Thursday, May 30, 2013

ग़फ़लत में ग़ाफ़िल

confuse

बीर जब कहते हैं कि “रे दिल गाफिल गफलत मत कर, एक दिना जम आवेगा” तब दरअसल वे लोगों से अपनी आत्मा को जगाने की बात कहते हैं । यमलोक से बुलावा किसी भी दिन आ सकता है । जीवन अनित्य है इसलिए अंतरात्मा में ज्ञानजोत जलाने की ज़रूरत है । इसमें ग़ाफ़िल और ग़फ़लत दो शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अरबी मूल से आए हैं । कबीर की भाषा सधुक्कड़ी यानी आम आदमी की ज़बान है । कबीर जैसे जनकवि जब ‘गाफिल-गफलत’जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सहज ही समझा जा सकता है कि राज-काज की फ़ारसी भाषा का असर लोकबोलियों पर किस क़दर चढ़ चुका था । देखने की बात यह भी है कि कबीरबानी में गाफिल से बना गफिलाई शब्द भी आता है-“ ऐसा लोग न देखा भाई, भूला फिरे लिए गफिलाई।” यह गफिलाई निश्चित ही उस दौर के समाज में गाफिल का प्रचलित रूप रहा होगा। गाफिल या गफलत के शुद्ध रूप नुक़्ता लगा कर ग़फ़लत और ग़ाफिल बनते हैं ।
ग़ाफ़िल उसे कहते हैं जो बेख़बर हो । हेंस वेर और मिल्टन कोवेन की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक के मुताबिक ग़ाफ़िल के मूल में अरबी का ग़फ़ाला ghafala है जिसमें असावधानी, उपेक्षा, लापरवाही, भूल जैसे भाव हैं । इसकी धातु है ग़ैन- फ़ा-लाम (غ-ف-ل) । इससे बने ग़ाफ़िल में आत्मविस्मृत, असावधान, बेख़बर, आत्मलीन, निश्चेत, बेहोश के साथ-साथ काहिल, आलसी जैसी अर्थवत्ता भी है । गौर करें ग़फ़ाला के मूल भाव उपेक्षा या लापरवाही जैसे भावों पर । जो खुद में गुम है, जिसे ज़माने की ख़बर नहीं वह दरअसल कारोबारे-दुनिया की उपेक्षा ही तो कर रहा है । जिसे संसार की परवाह नहीं ऐसा व्यक्ति आत्मलीन योगी भी हो सकता है और अकर्मण्य, आलसी या लापरवाह भी हो सकता है ।
ग़फ़लत का प्रयोग भी हिन्दी में उधेड़बून, उलझन या गड़बड़ी के अर्थ में ज्यादा होता है । “बड़ी ग़फ़लत हो गई”, “ग़फ़लत मत करो”, “वो ग़फ़लत में रहता है” जैसे वाक्यों से यह स्पष्ट हो रहा है । गफ़लत में मूलतः - असावधानी, असतर्कता, बेख़बरी, संज्ञाहीनता, निश्चिष्टता, बेहशी, त्रुटि, भूल, चूक, उपेक्षा, आलस्य, बेपरवाही, काहिली के भाव हैं । ग़फ़ाला में निहित उपेक्षा इस शृंखला के जिस शब्द में सर्वाधिक उभर रही है वह है तग़ाफ़ुल । बोलचाल या लिखत-पढ़त की हिन्दी में तग़ाफ़ुल का इस्तेमाल नहीं होता मगर शेरो-शायरी में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यह अजनबी भी नहीं है मसलन- “अब उसका तग़ाफ़ुल गवारा करो, मसीहा मसीहा पुकारा करो।” मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह तग़ाफ़ुल के मायने उपेक्षा, बेतवज्जोई, असावधानी, ग़फ़लत, ढील, विलम्ब, देर आदि बताते हैं ।
फ़लत से बने कुछ ख़ूबसूरत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है जैसे ग़फ़लतक़दा जिसमें भवसंसार की व्यंजना उभरती है , मगर व्यंग्य के नज़रिए से । बुज़ुर्गों का कहना है कि ये दुनिया गड़बड़झाला ही है । यहाँ सब कुछ बेतरतीब है , सब कुछ उलझा हुआ है । इसे दुरुस्त करने का जिम्मा इन्सान का है, मगर वह खुद ही गफ़लतज़दा यानी असावधान रहता है । इसी तरह सुस्त, आलसी या आदतन असावधान व्यक्ति के लिए ग़फ़लतआश्ना जैसा शब्द भी है और ग़फ़लतपेशा भी। इन्हें हम एहदी, सुस्तशिरोमणी या आलसीराम की उपाधियों से नवाज़ते हैं ।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, May 24, 2013

गाछ और पेड़

mango-tree 

पे ड़ के अर्थ में पूर्वी भारतीय बोलियों में ‘गाछ’ शब्द बहुत आम है। बांग्ला में भी ‘गाछ’ का अर्थ वृक्ष ही है। पूर्वी बोलियों में ‘गाछी’ शब्द का अभिप्राय वृक्षवाटिका भी होता है और आम्रकुंज भी। खासतौर पर आम, कटहल, पीपल जैसे पेड़ों के समूह के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। रतीनाथ की चाची उपन्यास में बाबा नागार्जुन ने बीजू आमों के बगीचे को गाछी कहा है। ‘बीजू’ यानी आम का वह पेड़ जिसे बीज बो कर लगाया गया हो। ‘कलमी’ आमों का बगीचा कलमी बाग कहलाता है। ‘गाछी’ का अर्थ छोटा पेड़ या पौधा भी होता है। इसी तरह ‘बाड़ी’ यानी छोटे बगीचे के लिए भी गाछी का प्रयोग देखा जाता है। कहीं कहीं गाछी और भी लघुता के चलते ‘गछिया’ हो जाती है। हिन्दी शब्दसागर में गाछ शब्द की प्रविष्टि में- “खजूर की नरम कोंपल जिसे लोग पेड़ कट जाने पर सुखाकर रख छोड़ते हैं और तरकारी के काम में लाते हैं । बोरा जो बैल आदि पशुओं की पीठ पर बोझ लादने के लिये रखा जाता है।” वैसे हिन्दी में पेड़ के लिए कई शब्द हैं जैसे अग, अगम, विटप, वृक्ष, द्रुम, अद्रि, कुट, जर्ण, झाड़, तरु, तरुवर, दरख़्त, पादप, भूजात या कुठारू आदि।
वृक्ष शब्द से कुछ नए नाम भी जन्मे हैं। वृक्ष से ‘व’ का लोप हुआ और रह गया ‘रूक्ष’। अब रूक्ष से मालवी-राजस्थानी में रूँख, रूँखड़ा जैसे कुछ नए नाम भी चल पड़े। इसी तरह वृक्ष से बिरछ, बिरिख या बिरिछ जैसे नाम भी चलन में हैं और लालित्यपूर्ण लेखन या देशी तड़का लगाने के लिए इनका प्रयोग सृजनधर्मी करते रहते हैं। वैसे वृक्ष के लिए ‘पेड़’ शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। इसकी व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में दो तरह के मत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पेड़ का जन्म प्राकृत के ‘पट्टी’ की कोख से हुआ है। ‘पट्टी’ के मूल में ‘पत्री’ है जिसका रिश्ता संस्कृत के ‘पत्र’ से है। पत्र यानी पत्ता। जॉन प्लैट्स इसी मत के हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि पेड़ दरअसल ‘पिण्ड’ से आ रहा है। पिण्ड से पेड़ के उपजने की बात तार्किक भी है क्योंकि संस्कृत वाङ्मय के अनेक संदर्भों में पिण्ड का आशय वृक्ष से जुड़ता रहा है। कई तरह के वृक्षों के साथ ‘पिण्ड’ शब्द प्रत्यय या उपसर्ग की तरह लगा दिखाई देता है जिसमें ‘पिण्ड’ का अर्थ वृक्ष ही है जैसे पिण्ड खजूर। पिण्ड शब्द का अर्थ ताड़ जाति का वृक्ष, अशोक वृक्ष आदि भी है। इसी तरह आयुर्वैदिक गुणों वाले बेर जाति के एक कँटीले वृक्ष विकंकत का नाम पिण्डारा है जिसमें पिण्ड साफ़ नज़र आ रहा है। पिण्ड से पेंड और पेड़ का रूपान्तर होता चला गया। इसके विपरीत पत्र से पेड़ के रूपान्तर की कल्पना नहीं की जा सकती।
गाछ की बात। ‘गाछ’ अर्थात वृक्ष के मूल में संस्कृत शब्द ‘गच्छ’ है जिसका अर्थ है जाना, चलना, बढ़ना, गति करना। बतौर वृक्ष, गच्छ में लगातार बढ़ना, गति करना, वृद्धि करना जैसे भाव है। यूँ देखा जाए तो गति न करना भी वृक्ष की खासियत है और इस वजह से ही ‘अगम’ या ‘अग’ अर्थात जो चलते-फिरते नहीं, जैसे नाम भी उसे मिले हैं। यह दिलचस्प है कि निरन्तर ऊर्ध्वाधर गति और वर्ष में कई रूप बदलने वाले अनूठे-अपूर्व गुण के चलते ही एक ही स्थान पर बने रहने के बावजूद पेड़ों में लगातार गति करने का लक्षण भी देखा गया और इसीलिए उसे ‘गच्छ’ कहा गया और फिर उससे गाछ, गाछी जैसे शब्द बने हैं। पेड़ की व्युत्पत्ति पिण्ड से होने का एक मज़बूत आधार ‘गच्छ’ से बने एक समास में छुपा है।
गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित प्रख्यात बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु में ‘गच्छ-पिण्ड’ शब्द आया है। मूलतः यह समास है। डॉ सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या इसे विचित्र समास मानते हुए इसके लिए अनुवादात्मक समास पद निर्धारित करते हैं। वैसे यह द्वन्द्व समास का उदाहरण है। ‘गच्छ’ यानी पेड़, पौधा आदि। गच्छ में निहित बढ़ने के भाव से गच्छ में वृक्ष का संकेत भी शामिल हुआ जिससे गाछ, गाछी आदि बने। पिण्ड किसी ढेर, अचल, ठोस, घन जैसा पदार्थ ही पिण्ड है। इसी तरह बढ़ने के अर्थ से ही गच्छ में परिवार, कुल या कुटुम्ब का भाव भी आया। इसी तरह पिण्ड में भी परिवार या कुल का भाव है। पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों में मनुष्यों के आबाद समूह को पिण्ड भी कहा जाता है। गाँव के अर्थ में भी पिण्ड का प्रयोग होता है। अब जब पिण्ड का अर्थ भी वृक्ष है और गच्छ में भी पेड़ का ही भाव है तब ‘गच्छ-पिण्ड’ यानी ‘पेड़-पेड़’ जैसे समास से क्या अर्थसिद्धि हो सकती है? ज़ाहिर है जिस तरह ‘अच्छा-भला’ ‘ऋषि-मुनि’, ‘भाई-बंध’ या ‘कंकर-पत्थर’ आदि द्वद्व समास के उदाहरण हैं वैसा ही ‘गच्छ-पिण्ड’ के साथ भी है। मगर बात इतनी आसान नहीं है।
मेरे विचार में ‘गच्छ’ में वृद्धि का जो भाव है उससे ही ‘गच्छ-पिण्ड’ की अलग अर्थवत्ता स्थापित होती है। कुल, परिवार का महत्व उसके बढ़ते जाने के गुण से ही है। बाँस शब्द वंश से बना है। पूर्ववैदिक युग में वंश शब्द का अर्थ बांस ही रहा होगा। प्राचीन समाज में लक्षणों के आधार पर ही भाषा में अर्थवत्ता विकसित होती चली गई। स्वतः फलने फूलने के बाँस के नैसर्गिक गुणों ने वंश शब्द को और भी प्रभावी बना दिया और एक वनस्पति की वंश-परंपरा ने मनुष्यों के कुल, कुटुंब से रिश्तेदारी स्थापित कर ली। सो ‘गच्छ’ में निहित परिवार, कुल, कुटुम्ब के अर्थ में ही अगर वृद्धि का अर्थ वंश-परम्परा से लगाया जाए तो ‘गच्छ-पिण्ड’ का सीधा सा अर्थ वंश-वृक्ष निकलता है। बौद्धग्रन्थ महावस्तुअवदानम् में बुद्ध के जातक रूपों का उल्लेख है। स्पष्ट है कि यहाँ गच्छ-पिण्ड से तात्पर्य वंश-वृक्ष से ही होगा।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, April 21, 2013

कल-कल की शब्दावली

भा षा का विकास प्राकृतिक ध्वनियों का अनुकरण करने से हुआ है। पानी के बहाव का संकेत ‘कल-कल’ ध्वनि से मिलता है। इस ‘कल’ के आधार पर देखते हैं कि हमारी भाषाओं को कितने शब्द मिले हैं। कल् की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। नदी-झरने की कल-कल और भीड़ के कोलाहल में यही कल ध्वनि सुनाई पड़ रही है। पक्षियों की चहचह और कुहुक के लिए प्रचिलत कलरव का अर्थ भी कल ध्वनि (रव) ही है। हिन्दी में गला, गली, खर्राटा, खल्ला, गरियाना, गुर्राना, कुल्ला, कल्ला, गाल आदि और अंग्रेजी का कॉल, कैलेंडर जैसे अनेक शब्द इसी कल की शृंखला से बंधे हुए हैं। चलिए, पहचानते हैं इन्हें।
प्राचीन रोम में पुरोहित नए मास की जोर-शोर से घोषणा करते थे इसे calare कहा जाता था। अंग्रेजी का call भी इससे ही बना है। रोमन में calare का अर्थ होता है पुकारना या मुनादी करना। कैलेयर से बने कैलेंडे का मतलब होता है माह का पहला दिन। माह-तालिका के लिए कैलेंडर के मूल में भी यही कैलेयर है। भाषा विज्ञान के नजरिये से calare का जन्म संस्कृत के कल् या इंडो-यूरोपीय मूल के गल यानी gal से माना जाता है। इन दोनों ही शब्दों का मतलब होता है कहना या शोर मचाना, जानना-समझना या सोचना-विचारना।
ल-कल में ध्वनिवाची संकेत से पानी के बहाव का अर्थ तय हुआ मगर ध्वनिवाचक अर्थ भी बरक़रार रहा। बहाव के अर्थ में बरसाती नाले को खल्ला / खाला कहते हैं। यह स्खल से आ रहा है जिसमें गिरने, फिसलने, बहने, टपकने, नीचे आने, निम्नता जैसे भाव हैं। ज़ाहिर है कल का अगला रूप ही स्खल हुआ जिससे नाले के अर्थ में खल्ला बना। कल का ही अगला रूप गल होता है। ज़रा सोचे पंजाबी के गल पर जिसका मतलब भी कही गई बात ही होता है। साफ़ है कि अंग्रेजी का कॉल, संस्कृत का कल् और पंजाबी का गल एक ही है।
ल् का विकास गल् है जिसका अर्थ है टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना आदि। यह कल के बहाववाची भावों का विस्तार है। गौर करें इन सब क्रियाओं पर जो जाहिर करती हैं कि कहीं कुछ खत्म हो रहा है, नष्ट हो रहा है। यह स्पष्ट होता है इसके एक अन्य अर्थ से जिसमें अन्तर्धान होना, गुजर जाना, ओझल हो जाना या हट जाना जैसे भाव हैं। गलन, गलना जैसे शब्दों से यह उजागर होता है। कोई वस्तु अनंत काल तक रिसती नहीं रह सकती। स्रोत कभी तो सूखेगा अर्थात वहाँ जो पदार्थ है वह अंतर्धान होगा। गल् धातु से ही बना है गला जिसका मतलब होता है कंठ, ग्रीवा, गर्दन आदि। ध्यान रहे, गले से गुज़रकर खाद्य पदार्थ अंतर्धान हो जाता है।
ल् से गला बना है और गली भी। निगलना शब्द भी इसी मूल से बना है। गले की आकृति पर ध्यान दें। यह एक अत्यधिक पतला, सँकरा, संकुचित रास्ता होता है। गली का भाव यहीं से उभर रहा है। कण्ठनाल की तरह सँकरा रास्ता ही गली है। गली से ही बना है गलियारा जिसमें भी तंग, संकरे रास्ते का भाव है। गल् में निहित गलन, रिसन के भाव का अंतर्धान होने के अर्थ में प्रकटीकरण अद्भुत है। कुछ विद्वान गलियारे की तुलना अंग्रेजी शब्द गैलरी gallery से करते हैं। यूँ गुज़रने और प्रवाही अर्थ में भी सँकरे रास्ते के तौर पर कल, गल से होते हुए गला और गली के विकास को समझा जा सकता है।
गौर करें सुबह सोकर उठने के बाद मुँह में पानी भर कर गालों की पेशियों को ज़ोरदार हरक़त देने से ताज़गी मिलती है। इसे कुल्ला करना कहते हैं। यह कुल्ला मूलतः ध्वनि अनुकरण से बना शब्द है और इसमें वही कल-कल ध्वनि है जो पत्थरों से टकराते पानी में होती है। वैसे कुल्ला का मूल संस्कृत के कवल से माना जाता है। हिन्दी में जो गाल है वह संस्कृत के गल्ल से आ रहा है। फ़ारसी में गल्ल से कल्ला बनता है जिसका प्रयोग हिन्दी में भी होता है जैसे कल्ले में पान दबाना यानी मुँह में पान रखना। गल्ल और कल्ल की समानता गौरतलब है। गल्ल से हिन्दी में गाल बनता है और फ़ारसी में कल्ला। मगर दोनों ही भाषाओं में कुल्ला का अर्थ गालों में पानी भरकर उसमें खलबली पैदा करना ही है।
ताज़गी के लिए कुल्ला के अलवा गरारा भी किया जाता है। यह संस्कृत के गर्गर (गर-गर) से आ रहा है। कल कल का ही विकास गर गर है। आमतौर पर गर गर ध्वनि गले से अथवा नाक से निकलती है। इस ध्वनि के लिए नाक या गले में नमी होना भी जरूरी है। क वर्णक्रम की ध्वनियाँ आमतौर पर एक दूसरे से बदलती हैं। नींद में मुँह से निकलनेवाली आवाजों को खर्राटा कहा जाता है। इसकी तुलना गर्गर से करना आसान है। यहाँ ध्वनि में तब्दील हो रही है। ख, क ग कण्ठ्य ध्वनियाँ है मगर इनमें भी संघर्षी ध्वनि है और बिना प्रयास सिर्फ निश्वास के जरिये बन रही है। सो खर्राटा शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ रहा है। हाँ, गुर्राने गो भी न भूल जाएँ। 
अंग्रेजी के गार्गल gargle शब्द का प्रयोग भी शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर होने लगा है। इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच भाषा के gargouiller मानी जाती है जो प्राचीन फ्रैंच के gargouille से जन्मा है जिसमें गले में पानी के घर्षण और मंथन से निकलने वाली ध्वनि का भाव निहित है। इस शब्द का जन्म गार्ग garg- से हुआ है जिसमें गले से निकलने वाली आवाज का भाव है। इसकी संस्कृत के गर्ग (रः) से समानता गौरतलब है। गार्गल शब्द बना है garg- (गार्ग) + goule (गॉल) से। ध्यान रहे पुरानी फ्रैंच का goule शब्द लैटिन के गुला gula से बना है जिसका अर्थ है गला या कण्ठ। लैटिन भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ी है। लैटिन के गुला और हिन्दी के गला की समानता देखें।
पशब्द, निंदासूचक या फूहड़ बात के लिए हिन्दी उर्दू में गाली शब्द है। प्रायः कोशों में इसका मूल संस्कृत का गालि बताया गया है। ध्यान रहे कल् या गल् में कुछ कहने का भाव है प्रमुख है। कल्-गल् की विकास यात्रा में अपशब्द के लिए गालि का विकास भी इसी गल् से हुआ। गल् यानी ध्वनि। कहना। गाल यानी वह अंग जहाँ जीभ व अन्य उपांगों से ध्वनि पैदा होती है। गला यानी वह महत्वपूर्ण अंग जहाँ से ध्वनि पैदा होती है। गुलगपाड़ा, शोरगुल, कोलाहल, कल-कल, कॉल, गल, कलरव, गर-गर, गॉर्गल जैसे शब्दों में कहना, ध्वनि करना ही महत्वपूर्ण है। गाली का एक अन्य रूप गारी भी होता है। उलाहना, भर्त्सना, धिक्कार या झिड़कने को गरियाना भी कहते हैं। किसी को दुर्वचन कहने, लताड़ने, फटकारने के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया जाता है। जॉन प्लैट्स के कोश में गाली की व्युत्पत्ति प्राकृत के गरिहा से बताई गई है। संस्कृत में इसका मूल गर्ह् है जिसका अर्थ भर्त्सना या धिक्कार ही है। गर्ह् के मूल में भी गर् ध्वनि को पहचाना जा सकता है।
गाली बकने की क्रिया के लिए गाली-गलौज शब्द भी है। इसमें गलौज ध्वनि अनुकरण से बना है। गलौज, गलौच, गलोच में क्या सही है, क्या ग़लत इसके फेर में नहीं पड़ना चाहिए। वैसे हिन्दी कोशों में गलौज को ही सही बताया गया है। चूँकि ध्वनि अनुकरण का मामला है इसलिए अलग अलग क्षेत्रों में और का फ़र्क़ हो सकता है।  इसी कड़ी में गाली-गुफ्तार पर विचार करें। गुफ्तार मुख-सुख से नहीं आया है मगर गाली-गुफ्तार पद का प्रयोग हिन्दी में गाली-गुफ्ता की तरह होता है। अनजाने में गालीगुप्ता भी देखा जाता है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

</SPAN अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, April 20, 2013

‘छद्म’ और ‘छावनी’

से शब्द जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली के हैं मगर बोलचाल की हिन्दी में आज भी डटे हुए हैं उनमें छद्म शब्द भी शामिल है। कपटपूर्ण व्यवहार के संदर्भ में हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। छल-छद्म एक आम मुहावरा है जिसका अर्थ है छल, कपट या धोखे का प्यवहार। छद्मवेषी व्यक्ति वह है जो अपना असील रूप छिपाने के लिए रूप बदल कर रहता है। छद्म करनेवाले व्यक्ति को छद्मी कहते हैं। ध्यान रहे, देहात में पाया जाने वाला संज्ञानाम छदामी (लाल) या छदम्मी (लाल) इस छद्मी का अपभ्रंश रूप नहीं है। ये नाम दरअसल यूनानी मुद्रा द्रख्म से आ रहे हैं जो मौर्यकाल में भारत में द्रम्मम् के नाम से चलती थीं जिनका देशी रूप दाम, दमड़ी हुआ। मूल्य के अर्थ में दाम शब्द यहीं से आ रहा है। दाम का छठा हिस्सा छदाम कहलाया। दो दमड़ी यानी एक छदाम। पुराने ज़माने में दमड़ीमल भी होते थे और छदामीलाल भी। ख़ैर बात छद्म की चल रही थी।
द्म में जो फ़रेब, झूठ, छुपाव, बनावटीपन आदि का भाव है वह दरअसल छद् से आ रहा है। संस्कृत में छद् का अर्थ है आवरण। छद् का ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीं फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। छद् का मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्र, छत्रक या छत्रकम् । इन्ही शब्दों से बने हैं छाता, छत्री छतरी जैसे शब्द जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहाँ उन्हें दफनाया जाता था, छतरियाँ बनाईं जाती थीं।
नावटी, नकली, जाली या फर्जी में मूलतः सच्चाई को छुपाने का भाव है। ऐसा व्यवहार जिसमें सच को छुपाया जाए, उस पर पर्दा या आवरण डाला जाए, छद्म की श्रेणी में आता है। छद्म में छद् को अगर पहचाना जाए तो सब स्पष्ट हो जाता है। छद का छत रूप अगर संरक्षण है तो वह एक आवरण भी है। संस्कृत में छद्मन् का अर्थ है स्वांग, बहाना, छुपाव, कपट आदि। छल शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्दसागर में स्खल से बताई गई है जो मेरे विचार में ठीक नहीं है। छल में भी वही ‘छ’ है जिसमें छुपाव या आवरण का भाव है। छल-छद्म में दुराव या छुपाव की पुनरुक्ति है।
फ़ौजी पड़ाव के लिए हिन्दी में छावनी शब्द आम है। कई बड़े शहरों में छावनी नामधारी इलाके होते हैं। इसका मतलब यह किसी ज़माने में वहाँ सेना का स्थायी या अस्थायी बसेरा था। उन्हीं स्थानों पर बाद में नई आबादी बस जाने के बावजूद इलाके के नाम के साथ छावनी शब्द जुड़ा रहा जैसे छावनी चौराहा या छावनी बाज़ार आदि। आज के दौर में भी जिन शहरों में आर्मी कैंटोनमेंट होता है उसे छावनी ही कहते हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड को भी छावनी बोर्ड ही कहते हैं। जानते हैं छावनी शब्द कहाँ से आया और इसका अर्थ क्या है। संस्कृत में आच्छादन का अर्थ होता है आवरण, वस्त्र या छाजन आदि। आच्छादन में भी छद् को पहचाना जा सकता है। उपसर्ग के बाद छादन बचता है। किसी ज़माने में बटोही राह में जब रुकते थे तो टहनियों को अर्धवृत्ताकार मोड़ कर उनके दोनों सिरे ज़मीन में गाड़ देते थे और उस ढाँचे पर चादर तान देते थे। यह उनका अस्थायी आश्रय बन जाता था।
गौर करें, यह जो चादर है वह भी इसी कड़ी का शब्द है। छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा – छत्रक > छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर। मराठी में छादनी का अर्थ होता है ढक्कन, आवरण आदि और इसी रूप में यह हिन्दी में भी है। छादनी से छावनी में तब्दील होने का क्रम यूँ रहा- छादनी > छायणी > छायणी > छावणी। हिन्दी शब्दसागर छादनी का उल्लेख नहीं करता किन्तु इसका रिश्ता छाना क्रिया से जोड़ता है साथ ही देशी छायणिया, छायणो जैसे शब्दों से इसका सम्बन्ध बताता है। स्पष्ट है कि छायणिया या छायणो जैसे रूप प्राकृत-अपभ्रंश के हैं और इनका मूल छादन या छादनी है। इसी कड़ी में छाँह, छाँव, छावण, छावन, छाजन, छप्पर जैसे शब्द भी हैं जिनमें आवरण, डेरा, तम्बू, आश्रय, ढक्कन जैसे भाव हैं।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, April 5, 2013

नस्ली सही, नस्लीय ग़लत

race_05

जो शब्द ग़लत बर्ताव के शिकार हैं, उनमें ‘नस्ल’ का ‘नस्लीय’ रूप भी शामिल है। ‘नस्ल’ मूलतः अरबी शब्द है। शब्दकोशों में हिन्दी रूप ‘नसल’ होता है पर ‘अस्ल’ के ‘असल’ रूप की तरह यह आम नहीं हो पाया और इसका प्रयोग वाचिक ही बना रहा। नस्ल के मूल में अरबी क्रिया नसाला है जिसमें उपजाना, पैदा करना, जन्म देना, प्रजनन करना, बढ़ाना, दुगना करना, वंश-परम्परा जैसे भाव हैं।
साला की अरबी धातु नून-सीन-लाम (ن س ل ) बताई जाती है जिससे पुनरुत्पादन, वृद्धि जैसे आशय प्रकट होते है। शब्दकोशों के मुताबिक नस्ल का मूलार्थ सन्तान, औलाद, लड़का, लड़की, शावक, सन्तति , परिणाम आदि है किन्तु प्रचलित अर्थों में नस्ल में जाति का भाव प्रमुख तौर पर उभरता है। इसके अलावा कुल, परिवार, वंश जैसे आशय भी प्रकट होते हैं। हिन्दी में किसी शब्द के सम्बन्धवाची आशय उसके साथ ‘ईय’ प्रत्यय लगने से ज़ाहिर होते हैं जैसे मानव + ईय़ = मानवीय या जाति + ईय = जातीय आदि। नस्ल चूँकि विदेशज शब्द है और सम्बन्धवाची आशय प्रकट करने वाला रूप ‘नस्ली’ मूल अरबी के अलावा फ़ारसी, उर्दू-हिन्दुस्तानी में भी सुरक्षित है सो ऐसे में नस्ल का ‘नस्लीय’ रूप खटकता है। अगर ‘नस्ल’ से ‘नस्लीय’ ही बनाना है तो ‘जातीय’ क्या बुरा है? भाषा तो लगातार आसान होती जाती है। नस्ल का हिन्दी रूप तो नसल है। तब ‘नसलीय’ बनाइये!! अगर ‘नस्ल’ लिखना सुहाता है तो ‘नस्ली’ ही लिखिए, ‘नस्लीय’ नहीं।
क तरफ़ हम ‘चिकित्सक’ के स्थान पर ‘डॉक्टर’ की पैरवी करते हैं कि इसमें कम अक्षप हैं, आसान है। मगर दूसरी तरफ़ कम शब्द वाले ‘नस्ली’ में हिन्दी का प्रत्यय लगाकर उसे और भी लम्बा (नस्लीय) कर देते हैं। आसान से ‘सौहार्द’ को जबर्दस्ती ‘सौहार्द्र’ बनाने पर तुले हैं जबकि बोलने में यह कठिन है। आसान हिन्दी के पैरोकार इस पर चुप्पी लगा लेंगे।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, March 31, 2013

हथियारों के साथ ‘पंचहत्यारी’

‘पंचहत्यारी’ शिवाजी की सैन्य शब्दावली का एक शब्द है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानों इसका रिश्ता पाँच जनों की हत्या करने वाली से हो। दरअसल यह एक विशेषण, पद या उपाधि है जिसका अर्थ है बंदूक, भाला, ढाल, तलवार और तीर-कमान से सज्जित सैनिक या शिकारी पशु। यहाँ अभिप्राय मुख समेत चारों पंजों के ज़रिये शिकार को चीर-फाड़ करने से है। पंच से तो पाँच स्पष्ट है, हत्यारी क्या है ? दरअसल मराठी में हथियार को हत्यार ही लिखते और बोलते हैं। ‘पंचहत्यार’ का तात्पर्य पाँच हथियारों से है। हिन्दी में ‘हत्यार’ का आशय ‘हत्यारा’ से है और हत्यारी यानी हत्या करने वाली स्त्री।
ऐसे ही बनती है। मराठी में हथियार की 'थ' ध्वनि से 'ह' का लोप होकर 'त' शेष रहा। मध्य वर्ण 'य' चूँकि अन्तस्थ व्यंजन है इसलिए 'त' में निहित 'इ' स्वर य से जुड़ गया और 'त' का बर्ताव अर्धव्यंजन की तरह होने से हथियार का देशी रूप ‘हत्यार’ हुआ। उधर हिन्दी का ‘हत्यार’ दरअसल ‘हत्यारा’ से बन रहा है। इसके मूल में ‘हत्या’ है। जिसका अर्थ किसी के प्राण लेना है। संस्कृत के हत से हत्या का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे वैदिकी में ‘हथ’ शब्द भी है जिसका अर्थ है मारना, जान लेना, धकेलना, वार करना आदि। इस हथ से साबित होता है कि वैदिक संस्कृत में भी हस्त से ‘हथ’ रूप बन चुका था जिसमें हाथ से सम्बन्धित का भाव था। गौर करें हथियार का रिश्ता दरअसल ‘हाथ’ से नज़र आता है। प्राकृत में ‘हत्थ’ शब्द का अर्थ हाथ है। ‘हत्थ’ का संस्कृत या वैदिक रूप ‘हस्त’ है। ये दोनों शब्द हिन्दी के हाथ के पुरखे हैं। हथेली, हथौड़ी, हत्था, हाथी जैसे अनेक शब्दों के मूल में हस्त ही है। ‘हथिया’ में ‘आर’ प्रत्यय लगने से हथियार बना जिसमें ऐसे उपकरण का आशय है जिसे हाथ में पकड़ कर या हाथों से फेंक कर कोई काम किया जाए या किसी पर घात किया जाए। मूलतः हथियार में शस्त्र का भाव है।
थियार हिन्दी का बहुप्रयुक्त शब्द है। शस्त्रास्त्रों के लिए इसका इस्तेमाल आम है। मराठी में इसकी प्रकृति बदल गई और यह ‘हत्यार’ हो गया। हथियार से जुड़े कई मुहावरे प्रचलितहैं जैसे हथियार डालना यानी पराजय स्वीकार करना, हथियार चलाना यानी लड़ाई छेड़ना, हथियार बांधना या हथियार लगाना यानी संघर्ष के लिए सुसज्ज होना। चलताऊ या बाज़ारू हिन्दी में ‘हथियार’ शब्द का प्रयोग पुरुष जननेन्द्रिय के लिए भी होता। हथिया से ही ‘हथियाना’ क्रिया भी बनती है जिसका अर्थ है जबर्दस्ती कब्ज़ा करना, अपने स्वामित्व में लेना आदि।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, March 15, 2013

ऐश-ओ-आराम से ऐषाराम से

cat_sleeping-svg-hi

भी ‘ऐषाराम’ सुना है ? संस्कृत शब्दावली का शब्द लगता है। बौद्ध विहारों के संदर्भ में सुने हुए ‘संघाराम’ जैसा । यह हिन्दी का नहीं बल्कि मराठी का शब्द है और इसका आशय हिन्दी के ऐशो-आराम से है । यूँ हिन्दी का ऐशो-आराम मूलतः फ़ारसी के ‘ऐश-ओ-आराम’ से आ रहा है जिसमें आनंद, विलास या सुखोपभोग का आशय है। मराठी के ऐषाराम में ऐश और आराम है। हिन्दी वाले इसी तर्ज़ पर ऐशाराम सपने में भी नहीं लिखेंगे। ‘ऐश’ अरब का शब्द है और आराम फ़ारसी का। यूँ भारत ईरानी परिवार का होने के नाते आराम संस्कृत, हिन्दी में भी मौजूद है। मज़े की बात देखिए कि अरबी के ‘ऐश’ में शकर वाला ‘श’ है और षट्कोण वाला ‘ष्’ संस्कृत की अपनी खूबी है। इसके बावजूद मराठी ने ऐश औ आराम से ‘ऐषाराम’ यूँ बना लिया कि किसी को इसके विदेशी होने का शक भी न होगा। यूँ माधव ज्यूलियन के मराठी-फ़ारसी कोश में ‘ऐषाराम’ का ‘ऐशाराम’ रूप ही दिया गया है मगर यू.एम.पठाण के मराठी-फ़ारसी कोश में इसका रूप “ऐषाराम’ है।
ज हर कोई ऐश करने की जुगत में लगा हुआ है। बिना काम किए अच्छी गुज़र बसर, यानी ऐश। फ़ारसी ने हमें ‘ऐश’ सिखाया अलबत्ता शब्द फ़ारसी में भी अरबी से दाखिल हुआ। अरबी में इसकी धातु ऐन-या-शीन (ع-ى-ش) है जिसमें सुख के साथ जीना, चैन की गुज़र-बसर या विलासयुक्त जीवन का आशय है और इससे बनी आश क्रिया में रोज़, रोटी, जीवनचर्या जैसे भाव हैं। दिलचस्प बात यह कि किसी ज़माने में ऐश का वह मतलब नहीं था जो आज प्रचलित हो चुका है। अरबी में ऐश का मूल अर्थ था रोटी, रोज़ी, आजीविका, जीवन, किसी के साथ रहना आदि। ऐश के दार्शनिक अर्थ पर विचार करें तो यह सच भी है। इन्सान को हवा-पानी तो ईश्वर ने मुफ्त में दिया। मगर इसके बूते उसकी जिंदगी चलनी मुश्किल थी। उसने तरकीब लगाई। मेहनत की और रोटी बना ली। बस, उसकी ऐश हो गई। हर तरह से वंचित व्यक्ति के लिए सिर्फ रोटी ही जीवन है। रोटी जो अन्न का पर्याय है, अन्न से बनती है। लेकिन बदलते वक्त में ऐश में वे तमाम वस्तुएँ भी शामिल हो गईं जिनमें से सिर्फ रोटी को गायब कर दिया जाए तो उस तथाकथित ऐश से हर कोई तौबा करने लग जाए।
श के मूल आश के साथ अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है मआश जो इसी कड़ी से जुड़ता है। मद्दाह के कोश में मआश का अर्थ है जीविका, रोज़ी, जागीर जो किसी काम के इनामस्वरूप मिले। मआशदार यानी जागीरवाला। मआशी यानी जीविका सम्बन्धी और मआशियात यानी अर्थशास्त्र। मआश की मौजूदगी वाला फ़ारसी का हिन्दी का एक मज़ेदार शब्द हिन्दी में आकर रच-बस गया है- बदमाश। इसमें फारसी के बद उपसर्ग की भी मौजूदगी देखी जा सकती है। इस बद् यानी bad शब्द का अंग्रेजी के bad बैड से अर्थसाम्य का रिश्ता तो है मगर दोनों का जन्म से रिश्ता नहीं है। बद् यानी बुरा, निकृष्ट, अशुभ, खराब, अपवित्र, अमंगल, गिरा हुआ, बिगड़ा हुआ आदि। भाषा विज्ञानियों के मुताबिक बद् शब्द पुरानी फारसी के ‘वत’ से बना है । यह भी सम्भव है कि इसकी व्यत्पत्ति का आधार संस्कृत की ‘पत्’ धातु हो जिसमें नैतिक रूप से गिरना, अधःपतन, नरक में जाना जैसे भाव शामिल हैं। पतित, पातकी, पतन जैसे शब्द भी इससे ही बने हैं। बहुत सम्भव है कि फारसी के बद् की रिश्तेदारी पत् से हो। अरबी के ‘मआश’ का मतलब होता है आजीविका, जीवन, रोज़ी। इस तरह बदमाश का शुद्ध रूप हुआ बदमआश जिसका मतलब है गलत रास्ते पर चलनेवाला, बुरे काम करनेवाला, ग़लत तरीक़ों से रोज़ी कमाने वाला, जिसके जीने का ढंग ग़लत हो। मआशदार का अर्थ अय्याश है।
श से ही बनता है अय्याश (ऐयाश) जिसका अर्थ है विलासिता से रहने वाला, कामुक, लम्पट, ऐश करने वाला। अय्याश के लिए एक और प्रचलित शब्द ऐशबाज भी है। ऐशबाजी, अय्याशी जैसे शब्द आरामतलबी और आडम्बरपूर्ण जीवन शैली के संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं। अय्याश का जिक्र होते ही एक नकारात्मक भाव उभरता है। सुखविलास के सभी साधनों का अनैतिक प्रयोग करनेवाले के को आमतौर पर अय्य़ाश कहा जाता है। मद्दाह साहब के शब्दकोश में तो लोभी, भोगी के साथ व्यभिचारी को भी अय्याश की श्रेणी में रखा गया है। यह अय्याश शब्द भी ऐश की ही कतार में खड़ा है और उसी धातु से निकला है जिसका मूलार्थ जीवन का आधार रोटी थी मगर जिसका अर्थ समृद्धिशाली जीवन हो गया। उर्दू-फारसी-अरबी में लड़कियों का एक नाम होता है आएशा / आयशा ayesha जो इसी कड़ी का शब्द है मगर इसमें सकारात्मक भावों का समावेश है। आयशा का मतलब होता है समृद्धिशाली, सुखी, जीवन से भरपूर। पैगम्बर साहब की छोटी पत्नी का नाम भी हजरत आय़शा था और उन्हें इस्लाम के अनुयायियों की माँ का दर्जा मिला हुआ है।
शो-आराम का दूसरा पद यूँ तो फ़ारसी शब्द है मगर यह इसी अर्थवत्ता अर्थात खुशी, प्रसन्नता या इन्द्रिय आनंद के साथ संस्कृत और हिन्दी में भी है। आराम: मूलत: रम् धातु से बना है जिसमें आराम, अन्त, उपसंहार, बंद करना, स्थिर होना, रुकना, ठहरना जैसे भाव शामिल हैं। इन्द्रियों को शिथिल करने अथवा उनकी क्रियाशीलता को रोकने से शांति उपजती है। यह शांति ही आनंद, उल्लास, प्रसन्नता और तृप्ति का सृजन करती है। आराम शब्द के मूल में यही सब बाते हैं। इसमें ‘वि’ उपसर्ग लगाने से बने विराम शब्द में भी थमना, रुकना, बंद करना, उपसंहार जैसे भाव हैं मगर इसका अर्थ आराम नहीं होता है बल्कि किन्हीं क्रियाओं या स्थितियों के अंत का इसमें संकेत है। आराम को भी विराम दिया जाता है अर्थात विराम दरअसल सक्रियता की भूमिका भी हो सकती है। भगवान राम के नाम का मूल भी यह रम् धातु ही है। राम का अर्थ भी आनंद देने वाला ही होता है। इसके अलावा रमण, रमणीय, रमणी, रमा, राम, संघाराम, रम्य, सुरम्य, मनोरम, रमाकान्त, रमानाथ, रमापति जैसे शब्द भी इसी कड़ी में हैं। अवेस्ता यानी ईरान की प्राचीन भाषा ने आरामः को ज्यों का त्यों अपना लिया। फिर ये आधुनिक फारसी में भी जस का तस रहा। फारसी से ही उर्दू में भी आराम आया। यहां इस शब्द का अर्थ बाग-बगीचा न होकर शुद्ध रूप से विश्राम के अर्थ में है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, March 10, 2013

‘बिलंदर’ की बुलंदी

buland

त्रकार एम. हुसैन ज़ैदी की मुंबई माफ़िया पर लिखी क़िताब डोंगरी टू दुबई मराठी अनुवाद पढ़ते हुए एक नए शब्द से साबका पड़ा- बिलंदर। दाऊद इब्राहिम के अंडरवर्ल्ड में बढ़ते असर के संदर्भ में उसे बिलंदर कहा गया। कुछ कुछ अंदाज़ तो था कि इस बिलंद का हिन्दी-फ़ारसी के बुलंद से रिश्ता होना चाहिए। जिसमें पक्का, परम, कारगुज़ार, कद्दावर, असली जैसी अर्थवत्ता है। फ़ारसी शब्द चोला बदल कर जिस तरह से मराठी भाषा में पैठ गए हैं, वैसा हिन्दी में नहीं है। इस पर विस्तार से कभी लिखेंगे, फ़िलहाल बात बुलंद की। हिन्दी में भी बुलंद का एक रूप बिलंद होता है पर यह क़रीब-क़रीब अप्रचलित है। हिन्दी फ़ारसी में जहाँ बुलंद, बुलंदी में सकारात्मक भाव हैं वहीं वहीं मराठी के बिलंदर में आमतौर पर ठग, लुच्चा, चोर, भामटा या नीच जैसी अर्थवत्ता है। अर्थात बुलंद में निहित तमाम विशेषताएँ निम्न श्रेणी में प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि सकारात्मक प्रयोग भी होता है पर कम है। देखा जाए तो बिलंदर का इस्तेमाल हिन्दी में किया जा सकता है।
हिन्दी-उर्दू के बुलंद, बुलंदी में ऊँचाई, उच्चता का भाव है। बुलंद इरादे, बुलंद हौसला जैसे वाक्याँश की मुहावरेदार अर्थवत्ता से यह ज़ाहिर है। इसके अलावा गुरुतर, भव्य, शीर्ष, उत्तुंग, मुख्य, भारी, प्रमुख, प्रतिष्टित, प्रतापी जैसे आशय भी इसमें हैं। मराठी में बुलंद अल्पप्रचलित है और बिलंद, बिलंदी या बिलंदर जैसे शब्द यहाँ मौजूद हैं। बिलंद रूप हिन्दी में भी है। बिलंदर मराठी का अपना आविष्कार है। फ़ारसी में बिलंदर नहीं है। वहाँ बुलंद ही चलता है। तब भी शुद्धता के नज़रिये से बलंद उच्चार ज़्यादा सही माना जाता है। बुलंद फ़ारसी ज़बान का शब्द है और इसके मूल में जो उच्चता, श्रेष्ठता, परम या खरा असल जैसा भाव है इसका रिश्ता बहुत गहराई से न सिर्फ इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़ता है बल्कि इसकी अर्थछायाएं पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक आधार वाली भाषाओं यानी सुमेरी ( मेसोपोटेमियाई), बाबुली (बेबिलोनियन) और इब्रानी (हिब्रू) में भी नजर आती है।
सुमेरी यानी मेसोपोटेमियाई भाषा में यह शब्द बेल है और हिब्रू में बाल Baal के रूप में मिलता है। बाल शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है जिसमें शीर्षस्थ, प्रकाशमान, ऊपरी, बड़ा, परम शक्तिमान, भव्य, देवता अथवा स्वामी जैसे भाव समाए हैं। हिन्दी, उर्दू व फारसी में भी यह प्रचलित है। बाल में निहित ऊँचाई दूध की ऊपरी परत बालाई में नज़र आती है। हिन्दी में इसे मलाई कहते हैं जो फ़ारसी बालाई से ही बना है। लोगों को रत्ती भर खबर हुए बिना अंजाम दी गई कारगुजारी को बाले बाले (बाला) कहते हैं। यहाँ ऊपर ऊपर मामले को निपटाने का भाव ही प्रमुख है। पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाखाना कहते थे। बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान या कोष्ठ। अग्रेजी की बालकनी में भी ऊँचाई का ही भाव है और बालाख़ाना से बालकनी का ध्वनिसाम्य भी गौरतलब है।
सुमेर और अक्कादी मूल से उठ कर ही बाल शब्द फ़ारसी में भी दाख़िल हुआ। बाला ऐ ताक़ का अर्थ है किसी चीज़ को ऊपर रख देना। बालानशीं का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्तम। मराठी में कही हुई बात, उल्लेख, ज़िक़्र, चर्चा के लिए फ़ारसी के मज़क़ूर शब्द का खूब प्रयोग होता है। उर्दू में मज़क़ूरे-बाला टर्म का प्रयोग ‘उपरोक्त’ यानी ऊपर लिखी हुई बात की तर्ज़ पर किया जाता है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की ‘भ’ ध्वनि फारसी, ईरानी समेत सेमिटिक भाषाओं में जाकर ‘ब’ में बदलती रही है। संस्कृत के भर्ग में भी ऊँचाई का भाव है। इसका फारसी रूप बुर्ज होता है जिसका अर्थ मीनार या ऊंचा गुम्बद है। बुर्ज का huangshan ही यूरोपीय भाषाओं में बर्ग, बरो में रूपांतर होता है। कई स्थान नामों में यह जुड़ा नजर आता है। प्राचीन मनुष्य की शब्दावली और उसकी अर्थवत्ता का विकास प्रकृति के अध्ययन से ही हुआ था।
प्रायः ऊँचाई को इंगित करनेवाले शब्दों का मूलार्थ रोशनी, चमक, दीप्ति था। प्रकाशमान वस्तु के रूप में मनुष्य ने आसमान में चमकते खगोलीय पिण्डों को ही देखा था। पूर्व वैदिक भाषाओं में ‘भा’ ध्वनि में इसीलिए ऊंचाई के साथ चमक, कांति का भाव भी निहित है। संस्कृत के भर्गस् में एक साथ चमक, प्रकाश, भव्यता का भाव निहित है। The Nostratic macrofamily: a study in distant linguistic relationship पुस्तक में एलन बोम्हार्ड, जॉन सी कर्न्स ने विभिन्न भाषा परिवारों में प्रकाश और ऊंचाई संबंधी समानता दर्शानेवाले कई शब्द एक साथ रखे हैं। प्रोटो एफ्रोएशियाटिक भाषा परिवार की धातुओं bal और bel का अर्थ भी यही है और प्रोटो सेमिटिक के bala / bale में भी यही भाव है।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय ध्वनि भा यहां बा में बदल रहा है। गहराई से देखें तो भा ध्वनि में निहित चमक का भाव विभा, विभाकर, भास्कर जैसे शब्दों में साफ है। तमिल-तेलुगू के pala pala में भी कांति, दीप्ति, चमक का भाव है। भा के बा में बदलने की मिसाल वजन के अर्थ में हिन्दी के भार और फारसी के बर या बार (बारदान, बारदाना, बोरी) से भी स्पष्ट है। ध्यान दें, बहुत महीन अर्थ में यहां भी ऊँचाई का भाव है। जिसे ऊपर उठाया जाए, वही भार है। अंग्रेजी के बर्डन में यही बार छुपा हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। रूस की बोल्शेविक क्रांति दुनिया में प्रसिद्ध है। बोल्शेविक का शाब्दिक अर्थ हुआ बहुसंख्यक। मगर इसमें भी बाल यानी सर्वशक्तिमान की महिमा नजर आ रही है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, March 5, 2013

बर्ताव, आचरण और व्यवहार

4Feet

हि न्दी की प्रचलित शब्दावली में ‘बर्ताव’ शब्द का शुमार भी है। व्यवहार, ढंग, आचरण या शैली के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग होता है मसलन- “उनके बर्ताव को सही नहीं कहा जा सकता”। हिन्दी शब्दकोशों में हालाँकि बर्ताव की वर्तनी ‘बरताव’ बताई गई है मगर अब आम चलन बर्ताव का ही है। बर्ताव के मूल में संस्कृत ‘वर्तन’ है जिसमें घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार आदि आशय है। वर्तन के मूल में वैदिक धातु ‘वृत’ है। इसमें भी मूलतः घूमना, फिरना, घेरा, गोल, टिके रहना, होना, दशा या परिस्थिति आदि भाव हैं। ‘वृत’ से बने ‘वृत्त’ में घेरा या गोलाई स्पष्ट है। आचरण, स्वभाव के संदर्भ में ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग भी हम करते हैं जैसे-“वह अच्छी वृत्ति का व्यक्ति है।”। आचरण दरअसल क्या है? इसमें ‘चरण’ है जो चलते हैं। चरण जो करते हैं, वही चलन है अर्थात ‘चाल-चलन’ ही आचरण है।
र्तन में निहित घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार सम्बन्धी जो आशय हैं वे ‘वृत’ में निहित घूमने-फिरने के भाव से जुड़े हैं। व्यक्तित्व घूमने-फिरने से ही बनता है। विचार भी इससे ही बनते हैं और आचरण भी। ध्यान रहे विचार में भी ‘चर’ यानी गति का भाव है। मानसिक विचरण से ही विचार बनते हैं। वर्तन में भी यही सब है। ‘वृत्ति’ का एक अर्थ जीविका भी है और दूसरा अर्थ आचरण भी। जीविका के लिए भी घूमना पड़ता है, गतिशील रहना पड़ता है इसीलिए वृत्ति का एक अर्थ आजीविका है और दूसरा अर्थ आचरण। ‘वर्त’ में घूमने का भाव एक अलग ढंग से यात्रा करता हुआ ‘वर्तिका’ जैसा शब्द बनाता है जिसका अर्थ है दीये की बाती। कपास को जब उंगलियों के ज़रिये घुमाया जाता है, उसका वर्तन किया जाता है तो वर्तिका बनती है। संस्कृत में इसके लिए ‘वर्ती’ या ‘वर्ति’ शब्द भी हैं। हिन्दी में इससे ही ‘बत्ती’ या बाती जैसे शब्दों का निर्माण होता है। कपास के वर्तन से ही धागा बनता है जिसे सूत कहते हैं जिसका मूल सूत्र है। आर्य भाषाओं में व ध्वनि ब में बदलती है। वर्ति > बत्ती होता है। मराठी में वर्तिका > वट्टिका > बट्टिआ > वाट बनता है। ‘वाट लगना’ आज लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है किसी चीज़ को नष्ट कर देना। मूल भाव है जल कर नष्ट होना। दीये की बत्ती जल कर नष्ट ही होती है। दूसरी ओर किसी चीज़ को जलाने के लिए उसे बत्ती छुआई जाती है। हिन्दी में ‘बत्ती देना’ मुहावरा है जिसका अर्थ भी नष्ट करना ही है।
र्तन में गति के साथ साथ स्थिरता या ठहराव भी है। घुमाव, वृत्त गति से वर्तन में भी गति का आशय व्यापक रूप लेता है और इसमें चाल-ढाल, बोल-चाल, हाव-भाव का समावेश होता है। लगातार ‘वर्तन’ के बाद ही कोई विशिष्ट गुण वृत्ति के रूप में स्थिर होता है। वेतन के रूप में वृत्ति में भी यही स्थिरता है। प्रतिदिन, प्रतिमाह या प्रतिवर्ष दिया जाने वाला तयशुदा मेहनताना। वृत्ति में ही व्यवसाय, रोज़गार या पेशा का भाव भी आ गया। रसोई में काम आने वाले पात्र गोल होते हैं। ये बरतन कहलाते हैं। यह भी वर्तन से बना शब्द है। वर्तन में हिन्दी का आव प्रत्यय लगने से बर्ताव शब्द बनता है जिसमें उसी ढंग से आचरण या व्यवहार की अर्थवत्ता स्थापित होती है जिसकी ऊपर व्याख्या की गई है। वर्तन से ‘बरतना’ क्रिया भी बनती है। बरतने का भाव ही दरअसल बर्ताव है। किन्हीं लोगों के किए जाने वाले व्यवहार, किन्ही वस्तुओं के उपयोग के तरीके को बरताव कहते हैं। हमारे हाव-भाव, बोल-चाल और अन्य क्रियाएँ जिनके ज़रिये हम लोक के सम्पर्क में आते हैं, बरताव के दायरे में आती हैं।
चरण शब्द बर्ताव की तुलना में ज्यादा व्यापक है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि आचरण में ‘चलना’ यानी ‘चर’ क्रिया प्रमुख है। आ+चरण यानी चल कर पहुँचना, यह रूढ़ अर्थ हुआ। चरित्र में भी यही ‘चर’ है। परिनिष्ठित भाषा में इसमें निहित ‘चल कर पहुँचना’ वाले भाव का विस्तार किसी काम को करने की शैली में प्रकट होता है। कहना, सुनना, ओढ़ना, पहनना सब कुछ इसमें आता है। ‘चाल चलन’ मुहावरे में आचरण के तमाम भाव हैं। बोल-चाल, हाव-भाव सब कुछ। आचरण या बर्ताव के लिए हिन्दी में ‘व्यवहार’ शब्द का प्रयोग खूब होता है जो आपटे कोश के मुताबिक वि + अव + हृ के मेल से बना है। संस्कृत की ‘हृ’ धातु में ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना, ढोना, निकट लाना, पकड़ना, खिंचाव या आकर्षण, हरण जैसे भाव हैं। संस्कृत-हिन्दी के ‘अव’ उपसर्ग की अनेक अर्थछटाएँ हैं जिनमें एक व्याप्ति भी है। इस तरह ‘वि’ उपसर्ग के अनेक अर्थ आयामों में क्रम, व्यवस्था का समावेश भी है। कुल मिला कर व्यवहार में किसी कार्य को व्यवस्थित करना। बाद में इसमें आचरण, बर्ताव, व्यापार, लेन-देन, कार्यव्यापार, शिष्टाचार जैसे अर्थ भी शामिल हो गए। बर्ताव की तुलना में आचरण और ज्यादा व्यापक है और आचरण की तुलना में व्यवहार का दायरा और भी विशाल है। आचरण और बर्ताव दोनों ही व्यवहार में शामिल हैं मगर व्यवहार में शामिल लेन-देन, व्यापार जैसी अर्थवत्ता इन दोनों शब्दों में नहीं है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, March 1, 2013

असली ‘दारासिंह’ कौन?

darius_relief

मूचे भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दारा’ नाम शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में पूर्णिया तक ‘दारा’ नामधारी लोग मिल जाएँगे जैसे हिन्दुओं में दारा के साथ ‘सिंह’ का प्रत्यय जोड़ कर दारासिंह जैसा प्रभावी नाम बना लिया जाता है वहीं मुस्लिमों में ‘खान’ या ‘अली’ जैसे प्रत्ययों के साथ दाराख़ान या दाराअली जैसे नाम बन जाते हैं। कहते हैं यह ख्यात पहलवान, अभिनेता दारासिंह के नाम का प्रभाव है कि ‘दारा’ नाम के साथ ताक़त जुड़ गई। चलिए मान लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाँचवे-छठे दशक में उनके नाम का वो ज़हूरा था कि वे एक चलती-फिरती किंवदंती बन गए थे। उनका नाम मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा और कहावतें तक चल पड़ीं। सवाल यह है कि वो ‘दारा’ कौन था जिससे प्रभावित होकर दारासिंह के पिता ने अपने बेटे का नाम रखा और इस नाम के मायने क्या हैं ?
ब्दों का सफ़र में अक़्सर इतिहास में गोते लगाने की नौबत आ जाती है। इतिहास में ऐसे क़िरदार या प्रतीक मशहूर हो जाते हैं जिनकी खूबियाँ मनुष्य खुद में देखना चाहता है। नतीजतन वे लोग प्रतीक / संज्ञा-नाम में बदल जाते हैं। लोग अपनी संतानों, नायक-नायिकाओं को उन नामों से बुलाने लगते हैं। ऐसा ज्यादातर पुरुषवाची नामों के साथ ही होता है। उदाहरण कई हैं जैसे राम ( रामदयाल, रामकृपाल, रामनरेश, आयाराम, गयाराम आदि), कृष्ण (रामकृष्ण, हरिकृष्ण, रामकिशन आदि), बहादुर (वीरबहादुर, रामबहादुर), सिंह (रामसिंह, वीरसिंह, बहादुरसिंह) आदि कई नाम हैं। इसी कड़ी में दारा का नाम भी आता है जो ईरान के प्रसिद्ध हखामनी वंश के संस्थापक साइरस प्रथम जितना ही महान, वीर और महत्वाकांक्षी नरेश था। इस राजवंश का चौथा शासक था। दरहक़ीक़त हम जिस दारा की बात कर रहे हैं, वह इतिहास में डेरियस प्रथम के नाम से जाना जाता है। फ़ारस के इतिहास में दो साइरस और तीन डेरियस हुए हैं।
यूँ तो तीनों ही डेरियस वीर, लड़ाके थे मगर इतिहास में दारा के नाम से जो डेरियस प्रसिद्ध हो गया वह चौथा हखामनी शासक डेरियस प्रथम ( 521- 486 ) ही था। इतिहास में फ़ारस के हख़ामनी वंश को ही भारत पर चढ़ाई करने वाला पहला विदेशी वंश माना जाता है। इस वंश के संस्थापक साइरस ने 551-530 के बीच अपना साम्राज्य पेशावर से लेकर ग्रीस तक फैला लिया था। डेरियस का पिता विष्तास्पह्य भी हखामनी राजवंश का क्षत्रप था। समझा जाता है कि उसने साइरस के अधीन भी काम किया था। बहरहाल, डेरियस ने साइरस महान की आन, बान और शान को कायम रखा था इसीलिए उसके जीवनकाल में ही उसे भी डेरियस महान कहा जाने लगा था। हखामनी वंश की राजधानी पर्सेपोलिस के शिलालेखों पर ऐसा ही दर्ज है। पुरातत्व पर्यटन के लिए मशहूर पर्सेपोलिस शहर डेरियस की राजधानी हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि यह शहर उसने ही बसाया था। पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ परशियनों का शहर। ध्यान रहे ईरान का पुराना नाम फ़ारस था जिसके मूल में अवेस्ता का पार्श (संस्कृत का पर्शु) शब्द था। पार्श से ही फ़ारस बना। ग्रीक संदर्भों में इसे पर्शिया कहा गया। ग्रीक भाषा के पोलिस प्रत्यय का अर्थ वही होता है जो हिन्दी में पुर या पुरी का होता है। इस तरह पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ पर्शुपुरी अर्थात पारसिकों की राजधानी हुआ।
प्राचीन फ़ारसवासी अग्निपूजक थे। भारत के पारसी उन्हें के वंशज हैं। इस्लाम की आंधी में उजड़ कर वे भारत आ बसे, फ़ारस के पारसी मुसलमान होते चले गए। दारा का मूल दरअसल डेरियस भी नहीं है। पर्सेपोलिस के शिलालेख के मुताबिक उसका शुद्ध पारसिक उच्चारण दारयवौष है। शिलालेख में दर्ज़ कीलाक्षर लिपि वाले मज़मून का रोमन और देवनागरी उच्चार इस तरह है- Dârayavauš दारयवौष xšâyathiya क्षायथिय vazraka वज्रक xšâyathiya क्षायथिय xšâyâthiânâm क्षायथियानाम xšâyathiya क्षायथिय dahyunâm दह्युनाम Vištâspahya विष्तास्पह्य Haxâmanišiya पुश puça हक्ष्मनिषिय hya ह्य imam इमम taçaram तशराम akunauš अकौनष। इसका अर्थ है- “यह प्रासाद हखामनी वंश के विस्ताष्पह्य के पुत्र और महाराज, राजाधिराज, राज्याधिपति दारयवौष के द्वारा बनवाया गया है”। विद्वानों ने इसे पहलवी का प्राचीन रूप बताया है जो अवेस्ता के क़रीब थी। अवेस्ता को संस्कृत की मौसेरी बहन समझा जाता है।
ह समझना आसान है कि अवेस्ता के दारयवौष का ही ग्रीक रूप डेरियस हुआ होगा। ग्रीक इतिहासकार हेरियोडोटस के उल्लेखों से यही रूप प्रचलित हुआ। इसी तरह वर्णसंकोच के साथ दारयवौष का परवर्ती रूप दारा हुआ। दारयवोष के रूपान्तर की दो दिशाएँ रहीं। दारयवौष > दारयवश >दारयस > दारा (फ़ारसी) > डेरियस (ग्रीक) । पश्चिम की ओर यह डेरियस हुआ जबकि पूर्व की ओर इसका रूपान्तर दारा हुआ। दरअसल का दारा रूप ही अब व्यावहारिक तौर पर प्रचलन में है। ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश आदि में दारा कई नामों में मौजूद है जैसे- दाराबख्त, दाराअली, दाराखान, वीरदारा, दारा शुकोह, दाराप्रसाद, दारानाथ, दारासिंह आदि। दारायवौष की पूर्व में दारा के नाम से प्रसिद्धी की बड़ी वजह उसके पंजाब और सिंध अभियानों की कामयाबी रही। वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर प्रान्त दारा के आधिपत्य में था। पश्चिम में मिस्र, ग्रीस, उत्तर में आमू दरिया और पूर्व में पंजाब-सिंध दारा के साम्राज्य की सीमाएँ थीं। यही उस काल का ज्ञात विश्व भी था।
देखते हैं दारा का, प्रकारान्तर से दारियवौष का अर्थ क्या है, इसका जन्मसूत्र क्या है। आज की फ़ारसी में दारा का दाराब रूप भी मिलता है। भारत-ईरानी भाषाओं के अध्येता क्रिश्चियन बार्थोलोमिए ने (1855-1925) ने दारयवौष को अवेस्ता का शब्द माना है और इसे जरथ्रुस्ती शब्दावली में स्थान दिया है। इसका अर्थ है धारण करने वाला। राज्य को धारण करना, प्रजा को धारण करना, शासन को धारण करना, नायकोचित गुणों को धारण करना और सद्गुणों को धारण करना इसमें निहित है। दारियवौष के मूल में प्रोटो भारोपीय धातु dher है। भाषाविद् जूलियस पकोर्नी इसका रिश्ता वैदिक धातु धर् से जोड़ते हैं। धर् में उठाने, सम्भालने, देखभाल करने, अंगीकार करने जैसे भाव है। धारण करने में ये सारे भाव निहित हैं। धर् से संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं। पृथ्वी को धारिणी कहा जाता है। धरती में यही धर है। आधार यानी टिकाव, पड़ाव, फाऊंडेशन में भी यही ‘धर’ है जिसमें स्थिरता है। डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्’ के एक रूप ‘स्थर’ की कल्पना करते हैं। संस्कृत ‘दारु’, ‘द्रुम’, ‘तरु’, ग्रीक ‘द्रुस’, अंग्रेजी के ‘ट्री’ में दरअसल धर् के रूपान्तर ‘दर्’ और ‘तर्’ हैं । यह भी दिलचस्प है की ‘धर’ में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । दारयवौष् से बने दारा का अर्थ हिन्दी फ़ारसी में सर्वशक्तिमान, भगवान, राजा, पालक आदि है।
स्पष्ट है कि ताक़त, वीरता आदि के पर्याय के रूप में दारा नाम डेरियस अर्थात दारयवौष् से आ रहा है। इसका प्रचार अनेक देशों में हुआ। नायकोचित नामकरण की अभिलाषा में अनेक दारा सामने आए मगर भारत में तो पंजाब के दारासिंह की ख्याति ने डेरियस द ग्रेट को भी पछाड़ दिया।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, February 25, 2013

क़िस्सा दक़ियानूस का

decius1

दु नियाभर में प्रचलित मुहावरों-कहावतों में शासकों या प्रभावशाली लोगों का अत्याचारी, सनकी चरित्र भी झलकता है। ऐसे क़िरदारों में रावण, कंस, नीरो या तुग़लक जैसे नाम स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कुछ नामों के पीछे न तो कहानी नज़र आती है न ही क़िस्सा। ऐसा ही एक नाम है दक़ियानूस जो सिर्फ़ एक संज्ञा भर नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध रोमन सम्राट था। आज के तुर्की और प्राचीन अनातोलिया का इफ़ेसस शहर इसके राज्य में शामिल था। अंधविश्वासी या पुरानी सोच वाले व्यक्ति को दक़ियानूस कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में यह शब्द खूब प्रचलित है। इसी तरह दकियानूसी शब्द के तहत पुरानी सोच वाला, रूढ़ीवादी और अधिक उम्र वाला, कोई बेकार, पुरानी और मनहूस चीज़ या पुरातनपंथी विचारधारा आती है। मसलन दक़ियानूसी लोग, दक़ियानूसी बातें, दक़ियानूसी चीज़े। अरबी-फ़ारसी में दक़ियानूस शब्द का सही रूप दक़्यानूस है।
हिन्दी-फ़ारसी के कोशों में अव्वल तो दक़ियानूस के संदर्भ में ज्यादा जानकारियाँ नहीं मिलतीं। कुछ कोशों में तो इसका संदर्भ बतौर रोमन शासक भी नहीं मिलता और कहीं पर उसके अत्याचारी सम्राट होने जितनी ही संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ग्रीक संदर्भों में दकियानूस का उल्लेख बतौर देसियस मिलता है। पश्चिम एशिया के समाज-संस्कृति पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों की गहरी छाप पड़ी है। ईसाइयत पर यहूदी धर्म का असर और इस्लाम पर अपने पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई चिन्तन का असर नज़र आता है। बाईबल के गोस्पेल और कुरान के सूरों (सुरह) की अनेक कथाओं में समानता से यह साबित भी होता है। बाइबल और कुरान दोनों में ही थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ देसियस या दक़्यानूस के बारे में लगभग एक जैसी ही कहानी है।
सा के जन्म के वक़्त पश्चिम एशिया और समूचे यूरोप में मूर्तिपूजा का ही बोलबाला था। ईसा के बाद भी रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा का चलन था। किन्हीं संदर्भों में इतिहास प्रसिद्ध इस निरंकुश सम्राट को 359 ईपू. का बताया गया है मगर यह भ्रामक है। दक्यानूस यानी देसियस का काल ईसा के क़रीब ढाई सदी बाद का है। रोमन साम्राज्य में शासकों की मूर्तिपूजा सम्बन्धी सनक, अत्याचार और उत्पीड़न का इतिहास ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद सातवीं आठवीं सदी तक भी जारी रहा रहा। देसियस या दक़्यानूस का रिश्ता अनातोलिया से जोड़ा जाता है और माना जाता है कि तुर्की के प्रसिद्ध तारसस और इफ़ेसस शहरों पर उसका शासन था। ईसाई धर्म के महान प्रचारक सेंट पॉल का जन्म तारसस में ही हुआ था। माना जाता है कि कि तारसस का नाम तार्कु के आधार पर पड़ा है जो हित्ती भाषा का शब्द है। इस इलाके में बसने वाले आदिजन हिट्टाइट ही थे। तार्कु एक देवता था जिसकी पूजा हित्तीजन करते थे। वैसे अधिकांश संदर्भो में इफ़ेसस से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह वही इफ़ेसस है जहाँ का आर्टेमिस का मंदिर सात अजूबों में गिना जाता है। अरब-फ़ारसी संदर्भों में इफ़ेसस को अफ़सूस कहा जाता है।
देसियस मूर्तिपूजा में विश्वास रखता था। उसका शासन बड़ा सख़्त और पूजा-विधान के आधार पर चलता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव की वजह से रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा के लिए आग्रह ज्यादा बढ़ा-चढ़ा था। देसियस का नज़रिया इस सिलसिले में ज्यादा सख़्त था। पूरे राज्य में उसके जासूस फैले हुए थे जो राई-रत्ती की खबरें देते थे। मूर्तिपूजा के विरोधियों को देसियस बर्दाश्त नहीं करता था। ईश्वर एक है और अदेखा है जैसी बातों पर यक़ीन करने वालों को वह आनन-फ़ानन में सज़ाए मौत सुना देता था जिसके तहत दोषियों को ज़िंदा जलाने, ज़मीन में गाड़ देने, हाथ-पैर काट कर पशुओं का ग्रास बनाने जैसे अमानवीय तरीके  शामिल थे। बहरहाल, बाइबल में वर्णित कथा के अनुसार इफ़ेसस के सात युवा लोगों ने शहर की देवी के मंदिर में सिर झुकाने से इनकार कर दिया। किन्हीं संदर्भों में यह घटना 156ईस्वी की भी बताई गई है। देसियस के कोप से बचने के लिए उन्होंने शहर के बाहर पहाड़ी गुफा में शरण ली। थके हारे सातों लोग गुफ़ा में जाते ही नींद के आग़ोश में चले गए। उधर देसियस को जब ख़बर लगी तो उसने गुफ़ा का दरवाज़ा चट्टानों से बंद करवा दिया ताकि वे अंदर ही मर-खप जाएँ। गोस्पेल के मुताबिक ये लोग दो सदियों तक सोते रहे। इसके आगे क्या हुआ ये जानने से पहले इस कहानी के इस्लामी संस्करण का जायज़ा लिया जाए।
गोस्पेल की तरह कुरान के अध्यायों को सूरा (सुरह) कहा जाता है। गुफ़ा में सोए लोगों की कहानी कुरान के सूरह-कह्फ़ (18वाँ अध्याय) में आती है। कहानी के मुताबिक अफ़सूस शहर (ग्रीक इफ़ेसस) में सात लोगों का एक समूह था जो ईसाइयत में भरोसा रखते थे। दक्यानूस के कहर से बचने के लिए उन्होंने गुफ़ा में शरण ली, जिसका दरवाज़ा उसके ही हुक्म से बंद करा दिया गया। इस्लामी संदर्भों में इन सात लोगों को अस्हाबे-कह्फ़ कहा गया है। अस्हब का अर्थ होता है पैग़म्बर के कृपापात्र, मोहम्मद के दोस्त। मूलतः अस्हब, साहिब का बहुवचन है जिसका अर्थ है साहिबान, मान्यवर आदि। इसी तरह कह्फ़ का अर्थ होता है गुफ़ा, कंदरा, गार आदि। कह्फ़ अरबी का शब्द है लेकिन, गुहा, गुफा, कोह, खोह जैसे इंडो-ईरानी परिवार के शब्दों से इसकी साम्यता गौरतलब है।
गोस्पेल के मुताबिक क़रीब दो सौ साल ये लोग सोते रहे जबकि सूरह् के मुताबिक इनकी नींद 309 साल बाद टूटी। जो भी हो, नींद टूटने पर इनमें से कुछ लोग भोजन की तलाश में पास की बस्ती तक पहुँचे। उन्होंने कुछ रोटियाँ खरीदी। जब नानबाई को इन्होंने कुछ सिक्के दिए तो वह हैरत में पड़ गया। सिक्के उसके लिए अनजाने थे। धीरे-धीरे ये बात पूरे बाज़ार में फैल गई कि कुछ अनोखे लोग वहाँ आए हैं। जानकारों ने देख-परख कर पहचाना कि इन सिक्कों पर दक़्यानूस नाम के राजा की तस्वीर छपी है जो क़रीब तीन सदी पहले हुआ था और बेहद ज़ालिम था। नींद से जागने वालों के लिए अब हैरत में पड़ने की बारी थी। उन्होंने बताया कि बेशक दक़्यानूस ज़ुल्मी है और उससे बचने के लिए ही तो वे कल शहर छोड़ कर भागे थे। वो तो झपकी लग गई और वे नींद में ग़ाफ़िल हो गए। तीन सदी लम्बी नींद उनके लिए ही नहीं, सबके लिए बड़ी ख़बर थी। फिर यह हुआ कि वे सातों लोग वहीं रहने लगे। उनकी यही चाहत थी कि जिस काल की गुफा में सदियों तक सोते हुए उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई है, उनकी उम्र पूरी होने के बाद वे हमेशा के लिए भी उसी गुफा में सोएँ। शहरवासियों ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की। बाद के दौर में आम लोगों में भी यह धारणा बनी कि उस गुफा में दफ़नाए जाने पर उन्हें मोक्ष मिलेगा।  पुरातत्ववेत्ताओं को एशिया व यूरोप में तुर्की, जॉर्डन से लेकर चीन के उईगुर प्रान्त तक में ऐसी गुफाएँ मिली हैं जिन्हें स्थानीय लोग अस्हाबे-कह्फ कहते हैं। इन सभी स्थानों पर कब्रें हैं। 
क़िस्सा-कोताह यह कि इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्मों में इस कहानी का प्रयोग अपने अपने पैग़म्बर की महानता स्थापित करने में किया। लोगों को यह पता चला कि कुल मिला कर एकेश्वरवाद ही सही रास्ता है। ईश्वर एक है और उन्होंने ही ज़ालिम के कहर से बचाने के लिए अपने सात नेक बंदों को सदियों तक सुलाए रखा। कहानी जो भी कहती हो, धर्मों की बात धर्मोपदेशक जानें, शब्दों के सफ़र में हमें तो दक़ियानूस लफ़्ज का सफ़र जानना था, जो जान लिया। अल्लाह के उन सात नेक बंदों का नाम आज कोई नहीं जानता। हाँ, जुल्मी दक़ियानूस को हम क़रीब क़रीब रोज़ ही याद कर लेते हैं।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, February 14, 2013

अगर, मगर, वरना, लेकिन…

question

ल्पना करें कि किसी सुबह आपको ये फ़रमान सुनने को मिले कि दिनभर आप जो भी बोलेंगे, उसमें ‘अगर’, ‘मगर’, ‘वरना’ या ‘लेकिन’ का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या इसे मंजूर कर लेंगे? व्यक्तिगत रूप से मैं इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर पाऊंगा। यह नामुमकिन है। ये जानकर भी ताज्जुब हो सकता है कि ‘अगर’, ‘मगर’, ‘लेकिन’ या ‘वरना’ हिन्दी के अपने नहीं बल्कि फ़ारसी से आयातित अव्यय हैं। यही नहीं, ‘मगर’ तो फ़ारसी-अरबी का संकर है। इन शब्दों के आसान हिन्दी पर्याय यदि, किन्तु, परन्तु, अन्यथा हैं पर इनका प्रयोग अगर’, ‘मगर’ या ‘वरना’ की तुलना में काफ़ी कम है। आप जब ये चुनौती स्वीकार करेंगे, तब इसकी आज़माइश भी हो जाएगी।
बसे पहले बात करते हैं ‘अगर’ की। बोलचाल में अगर बेहद लोकप्रिय अव्यय है इसका पर्याय यदि है जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली से आता है। ‘अगर’ की व्युत्पत्ति के बारे में उर्दू-फ़ारसी के शब्दकोश ज्यादा जानकारी नहीं देते हैं। अली नूराई के फ़ारसी-अंग्रेजी व भारोपीय भाषाओं के व्युत्पत्ति कोश में ईरान के भाषाविद् एम.एच. तबरिज़ी और जर्मन भाषाविद पॉल होर्न के हवाले से ‘अगर’ की व्युत्पत्ति का रिश्ता अवेस्ता के ‘हाकरत’ से जुड़ता नज़र आता है। गहराई में जाने पर पता चलता है कि ‘हाकरत’ का ‘हा’ अवेस्ता के ‘हम’ (सर्व) और ‘करत’ ‘कर्त’ [काट(ना), धार(ना)] से आ रहा है। जोसेफ़ एच पीटरसन की “डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स” के मुताबिक इसमें एक बार या कभी-कभी का भाव है।
हरहाल, जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक ‘यदि’ के अर्थ वाले अगर में अरबी का ‘मा’ उपसर्ग (मा+अगर) लगने से मगर बनता है। अरबी के ‘मा’ उपसर्ग में ‘ना’ की अर्थवत्ता है। इस मगर में लेकिन, किन्तु, परन्त की अर्थवत्ता है। फ़ारसी का मुहावरा “अगर-मगर” करना हिन्दी में भी लोकप्रिय है। इसी तरह “किन्तु-परन्तु” में भी वही भाव है। हील-हवाला, टालमटोल, आनाकानी या मामले को लटकाने का आशय यहाँ उभरता है। अगर और मगर में जड़ता, यथास्थितिवादिता उजागर होती है।नूराई के कोश की एक अन्य प्रविष्टि में ‘अगर’ का अर्थ ‘IF’ यानी ‘यदि’ या ‘अगर’ बताया गया है किन्तु उसके आगे ‘cut once’ भी लिखा है।अवेस्ता में ‘अक’ (ak) भी है जिसमें अक्ष, धुरी का भाव है। ‘कभी कभी’ के मद्देनज़र यदि पर गौर करे तो लगता है कि यदि में निश्चयात्मकता नहीं है। परिस्थिति प्रमुख है। अक्ष के एक पलड़े पर ‘अगर’ है और दूसरे पर ‘मगर’ है। ‘अक’ या ‘हकरत’ में ही ‘अगर’ के बीज छुपे हैं। ‘ह’ ध्वनि का लोप होकर सिर्फ़ ‘अ’ स्वर बच रहा है और ‘क’ रूपान्तर ‘ग’ में हो रहा है। अन्तिम ‘त’ भी लुप्त हो रहा है।
न्यथा की अर्थवत्ता वाला ‘वरना’ भी हिन्दी में खूब चलता है। ‘वरना’ में ‘नहीं तो फिर’ या ‘और नहीं तो’ की अर्थवत्ता है। उर्दू-फ़ारसी में इसका ‘वगरना’ रूप देखने को मिलता है। क़तील शिफ़ाई साहब का एक शेर है- “चलो अच्छा हुआ, काम आ गई दीवानगी अपनी / वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते”। वरना के बीच में इस ‘ग’ के वजूद के क्या मायने हैं? दरअसल ‘वरना’ के मूल में भी ‘अगर’ छिपा है। जॉन प्लैट्स के कोश के मुताबिक वरना एक वाक्याँश है “वा अगर ना”। इसका संक्षेप हुआ वगरना। उर्दू हिन्दी में यह ‘वरना’ रह गया। इसकी एक और वर्तनी है वर्ना जिसमें सिर्फ़ ढाई आखर रह जाते हैं “वा अगर ना” में जो ‘वा’ है वह अवेस्ता के अप से आ रहा है जिसमें पुनः, फिर, पार्श्व, परे, दूर जैसे भाव हैं। अगर का एक अन्य संक्षेपरूप है ‘गर’। “गर ऐसा हो जाए”, “गर वैसा हो जाए” जैसे वाक्य भी हिन्दी में चलते हैं। “वा अगर ना” का एक रूप “वा गर ना” भी हो सकता है जिससे ‘वगरना बना होगा।गर्चे या अगर्चे जैसे रूपों में ‘यद्यपि’ का भाव है।
हिन्दी में किन्तु, परन्तु के आशय वाला ‘लेकिन’ शब्द भी खूब चलता है यूँ कहें कि ‘लेकिन’ के बिना तो काम चलना ही मुश्किल है। कोशों के मुतबिक लेकिन शब्द अरबी के ‘लाकिन’ से आ रहा है जिसका अर्थ यदि, किन्तु, परन्तु जैसा ही है । सेमिटिक भाषाओं के ख्यात विशेषज्ञ मायर मोशे ब्रॉमन (1909-1977) अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में सम्भावना जताते हैं कि लाकिन के मूल में प्रोटो अरेबिक रूप ‘इल्ला-कान’ है । इल्ला दरअसल ‘ला’ का मूल रूप है जिसमें यदि, सिवाय, परन्तु जैसे भाव हैं । ‘कान’ सहायक क्रिया है । इस तरह इल्ला-कान का रूपान्तर ही लाकिन हुआ जो फ़ारसी (लाकेन) होते हुए हिन्दी का ‘लेकिन’ बना ।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, February 9, 2013

होशियारी की बातें

ganesha

हि न्दी के प्रचलित शब्द भंडार में होशियार, होशियारी जैसे शब्द भी हैं जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में खूब होता है । होशियार शब्द दरअसल फ़ारसी मूल से भारतीय भाषाओं में दाख़िल हुआ है जिसका प्रयोग बतौर विशेषण सजग और बुद्धिमान के अर्थ में किया जाता है । चतुर, निपुण, कुशल, सावधान, समझदार और दक्ष की व्यंजना भी इसमें निहित है । होशियारी एक संज्ञा है और इसकी अर्थवत्ता में होशियार के सभी गुण शामिल हैं । हिन्दी में होशियार के होश्यार, हुशियार, होश्यार, हुस्यार, होशयार जैसे रूप प्रचलित हैं । मराठी में इसे हुशार कहा जाता है ।
होशियार या होशियारी के मूल में फ़ारसी का होश है जो इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । जोसेफ़ एच पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स में उषी शब्द है । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका पहलवी रूप हुश या होश है जबकि डी.एन.मैकेन्जी की पहलवी डिक्शनरी के मुताबिक अवेस्ता उशी का पहलवी रूप ओश होता है जिसका एक अर्थ है ज्ञान, बोध, दूसरा अर्थ है मृत्यु और तीसरा अर्थ है उदय, प्रभात, सवेरा आदि । भाषाविज्ञानी एकमत है कि उशी, ओश जैसे शब्द वैदिक भाषा के उषः, उषा जैसे शब्दों के समरूप हैं जिसमें प्रभात, उदय या सवेरा का भाव है । वैदिक उष् धातु में ताप, तपाना जैसे भाव भी हैं । पहलवी ओश में पूर्व दिशा का भाव भी है । सूर्योदय के साथ ही ताप का एक नाम उष्मा भी है । उष्मा के मूल में भी यही उष् है । उष्मा से प्रकाश निकलता है । प्रकृति में उष्मा और प्रकाश का आदिप्रतीक सूर्य ही है जो पूर्व दिशा से उगता है । यही सारे संकेत वैदिक उष और पहलवी ओश में हैं ।
फ़ारसी में आकर ओश का रूपान्तर होश होता है और इसमें ज्ञान, बोध जैसे भाव स्थायी हो जाते हैं तथा सूर्योदय, प्रभात जैसे भाव इसमें से विलीन हो जाते हैं । पहलवी में सतर्क, जागरुक, सचेत के लिए ओशयार (osyar) शब्द है । इसका अगला रूप फ़ारसी का होशयार है । हिन्दी-उर्दू में यह होशियार बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह के कोश में होश का अर्थ बुद्धि, समझ, अक़्ल, चेतना, संज्ञा, ख़बरदारी, विवेक, तमीज़ और नशे में उतार की अवस्था जैसे अर्थ बताए गए हैं । होशयार शब्द में जो यार है वह भी इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । यार शब्द का अर्थ है मित्र, दोस्त, बंधु, सखा, साथी आदि। यार शब्द की अर्थवत्ता में प्रेमी, आशिक , माशूक भी समाए हैं। इसके अलावा यह शब्द मददगार, सहायक का भाव भी रखता है। जॉन प्लैट्स के उर्दू इंग्लिश हिन्दुस्तानी कोश के मुताबिक यार शब्द की संभावित व्युत्पत्ति जारः से बताई गई है। संस्कृत के जारः शब्द में मूलतः प्रेमी, आशिक, उपपति का भाव है। किसी स्त्री के आशिक के अर्थ में जारः शब्द की अर्थवत्ता फारसी के यार में भी कायम है । यार शब्द बाद में सामान्य मित्र के अर्थ में समाज में रूढ़ हुआ । फ़ारसी का बे उपसर्ग लग कर बेहोश शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसमें चेतना न हो, अचेत ।
होशयार का अर्थ है जिसकी अक्ल से दोस्ती हो । अक़्ल का दुश्मन मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है । ऐसे व्यक्ति के लिए उर्दू में होशबाख़्त शब्द है । इसके अलावा होशमंद, होशमंदी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं । होशरुबा शब्द का अर्थ है चेतना हर लेने वाला, होश उड़ा देने वाला । हिन्दी में होशो-हवास पद भी खूब प्रचलित है । यह संकर पद है अर्थात होश फ़ारसी से आया है और हवास अरबी से । हवास शब्द अरबी धातु हा-सीन-सीन से बना है (ح س س ) जिसमें स्पर्श, संवेदना या समझ का भाव है । इससे बने हास्सः का अर्थ होता है इन्द्रियाँ जो स्पर्श, संवेदना की वाहक हैं । हास्सः का बहुवचन है हवास । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका अर्थ है इन्द्रियाँ, संवेदना, चेतना, संज्ञा, होश आदि । ज़ाहिर है होश-हवास में वही भाव है जो हिन्दी के सुध-बुध में है । सुधि और बोध दोनो जहाँ स्थित हो वही होश-हवास की स्थिति है ।
होश से जुड़े अनेक मुहावरे व कहावतें हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे होश उड़ना, होश गुम होना या होश फ़ाख़्ता होना । इन सभी में भय, आशंका, चिन्ता या फ़िक़्र से सुध-बुध खोने या डर जाने की अभिव्यक्ति होती है । होश आना यानी ग़लती सुधार लेना, समझदार हो जाना आदि । होश दंग होना यानी चकित रह जाना । होश ठिकाने आना अर्थात सबक मिलना, बुद्धि जाग्रत होना, अधीरता या व्याकुलता मिटना, होश की दवा करना यानी अक्ल हासिल करना, समझदारी पाना आदि ।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, February 4, 2013

“हिन्दी सराय” से गुज़रते हुए

स बार पेश है डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल की ताज़ा पुस्तक "हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान" की चर्चा । पुस्तक सोलहवीं-सत्रहवी सदी के उन भारतीय व्यापारियों की जड़ों की तलाश के बहाने से समूची भारतीय / हिन्दू संस्कृति की वैश्विक धरातल पर विद्वत्तापूर्ण पड़ताल करती है जो भारत से रूस के अस्त्राखान जा बसे थे।
Book logo

क़रीब दो साल पहले की बात है । अगस्त महिने की 21-22 तारीख़ की दरमियानी रात डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को फ़ैसबुक पर मैसेज किया कि 11 सितम्बर 2011 को मै दिल्ली पहुँच रहा हूँ, क्या मुलाक़ात मुमकिन है ? 22 अगस्त की खुशनुमा सुबह । सात बजे डॉक्टसाब के फोन से ही नींद खुली । पता चला कि वे तो उन दिनों दिल्ली से बहुत दूर येरेवान-अस्त्राख़ान में होंगे ।
paggBपुरुषोत्तम अग्रवाल भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्येता हैं । जेएनयूँ में सत्रह बरस पढ़ाने के बाद इन दिनों संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं।
मध्यएशिया के इन दो शहरों का नाम सुनते ही रोमांचित हो उठा । पुलक के साथ डॉक्टसाब से अनुरोध किया कि वे यात्रावृतान्त ज़रूर लिखें और तस्वीरें भी लें । डॉक्टसाब ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा था-“ कोशिश पूरी होगी बंधु, अगर सब कुछ ठीक रहा तो क्योंकि वक़्त बहुत कम है ।” सात-आठ दिन का दौरा कर डॉक्टसाब लौट आए पर उनकी यात्रा तब तक अधूरी रहनी थी जब तक उनकी खोज-यात्रा के अनुभव जिल्द में बंध नहीं जाते । खुशी की बात है कि क़रीब एक साल के भीतर डॉक्टसाब ने येरेवान-अस्त्राख़ान यात्रा-वृत्तान्त पूरा कर लिया और बीते नवम्बर माह में उसका धूमधाम से लोकार्पण भी हो गया । हिन्दी जगत में आज इस क़िताब की खूब चर्चा है । ये सिर्फ़ यात्रावृत्तान्त नहीं बल्कि सांस्कृतिक अध्ययन है । एक संस्कृतिकर्मी के द्वारा वोल्गा और गंगा के बीच की दूरी को पाटने वाले उन पदचिह्नों की तलाश का आख्यान है जो सदियों से इस विशाल भूक्षेत्र में उभरते रहे ।
ब्दों का सफ़र करते हुए अपन बरसों से भूमध्य सागर समेत एशिया के मध्य, पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों का मानचित्र पर्यटन करते रहे हैं । हिन्दी-उर्दू समेत इस मुल्क़ की तमाम बोलियों में पूरा संसार नुमांया होता है । मग़रिब में छुपा मोरक्कों, ब्रुनेई में छुपा वरुण अगर सामान्यतौर पर नज़र नहीं आता तो यह भी कहाँ पता चलता है कि खजानेवाला कारूँ तुर्की का सनकी क्रोशस था और जिस शाबाशी की थपकी पीठ पर महसूस होती है उस शाबाश का रिश्ता फ़ारस की खाड़ी में स्थित बंदरअब्बास के संस्थापक शाहअब्बास से भी हो सकता है । शब्दों का सफ़र करते हुए ही इन तमाम इलाक़ों से परिचय होता गया ।  बृहत्तर भारतीयता का सांस्कृतिक परागण पूरी दुनिया में सदियों से होता रहा है । चाहे पूर्व में कम्बोडिया जैसा देश हो जहाँ अवध के अयोध्या की छाया अयुथाया में नज़र आती है या फिर सुदूर पश्चिमोत्तर का पेशावर हो जिसका नाम कनिष्क के ज़माने में पुरुषपुर था । बहरहाल, डॉक्टसाब ने अपनी किताब का नाम प्रतीकात्मक रखा है- हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान । हिन्दी में एक तो वैसे ही सफ़रनामे कम लिखे जाते हैं । ऐसा नहीं कि हिन्दी वाले यात्रा नहीं करते मगर उस दृष्टि का क्या कीजे जो एक सच्चे लेखक के मन में होती है । लेखक अपने दौर का कालयात्री होता है । उसकी लिखी एक एक इबारत अपने समय की सच्चाई होती है । अपनी कल्पना से वह ऐसे अनेक पुलों का सृजन करता है जिससे समाज को विभिन्न समयावधियों के बीच से गुज़रने का मौका सुलभ होता है ।
स्त्राख़ान की जो यात्रा वाया येरेवान दिल्ली से शुरू हुई उसका बीज तो लेखक की चर्चित कृति “अकथ कहानी प्रेम की” की सृजनयात्रा के दौरान ही पड़ गया था । इसका ज़िक़्र लेखक ने अनेक स्थानों पर किया भी है । अस्त्राख़ान से अपना परिचय भी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान पर भोलानाथ तिवारी के विद्वत्तापूर्ण लेखन के ज़रिये हुआ था । उन्होंने हिन्दी में समाए विदेशज मूल के अनेक शब्दों की पड़ताल की थी इसके लिए उन्होंने मध्यएशिया के अनेक देशों की यात्रा भी की । डॉ अग्रवाल की यह यात्रा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है । सदियों पहले दक्षिणी रूस में वोल्गा के मुहाने पर बसा अस्त्राखान मध्यएशिया का बड़ा व्यापारिक केन्द्र था । हिन्दुस्तान के सिंध, मारवाड़ और पंजाब से कई व्यापारी वहाँ जाकर बसते रहे थे जो मूलतः वैष्णवपंथी थे । ऐसे समाज में जहाँ व्यापार के लिए सात समंदर पार करना निषिद्ध हो, ये कौन वैष्णव व्यापारी थे जिन्होंने सुदूर रूस के अस्त्राखान शहर को अपने पुरुषार्थ और व्यवसाय बुद्धि का अखाड़ा बनाने की सोची ? लेखक ने इस संदर्भ में विद्वत्तापूर्वक स्थापित किया है कि दूर-देशों की यात्रा करना भारतीयों का स्वभाव रहा है । पश्चिम की ओर जो व्यापारी जत्थे गए दरअसल वे रामानुज सम्प्रदाय से अलग हुए रामानंदी वैष्णव थे जिन्होंने रूढ़ धार्मिक मान्यताओँ के आगे अपने पुरुषार्थ और आस्था का ऐसा सन्तुलन बनाया जिसने भारत-रूस व्यापार का एक नया रास्ता खोल दिया ।
स्त्राख़ान बरास्ता येरेवान यह सफ़र लेखक के लिए एक तीर्थयात्रा जैसा था । पुरखों की खोज में की गई एक यात्रा जिसका मक़सद था अपनी जड़ों की तलाश । प्राचीनकाल से ही समूची दुनिया में जितने भी फेरबदल, उथल-पुथल और सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव आए हैं उनमें कारोबारी गतिविधियों की भूमिका ख़ास रही है । सौदागरों के ज़रिये ही न सिर्फ जिन्सों और माल-असबाब का कारोबार हुआ बल्कि उससे कई गुना ज्यादा और स्थायी व्यापार हुआ शब्दों, भाषाओं हिन्दी सरायऔर रिवायतों का । सदियों पहले भारत से अस्त्राखान जा बसे व्यापारी समुदाय के बारे में इतिहासकारों की दिलचस्पी कभी क्यों नहीं जागी, लेखक को यह सवाल लगातार मथता रहता है । इसके कारणों का चिन्तन-पक्ष भी बड़ी प्रमुखता से किताब में उभर कर आया है । तथ्यों को दर्ज़ करने की हमारी उदासीनता एक तरह से भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । हमें अपने अतीत के गौरवगान में इतना आनंद आता है कि क्या कहें । शायद इसीलिए हम वास्तविक तथ्यों को अगली पीढ़ियों के लिए संजो कर, उनका दस्तावेजीकरण करने में कोताह हैं । सुविधानुसार अपने सुनहरे अतीत के पन्नों को जब चाहें और चमकीला बना कर नयी पीढ़ी के सामने रख देते हैं । अतीत के विवरणों को दर्ज़ न करने की भारतीयों की विशिष्ट प्रवृत्ति के बारे में ‘हिन्दी सराय’ में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं, “...किसी घटना या अनुभव को ...लिखित दस्तावेज का रूप देने में हिन्दुओं की रुचि क्यों नहीं थी ? क्या इसलिए कि हिन्दू चित्त को, किसी सामाजिक अनुभव की स्मृति से जो सीखने योग्य है, उसे मौखिक परम्परा के जरिये अगली पीढ़ी के संस्कारों तक पहुँचा देना ज्यादा सुहाता था ...”
डॉक्टसाब की बात में काफ़ी हद तक सच्चाई है । अस्त्राख़ान के सैकड़ों गुमनाम भारतीय व्यापारियों के बारे में उनकी गहन पड़ताल के सारथी बने मास्कों में रहने वाले हिन्दी कवि अनिल जनविजय, जिन्होंने लेखक के लिए अस्त्राखान के अभिलेखागार में रूसी भाषा में दर्ज़ अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों का हिन्दी अनुवाद कर बेशक़ीमती मदद की । डॉक्टसाब ने किताब में अनेक स्थानों पर इस यात्रा में अनिलजी की महती भूमिका को याद किया है । अस्त्राखान के भारतीय व्यापारियों की खोज यात्रा के सम्बन्ध में मैं ज्यादा नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि उनके बारे में जो भी जानकारियाँ हैं वे पहले ही बहुत कम हैं । डॉक्टसाब ने हर उपलब्ध जानकारी का बेहद रचनात्मक प्रयोग कर लिया है इसलिए चाहूँगा कि सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के इन व्यापारियों चाहे वो मशहूर मारवाड़ी बारायेव हो या टेकचंद लालायेव अथवा बगारी आलमचंदोफ़, इनके बारे में जानने के लिए आपको क़िताब खऱीद कर पढ़नी होगी । अगर अपने इस बयान-हाल में उनके बारे में ज़रा सा भी लिखा तो पढ़ने का मज़ा जाता रहेगा । यहाँ मैं क़िताब की दूसरी खूबियों के बारे में भी कुछ कहना चाहूँगा । भूमिका ने डॉक्टसाब ने इस किताब को ट्रैवेलॉग के साथ थॉटलॉग की संज्ञा भी दी है । व्यक्तिगत तौर पर मुझे ‘हिन्दी सराय’ के ट्रैवेलॉग वाले स्वरूप से थॉटलॉग वाले रूप ने ज्यादा मुतासिर किया । किताब के पहले सर्ग यानी बयान येरेवान में उन्होंने आर्मीनिया के लाड़ले कवि चॉरेन्त्स के बहाने आर्मीनिया के सामाजिक, सास्कृतिक और राजनीतिक इतिहास पर जो कुछ भी लिखा है वो बेहद दिलचस्प तब्सरा है । पाठक को बांध कर रखने वाला साथ ही ज्ञानवर्धक । कमाल ये कि चॉरेन्त्स के बारे में पढ़ते हुए लगता नहीं कि यह क़िस्सा रूसी क्रान्ति के महान नायकों में एक त्रात्स्की, उनके मैक्सिको निर्वासन और वहाँ उनकी हत्या तक जाएगा । रूस ही क्यों, समूचे पूर्वी यूरोप में अपने समाज नायकों से प्रेम करना एक तरह से सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । ख़ास तौर पर कलाजीवियों के लिए उस समाज में सैकड़ों साल पहले ही कुलीन-समझ विकसित हो चुकी थी । येरेवान की माश्तोज स्ट्रीट पर वे आर्मीनियाई लेखक विलियम सारोयान की प्रतिमा देखते हुए याद करते हैं “दिल्ली में प्रेमचंद के नाम पर कोई सड़क नहीं है ।”
किताब का चिन्तन पक्ष इतना ताक़तवर है कि एक बार में इस क़िताब को सिर्फ़ फ्लैप पर दी गई तहरीर के मद्देनज़र ही पढ़ा जा सकता है, वरना इसे बार बार पढ़ना होगा । किसी ट्रैवेलॉग में सन्दर्भ ग्रन्थ की सिफ़त होनी चाहिए, मगर जैसा कि भारतीय लेखकों का स्वभाव है, उनके सफ़रनामे अक़्सर दिनांक-वृत्त या डायरी बन कर रह जाते हैं । येरेवान प्रसंग में ही डॉक्टसाब ने जरथुस्त्रवादी विचारधारा यानी शुभाशुभ संघर्ष, बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट के प्रसंग, इस्लामी कट्टरवाद, प्रसाद का आनंदवाद बनाम दुखवाद, ऋग्वैदिक सोच और एकेश्वरवाद बनाम बहुदेववाद आदि मुद्दों पर पृष्ठ 33 से 43 के बीच इतने दिलचस्प विमर्श का मुज़ाहिरा किया है कि कुछ कहा नहीं जा सकता । मेरी निग़ाह में ये सफ़हे किताब का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । बेहद कठिन चीज़ों को उन्होंने इतनी आसानी से समझा दिया है कि मैं सिर्फ उनके प्रति आभार जता सकता हूँ । किताब में किन्हीं स्थानों और वस्तुओं की व्युत्पत्तियों की चर्चा भी डॉक्टसाब करते रहे हैं । हाँ, भारतीय व्यापारियों की जारज संतानों के अगरिजान नाम नें मुझे काफ़ी परेशान किया है । इसके पीछे पड़ा हूँ । इस बात पर दृढ़ हूँ कि इस शब्द का संदर्भ भारतीय भाषाओं से नहीं है । अस्त्राखानी तातारों के बीच या वहाँ के रूसियों के बीच अगरिजान नाम हिकारत भरा सम्बोधन था, ऐसा लगता है । अग्निपुत्र जैसी व्यंजना इसमें तलाशना उचित नहीं लगता । इस पर विस्तार से लिखने की इच्छा है । काम चल रहा है । इंडो-यूरोपीय या तुर्किक-तातारी धरातल में इस शब्द के बीज दबे हुए हैं, फ़िलहाल यही मान कर चल रहा हूँ ।
लते चलते यही कि ये सिर्फ़ पुस्तक चर्चा है । इसमें आलोचना या समीक्षा के तत्व न तलाशे जाएँ । इसके प्रारूप में कई खामियाँ होंगी । यूँ ही, जो मन में आया, ईमानदारी से लिख दिया । समाज-संस्कृति में रुचि रखने वाले हिन्दी पाठकों के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है । इसे ख़रीदने की सलाह दूँगा । प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या –131, मूल्य-395 (हार्डकवर)

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


Blog Widget by LinkWithin