करीब चार सदी पहले सात समंदर पार से आए अंग्रेज तिजारतियों नें ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिये हिन्दुस्तान से कारोबार शुरू किया। धीरे धीरे उनका दखल स्थानीय प्रशासन में हुआ और फिर यह दखलंदाजी कंपनीराज जैसी एक ऐसी अस्थाई व्यवस्था में ढल गई जिसका 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद ब्रिटिश राज में तब्दील होना इतिहास में मानो पूर्वनियोजित था। कंपनी राज से पहले ही गौरांग प्रभुओं ने इस मुल्क के तत्कालीन बंटे हुए शासन-समाज को भांप लिया था। सत्ता का असली सुख राजा नहीं बल्कि उसके कारिंदे भोग रहे थे, क्योंकि पूरे देश में सर्वमान्य कानूनी अमलदारी नहीं थी। ज़मींदारों, तालुकदारों और कारिंदों के अपने अपने कानून थे जिनके बीच आम जनता पिस रही थी। अंग्रेजों ने अपने विस्तारवाद को ढकने और भारत को उपनिवेश बनाने का औचित्य सिद्ध करने के लिए दिखावे के तौर पर यही जाहिर किया कि जाहिलों के इस मुल्क में कानून का राज कायम करना उनकी जिम्मेदारी है। मय्यादास की माड़ी को पढ़ते हुए यह समूचा परिदृष्य धीरे धीरे समझ में आता है। भारत को औपनिवेशिक गुलाम बनाने की चालों में स्वार्थी उच्चवर्ग सहायक होता है और राजाओं के मनमाने राज से जनता को निजात दिलाने के लिए अंग्रेजों का कानून देश को गुलामी की कालकोठरी में धकेल देता है।
कहानी झेलम और चनाब के दोआब में बसे एक कस्बे की है, जिसका अहम हिस्सा है मय्यादास की माड़ी। एक बदलते दौर में लगातार ढहते बिखरते जाने को अभिशप्त गढ़ी, जिसे बनाया था मय्यादास ने, जो अफ़गानिस्तान तक पसरे सिख राज्य का काबुल में ऊंचा ओहदेदार था। कारदार के पद से तरक्की कर, बदलती हैसियत के साथ अपने पुश्तैनी गांव में इस माड़ी के निर्माण के साथ उसका रसूख और दबदबा बढ़ता जाता है। वह बड़ा दीवान कहलाता है। करीब डेढ़ सदी पहले दुनियाभर में आ रहे बदलाव की खबरों से दूर इस कस्बे का जीवन किस तरह माड़ी में होनेवाली घटनाओं से जुड़ा था इसका दिलचस्प ब्योरा उपन्यास में है। मैयादास का सदाचारी रूप मगर वक्त को न पहचान पाने की वजह से उसका दुखद अंत पूरे कथानक पर छाया है। पंजाब के अधिकांश इलाके पर अंग्रेजों की अमलदारी कायम हो जाती है, लाहौर सिखों के हाथ से निकल जाता है। अंग्रेज भक्त बन कर नई व्यवस्था में पद और रुतबा हासिल करने की होड़ में पुराने रईसों, तालुकदारों के घरों में फूट पड़ने लगती है। सिख राज के समर्थक पीछे धकेले जाते हैं। भितरघाती और अंग्रेजों के टहलुए किसी न किसी तरह कृपापात्र बनने की जुगत करने में जुट जाते हैं। मय्यादास का सौतेला भतीजा धनपतराय भी इनमें शामिल है। मैयादास ने लाहौर दरबार को अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए एक लाख अशर्फियों की मदद दी थी। अंग्रेजों की जीत के साथ यह मदद उसके लिए विपत्ति बनकर लौटती है। अंग्रेज नई ज़मींदारी व्यवस्था कायम करते हैं। दलपत को तीन गांवों का मुरब्बा बख्शा जाता है। वह मैय्यादास को माड़ी से बेदखल करता है, पर कस्बेवालों के समझाने पर मान जाता है। मगर माड़ी पर उसकी नज़र गड़ी रहती है। गर्दिश में रुसवाई का सदमा मैय्यादास की मौत बन जाता है। माड़ी के इर्दगिर्द पसरे कस्बे की तीन पीढ़ियां पुराने ज़माने को मुट्ठियों में थामने की कोशिश के बीच उसे लगातार फिसलते देख रही हैं और सुन रही हैं बदलाव की आहट जो रेल लाईन पर भागते काले दैत्याकार इंजन के धुंए से भी ज्यादा आशंकित करनेवाली हैं। इस सबके बीच है उस दौर की पंजाबी संस्कृति, लोगों के क़ायदे, आपसी व्यवहार, शादी-ब्याह, गीत, दर्द के नग्में और खुशियों के तराने। आज़ादी से पहले के बदलते भारत की तस्वीर उकेरते अनेक कथानक प्रेमचंद, यशपाल, अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा जैसे ख्यात लेखकों ने लिखे हैं, मगर अठारहवीं सदी के भारत का चेहरा मैयादास की माड़ी में उभरता है जिसमें उपनिवेश काल है, ब्रिटिश साम्राज्यशाही का लोलुप चरित्र है, अतीत में डूबा और परम्पराओं में जकड़ा समाज है जिसके लिए जीवन का अर्थ सुबह से शाम हो जाने जितना ही सहज और सामान्य है। किसी किस्म के बौद्धिक, आत्मिक और वैज्ञानिक विकास के लिए इस सुबह और शाम के बीच कोई गुंजाईश कम से कम सोच के स्तर पर नहीं है।
उपन्यास में सहज सरल भाषा में उस दौर का खाका खींचा गया है। कई प्रसंग अनूठे हैं। पश्चिमी पंजाब में पेशावर को कराची और कोलकाता से जोड़ने के लिए जब ग्रांड ट्रक ट्रैक बनाया जा रहा था तब यात्रा के इस अनूठे साधन को लेकर लोगों में कितनी तरह की भावनाएं, आशंकाएं थी उसका बेहद मज़ाहिया ब्यौरा भीष्म साहनी की कलम से निकला है। यह ब्यौरा हम कबाड़खाना पर लगा रहे हैं। यहां पेश है रेल की प्रशंसा में रचा गया लोकगीत- गड्डी आई गड्डी आई मंगोवाल दी/ बुड्ढे दी दाढ़ी विच अग्ग बाल दी/ शाबा शाबा वे फिरंगिया/ अटल होवी राज/ तू सभणा दा सरताज... ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
6 कमेंट्स:
आप की पुस्तक चर्चा की प्रतीक्षा रहती है। इस से बहुत सी अनपढ़ी पुस्तकों की जानकारी मिल जाती है।
आपके अच्छे taste को सलाम. साहित्य जगत की अमूल्य सेवा कर रहे है आप. भाषा,साहित्य और साहित्यकारों से परिचय करवाने का आपका अंदाज़ बिरला है.
तभी हम खिंचे चले आये .....
यह पुस्तक तो पढ़ी नहीं अभी तक मैनें, हाँ भीष्म साहनी की तमस पढ़ी थी, अद्भुत कृति !!!!! मय्यादास की माड़ी की जानकारी देने के लिये धन्यवाद । जल्द हीं पढ़ने की कोशिश करूँगा ।
अरसे बाद भीष्म जी पर पढ़ कर अच्छा लगा..मेरे भी ये प्रिय लेखक रहे हैं और उनसे कई बार मिला भी हूँ...रेल की तारीफ़ में एक राजस्थानी लोक गीत याद आ गया...अंजन की सीटी में म्हारो मन डोले , चला चला रे डलइबर गाडी होले-होले...
अरे यह तो बहुत बढ़िया जानकारी है .धन्यवाद
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