पिछली कड़ी-अल्लाह की हिक्मत और हुक्मरान [हकीम-2]
चा रागर शब्द यूं तो फारसी ज़बान से हिन्दी में आया है मगर यह मूलतः इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता संस्कृत-अवेस्ता से है। संस्कृत में एक धातु है चर् जिसमें घूमना-फिरना, गति, चलना, चक्कर काटना, भ्रमण करना आदि भाव हैं। यूं चर् धातु में विभिन्न तरह के दैनन्दिन क्रियाकलाप शामिल हैं जिनमें एक भोजन करना भी इसका अर्थ है। आपटे कोश में इस धातु का परम अर्थ दिया है वह है चलते जाना, जीना, किसी न किसी अवस्था में विद्यमान रहना। यही बात प्रसिद्ध उक्ति चरैवेति-चरैवेति के दार्शनिक अर्थों में भी समायी है। अरब के हकीम शब्द की तरह ही चारागर शब्द भी ज्ञानपरम्परा से अपनी अर्थवत्ता ग्रहण करता है, मगर ज़रा दूसरे ढंग से। हकीम शब्द बना है सेमिटिक धातु ह-क-म (हा-काफ-मीम) से। इस धातु में बुद्धिमान होना, जानकार होना, ज्ञान और अपने आसपास की जानकारी होने का भाव है।
गौर करें चर् धातु का ही अगला रूप चल् है जिसमे हिलना, गति करना, कांपना, धड़कना, सैर करना जैसे भाव हैं। हिन्दी का चल, चलना, चलित, चालित जैसे शब्द इससे ही बने हैं। पहाड़ स्थिर होते हैं, कभी चलते नहीं इसलिए चल् में अ उपसर्ग लगने से मनुष्य ने पर्वत के लिए अचल शब्द बना लिया जिसका लाक्षणिक अर्थ हुआ जो अडिग रहे, टस से मस न हो। चलते-चलते एक लीक बन जाती है। यही चलन है अर्थात ढंग, रीत। प्रचलन भी इससे ही बना है जिसका मतलब भी परम्परा ही है। मार्ग से भटकना अथवा गलत राह पर चलना ही विचलन है। चर् धातु के घूमने फिरने के अर्थों से ही बना है विचरण। घुमक्कड़ी और पर्यटन का ज्ञान से गहरा रिश्ता है। यायावरी अर्थात अर्थात विचरण से जिसने जैसा ज्ञान अर्जित किया वही उसका चरित्र बना। इसमें व्यभि लगने से बना व्यभिचार अर्थात गलत राह पर चलना, कपटपूर्ण व्यवहार, विश्वासघात आदि। आचरण शब्द भी इसी मूल से आ रहा है। चल् से बने चलन से हिन्दुस्तानी में एक मुहावरा बना चाल-चलन जिसे किसी व्यक्ति के मूल्यांकन का आधार माना जाता है। दरअसल यही चरित्र है। जीवनी, इतिहास और साहस कथाओं के लिए चरित शब्द भी इसी मूल से निकला है जैसे दशकुमारचरित, रामचरितमानस आदि।
चरणवंदना क्यों...हिन्दी में चरणवंदना की अर्थवत्ता अब बदल गई है और इसका अर्थ चापलूसी से लगाया जाता है। वैसे चरणस्पर्श की परम्परा के पीछे गहरी सोच छुपी है। चरण शब्द बना है संस्कृत के चरणः से जिसका जन्म हुआ है चर् धातु से। इसका अर्थ है चलना, भ्रमण करना, अभ्यास करना आदि। एक अन्य अर्थ भी है – सृष्टि की समस्त रचना। इसी से बना है चरण जिसका मतलब है पैर यानी जो चलते-फिरते हैं, भ्रमण करते हैं। गौरतलब है कि प्राचीनकाल में ज्ञानार्जन का बड़ा ज़रिया देशाटन भी था। चूंकि घूमें-फिरे बिना दुनिया की जानकारी हासिल करना असंभव था इसलिए जो जितना बड़ा घुमक्कड़, उतना बड़ा ज्ञानी। चूंकि पैरों से चलकर ही मनुष्य ने ज्ञानार्जन किया है इसीलिए प्रतीकस्वरूप उन्हे स्पर्श कर उस व्यक्ति के अनुभवों को मान्यता प्रदान करने का भाव महत्वपूर्ण है। घूमने फिरने पुराने जमाने में राजाओं के संदेश लाने ले जाने का काम करनेवाले दूतों को भी चर या चारण कहते थे । राजस्थान की एक जाति का नाम भी इसी आधार पर पड़ा है।
कम से कम कहावतों-मुहावरों में तो यही सच है। चर् धातु में गति और हलचल के भाव को मनुष्य द्वारा रोजीरोटी जुटाने प्रयास के तौर पर ही देखना चाहिए। चारा शब्द को आमतौर पर पशुआहार के रूप में देखा जाता है जो इसी मूल से जन्मा है। गौर करें मवेशी चलते-चलते घास खाते हैं इसीलिए चरना में घास खाने का भाव ही निहित है। चरागाह या चारागाह शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
15 कमेंट्स:
फालोवर की जगह टहलुआ कहा जाए तो कैसा लगेगा . आप हिंदी के परिचर हो और हम आपके अनुचर
इसका मतलब हम सबके अनुचर हो रहे हैं ब्लोग्गिंग में...ये बढिया है अजित जी फ़ौलोवर से तो ..शब्द संपदा हमारी भी बढ रही है आपको पढ पढ के..
महत्वपूर्ण कड़ी है यह। विचार का चारा पसंद आया। बेचारा बुद्धिजीवी!
वडनेकर जी!
हन भी तो चारागर की ही तलाश में थे।
अहोभाग्य कि आपने ये इस तलाश को खंगाल दिया।
तँत्रोक्त मँत्रों में भी बीज रूप से ’ च ’ को सतत स्फुरण एवँ परिचालन के सँदर्भ में प्रयोग किया गया है ।
आपका आलेख रोमाँचित कर देता है ।
एक' चारागर' की तलाश थी...मिल गया...
आज वाली पोस्ट के कुछ हिस्से हजम नही हुए.
चरणस्पर्श करने का कारण जो मुझे पता है वो यह धारणा की आध्यात्मिक ऊर्जा पैर के अंगूठों से बहती/निकलती है अत: उन्हे छूने वाला स्वयं पर आध्यात्मिक शक्तिपात/आशीर्वाद दिये जाने की प्रार्थना कर रहा होता है. इसका ज्ञान से अधिक आशीर्वाद पाने से संबंध है.
भगवान विष्णू के पैरों की पूजा भी इसी लिये की जाती है की वे मूल रचनाकार हैं, जिनकी इच्छा से सब जन्मा, अत: आध्यात्मिक ऊर्जा के स्त्रोत हैं.
घुमक्कड़ी वही नही है जो बाहर होती है। एक यात्रा मन की होती है जिसे चिंतन कहते हैं। चिंतन-मनन के दौरान ही विचार उत्पन्न होते है
चारागर का सफर तो ज्ञानवर्धक है ही |कितु मुझे इन पंक्तियों ने आकर्षित किया |
आभार
@ईस्वामी
स्वामीजी, जब ईश्वर का आविष्कार हो चुका था। महिमामंडन भी हो चुका था, क्या उस वक्त पैर छूने की परम्परा शुरू हुई? याद रखें जिस इतिहास की आप बात कर रहे हैं उस दौर में मानव ने हर नजर से तरक्की हासिल कर ली थी जबकि शब्दों का सफर मानव की विकास यात्रा के साथ चलता है। समाज की सोच के साथ शब्दों का बर्ताव बदलता है औऱ वह नए रूप में ढलता है।
ईश्वर तो कहीं चलते-फिरते नहीं, फिर उनके पैरों की धुलाई क्यों होती है? पैर सिर्फ इसलिए धोए जाते हैं क्योंकि उन पर धुलिकण लग जाते हैं।
मनुष्य ने ईश्वर को खुद से अलग भी माना मगर उसे हमेशा मानवीकृत संस्कारो में ढाला। आस्था, श्रद्धा के आईने में देखें तब चरणामृत का अर्थ कुछ निकलता है वर्ना क्या सामान्य मनुष्य के पादप्रक्षालन वाला पानी क्या चरणामृत कहे जाने और पीने योग्य है? मनुष्य पानी से नहाता है और ईश्वर को हम दूध, घी से नहलाते हैं। साफ-सुथरे ईश्वर के शरीर पर लगा दूध-घी व्यर्थ क्यों जाए, सो चरणामृत बन गया। क्या कोई भी सामान्य व्यक्ति इन पदार्थों से नहाकर स्वस्थ रह सकता है? आस्था ही ईश्वर के साथ वही सारे संस्कार कराती है, सामान्य मनुष्य जिन्हें नित्य करता है मगर आडम्बर और तामझाम के साथ नहीं।
विष्णु, अंगूठा, ऊर्जा ये सब बहुत बाद के दौर की बातें हैं। यूं आप भी धारणा शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। मैने भी विवेचना का प्रयास ही किया है।
ajit bhai
main apki post mein dekhta hun ki kisi shabda ke kisi auchuye pahalu ko khojun par mujhe nirasha hath lagti hai.
rakesh narayan dwivedi
charan sparsh का कोई sambandh kahiin chaturvarn vyavastha से तो nahii है?
charan से shoodra janme...isliye pair हुआ sharii का shoodra..और samman के लिए hamane आपके charan choye..yaani sabase ''adham'' chiiz..
मुझे kisii ने bataayaa ही था और usake बाद से choonaa chulana दोनों बंद....( bhashaa का यह रूप aapake bakse की kirpa से)
माठा में से 'रहिए' गायब !
अरे, चारागर का अर्थ तो बता देते !!
..शब्द तो बहुत हो गए अब वाक्यों की ओर भी दृष्टि डालें। ब्लॉगजगत को आप विविध लेखन से भी समृद्ध कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन ही सही या हर पूर्णमासी - कुछ ललित लिखिए न।
चारा का भी नया मतलब पता चला !
क्या कह रहे हैं गिरिजेश भाई,
चारागर से ही तो शुरू हुई है ये पोस्ट। ......अर्थात जो महानुभाव चारा यानि निदान प्रदान करें वे चारागर हैं। इसीलिए इलाज के अर्थ में चारागरी प्रचलित हुआ...
इन पंक्तियों पर से आप शायद सरपट गुजर गए।
आपका जो सुझाव है, उसके बारे में मैं खुद कई बार सोचता हूं। कई फुटकर विषय होते हैं जिनपर विचार आते हैं। मगर शब्दों का सफर दरअसल एक मुहिम जैसा है। मैं दस हजार आम बोलचाल के हिन्दी शब्दों के कोश पर काम कर रहा हूं। अगर इससे भटक गया तो इस काम में वक्त लग जाएगा। फिलहाल एक सूत्री कार्यक्रम की तरह इसी में जुटे रहना चाहता हूं। यूं भी कई नावों की सवारी मैं नहीं कर सकता।
स्नेह बनाए रखें।
मन्दमति 'चारागर' पर से भैंसवार की माफिक सामने देखते ही गुजर गया था। शुरुआत में ही नहीं देखा, अरे सामने ही तो था - चारागर माने हकीम।
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