विनय शब्द में ही किसी को अपने पास ले जाने की भावना है। ‘नी’ (ले जाना) धातु से यह शब्द बना है जिसके पहले विशिष्टता वाचक उपसर्ग ‘वि’ लगा है। डां पाण्डुरंग राव विनय की व्याख्या बहुत सुंदर ढंग से करते हैं । वे कहते हैं कि प्रत्येक जीव को जीवन प्रदान करनेवाले प्राणदाता विनयसूत्र से सबको अपनी ओर खींच लेते हैं। जिस जीव में जितनी विनयशीलता होती है उतना ही वह अपने अंदर के ब्रह्म के निकट पहुंच जाता है। परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा को अपनी विशिष्ट पद्धति के अनुसार अपनी ओर आकृष्ट करता है और इस प्रकिया के अंतर्गत वह बार बार यह देखने की चेष्टा करता है कि जीवात्मा कितना अपने निकट पहुंचा है। विनयिता का साक्षी जानता है कि कौन कितना विनम्र है और कितना उद्दंड। महत्ता की मान्यता मानव को महान् बनाती है और यही विनम्रता का पाठ भी सिखाती है। बाहरी ठाठ-बाट और दिखावटी गरिमा से आदमी जितनी दूर रहताहै, उतना वह आत्मा के आंतरिक सौदर्य को हृदयंगम कर पाता है। शारीरिक सौंदर्य, बौद्धिक विकास, आर्थिक समृद्धि, सामाजिक गौरव प्रतिष्ठा आदि से सुसंपन्न जीवन व्यतीत करते हुए भी अगर मनुष्य अपने को एक महती आत्मा का अकिंचन अंश समझ सकता है तो वह सच्ची और सात्विक विनय का अधिकारी बन जाता है। यही विनयिता परमात्मा को अत्यंत प्रिय है। इसलिए भगवान का प्रेम पाने और अपने अंदर की सच्ची सत्ता को पहचानने के लिए सहज सात्विक विनम्रता के सांचे में अपने को ढालना पड़ेगा। विनम्रता का अर्थ भीरुता नही है। सांसारिक सारहीनता की भावना ही विनय है।
Monday, October 15, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 कमेंट्स:
क्या बात है अजित भाई.. क्या व्याख्या की है विनय की.. बहुत दिनों बाद पढ़ रहा हूँ आपको.. काफ़ी माल इकट्ठा कर दिया है आपने..
ज्ञानवर्धक.
अनुपम आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की है आपने विनय की। इस अर्थ को पढ़ने के बाद प्रार्थना की इन पंक्तियों का मूल्य और भी बढ़ जाता है -
"हे प्रभु आनन्ददाता, विनय हमको दीजिए।
लीजिए हमको शरण में, विनय हमको दीजिए।"
जिस जीव में जितनी विनयशीलता होती है उतना ही वह अपने अंदर के ब्रह्म के निकट पहुंच जाता है।सुंदर बात!
Post a Comment