Wednesday, January 27, 2016

खातून की खिदमत में...


‘ख़ा
तून’ भी हिन्दी क्षेत्र का जाना-पहचाना लफ़्ज़ है। इसमें भी बेग़म या खानुम की तरह कुलीन,प्रभावशाली स्त्री, साम्राज्ञी, भद्र महिला का भाव है जैसे मध्यकाल की ख्यात कश्मीरी कवयित्री हब्बा ख़ातून। बेग से बेगम और खान से ख़ानुम की तरह ख़ातून का रिश्ता 'क्षत्रप' से है। बात कुछ जमी नहीं। चलिए, बेग़म और ख़ानुम की तरह ख़ातून के जन्मसूत्रों को भी टटोला जाए। वैसे तो ख़ातून फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में दाखिल हुआ मगर यह तुर्की मूल का शब्द माना जाता है। इसका विकास हुआ है ईरान के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली सोग्दी और खोतानी भाषा के ‘ख्वातवा’ या खाता जैसे शब्दों से जिसमें ज़मींदार का आशय था। गौरतलब है कि तुर्की में खातून का हातून रूप ज्यादा प्रचलित है। इतिहास की किताबों में हम सबने क्षत्रप और महाक्षत्रप जैसे पदनाम पढ़े हैं। ये ईरानी मूल के शब्द हैं और हखामनी साम्राज्य की उपाधियाँ हैं। उस समय तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी और नासिक इनकी प्रमुख राजधानियां थीं।

गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र भी इनके प्रभुत्व में था। क्षत्रप का चलन आमतौर पर युवराज के लिए होता था जबकि महाक्षत्रप राज्यपाल, सूबेदार या प्रान्तपाल को कहते थे। गौरतलब है शक जाति के लोग सोग्दी ज़बान बोलते थे और उपाधियों उन्हीं के शासनकाल की हैं। इन स्थानों के प्रधान शक शासक महाक्षत्रप कहलाते थे जबकि कनिष्ठ शासक या उप शासक क्षत्रप कहलाते थे।

‘क्षत्रप’ शब्द का प्रसार इतना था कि एशिया में जहां कहीं यूनानी और शक साम्राज्य के अवशेष थे, उन स्थानों के गवर्नर या राज्यपालों का उल्लेख भी सट्रप / खत्रप / ख्वातवा / शत्रप के रूप में ही मिलता है। शक जाति के लोग संभवतः उत्तर पश्चिमी चीन के निवासी थे। वैसे जब ये भारत में आए तब तक इनका फैलाव समूचे मध्य एशिया में हो चुका था। ईरान की पहचान शकों से होती थी।

दक्षिणी पूर्वी ईरान को ‘सीस्तान’ कहा जाता था जिसका अर्थ था ‘शकस्थान’। संस्कृत ग्रंथों में भारत से पश्चिम में सिंध से लेकर अफ़गानिस्तान, ईरान आदि क्षेत्र को शकद्वीप कहा गया है अर्थात यहां शकों का शासन था। ब्राह्मणों की एक शाखा शाकद्वीपीय भी मानी जाती है। शायद यही मागी ब्राह्मण थे जिनका रिश्ता मगध से था, जिन्हें बाद में शाकद्वीपीय कहा गया।

संस्कृत के क्षत्र में भी प्रभुत्व, साम्राज्य, वंश, आधिपत्य के आशय हैं। इसी कड़ी का क्षेत्र शब्द भूमि के अर्थ में भी हम जानते हैं। खेत इसी क्षेत्र का अपभ्रंश है। संस्कृत का क्षत्री भी राजकुल वाले अर्थ से कालान्तर में राजपूत जाति के अर्थ में क्षत्रीय में ढल गया। इसका एक रूप पंजाब में खत्री बना। नेपाली में यह छेत्री होता है। इस तरह क्षत्रप का खत्रप भी हुआ। तो ईरानी क्षत्रप का सोग्दी रूप ख्वातवा हुआ।

हमारा अनुमान है कि यहाँ ‘क्ष’ का रूपान्तर ‘ख्व’ हुआ होगा, ‘त्र’ का सिर्फ़ ‘त’ शेष रहा। भारत-ईरानी भाषाओं में ‘प’ का रूपान्त ‘व’ में हो जाता है। इसे यूँ समझ सकते हैं- क्षत्रप > ख्वतप > ख्वातवा। इसका रूप कहीं कहीं खाता / ख्वाती भी मिलता है जिसका अर्थ प्रमुख, परम, अधिपति, राजा, सामन्त आदि था।

ऐतिहासिक सन्दर्भों में बुम-ख़्वातवा जैसे सन्दर्भ भी मिलते है। यहाँ बुम वही है जो संस्कृत हिन्दी में भूमि है। इस तरह बुम-ख़्वातवा का आशय ज़मींदार, क्षेत्रपाल या क्षेत्रपति हुआ जो आमतौर पर राजाओं की उपाधि है। तो सोग्दी ज़बान के ख्वातवा या खाती का स्त्रीवाची हुआ ख़्वातीन या ख़ातून जिसमें राजा, श्रीमन्त, सामन्त की स्त्री अथवा कुलीन या भद्र महिला का आशय था। उर्दू में ख़ातून का बहुवचन ख़वातीन होता है।

प्रसंगवश संस्कृत के ‘क्ष’ वर्ण में क्षेत्र, भूमि, किसान और रक्षक का अर्थ छुपा है। क्षत्रप शब्द ईरान में शत्रप / खत्रप रूप में प्रसारित था जहाँ से यह ग्रीक में सट्रप बन कर पहुँचा। ग्रीक ग्रंथों में ईरान और भारत के क्षत्रपों का उल्लेख इसी शब्द से हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन ईरानी के क्षत्रपवान से मानी जाती है जिसका अर्थ है राज्य का रक्षक। इसमें क्षत्र+पा+वान का मेल है। ‘क्षत्र’ यानी राज्य, ‘पा’ यानी रक्षा करना, पालन करना और ‘वान’ यानी करनेवाला।

गौर करें इससे ही बना है फारसी का शहरबान शब्द जिसमें नगरपाल का भाव है। इसे मेयर समझा जा सकता है। याद रखें संस्कृत के वान प्रत्यय का ही फारसी रूप है बान जैसे निगहबान, दरबान, मेहरबान आदि। संस्कृत वान के ही वन्त या मन्त जैसे रूप भी हैं जैसे श्रीवान या श्रीमन्त। रूपवान या रूपवंत आदि।
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Friday, January 22, 2016

‘खानम’ और ‘बेग़म’ की कथा


संगीत की दुनिया की खानम और बेग़मः  फ़रीदा ख़ानम और  बेग़म अख़्तर
मुस्लिम महिलाओं के नाम के साथ सम्मानसूचक विशेषणों में बेग़म, खानम/खानुम का भी शुमार है। आमतौर पर कोश इनके बारे में यही जानकारी देते हैं कि बेग़म फ़ारसी और खानुम तुर्की शब्द है और ये दोनों ही बेग और खान उपाधियों के स्त्रीवाची हैं। स्वाभाविक है इसे उसी तरह लिख दिया गया है मानो तहसीलदार से तहसीलदारनी और जमादार से जमादारनी। मगर बात इतनी आसान नहीं है। अनेक लोग इसे राजा या रानी वाला मामला समझते हैं, दरअसल वैसा भी नहीं। बेग़म और ख़ानुम का रिश्ता दरअसल रसूख़दार स्त्री से है।

खान और बेग आमतौर पर तुर्क-मंगोलों के कुलीन समूहों के आम प्रत्यय हैं जिनसे प्रतिष्ठा, प्रभाव, सम्मान और शक्ति का एहसास कराया जाता है। साफ़ है कि राजपरिवारों और सामन्तों द्वारा इन उपनामों का इस्तेमाल किया जाता रहा। यूँ समझ लें कि काफी कुछ श्रीमान-श्रीमती की तरह बेग-बेग़म और खान-खानुम के भी आशय हैं। बस, बेग़म और खानुम की निर्माण प्रक्रिया एक सी है और ये दोनों शब्द महज़ स्त्रीवाची प्रत्ययों के जोड़ने भर से सामने नहीं आए। हालाँकि इनकी

बेग़म और खानुम दोनों ही शब्दों के साथ अरबी का उम्म जुड़ा है जिसका आशय बीज, उद्गम, स्रोत, मूल और सर्वोच्च से है। इस तरह इस शब्द में माँ की अर्थस्थापना होती है क्योंकि माँ में जननिभाव है। सृष्टि का निर्माण उसी से माना गया है। वह जन्मदात्री है। अरबी के उम्म की रिश्तेतारी प्राचीन अक्कादी भाषा के अम्मु से है जिसमें संरक्षण और समूहवाची भाव हैं।
दरअसल यह सेमिटिक भाषा परिवार का इतना महत्वपूर्ण शब्द है कि इस “आम” की अर्थवत्ता के एक छोर पर माँ है, दूसरे पर अवाम है तो तीसरे पर मुल्क । दिलचस्प बात यह कि सेमिटिक भाषा परिवार की कई भाषाओं में “अम्मु” शब्द का वर्ण विपर्यय होकर माँ के आशय वाले शब्द बने हैं जैसे अक्कद में “उम्मु” ummu, अरबी में “उम्म”, हिब्रू में “एम”, सीरियाई में “एमा” आदि । मेरी नज़र में शिशु जिन मूल ध्वनियों को अनायास निकालता है उनमें सर्वाधिक ‘म’ वर्ण वाली ही होती हैं यथा अम् , मम् , हुम्म् आदि । अक्कद भाषा के “अम्मु” और “उम्मु” दरअसल पालन-पोषण वाले भावों को ही व्यक्त कर रहे हैं।

वैदिकी और संस्कृत के “अम्बु”, “अप्” और अक्कद भाषा के “अम्मु”, “उम्मु” में अन्तर्सम्बन्ध के ये संकेत बहुत साफ़ हैं। इससे मिलते जुलते शब्दों का जलवाची, जननिवाची भाव साबित करता है कि इन शब्दों का विकास भौगोलिक भिन्नता के बावजूद एक जैसा रहा है। तो इस तरह अरबी के उम्म में माँ समेत पोषण, स्रोत, आधार या मूल जैसे आशय समाए। उर्दू में अम्मी इसी उम्म से आ रहा है। मम्मी, अम्मा, मम्मा, मॉम, माँ सब के मूल में जलवाची अम्ब ही है, ऐसा लगता है।

तो इस तरह खान से खान और बेग के साथ उम्म जुड़ने से अपने समूह की प्रभावशाली महिला की अर्थवत्ता मिली जिसमें माँ भी है और समूह भी। हालाँकि बेग़ और खान पर शब्दों का सफ़र में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है फिर भी संक्षेप में बताते चलें कि भारत-ईरानी परिवार में भग, बाग, बेग जैसे शब्दों में अंश, श्री, समृद्धि, शक्ति जैसे भाव हैं। हिन्दी संस्कृत के भाग्य, भगवान, भक्त जैसे शब्दों से लेकर फ़ारसी के बेग, बाग, बहादुर, बेक, बहा, बख़्श में भी यह नज़र आता है। बेग़ और साफ़ नज़रा आता है उज़बेक में जिसके पीछे उज़बेकिस्तान है। यही भारत में उज़बक कहलाता है जिसमें गंवार या असभ्य का भाव है। कुछ विद्वान इस BAG में उद्यान के अर्थ वाला बाग़ भी देखते हैं जिसकी व्याख्या समृद्ध भूमि, ऐश्वर्य भूमि के रूप में है। बगीचा इसका ही रूप है। बगराम, बगदाद, बागेवान जैसे शहरों के नामों के पीछे यही अर्थ छुपा है। इस क़तार में अनेक शब्द हैं।

जहाँ तक ख़ान का सवाल है, इसमें मंगोल और चीनी संस्कृति का भाषायी आधार है। इसकी व्युत्पत्ति संभवतः चीन के महान वंश हान से है। चीन के मध्यप्रान्त शांक्सी से होकर गुज़रनेवाली हानशुई नदी के नाम पर चीन के प्राचीन और प्रसिद्ध हान वंश का नामकरण हुआ। यह ठीक वैसे ही है जैसे सिन्धु नदी के नाम पर सैन्धव सभ्यता की पहचान बनी। चीनी भाषा का एक उपसर्ग है के-ke जिसमें महानता, सर्वोच्चता का भाव है। हान han से पहले के जुड़ने से बना ke-han जिससे कुछ नए शब्द जैसे काघान, कागान kagan, खाकान khakan या कान kan सामने आए। उक्त मंगोल रूपांतर बने। मंगोल भाषा में इन सभी नामों में शासक या सत्ता के सर्वोच्च पदाधिकारी का भाव था। यह जानना दिलचस्प है कि कुबलाई खान और चंगेज़ खान जैसे महान खान, मुसलमान नहीं थे। कुबलाई खान बौद्धधर्म की एक विशेष शाखा का अनुयायी था जबकि चंगेज़ खान चीन के शॉमन पंथ का अनुयायी था।
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Monday, January 18, 2016

‘फ़ैशनपरस्त’ से ‘वामपरस्त’ तक


हिन्दी में सरपरस्त, खुदपरस्त, बुतपरस्त जैसे शब्द खुब बोले-सुने जाते हैं। दरअसल फ़ारसी में ‘परस्त’ जैसा एक कारसाज़ औज़ार (प्रत्यय) है जिसे किसी भी शब्द के पीछे जोड़ कर एक नया शब्द बनाया जा सकता है। यहाँ तक कि विदेशी शब्दों के साथ भी उसे जोड़ा जा सकता है मसलन खुद फ़ारसी वालों ने अरबी के हुस्न से जोड़ कर ‘हुस्नपरस्त’ बना डाला। अंग्रेजी के फ़ैशन से इसे मिला दिया और ‘फ़ैशनपरस्त’ बन गया जो हिन्दी में भी बड़ा मशहूर है। तो चलिए इस ‘परस्त’ का आगा-पीछा तलाशा जाए।

भारोपीय भाषाओं में आधार, स्थित अथवा स्थान के लिए ‘स्थ’ स्थि, स्था (sta, stha) जैसे मूलक्रिया रूप हैं जिनसे ऐसे सैकड़ों शब्द बने हैं जिनका रिश्ता खड़े रहने (स्टैंड), ठहरने, रुकने, थमने (स्टे), स्थान (आस्तान, स्तान) या गमन करने, जाने (प्रस्थान) जैसे अंग्रेजी, उर्दू व हिन्दी शब्दों से है। इनके ज़रिये स्थिति का बोध होता है, किसी से जुड़ने की जानकारी मिलती है। हिन्दी के स्तम्भ, स्तब्ध, स्थल हों या अंग्रेजी के स्टूल, स्टॉल, स्टेशन से लेकर अरेस्ट, असिस्ट जैसे शब्द हों, गौर करें तो इन सबमें ‘स्थ्’, ‘स्था’ (sth, stha) की छाया दिखाई देगी। तो संस्कृत में भी ‘स्थ’ से बने अनेक शब्द है जिनमें ‘प्रस्थ’ का भी शुमार है और जिसका आशय है स्थिर, अटल, अचल, दृढ़, टिकाऊ, मज़बूत, पुख़्ता, अविचल, समतल, बराबर, चौरस, समस्तरीय, मैदान, आधार, सपाट, बंधाव, जुड़ाव, साथ जाना, साथ चलना जैसे लगभग मिलते-जुलते आशय हैं।

‘स्थ’ से बने कुछ शब्दों में इसका आशय एकदम स्पष्ट होता नज़र आता है मसलन ध्यानस्थ, सिंहस्थ, योगस्थ, गृहस्थ या प्रस्थ से बने इन्द्रप्रस्थ, खाण्डवप्रस्थ जैसे शब्दों से स्पष्ट होता है। यही ‘प्रस्थ’ जब ‘वन’ से जुड़ता है तो वानप्रस्थ बनता है जिसका मूल आशय तो गृहस्थाश्रम के अगले पड़ाव से है। प्राचीनकाल में सभी जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद लोग वनवास करने चले जाते थे ताकि शान्ति से जी सकें। यूँ वानप्रस्थ में वनगमन का भाव भी है और वनवास करने का भी। प्रस्थ में साथ चलने, साथ जाने का आशय भी है।

इसी ‘प्रस्थ’ का फ़ारसी रूप होता है ‘परस्त’। गौरतलब है वैदिक संस्कृत और अवेस्ता में बहनापा रहा है अर्थात काफी समानता रही है। संस्कृत का ‘प्र’ उपसर्ग अवेस्ता में ‘फ्र’ या ‘फ्रा’ में बदल जाता है। प्रस्थ का अवेस्ता में समरूप ‘फ्रस्त’ है और फ़ारसी में इससे ‘पर’ बन जाता है। डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में परस्ताक, परस्तिह, पिरिस्त, परिस्तदन, परिस्तिश्न जैसे रूप मिलते हैं। फ़ारसी में इसका परस्त रूप सामने आया जिसमें तत्पर, निष्ठावान, अनुरागी, भक्त, आराधक जैसे अर्थ निहित थे। आशय समर्पणयुक्त साहचर्य या सहगमन का ही था। ध्यान रहे ‘प्रस्थ’ में निहित साथ चलने (प्रस्थान) का भी आशय है। शृद्धालु पन्थ के साथ चलता है। समर्पित व्यक्ति भी साथ-साथ चलता है। सो ‘परस्त’ से ही ‘परस्तिश’ भी बन गया जिसका अर्थ है पूजा, अर्चना, आराधना हो गया। ‘परस्त’ से ही बन गया ‘परस्तार’ यानी सेवक या सहचर। यह पहलवी में भी है।

अब देखें कि बुत से परस्त जुड़कर बुतपरस्त में मूर्तिपूजक नज़र आता है और हुस्न से वाबस्ता होकर परस्त सौन्दर्योपासक बन जाता है। इसी तरह खुद से चस्पा होकर खुदपरस्त बन जाता है स्वार्थी, अहंकारी। पूजास्थल के अर्थ में इसी कड़ी में परस्तिशक़दा या परस्तिशखाना भी जुड़ जाते हैं। अब हिन्दीवालों को सोचना है कि इस प्रस्थ या परस्त से वो और कौन कौन से नए शब्द बना सकते हैं। दो शब्द तो हम अभी दे रहे हैं। प्रस्थ से वामप्रस्थी और परस्त से वामपरस्त।
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Saturday, January 16, 2016

‘उलाहना’ तो प्रेरणा है, भर्त्सना नहीं


ळमा और ‘उरहन’ जैसे शब्दों में कुछ समानता नज़र आती है ? इन दोनों के बीच मारवाड़ और ब्रज के बीच की दूरी ज़रूर है पर दोनों का मूल एक ही है। दरअसल हिन्दी में जिसे उलाहना कहते हैं उसका राजस्थानी रूप ओळमा है और ब्रज, अवधी रूप उरहन या उराहन/ उराहना हैं। इसमें में शिकवा-शिकायत का भाव है या निन्दा का ? दरअसल हिन्दी के शब्दकोश तो ये दोनों ही भाव बताते हैं पर हमारा मानना कुछ और है। उपालम्भ में निन्दा करने, दोष गिनाने, शिकवा करने से ज्यादा उसे प्रेरित करने, प्रवृत्त करने, सचेत करने, समझाने, अनुभव कराने के आशय ज्यादा हैं।

उलाहना शब्द का रिश्ता संस्कृत के उपालम्भ से जोड़ा जाता है। इसका प्राकृत रूप उवालंभ है। इसका विकास ओलंभ होता है। राजस्थानी में यह ओळमा हो जाता है। उपालम्भ का अर्थ है धिक्कार, भर्त्सना, झिड़क, कोसना, घुड़की, आक्षेप, तिरस्कार, निन्दा, दुर्वचन, कुबोल, डाँट या वर्जना, निषेध, रोक, पाबंदी आदि। उपालम्भ बना है उप+आलम्भ से। हिन्दी में आलम्भ शब्द में छूने, स्पर्ष करने, अपनाने जैसे आशय हैं। इसमें ‘उप’ सर्ग जुड़ने से आशय एकदम स्पष्ट होता है।

किसी आश्रय के ज़रिये, किसी बहाने से छूना, स्पर्ष करना या अधिकार जताना-अपना बनाना। ध्यान रहे उपालम्भ के जितने भी अर्थ हमने ऊपर देखे वे सभी नकारात्मक हैं। हालाँकि उनका आशय यह लगाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को वास्तविकता का बोध कराने के लिए कहे गए कटुबोल दरअसल उसे अपना बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। किन्तु प्रश्न यही है कि उलाहना का अर्थ सीधे सीधे गाली या दुर्वचन नहीं है। उलाहना में हमेशा तिरस्कार, भर्त्सना या धिक्कार का भाव भी नहीं होता। अलबत्ता उसमें आक्षेप, व्यंग्य ज़रूर होता है।

हमारा मानना है कि हिन्दी के ‘उलाहना’ का विकास प्राकृत के उपलंभणा से हुआ है जिसका संस्कृत प्रतिरूप ‘उपलम्भन’ है। ध्यान रहे उपलम्भना में बोध, समझ, अनुभव के साथ ही देखना, बूझना जैसे भाव भी हैं। उलाहना इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि आप किसी को कोसना चाहते हैं, बल्कि उलाहना उसे दिया जाता है जिससे अपेक्षित प्रतिसाद न मिले, जो अपने कर्तव्य को भूल जाए। उलाहना चेतना जगाता है, जागरुक करता है, जिम्मेदारी की याद दिलाता है। उपलम्भना या उपालम्भ दोनों ही शब्दों के मूल में लभ् धातुक्रिया है जिसमें पाना, सोचना, समझना जैसे भाव हैं। ध्यान रहे ‘ल’ का रूपान्तर ‘र’ में होता है। ‘लभ्’ का अगला रूप ‘रभ्’ होता है। जिस तरह ‘लभ्’ से ‘लम्भ’ होता है उसी तरह ‘रभ्’ से ‘रम्भ’ होता है। ‘रम्भ’ से ही ‘आरम्भ’ भी बनता है जिसका अर्थ है शुरुआत। उलाहना इसी नई शुरुआत के लिए तो दिया जाता है।

तो उलाहना में दरअसल इसी शुरुआत का संकेत है, उत्प्रेरण है। उपलम्भना > उवलम्भना में ज्ञानप्राप्ति भी है और आक्षेपयुक्त प्रेरणा भी। रत्नावली का उलाहना ही तुलसी के लिए मानस-सृजन की प्रेरणा बना। इसलिए हमारा स्पष्ट मानना है कि उलाहना के मूल में उपालम्भ नहीं बल्कि उपलम्भणा है। इसकी पुष्टि हरगोविंददास त्रिकमचंद सेठ के प्राकृत कोश “पाइय सद्द महण्णवो” से भी होती है। हिन्दी के उलाहना का विकास उपलंभणा > उवलंभना > उलांभना > उलाहना के क्रम में हुआ है। राजस्थानी ओळमा भी उपलंभणा से ही उळांभणा >ओळमा के क्रम में सामने आया। ब्रज/ अवधी का उराहना भी इसी कड़ी में उपलंभणा > उराहना > उरहन से विकसित हुआ है।

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Friday, January 15, 2016

सुब्हान तेरी कुदरत यानी ‘सुभानअल्ला’



मो हतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किन ने पी, किन ने न पी, किन किन के आगे जाम था

मुमकिन है इस मशहूर शेर को पढ़ कर आप सुभानअल्ला कह उठें। ये है ही इस लायक। पर आप ‘सुभानअल्ला’ ये सुनकर भी कहेंगे कि ‘तस्बीह’ और ‘सुभान’ दोनो बहन-भाई हैं। ‘सुभानअल्ला’ को बतौर प्रशस्तिसूचक अव्यय हिन्दी में भी बरता जाता है। यूँ इसका प्रयोग विस्मयकारी आह्लाद प्रकट करने के लिए भी होता है। यह लगभग ‘क्याब्बात’, ‘अद्भुत’ या ‘ग़ज़ब’ जैसा मामला है। यूँ सुभानअल्ला में बहुत अच्छा, धन्य-धन्य अथवा वाह-वाह जैसी बात है। ऐसा भी कह सकते हैं कि सुभानअल्ला में vow factor भी है। जानते हैं सुभानअल्ला की जन्मकुण्डली।

सुभानअल्ला अरबी से बरास्ता फ़ारसी हिन्दी में आया है। यह एक शब्द नहीं बल्कि संयुक्त पद है। मूल रूप से अरबी का ‘सुब्हान’ ही हिन्दी में सुभान बन कर ढल गया। अरबी सुब्हान बना है त्रिवर्णी मूलक्रिया सबाहा ح ب س
यानी सीन-बा-हा से जिसमें परमेश्वर के गुणगान और प्रशस्ति का भाव है। इसका ही विकसित रूप है सुब्हान سبحان (सीन बा हा अलिफ़ नून) जिसका फ़ारसी रूप सोब्हान होता है और हिन्दी सुभान।

दरअसल सबाहा यानी सीन-बा-हा में जो मूल भाव है उसमें अनंत का भाव है मसलन विशाल जलराशि में तैरना, वह सब जो दृष्टिपटल के सामने है, जो नज़रों में है उसके वैभव को अनुभव करना। तैरते हुए देखने के इस भाव को हिन्दू संस्कृति में संसार को भवसागर मानने के रूपक से समझा जा सकता है। उस अनंत को निहारना, उसकी विशालता को अनुभव करते हुए उसमें बने रहने का भाव ही सबाहा का मूल है। और हासिल ? हासिल वह है जो बलदेवप्रसाद मिश्र की इस कविता के ज़रिये ज़ाहिर होता है-

जिस ओर निगाहें जाती हैं
उसके ही दर्शन पाती हैं
सम्पूर्ण दिशाएं सुख -सानी
उसका ही गौरव गाती हैं
तो सबाह से बने सुब्हान में सचमुच सुब्हान तेरी कुदरत का ही आशय है। प्रकृति से कोई पार नहीं पा सका है। प्रकृति ही ईश्वर है। जो कुछ हमने नहीं रचा, पर जो सब हमारे लिये है। ऐसी अनुभूति के बाद अगर सुभानअल्ला जैसी उक्ति ही निकलती है।

इसी सबाहा से विकसित हुआ एक और शब्द है तस्बीह यानी सुमिरनी जिसका जन्म सुमिरन से हुआ। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।

संस्कृत के स्मरण से विकसित है सुमिरन। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। पंजाबी में इसका रूप है ‘सिमरन’ जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के ‘सिमरन’ की संस्कृत के ‘स्मरण’ से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं। स्मरण शब्द बना है संस्कृत की ‘स्मर्’ धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के मेमोरी से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में ‘मर्’ के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है।

तो जब कभी किसी अनिवर्चनीय अनुभव से गुज़रें, किसी अनोखेपन के लिए मुँह से प्रशस्तिसूचक ‘वाह’ निकले तो सुभानअल्ला कहने में गुरेज़ न करें। और हाँ, खुदा की कुदरत को भी सुब्हान कहें और “मेरे महबूब को किसने बनाया” ये पहेली खुदा को बूझने दीजिए।
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Friday, January 1, 2016

2016 के आगे क्या लिखेंगे- ‘सन्’ या ‘सन’


र नया साल बदलाव को अभिव्यक्त करने वाली इकाई भर है। एक ऐसा आँकड़ा जो पिछले वर्ष की तुलना में एक अंक ज्यादा होता है। इसे हिन्दी में ज्यादातर ‘सन्’ यानी 'न' में हलन्त लगाकर अभिव्यक्त किया जाता है। यह हैरत की बात है कि इसके सही उच्चारण और वर्तनी के मामले में हिन्दी कोशों में काफ़ी अन्तर नज़र आता है। हलन्त की वजह से अनेक लोगों को भ्रम भी होता है कि यह संस्कृत का शब्द है जबकि असल में यह अरबी आप्रवासी है और हिन्दी वालों की ज़बान पर भी चढ़ा हुआ है। सन बना है س ن ة यानी सीन-नून-हा से और यह शब्द "रास अस सनाह अल हिजरियाह" رأس السنة الهجرية पद के ज़रिये भारत में आया जिसका अर्थ होता है इस्लामी नव संवत्सर।

अरबी में सीन-नून-हा س ن ة धातुक्रिया का अर्थ होता है वर्ष, साल, अवधि, समय, काल, मौका, युग, ऋतु, वर्ष, मौसम, सुअवसर आदि। एक बड़ी खूबसूरत अर्थव्यवंजना सामने आती है। इसमें समय के बीतते जाने का भाव भी है और कायम रहने का भी। ध्यान रहे, काल व्यतीत होता जाता है फिर भी रीतता नहीं। समय जाता है और आता है, हाँ, लौटता नहीं। तो यही काल-प्रवाह है 'सन'।

'सन' में एक और सुंदर आशय निहित है- गुणवत्ता में परिवर्तन। अक्सर लोग हर नए साल पर कुछ नया करने, बदलाव लाने के प्रति खुद के साथ या किन्हीं अपनों के साथ कुछ प्रस्ताव पारित करते हैं, कुछ अनुबन्ध करते हैं, कुछ पाबन्दियाँ लगाते हैं, कुछ शपथ लेते हैं और यह सब इसलिए ताकि कुछ बदलाव आए। यह जो बदलाव है यह जीवन की बेहतरी के लिए ही तो है। बस, यही है गुणवत्ता में परिवर्तन। आप जो कल थे, बेहतर भविष्य के लिए अब खुद को बदलना चाहते हैं। यह खुद में गुणात्मक बदलाव लाना है।

हिन्दी मे 'सन' को हलन्त लगाकर सन् की तरह बरता जाता है। इसकी वजह समझ से परे है जबकि मूल अरबी की वर्तनी और उच्चार سنة (सीन-नून-हा) में हलन्त नहीं, विसर्ग है और उसका उच्चार सनः या सनह होता है। अगर बिना विसर्ग के लिखना हो तो سن सन (सीन-नून) लिखा जाएगा। गौरतलब है, ये दोनों ही प्रविष्टियाँ मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ ‘मद्दाह’ के कोश में भी दी गई हैं। हिन्दी कोशों में भी इसे अलग अलग ढंग से दर्ज़ किया गया है। करीब नब्बे साल पुराने हिन्दी शब्दसागर में इसे हलन्त लगाकर ही दर्ज़ किया है।

इसी तरह केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी परिचय कोश में सीताराम शास्त्री हलन्त लगाकर सन् लिखते हैं किन्त उर्दू वर्तनी में यह सन ही पढ़ा जाता है। गौरतलब है कि फ़ारसी, अरबी के विसर्गयुक्त शब्दों का उच्चार बोलचाल की भाषा में ‘आ’ स्वर के साथ होता है मसलन घर के अर्थ में 'खानः' का उच्चार 'खाना' हो जाता है, 'मुर्दः' का उच्चारण 'मुर्दा या मुरदा' हो जाता है इसी तरह सनः का उच्चार 'सना' हो जाता है जो एक लोकप्रिय स्त्रीवाची नाम भी है अलबत्ता वर्ष के अर्थ में इसका उच्चार 'सन' ही है। अरविन्दकुमार-कुसुमकुमार के हिन्दी थिसारस में भी ‘सन्’ के स्थान पर ‘सन’ ही दर्ज़ किया गया है।

मज़े की बात यह कि ज्ञानमण्डल के दो शब्दकोश इसकी अलग अलग वर्तनी बताते हैं। मुकन्दीलाल श्रीवास्तव/ कालिकाप्रसाद सम्पादित कोश में हलन्त रहित ‘सन’ है जबकि हरदेव बाहरी के कोश में सन् को हलन्त के साथ दर्ज़ किया गया है। गड़बड़झाला यही खत्म नहीं होता। एक ही सम्पादक के दो अलग-अलग कोशों में वर्तनी भी भिन्न है। रामचन्द्र वर्मा के बृहत कोश में भी सन का इन्द्राज बिना हलन्त लगाए हुआ है। दिलचस्प यह भी है कि रामचन्द्र वर्मा ही सबसे पुराने कोश “हिन्दी शब्दसागर” के सम्पादक मण्डल में भी शामिल थे जिसमें हलन्तयुक्त व्युत्पत्ति है।

मेरे संग्रह में पचास से ज्यादा कोश हैं और फ़िलहाल उन्हें पलटने का मौका नहीं मिला है। देखना चाहूँगा कि बरताव का यह अन्तर कहाँ कहाँ कायम है। ज़ाहिर है कुछ हलन्त लगा रहे होंगे और कुछ नहीं। कम से कम यह तो पता चलेगा कि बहुमत किस उच्चार/ वर्तनी के साथ है। इस सिलसिले में हम गूगल बाबा का सर्वे ज़रूर सामने रखना चाहेंगे। गूगल बिना हलन्त वाले सन की 4 लाख 48 हज़ार प्रविष्टियाँ उगलता है जबकि हलन्त वाला सन् लिखने पर पल भर में 50 करोड़ प्रविष्टियाँ उगल देता है। ज़ाहिर है, हलन्त लगा हुआ उच्चार ही हिन्दी में सर्वाधिक प्रचलित है मगर उसे अरविन्द कुमार का हिन्दी थिसारस भी मान्यता नहीं देता।

ऐसा लगता है कि हिन्दी सम्पादकों में हलन्त लगाने की सोच इसलिए बनी होगी क्योंकि हिन्दी में एकाधिक सन' हैं जैसे एक पौराणिक नाम, जूट के लिए प्रचलित सन अथवा ध्वनिसूचक सन आदि। अरबी के सन को उससे भिन्न दिखाने के लिए उसके साथ हलन्त लगा दिया गया होगा। इस सिलसिले में हमारा स्पष्ट मानना है कि वर्तनी अपनी जगह और सन्दर्भ अपनी जगह। वर्ष के अर्थ में सन का प्रयोग हमेशा अंकों के साथ ही होता है। किसी झमेले की गुंजाईश कहाँ ?

तो नए साल में यह भी तय कर लें कि 2016 के आगे लिखे सन के साथ हल् रखना है या नहीं। बहरहाल, सबको नया साल शुभ हो।

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शिलाओं में बसी आबादियाँ

श्चिमी एशिया का एक विश्वख्यात पर्यटन स्थल है पेट्रा। जॉर्डन की इस शिला-नगरी का प्राचीन सामी ज़बान में नाम है 'सेला' जिसका अर्थ चट्टान या शिला होता है। खासतौर पर आशय चट्टानी दरार से है। इस शहर के सभी आवास चट्टानों को तराशकर बनाए गए थे। सामान्य घर से लेकर भव्य प्रासाद तक। दरअसल यह प्राचीन सेमिटिक सभ्यता का बड़ा केन्द्र था। इसका शुमार दुनिया के सात अजूबों में भी होता है। ग्रीक में पेट्रा का अर्थ पत्थर, चट्टान, पाषाण होता है। इसी तरह भारत में पश्चिम से पूर्व तक तक्षशिला, कुरुशिला, प्रेतशिला, विक्रमशिला और धर्मशिला जैसे प्राचीन विद्याकेन्द्र मूलतः मानव बसाहटें थीं। किसी न किसी तौर पर इनका नाता पर्वतीय उपत्यका से रहा इसलिए इनके नाम के साथ शिला शब्द चस्पा हुआ।

प्राचीन मानव का पहला आश्रय चट्टानी दरारें ही बनी, बाद में इन्हें तराश कर आश्रय बनाने का हुनर भी इनसान ने सीख लिया। हिब्रू ने भी प्राचीन सेमिटिक के 'सेला' शब्द को जस का तस अपनाया जो शिला का पर्याय या प्रतिरूप था। भाषाविज्ञानियों का मानना है कि ग्रीक लोगों ने इस महान चट्टानी शहर का ‘पेट्रा’ नाम ‘सेला’ के ग्रीक प्रतिरूप ‘पेट्रा’ के बतौर चलाया। बाइबल में सेला का उल्लेख है, पेट्रा का नहीं। अरबी में सेला के कई प्रतिरूप हैं जैसे सुल्ल, सुल्ला यानी चट्टान। सेल्ले, सेल्ला या सिलात यानी पत्थर के पाट, पटिये, फलक या खण्ड। इन सब शब्दों की संस्कृत के शिला से समानता ध्यान देने योग्य है। संस्कृत में सिल, शिल जैसे शब्द भी हैं और सिला या शिला भी।

हम यही कहना चाहते हैं कि प्राचीन काल में चट्टानी आश्रयों के सहारे ही मानव बसाहटें हुईं। सेला या पेट्रा ऐसी ही प्राचीन बसाहट थी। यह पुख़्ता प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल से आप्रवासन के ज़रिये भाषायी लेन-देन भी चल रहा था। वैदिक शिला के जितने सामी प्रतिरूप ऊपर देखे उतने संस्कृत या अन्य सजातीय भाषाओं में नहीं है, बस शिला, शैल या सिला ही हैं। फ्रांस का एक छोटा सा शहर है 'ला रोश्शेल' इसमें भी शेल, सेल, शिला को तलाशना आसान है। ला रोश्शेल का अर्थ है छोटी चट्टान। अंग्रेजी का Shells भी इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ काट-छाँट, तराशना, गोला, आवरण या पिण्ड होता है।

शिला-नगरों की परम्परा पुरानी रही है यह समरकन्द से भी साबित होता है। उज़्बेकिस्तान के इस प्राचीन शहर के नाम का रिश्ता संस्कृत के ‘अश्म’ से है। अश्म यानी पत्थर। अश्म का ईरानी रूप हुआ अस्मर। खण्ड का अर्थ होता है टुकड़ा, बस्ती, पिण्ड, समूह आदि। इसका ईरानी रूप कंद हुआ। ज़ाहिर है अस्मरकंद से ही समरकंद रूप सामने आया जिसमें पाषाण-नगर का भाव है।

पेट्रोलियम शब्द भी पेट्रा (पत्थर) के साथ ग्रीक ओलियम (तेल) जुड़ने से बना है। इसी तरह मिट्टी का तेल पेट्रोलियम का बहुत सरलीकृत रूप है, जबकि जीवाश्म ईंधन इसका सही अनुवाद है जो मूलतः पेट्रोलियम से न होकर फॉसिल ऑइल का सही अनुवाद है। फॉसिल का अर्थ होता है जीवाश्म जो जीव+अश्म से मिलकर बना है। अश्म शब्द का मतलब संस्कृत मे होता है चट्टान या पत्थर। इसका मतलब जीवधारियों के उन अवशेषों से है जो लाखों-करोड़ों वर्षों की भूगर्भीय प्रक्रिया के तहत प्रस्तरीभूत हो गए।

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मुनादी के बहाने ...

भाषा परिवारों की रिश्तेदारी के मामले में सबसे ज्यादा काम भारत-ईरानी, भारत-यूरोपीय सन्दर्भों में सामने आता रहा है। यूँ ग्रीक, लैटिन, स्पैनिश आदि भाषाओं के शब्दों की आवाजाही अरबी में खूब हुई है पर भारत-ईरानी परिवार विशेष तौर पर वैदिक काल के शब्द भी सेमिटिक परिवार की भाषाओं में ख़ासतौर पर अरबी में दाखिल होने के प्रमाण मिलते हैं, किन्तु उन पर व्यवस्थित काम नहीं हुआ। हिन्दी में 'मुनादी' शब्द का प्रयोग आम तौर पर होता है यह भी सेमिटिक मूल से ही उपजा है और इसका अर्थ है घोषणा या ऐलान करना। अरबी में नाद / नाज दो ऐसी धातुएं हैं जिनमें चीख, शोर, पुकार, कराह, रोना-पीटना जैसे भाव शामिल हैं। नाद में ‘मु’ उपसर्ग लगने से बनता है मुनादी जिसका अर्थ हुआ ऊँची आवाज के साथ बोलना अर्थात घोषणा करना। इसी तरह नाज से बने मुनाजत शब्द का मतलब होता है प्रार्थना करना। अरबी के 'ना'द और संस्कृत के 'नाद' में समानता पर गौर करें- इन सभी शब्दों में ऊँची आवाज और कोलाहल स्पष्ट हो रहा है। हिन्दी-संस्कृत का नाद बना है संस्कृत नद् से जिसमें यही सारे भाव समाए हैं। हिन्दी-उर्दू के प्रसिद्ध शायर है निदा फ़ाज़ली। उर्दू में 'निदा' का अर्थ होता है पुकार या आह्वान। यह इसी मूल से निकला शब्द है।

अरबी का नाद बना है सेमिटिक धातु नून-दा-वाव अर्थात و-د-ن से जिसकी बहुआयामी अर्थवत्ता है। एक ओर जहाँ जलवाची भाव हैं जैसे शीतलता, ठंडक, नमी, गीला, सीला आदि वहीं दयालुता, भद्रता, सज्जनता जैसे भाव भी हैं। इसी तरह इसमें ध्वनि, पुकार, शोर का भाव है तो समूह, बैठक, सभा या जमावड़े का आशय भी इससे प्रकट होता है। जहाँ तक वैदिक शब्दावली के नाद का प्रश्न है, उसमें निहित ध्वनि, कोलाहल या घोष करने जैसे आशय अरबी के नाद में भी स्पष्ट हो रहे हैं किन्तु ध्वनिपरक आशयों से हटकर जलवाची भाव भी अरबी के नाद में हैं उनका वैदिकी/ संस्कृत के नाद से क्या कोई अर्थसाम्य निकलता है? इसे समझने के लिए वैदिकी/ संस्कृत नाद के मूल नद् को देखना होगा जिसमें दरिया, महाप्रवाह जैसे आशय हैं।

नद् शब्द से ही बना है नदी शब्द जो बेहद आम है। गौर करें कि नदी यानि सलिला, सरिता, धारा, तरला, नदिया, सिंधु निर्झरिणी आदि शब्दों के में उजागर प्रवाहवाची भाव पर। सवाल उठता है नदी शब्द की उत्पत्ति नद् धातु से क्यों हुई जिसके तमाम अर्थ शोर, ध्वनि, गर्जना से जुड़ते हैं? इसका उत्तर नदी के एक और पर्यायवाची में छुपा है। नदी को शैलबाला, पर्वतसुता या पार्वती भी कहा जाता है। ज्यादातर धाराओं का प्राकृतिक उद्गम पर्वतों से ही होता है। ऊँचे पर्वतों से जब जलधाराएं नीचे की ओर यात्रा शुरु करती हैं तो चट्टानों से टकरा कर घनघोर ध्वनि के साथ नीचे गिरती हैं। यह शोर है। यही गर्जना है। यही नाद है। हिन्दी के सिंहनाद, जयनाद, हर्षनाद, आर्तनाद जैसे शब्दों में ध्वनि-आवाज़ के अर्थ में यही नाद झाँक रहा है।

गौर करें कि बड़ी नदियों के साथ भी नद शब्द जोड़ा जाता है जिसमें विशाल जलक्षेत्र अथवा समुद्र का भाव है। ब्रह्मपुत्र को विशाल जलराशि की वजह से ही नदी नहीं नद कहा जाता है। ग्लेशियर के लिए हिमनद शब्द इसी लिए गढ़ा गया। स्पष्ट है कि अरबी के नाद में शीतल, आर्द्र, नमी जैसे जलवाची आशय वैदिकी वाले नाद से ही गए हैं। यह स्पष्ट है कि अरब क्षेत्र में घर्घर करती नदियाँ नहीं है इसलिए नाद वाली जलवाची अर्थवत्ता का विकास होना वहाँ तार्किक नहीं लगता।

मुस्लिम संगठनों का ज़िक़्र चलने पर अकसर नदवातुल उलेमा, नदवातुल इस्लाम या नदवातुल मुजाहिदीन जैसे पद सुनने को मिलते हैं। इसमें जो नदवा है वह भी इसी मूल का है। गौर करें अरबी नाद में समुच्चयवाची आशय भी हैं। वैदिक नाद के सन्दर्भ में इसे समझें तो प्रपात से गिरती घर्घर जलराशि सतह पर पहुँच कर संचित ही होती है। यह संचय, समुच्चय ही है। नदवा में एक साथ समूह और घोषणा जुड़े हुए हैं। पुराने दौर में धार्मिक, कौटुम्बिक मामले बैठकों में निपटाए जाते थे। नदवा ऐसी ही सभा है। स्वाभाविक है कि सभा में अध्यक्ष की ओर से सर्वसम्मति से घोषणाएँ भी होंगी ही। एक शब्द की बहुत सी अर्थछटाएँ होना किसी भी भाषा को समृद्ध बनाता है किन्तु इन अर्थछटाओं का विकास किन किन चरणों से गुज़रने के बाद होता है यह जानना ही शब्दों का सफ़र है।

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मालवी गमन्या और गेल्या

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मू ढ़मति, सुस्त, आलसी, बेवकूफ़, बुद्धू, जड़मति, ग़ाफ़िल या गँवार की अर्थवत्ता वाले मालवी ज़बान के दो शब्द अक्सर याद आता है गमन्या और गेल्या गौर करें मूढ़ या जड़ व्यक्ति किसी बात को देर से समझता है। मूढ़ तो बना ही मुग्ध से है। मुग्ध जिसका ध्यान कहीं ओर है, जो खोया हुआ है अर्थात जो सुध-बुध में नहीं है। ज़ाहिर है जो ठिकाने पर नहीं है, इधर-उधर है, वह चीज़ गुमशुदा ही मानी जाएगी। चूँकि दिमाग़, बुद्धि हमेशा साथ रहनी चाहिए, पर अगर वह न हो तो उसे ग़ायब दिमाग़ कहा जाता है। मूढ़ या जड़ के साथ यही होता है। दुनियादारी की जिन बातों की अपेक्षा सामान्य व्यक्ति से की जाती है मूर्ख को वह भी नहीं पता रहती क्योंकि उसका ध्यान कहीं ओर होता है।

संस्कृत में जाने, चलने, गति करने, कहीं निकल जाने के भावों के भाव गम् धातु में अभिव्यक्त होते हैं । गमन एक क्रिया है जिसका अर्थ है जाना । यह हिन्दी में भी प्रचलित है। किसी चीज़ के लापता हो जाने या गायब हो जाने के लिए फ़ारसी का गुम शब्द इसी गमन वाले गम् से सम्बन्धित है । अवेस्ता और पहलवी में भी गम् ही सुरक्षित है मगर फ़ारसी में इसका कायान्तरण गुम के रूप में हो जाता है और अर्थवत्ता में भी खो जाने, गायब हो जाने गुम हो जाने का भाव आ जाता है। जब दिमाग़ कहीं गायब हो जाता है, चला जाता है तब व्यक्ति गुम्मा हो जाता है। गुमसुम हो जाता है। दरअसल गमन्या की आमद भी इसी गम् से हो रही है जिससे फ़ारसी का गुम जुड़ता है। गमन्या का मूल गमन से माना जा सकता है। गमन्या वह है जो प्रकट रूप में आपके सामने है मगर जिसका ध्यान कहीं ओर गमन करने चला गया है। ठीक वही बात की एक ही स्थान पर बैठे हैं, न खुद का ध्यान, न दुनिया का। अब ऐसी अवस्था तो जड़ की ही होती है जो टस से मस नहीं होती। गमन्या में भी वही बात है। दीन-दुनिया से बखबर, मूढ़मति ही गमन्या है।

यही बात गेल्या के सन्दर्भ में भी लगती है। ब्रज भाषा में गैल शब्द का अर्थ होता है राह, रास्ता। गेल्या का रिश्ता इस गैल से नहीं है। गम का ही भूतकालिक रूप गत् होता है। मराठी में भी इल्ल, अल्ल प्रत्ययों के लगने से पूर्वी बोलियों की तरह ही नए शब्द बनते हैं जैसे मैथिली, भोजपुरी में गत में इल्ल लगने से गइल्ल > गेल्ल> गेल के क्रम से विकास होगा। मराठी में गईल के अर्थ में गेला शब्द बनेगा जिसका अर्थ है चला गया। मुझे लगता है मालवी का गेल्या इसी तर्ज पर गेला के “चला गया” वाले अर्थ में प्रचलित हुआ होगा। शब्द बनने की प्रक्रिया वही रही होगी जो गमन से गमन्या बनने में नज़र आ रही है।

हालाँकि ये मेरा अनुमान है। मालवी भाषा पर भाषा वैज्ञानिक नज़रिये से बहुत कम काम हुआ, जबकि राजस्थानी, मराठी, गुजराती, ब्रज, बुंदेली, निमाड़ी जैसी अनेक लोकबोलियों के जीवंत सम्पर्क से यह खूब समृद्ध रही है। पर हमारी लोकबोलियों की तरफ विद्वानों का ध्यान कम ही गया है इसीलिए इस विषय में सन्दर्भ सामग्री बहुत कम है। इच्छा है कि सेवानिवृत्ति के बाद मालवा में घूम-फिर कर इस विषय पर कुछ काम किया जाए, काम का तलाशा जाए।

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//तमाम करना, निपटाना//

हिन्दी के सर्वप्रिय शब्दों में ‘तमाम’ تمام का शुमार भी है। इसकी अनेक अर्थछटाएँ हैं साथ ही अनेक पर्याय हैं भी हैं जैसे पूरा, सम्पूर्ण, सारा, सब, समाप्त, खात्मा, अन्त आदि। ‘तमाम’ की विशेषता है उसकी मुहावरेदार अर्थवत्ता जिसकी वजह से अनेक आसान पर्यायों के बावजूद इसका प्रयोग बोलचाल की भाषा में ज्यादा सहजता से होता है। तमाम में आमतौर पर समस्त और समापन का भाव है। अरबी मूल का यह शब्द बना है त्रिवर्णी सेमिटिक धातु ता-मीम-मीम ت-م-م से जिसमें समूचा, मुकम्मल, समग्र, सर्व, समस्त, सकल, परिपूर्ण, निरा, कुल, उपसंहार, समाहार, निष्कर्ष, अंजाम, समापन, खात्मा, निपटना जैसे भाव हैं।

किसी काम को अंजाम देने, समाप्त करने के लिए तमाम का प्रयोग मुहावरे की तरह होता है मसलन तमाम करना या तमाम होना। इसमें किसी जीवन का अन्त होने या करने का भी आशय है। जो अर्थवत्ता खत्म करना या खात्मा करना में है, वही बात तमाम करना में भी है। खत्म भी अरबी का प्रवासी शब्द है। तमाम का हिब्रू रूप तामीम है। तमाम में तामील करने का भाव भी है। तामील हो जाना यानी किसी काम का उपसंहार हो जाना। किसी ज़माने में किताबों में, फिल्मों में समाप्त, उपसंहार या The end लिखा होता था। उर्दू-फ़ारसी परम्परा में इसे तमामशुद लिखा जाता रहा। सम्पूर्णता के अर्थ में तमाम से तमाम से तमामन भी बनता है पर यह हिन्दी में अप्रचलित है।

हिन्दी में “तमाम करना” की टक्कर की अगर कोई अभिव्यक्ति है तो वह है ‘निपटाना’। इस निपटाने की अर्थव्याप्ति तमाम से भी ज्यादा है। निपटना में किसी समस्या से छुटकारा पाने से लेकर दैनंदिन क्रियाओं को सम्पन्न करने का भाव है। निपटाना में किन्हीं कार्यों को सुचारू रूप से पूरा करने से लेकर किसी का खात्मा करने तक का भाव है। इधर इसका अर्थविस्तार बदला या प्रतिशोध भी हो गया है। निपटना, निपटाना की कड़ी में ‘निपटान’ भी प्रचलित हो गया है जिसका प्रयोग आमतौर पर हाज़त-फ़राग़त के लिए किया जाता है।

हिन्दी में निपटना/निपटाना क्रिया का एक और रूप है निबटना/निबटाना और यही रूप शब्दकोशों में भी दर्ज़ है मगर लिखने-बोलने में आज सर्वाधिक प्रयुक्त रूप निपटना/निपटाना ही है। दरअसल विकासक्रम में निबटना/निबटाना एक पड़ाव था जिसकी अगली कड़ी निपटना/निपटाना और यह लगभग स्थिर हो चुकी है। हिन्दी में ‘व’ का रूपान्तर कभी ‘उ’ में होता है तो कभी ‘ब’ में। इसे जीव के जीऊ/जीउ रूप से समझ सकते हैं। इसी तरह छवि से छबि> छब हो जाता है। इसी तरह ‘ब’ का रूपान्तर ‘प’ में हो जाता है जैसे बारी से पारी हो जाना। निपटना बना है ‘निर्वर्तन’ से जिसमें पूरा करने के साथ साथ तामील करने का भाव भी है। निर्वर्तन> निवट्टना> निबटन> निपटना के क्रम में हिन्दी के पास तमाम की टक्कर की या कहें उससे बढ़कर अभिव्यक्ति पहले से है। अब तमामशुद करने की इजाज़त दें।

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खरप्रिय सर्वप्रिय

मात्रा के फ़र्क़ से ज़मीन-आसमान का फर्क़ आ जाता है। ‘खर’ यूँ तो गधा है पर जैसे ही इसमें ‘आ’ की मात्रा लगाई जाती है यह खरा हो जाता है जिसका मतलब है असली, साफ, बढ़िया, उत्तम। या तेज, तीखा, कठोर। क्या सचमुच ‘खर’ और ‘खरा’ में कोई रिश्तेदारी हो सकती है? संस्कृत में खर का अर्थ है सख़्त, कठोर, दृढ़, कड़ा, कटु, तेज, तीक्ष्ण, जड़, कर्णभेदी, प्रचंड, तप्त, रूखा, ऊँचा, नुकीला, अनघड़, उग्र, खुरदुरा, गहन, घनघोर अथवा अम्लीय आदि। हिन्दी में ‘खर’ का अर्थ गधा ही है। ज़ाहिर है गधे के उसकी कर्णभेदी, तीक्ष्ण, कटु, उग्र, और तेज आवाज़ के चलते ही खर कहा गया होगा और जड़ता के चलते मुर्ख की अर्थ स्थापना हुई होगी। मूर्ख से मित्रता करने वाला या तो खुद मूर्ख होगा या भोला। इसलिए ऐसे व्यक्ति को खरप्रिय कहा जाता है। कबूतर को भी खरप्रिय उपमा मिली हुई है। यूँ आज के ज़माने में मूर्खों इतने ऊँचे पदों पर विराजमान हैं कि खरप्रिय ही सर्वप्रिय हो गए हैं।

अब देखिए कि अश्व प्रजाति का होने के बावजूद जहाँ घोड़ा आभिजात्य का प्रतीक है वहीं गधा, घोड़े की सभी खूबियों से हीन है। अमरकोश के हवाले से बगुला, समुद्री बाज़, कौवा आदि भी खर की श्रेणी में ही आते हैं। अब ये सब तो परिंदे हैं तब एक चौपाए और इनके बीच कौन सा समानता बिन्दु हो सकता है? इन सबकी आवाज़ बेहद ऊँचे सुर में निकलती है। अब ऊँचा सुर अपनी निरन्तरता में तीक्ष्ण और कटु अनुभव देता है। गधे की आवाज़ तो ख़ैर कर्णभेदी है ही। असम सतह को खरदरा / खुरदुरा कहते हैं। कण्ठ के खुरदुरेपन या भर्रायी आवाज़ के लिए खरखराना शब्द भी प्रचलित है। गौर करें इन परिंदों के लिए खर अभिव्यक्ति इतनी लोकप्रिय नहीं हो पायी और गधा ही खर होकर रह गया। हालाँकि गधे की मूल पहचान उससे जुड़ा मूढ़ता का लक्षण है।

गौर करें मूढ़ता में एक किस्म की जड़ता, स्थिरता, अपरिवर्तनीयता होती है इन्हीं लक्षणों के चलते जड़ को अड़ियल या मूर्ख मान लिया जाता है। बुद्ध प्रतिमा के लिए बुत शब्द चल पड़ा और बुद्धमुद्रा से बुद्धू चल पड़ा। जड़ता पर गौर करें। सो खर में निहित जड़, अनघड़ और ठोस जैसे लक्षणों से गधे की मूल पहचान की पुष्टि भी होती है। खर शब्द फ़ारसी में भी चला आया। मगर यहाँ खरगोश में यह खर लक्षण के तौर पर मौजूद है। फ़ारसी में ‘गोश’ का अर्थ कान होता है। खर यानी गदहा इस तरह खरगोश का अर्थ हुआ गधे जैसे कान वाला पशु। मूर्ख व्यक्ति को खरदिमाग़ कहते हैं, यह फ़ारसी मुहावरा है। इसी तरह खर- का अर्थ है कामातुर, खिलंदड़ा, लट्ठ। एक और पद है खरवार यानी खर पर लादा गया भार।

अब बात करते हैं खर से बने खरा की जिससे हिन्दी में कई तरह की अभिव्यक्तियाँ शामिल हुई हैं जैसे खरी-खोटी सुनाना, खरी-खरी कहना, खरा माल, खरा सिक्का, खरा उतरना आदि। खरा का अर्थ उत्तम, सही, सच्चा, शुद्ध, बिना मिलावट का, ठोस, तेज़, तीक्ष्ण, कटु आदि ही है। गौर करें अपने मूल रूप में कोई भी वस्तु अनघड़ ही होती है। करेला या नीम कड़ुवेपन की वजह से खरे हैं। अगर नीम में कटुता न हो तो उसकी ओषधीय गुणता संदिग्ध होगी। खर से ही बना एक और बहुप्रयुक्त शब्द है प्रखर जिसमें तप्तता, तीक्ष्णता, प्रचंडता, तेज, तीखापन जैसे भाव हैं। मिसाल के तौर पर दोपहर में सूर्य सबसे प्रखर होता है। यहाँ एक साथ सूर्य के ताप, उग्रता, प्रचंडता, तीक्ष्णता से आशय है।

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साहेब, साहिब, साहिबा


म बोलचाल में साहब का अर्थ मान्यवर, श्रीमान या महोदय की तरह होता है। अपने से बड़े, वरिष्ठ और सम्माननीय व्यक्ति को भी साहब कहा जाता है। साहब का सायबा रूप संगी, हमजोली, सहचर को सही ढंग से अभिव्यक्त करता है। दरअसल अंग्रेजी की प्रसिद्ध टर्म फ्रैंड, फ़िलास्फर, गाइड का समन्वय है अरबी का साहिब। दरअसल स्वामी, मालिक, सर्वशक्तिमान जैसे रूढ़ अर्थों में हिन्दी में साहब शब्द का प्रयोग बहुत कम होता है। साहब वह है जो पढ़ा-लिखा है। उच्चाधिकारी है। आदरणीय है।

हिन्दी में साहिब का स्त्रीवाची साहिबा होता है जबकि मराठी में साहेबीण। फ़ारसी में साहिब का साहेब रूप प्रचलित है जबकि तुर्कीश में यह साहिप हो जाता है। मराठी ने फ़ारसी के साहेब को अपनाया। यह साहेब शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के लिए इस क़दर रूढ़ हो गया कि कई प्रगतिशील खुद को साहब कहलाना पसंद करते हैं, पर जैसे ही उन्हें साहेब कहा जाए तो बिदकते हैं। यह शब्दों का समाजशास्त्र है।

हिन्दी में संग, साथ के लिए सोहबत शब्द भी खूब इस्तेमाल होता है। अरबी/उर्दू में यह सुहबत है। सुहबत की रिश्तेदारी भी साहिब से है क्योंकि दोनों का मूल साद-हा-बा अर्थात ص/ح/ب ही है जिसमें संगत का भाव है। दुनियाभर के तमाम धर्मों में संगत का बड़ा महत्व है। ज़रूरी नहीं कि साथी कोई व्यक्ति ही हो।

संगत के आध्यात्मिक अर्थ हैं। पुस्तकों से लेकर विचारों तक का साथ मनुष्य के जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाता है। यह साथ पथप्रदर्शक होता है। बाइबल, गीता, कुरान अपने अपने धर्मों की पथप्रदर्शक ही हैं। सिख धर्म के प्रमुख ग्रन्थ के साथ साहिब शब्द तो सब कुछ साफ-साफ कह रहा है। ग्रन्थ ही साहिब अर्थात पथप्रदर्शक हैं। वैसे संगी का एक अर्थ जोड़ीदार भी होता है इसलिए सोहबत में संगत के साथ साथ स्त्री-पुरुष का मेल, समागम-सम्भोग जैसे भाव भी हैं।

आज से क़रीब सत्तर साल पहले तक साहब से बने दर्जनों युग्मपद हिन्दुस्तानी में प्रचलित थे जैसे साहिबे-आलम, साहिबे-दौलत, साहिबे-नसीब आदि। मद्दाह साहब के कोश में इस तरह के अस्सी से ज़्यादा युग्मपदों का इंदराज है।
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