमन करता है जो उदर नामक घड़े में(स्पेस, खालीपन)आश्रय पाता है और लोभ, मोह, माया जैसे विभिन्न रूपों में मन में भी अपना डेरा जमाए रहता है। इसीलिए लालच , तृष्णा का घड़ा और भूख के संदर्भ में पेट को घड़ा या गड्ढ़ा कहा जाता है।
आपकी चिट्ठियां

सफर की पिछली दो कड़ियों -पहले ऑफर में ही मान जाते हैं काकेश और मुग्ध हुआ मूर्ख पर सर्वश्री गीत चतुर्वेदी, हर्षवर्धन, अनूप शुक्ल, डॉ चंद्रकुमार जैन, मीनाक्षी, माला तैलंग, विनीत उत्पल, अनुराधा श्रीवास्तव, विमल वर्मा, प्रमोद सिहं, संजीत त्रिपठी, अनिताकुमार , आशीष , ज्ञानदत्त पांडे, दिनेशराय द्विवेदी, नीलिमा सुखीजा अरोरा और अनामदास की टिप्पणियां मिलीं । आप सबका आभार । काकेश जी की बतकही पर फिलहाल आंशिक विराम है। उनका कोलकाता प्रवास इतना संक्षिप्त था कि हमें विमलजी वाला अनुभव याद आ गया। इससे पहले कि जल्दी खत्म कर देने , और फटाक से निपटा देनें जैसे जुमले सुनने को मिलें , हमने काकेश जी को कह दिया है कि ....लोग जो चाहते हैं उस पर ध्यान दें।

@नीलिमा सुखीजा अरोरा-
मूढ़ भी इसी शब्द श्रंखला की कड़ी है नीलिमा। इस ओर ध्यान दिलाने के लिए शुक्रिया क्योंकि मैने आलेख में मूढ़ शब्द का प्रयोग तो किया है पर यह बताना भूल गया कि इसकी भी मुह् से रिश्तेदारी है। आपकी हाजिरी बहुत दिनों बाद लग रही है, क्यों ?
@डॉ चंद्रकुमार जैन-
डॉक्टर साहब शानदार संदर्भों के लिए शुक्रिया। मेरी ओर से नीलिमा की जिज्ञासा आपने मिटाई इसका भी आभार । अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

मुग्ध हुआ मूर्ख !

संस्कृत-हिन्दी एक शब्द है मोह यानी किसी पर मुग्ध होना, जड़ होना, घबरा जाना या गलती करना आदि । इसके अलावा अज्ञान, भ्रान्ति, अविद्या , भूल होना जैसे अर्थ भी हैं । गौरतलब है कि मोह और मुग्ध ये दोनों शब्द ही संस्कृत की मुह् धातु से बने हैं जिसमें ऊपर लिखे तमाम अर्थ निहित हैं और इससे स्पष्ट है कि विवेक , बुद्धि और ज्ञान के विपरीत अर्थ वाले भाव इनमें समाहित हैं । दिलचस्प बात यह कि उपरोक्त सभी भाव मूर्ख शब्द में समा गए हैं क्योंकि यह लफ्ज़ भी इसी धातु से निकला है जिसका अर्थ हुआ नासमझ, अज्ञानी और बेवकूफ । मुह् धातु में मूलत: चेतना पर किसी के प्रभाव में आकर ज्ञान अथवा बुद्धि पर परदा पड़ जाने अथवा ठगे से रह जाने, जड़ हो जाने, मूढ़ बन जाने का भाव है। यही बात मोह अथवा मुग्ध में हैं । नकारात्मक छाप के साथ मूर्ख शब्द भी यही कहता नज़र आता है । मूर्ख वह जो कुछ न समझे, जड़ हो । इसीलिए मूर्ख के साथ कई बार जड़बुद्धि , जड़मूर्ख या वज्रमूर्ख शब्द का भी प्रयोग किया जाता है । अपनी सुंदरता के लिए पुराणों में मशहूर कामदेव का एक नाम है मुहिर पर मजे़दार बात यह भी कि इसका एक अन्य अर्थ बुद्धू और मूर्ख भी है। श्रीकृष्ण का मोहन नाम भी इसी से निकला है जाहिर है उनकी मोहिनी के आगे सब ठगे से रह जाते थे । इसके अलावा मुग्धा, मोहिनी,मोहित,मोहितजैसे नाम इसी से चले हैं।
बुध् धातु से बने बोध, बुद्धिमान, बुद्ध, संबोधन, संबोधि, सम्बुद्ध और समझ जैसे शब्दों के बारे मे सफर के पिछले पड़ाव में पहले बताया जा चुका है और यह भी कि
इन तमाम शब्दों में जानकारी व ज्ञान का भाव है मगर मूर्ख के अर्थ में बुद्धू भी इस धातु से निकला है। वजह वही है मूर्खता में जड़ता, स्थिरता जैसे भाव का समा जाना । बुद्ध की बोधिमुद्रा ने उन्हे बुद्ध बनाया । कालांतर में जड़ व्यक्तियों के लिए कहा जाने लगा -क्या बुद्ध की तरह बैठे हो। बाद में यह उक्ति मूर्ख व्यक्ति के लिए रूढ़ हो
गई । मूर्ख के लिए हिन्दी में आमतौर पर बेवकूफ शब्द का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। यह शब्द मूलत: उर्दू का है जहां यह अरबी से आया । अपने शुद्ध रूप में अरबी-उर्दू में यह लफ्ज़ बेवुकूफ है मगर हिन्दी में बेवकूफ के तौर प्रचलित है। अरबी का एक लफ्ज़ है वुकूफ यानी ज्ञान, जानकारी, परिचय । इसी से बना है वाकिफ यानी जानकार, परिचित। यह भी हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है। वुकूफ में बे उपसर्ग लगने से बना बेवुकूफ यानी अज्ञानी-मूर्ख । फारसी में एक लफ्ज है कूफ जिसका मतलब है मूर्ख , उल्लू। कई लोग बेवकूफ को बेकूफ कहने के आदी हैं । कूफ के आगे बे लगाने से तो मतलब बनता है जो मूर्ख न हो । अब इस बे का इस्तेमाल करने वालों को क्या कहा जाए ? [पुनर्प्रस्तुति] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

पहले ऑफर में ही मान जाते हैं काकेश [बकलमखुद- 13]



शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और चौदहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)का अगला हिस्सा। खुद काकेश इसे कोलकता प्रवास की मूर्खताएं कहते हैं।



तुक्के में जब जीत मिली


हॉस्टल में हिन्दी के मामले में मैं अन्धों में काना राजा था । इंजीनियरिंग में साथ के अधिकांश लड़के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढकर आये थे । हिन्दी माध्यम से पढ़े गिने-चुने लोगों में मैं भी एक था तो जाहिर है बाकियों के मुकाबले मेरी हिन्दी अच्छी थी और अंग्रेजी उतनी ही खराब । अंग्रेजी में तो रो-धो के किसी तरह काम चला लिया लेकिन हिन्दी ज्ञान का खूब फायदा भी मिला । हॉस्टल में जब भी कुछ भी हिन्दी में लिखना होता तो मेरे को ही पकड़ा जाता । हिन्दी एंकरिंग भी मुझे ही करनी होती और क्रिकेट मैच में हिन्दी कमेंट्री भी । इसी बीच कानपुर के कालेजों का एक सांस्कृतिक और साहित्यिक उत्सव (कल्चरल एंड लिट्रेरी फैस्ट) हुआ जिसमें हमारे कॉलेज ने भी भाग लिया । हिन्दी की जितनी भी साहित्यिक प्रतियोगिताएं थी जैसे डिबेट,क्रियेटिव राइटिंग, कविता लेखन सबमें हमारा नाम दे दिया गया । सबको उम्मीदें थी कि हिन्दी के अधिकतर पुरस्कार तो हमको ही मिलने हैं । विशेषकर कविता लेखन के बारे में तो सभी आश्वस्त थे कि वह पुरस्कार तो हमें ही मिलना है । लेकिन हमें अपनी औकात मालूम थी, इसलिये नाक कटने के डर से परेशान थे । शुरु के दो दिनों मे हिन्दी में हमारे कॉलेज को कोई पुरस्कार नहीं मिला था । हमारी आधी इज्जत तो जा ही चुकी थी । अंतिम दिन कविता लेखन था । हमारा डर के मारे बुरा हाल था । खैर, किसी तरह इस प्रतियोगिता में शामिल हुए। पहले दिन के कहानी लेखन और एक और लेखन प्रतियोगिता में हमने अपने हिसाब से बहुत सोच समझ कर लिखा था, लेकिन हमारा नाम पहले तीन तो क्या पहले पांच में भी नहीं था। तो इस बार सोचा कि कुछ ऐसा लिखेंगे जो ऊलजलूल हो, थोड़ा बुद्धिजीवी टाइप और भले ही हमारी समझ में ही ना आये लेकिन दार्शनिक सा लगे । लिखने के लिये विषय दिया गया ‘तृष्णा’। हमने जो कविता लिखी वह कुछ इस तरह थी-

ब्रह्मा रचित सुघड़ धरती पर , मानव ने अनुपम गुण पाया
पूरित फलित हुआ बुद्धि से ,पंच तत्व का घड़ा बनाया
आत्मा रही अमर इस जग में, तृष्णा संग संग राह बनाती
यह शरीर-रज रज हो जाता , तृष्णा लेकिन बढ़ते जाती
निकली एक बून्द जब घर से , तरु से प्यासा पत्ता टूटा
तृष्णा बढ़ती रही प्रतिक्षण , चाहे यह भव-बंधन छूटा


ऐसा ही एक दो पद और थे जो अभी याद नहीं। इतना बड़ी मुश्किल से लिखा कि समय समाप्त होने को आया। अन्त में एक दोहे की पहली पंक्ति लिखी थी कि समय समाप्त हो गया और अंतिम पंक्ति को किसी तरह पूरा किया । आप भी देखिये-

धूल हुई संवेदना , लगा गात में दाग
तृष्णा के मारे हे मानव, भाग भाग भाग !!!


जब परिणाम आया तो पता चला कि कविता लेखन में प्रथम पुरस्कार हमें ही मिला है । तब इस बात का का विश्वास ही नहीं हुआ। आज भी नहीं है, लेकिन तब नाक कटते कटते बच गयी। [अब पता नहीं , इस नाटकीय दृश्य में काकेश इस नारी से अपने किस अपराध की माफी मांग रहे हैं। हम तो अप्रैलफूल के मूड में हैं सो चुपचाप उनकी पोटली से ये फोटू मार लाए हैं, कैप्शन लाना भूल गए]

नौकरी,जो बिना तलाशे मिली

हॉस्टल में एक दिन, शायद रविवार था उस दिन। सुबह 11 बजे अपन चादर तान के सो रहे थे कि दरवाजा जो खुला ही हुआ था, उसे किसी ने जोर से खड़काया। अपन ने गालियों से स्वागत करते हुए पूछा कि कौन है तो पता चला की कॉलेज का पियॉन है। उसने बताया कि कैम्पस के लिये कोई कंपनी आयी है। फायनल ईयर के फायनल एक्जाम में अभी छ्ह महीने बाकी थे। कैम्पस के लिये कंपनिया आमतौर से 2-3 महीने पहले आती हैं और फिर आने से पहले नोटिस बोर्ड पर सूचना भी होती है। लेकिन इस कंपनी के आने की कोई सूचना नहीं थी। इसलिये अपन ने कह दिया कि अभी सोने दो यार । लेकिन जब उसने कहा कि प्रिसिपल साहब ने सभी होस्टल वालों को बुलाया है तो अपन भी एक जींस और कमीज डाल के चल दिये। मुँह भी नहीं धोया। कॉलेज पास ही था। वहाँ जाके पता चला कि कोई कलकत्ता की कंपनी है। कंपनी के लोगों ने कंपनी के बारे में बताया तो तीन चार लोग कैम्पस में बैठने के लिये तैयार हो गये। हम भी हॉस्टल के लिये निकल ही रहे थे कि हमारे प्लेसमैंट टीचर आये और बोले ‘अरे तुम नहीं बैठ रहे क्या कैम्पस में.’ हमारे मना करने पर कहने लगे कि ‘बैठ जाओ..पसंद ना आये तो ऑफर मत लेना’। उनके बोलने पर हम भी तैयार हो गये। जब अन्दर जाने लगे तो उन्होने अपना रुमाल दिया (हम रुमाल भी नहीं लाये थे) कि अरे मुंह तो पोछ लो कैसा गन्दा सा हो रहा है। खैर जी चले गये... दो तीन राउंड इंटरव्यू हुए और फायनल इंटरव्यू में सज्जन ने पूछा कि कलकत्ता क्यों आना चाहते हो तो हमने कह दिया कि हमने ये ये किताबें पढ़ी हैं जिससे हमें कलकत्ता को करीब से देखने की इच्छा है। फिर क्या था पूरा का पूरा इंटरव्यू विमल मित्र की ‘साहब बीबी गुलाम‘, शंकर की “चौरंगी” और टैगोर की ‘गीतांजली’ पर केन्द्रित रहा। करीब डेढ़ घंटे तक इसी तरह की साहित्यिक चर्चा हुई। जो सज्जन तकनीकी प्रश्न पूछने के लिये बैठे थे उन्होने एक प्रश्न पूछा और उसका उत्तर भी हमने गलत बता दिया। खैर हमें तो विश्वास था कि अपना सलैक्सन तो होना ही नहीं है तो अपन तो हॉस्टल आ गये। शाम को पता चला कि कुल दो लोग चुने गये जिनमें एक नाम हमारा भी है। बाद में प्लेसमैट टीचर ने पूछा ‘ऑफर लोगे क्या?’ हमने कह दिया हाँ, क्योकि अब तक कलकत्ता जाने का मन बना लिया था। [बाकी हाल अगले पड़ाव पर ]

आपकी चिट्ठियां

सफर की पिछली तीन कड़ियों ईमानदार चिरकुटई काकेश की, यूं ही नही अक्षर अनमोल और हां, हमने ब्रायन को सहर्ष कुबूल किया पर लावण्या शाह, मीनाक्षी , प्रमोदसिंह, दिनेशराय द्विवेदी,अनूप शुक्ल, सुजाता, डॉ चंद्रकुमार जैन, आलोक पुराणिक, विमल वर्मा, अरुण, संजीत त्रिपाठी, माला तैलंग, अजित, काकेश, चंद्रभूषण, पारुल, शिवकुमार मिश्र, प्रियंकर, अविनाश वाचस्पति, उड़नतश्तरी (समीरलाल), संजय पटेल, कल्पकार्तिक वर्मा, अनिताकुमार,संजय और मीनाक्षी जी की चिट्ठियां मिलीं। आप सबका आभार । सफर के सहयात्री बने रहें।

@कल्पकार्तिक -
तुम भी सफर के सहयात्री हो जानकर अच्छा लगा। लख्तेजिगर का जो नाम पापा यानी मेरे गुरुवर ने अक्षर अनन्य रखा है , बहुत पसंद आया।
@संजय भाई -
बस, आप सफर के साथ बने रहें। सफर की तारीफ़ में कोई शब्द खर्च न करें , पहले ही काफी कर चुके हैं। अलबत्ता शब्द खूब हैं मगर उनका इस्तेमाल नहीं करने दूंगा:) अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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