Friday, January 8, 2010

अमृत-छकना, चना-चबैना [चटकारा-3]

... शब्दों का सफरपर पेश यह श्रंखला रेडियो प्रसारण के लिए लिखी गई है। जोधपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी महेन्द्रसिंह लालस  इन दिनों स्वाद का सफरनामा पर एक रेडियो-डाक्यूमेट्री बना रहे हैं। उनकी इच्छा थी कि शब्दों का सफर जैसी शैली में इसकी शुरुआत हो। हमने वह काम तो कह दिया है, मगर अपने पाठकों को इसके प्रसारण होने तक इससे वंचित नहीं रखेंगे। वैसे भी रेडियो पर इसका कुछ रूपांतर ही होगा। बीते महीने यूनुस भाई के सौजन्य से सफर के एक आलेख का विविधभारती के मुंबई केंद्र से प्रसारण हुआ था। शब्दों का सफर की राह अखबार, टीवी के बाद अब रेडियों से भी गुजर रही है...
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पिछली कड़ियां-ज़ाइक़ा, ऊंट और मज़ाक़ [चटकारा-1].चटोरा, चुसकी और चाशनी [चटकारा-2]
भोजन करने के वक्त भी हमारे यहां नियत रहे हैं। हिन्दुओं में भोजन करने का क्रम भी ईश्वर को भोग लगाने के बाद ही होता है। पुष्टिमार्गीय वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के भोग-प्रसाद के विभिन्न अवसर नियत हैं। इस परम्परा से ही आहार-व्यंजनों में छुपा सुखानुभव राजभोग, छप्पनभोग और मोहनभोग के रूप में सामने आया। भारत में तीन वक्त भोजन का रिवाज़ है। सुबह, दोपहर और शाम। सुबह के खाने को नाश्ता, जलपान, कलेवा, नहारी कहते हैं। दोपहर के भोजन कोभी आमतौर पर कलेवा या छाका कहा जाता है। आजकल अंग्रेजी के लंच का चलन बढ़ गया है। रात के भोजन को ब्यालू कहते हैं। इन शब्दों का इस्तेमाल शहरों में कम हो गया है मगर लोक-जीवन में इनका प्रयोग आज भी है।

लेवा की व्युत्पत्ति कल्य या कल्प से मानी जाती है जिसका अर्थ होता है इच्छापूर्ति करना। व्यवहार में लाने योग्य, समर्थ आदि। व्यावहारिक तौर पर इसमें राशन सामग्री का भाव भी आता है। इसी तरह कल्य शब्द का अर्थ भी रुचिकर, मंगलमय आदि है। इसमें भी भोज्य सामग्री का भाव है। कल्प से ही बना कल्पवर्त जिसका प्राकृत रूप था कल्लवट्ट और फिर लोकरूप हुआ कलेवा। हिन्दी की शैलियों में इसके कलौवा, कलेऊ जैसे रूप भी मिलते हैं। कलेवा सुबह के नाश्ते यानी ब्रेकफास्ट के अर्थ में इस्तेमाल होता है अर्थात वह हल्का भोजन जो सुबह के वक्त बिना नहाए किया जाता है। अंग्रेजी में दोपहर के भोजन को लंच कहते हैं मगर कलेवा में दिन का खाना भी शामिल है क्योंकि बटोही जिस भोजन को अपने साथ बांध कर ले जाते थे, उसे भी कलेवा ही कहा जाता था। ध्यान रहे, पुराने जमाने में बटोही मुंह अंधेरे ही सफर पर निकल पड़ते थे और जब सूरज सिर पर आ जाता था तभी कहीं विश्राम के लिए छांह देखकर वे कलेवा करते। यह समय दिन के भोजन का ही होता है। शादी के अगले दिन जब दूल्हा अपने परिजनों-सखाओं के साथ दुल्हन के घर भोजन के घर जाता है, उस रस्म को भी कलेवा कहा जाता है। नाम भिन्नता के साथ समूचे भारत में यह परम्परा है।
लेवा की तरह की सुबह बिना नहाए किए जाने वाले नाश्ते के लिए नहारी या निहारी शब्द भी प्रचलित है। मांसाहारियों में निहारी मीट या निहारी शोरबा के लिए सुबह-सुबह नुक्कड़ की दुकानों पर भीड़ लग जाया करती है। नहारी शब्द बना है अनाहार से जो बना है अन+आहार अर्थात बिना कुछ खाए रहना। इससे बना अनाहारी और फिर बना नहारी। दरअसल नहारी खाना एक पूरे दिन और पूरी रात का उपवास अर्थात निराहार रहने के बाद अगली सुबह बासी मुंह ग्रहण किए जाने वाला हल्का नाश्ता होता है। स्नान किए बिना बाद में सुबह के नाश्ते को
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नहारी कहने का प्रचलन हो गया। यह शब्द आज भी उत्तर भारत में खूब इस्तेमाल होता है। उर्दू में भी इसका प्रयोग होता है। नहारी मीट भी खूब पसंद किया जाता है जिसकी पहचान उसका खास मसालेदार शोरबा है। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक दिहाड़ी मजदूरों को मालिक की ओर से सुबह के नाश्ते के लिए दिया जाने वाली राशि को भी नहारी कहते हैं। इसी तरह सुबह के नाश्ते के लिए जलपान शब्द भी खूब प्रचलित है। भारतीय परम्परा में हर आगत का स्वागत सबसे पहले पानी से होता है। फिर सत्कार की बारी आती है और मुंह मीठा कराया जाता है। मीठे के साथ कुछ चरपरा भी जरूरी है। इसी क्रम में पेय पदार्थ आता है, इस तरह नाश्ते के लिए जलपान शब्द प्रचलित हुआ।
कामकाजी सदस्यों वाले घरों में अक्सर छुट्टी के दिन नाश्ता ही दोपहर का भोजन बन जाता है। खाने की चीज़े स्वादिष्ट हो तो छक कर ही खाया जाता है। मालवी आदमी छुट्टी के दिन लंच की जगह सिर्फ पोहा या ऊसल पोहा पर ही काम चला लेता है। पूर्वी बोली में नाश्ता के लिए एक शब्द है छाका। वैसे तो यह नाश्ता होता है पर इतना पर्याप्त कि दोपहर का भोजन भी न मिले तो काम चल जाए। छाका का एक अर्थ दोपहर का कलेवा भी है। संस्कृत धातु चक् में तृप्त होने या संतुष्ट होने या इच्छापूर्ति का भाव है। हिन्दी में इससे छकना क्रिया बनी है जिसका अर्थ है भरपेट भोजन करना, तृप्त होना। छक कर खाना का अर्थ होता है भरपूर संतुष्टि के साथ किया हुआ भोजन। हिन्दी में तबीयत चक्क होना मुहावरे का अर्थ है भरपूर संतुष्टि मिलना। कह नही सकते कि पंजाबी के चक दे शब्द का इससे रिश्ता है या नहीं अलबत्ता छकना शब्द पंजाबी में भी है और अमृत-छकना जैसे प्रयोगों में इसकी उपस्थिति दिखती है। हल्का-फुल्का आहार या नाश्ता चलताऊ भाषा में चना-चबैना भी कहलाता है। इस शब्दयुग्म में भी मुहावरे की अर्थवत्ता है जिसमें भोजन के लिए चिन्तित न होने का भाव है, अर्थात कुछ न कुछ खा-पी लेंगे। इसका अभिप्राय उस आहार से है जिसे चलते-फिरते, काम करते हुए लिया जा सके। चना-चबैना में चना शब्द संस्कृत के चणकः या चणः से बना है। चबैना या चबेना के मायने भुने हुए अनाज से है जिसे चबाकर खाया जाता है। संस्कृत के चर्वण शब्द से हिन्दी की चबाना क्रिया का निर्माण हुआ है। खाते वक्त दांत और जीभ के बीच पीसने की संयुक्त क्रिया से जो ध्वनि निकलती है उसे चबड़-चबड़ कहा जाता है। वाचालता के लिए भी चबड़-चबड़ शब्द बोला जाता है। चबा चबा कर बोलना मुहावरे का मतलब होता है एक-एक शब्द रुक रुक कर बोलना।
शाम के भोजन के लिए ब्यालू शब्द बना है जिसका अर्थ होता है शाम या रात का भोजन। आजकल इसके लिए डिनर शब्द प्रचलन ज्यादा है। जॉन प्लैट्स और रॉल्फ लिली टर्नर ब्यूालू का उद्गम संस्कृत के वैकाल में ऊक प्रत्यय लगने से मानते हैं। वैकाल का अर्थ होता है मध्याह्नोत्तर काल, सायंकाल या दिन का तीसरा पहर। यह बना है विकालः से, जिसकी व्युत्पत्ति वामन शिवराम आप्टे के कोश में विरुद्धः कालः दी हुई है अर्थात शाम का समय, झुटपुटा। भाव यही है कि रात का वक्त अनुकूल नहीं है। यूँ देखें तो वेला शब्द भी कालवाची है और इसमें भोजन या भोजन काल का भाव भी है । संभव है, ब्यालू की व्युत्पत्ति वेला से हुई हो । वैकाल में दोपहर बाद या शाम का भाव तो है पर उसके साथ भोजन का रिश्ता उभर कर नहीं आ रहा है । ब्यालू शब्द का प्रयोग हिन्दी की सभी लोक-शैलियों में  होता है। [-जारी]
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12 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

बढ़िया चल रही है यह श्रृंखला भी.

Baljit Basi said...

पंजाबी में 'चक' शब्द का मुख्य अर्थ 'उठाना' है, बहुत सीमित स्थितयों में खाने का अर्थ भी है. जैसे जब किसी मेहमान को खाना परोसा जाए तो कह देते हैं, "चक्कों जी" लेकिन यह आम शब्द नहीं है. छकना ज्यादातर औपचारक स्थितयों में तो इस्तेमाल होता ही है, आम तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है. हाँ, जब महिफल में शराब का दौर चलता है तो गलास उठाने खास तौर पर एका एक पीने को "चक्कों जी" कह देते हैं. ऐसी हालत में यह अंग्रजी उक्ति बौट्म्ज अप (bottoms up) का समानार्थी है. पंजाबी में 'चकना' और 'चुकना' शब्द अंतर्बदल हैं.

पंजाबी उक्ति 'चक दे' के नाम पर बनी फिल्म 'चक दे इंडिया' के बारे में दिलचस्प बात यह है कि 'चक देना ' मुहावरे का व्यापक अर्थ ख़तम कर देना, मार मुकाना ही होता है. ऐसे में जिस किसी ने भी इस फिल्म का यह नाम रखा और आगे गाना भी लिख मारा उसकी समझ पर तरस ही आता है. 'चक दे फ़ट्टे' मुहावरे का अर्थ होता है फुर्ती से कम ख़तम कर दो.

डॉ. मनोज मिश्र said...

बढियां रहा यह भी.

दिनेशराय द्विवेदी said...

हमने तो बचपन से देखा कि सुबह ग्यारह से बारह के बीच ठाकुर जी को भोग लगता था। तब कलेवे का नंबर आता था। वही दोपहर का भोजन भी होता था। शाम तारे दिखने के पहले ब्यालू हुई और फिर राम राम!
दूल्हे को फेरे की दूसरी सुबह ससुराल वाले भोजन पर बुलाते हैं उसे कहते हैं कुँवर कलेवा जो हमने तो किया ही बहुत दोस्तों के साथ भी किया। पर अब यह गायब होता जा रहा है। सुबह होने के पहले तो बारात खिसक लेती है, या यूँ कहें खिसका दी जाती है।

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया। धन्यवाद्

अजित वडनेरकर said...

@बलजीत बासी
"चक दे" के बारे में विस्तार से जानकारी देने का शुक्रिया बलजीतभाई।

शोभना चौरे said...

shbdo ke sfar ki yh vishesh yatra bahut achhi lgi
kyoki isme khane ki bate hai .
dhnywad

हरकीरत ' हीर' said...

चलिए हम भी ब्यालू लेकर सोने चले .....शुभरात्रि .......!!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

ब्यालू ... पहली बार शब्द सुना और उसका अर्थ भी जाना

Asha Joglekar said...

कलेवा न्याहारी चबैना आदि शब्द तो पता थे पर ब्यालू पहली बार सुना । चक दे का मतलब जान कर वास्तव मे फिल्म का नाम ये क्यूं रखा ऐसा लग रहा है ...........

Himanshu Pandey said...

रेडियो प्रसारण के लिये लिखी गयी यह श्रंखला मोहक है ।
आभार ।

ghughutibasuti said...

ब्यालू शब्द अच्छा लगा।
यह बिना स्नान के कलेवे की बात समझ नहीं आई। आज तो लोग बिन स्नान पूरा दिन भी बिता देते हैं किन्तु पहले के समय में मैंने ऐसा कम ही देखा है। बिना स्नान बहुत घरों में कलेवा तो दूर रसोई में भी नहीं जाया जाता था।

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