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Wednesday, March 24, 2010
किस्सा-कोताह ये कि…
कि सी प्रसंग को विस्तार से बताने के बाद उसका सार प्रस्तुत करते हुए अक्सर कहा जाता है कि किस्सा-कोताह ये कि...इसका अभिप्राय होता है समूचे प्रकरण का निष्कर्ष सामने रखना या संक्षेप में कहानी बताना। किस्सा कोताह दरअसल अरबी और फारसी के दो शब्दों से मिलकर बना पद (टर्म) है और लालित्यपूर्ण भाषा बोलने के शौकीन इसका खूब प्रयोग करते हैं। भाषा को प्रभावी और मुहावहरेदार बनाने के लिए भी इसका प्रयोग होता है। कोताह शब्द इंडो-ईरानी मूल का है। हिन्दी में कोताह शब्द भी स्वतंत्र रूप में खूब इस्तेमाल होता है। कोताह में कमी, सूक्ष्मता या छोटेपन का भाव है। हिन्दी में इसकी आमद फारसी से हुई है। किसी काम को अपूर्ण या अधूरा छोड़ने के संदर्भ में कोताही करना, कोताही बरतना जैसे शब्दों का प्रयोग लापरवाही उजागर करने के लिए होता है।
कोताह शब्द संस्कृत के क्षुद्रकः के अवेस्ता में हुए रूपांतर कुटक(ह) से बना है। पह्लवी में इसका रूप कुडक या कुटक है और इसकी आमद अवेस्ताके कुटक(ह) से ही हुई है। संस्कृत का क्षुद्रकः बना है क्षुद् धातु से जिसमें दबाने, कुचलने , रगड़ने , पीसने आदि के भाव हैं। जाहिर है ये सभी क्रियाएं क्षीण, हीन और सूक्ष्म ही बना रही हैं। छोटा शब्द संस्कृत के क्षुद्रकः का रूप है जो क्षुद्र शब्द से बना। इसमे सूक्ष्मता, तुच्छता, निम्नता, हलकेपन आदि भाव हैं। इन्ही का अर्थविस्तार होता है ग़रीब, कृपण, कंजूस, कमीना, नीच, दुष्ट आदि के रूप में। अवधी-भोजपुरी में क्षुद्र को छुद्र भी कहा जाता है। दरअसल छोटा बनने का सफर कुछ यूं रहा होगा – क्षुद्रकः > छुद्दकअ > छोटआ > छोटा। संस्कृत क्षुद्र से फारसी में दो रूपांतर हुए। पहला इससे खुर्द बना जिसका अर्थ भी होता है छोटा, महीन आदि। खुर्दबीन, खुर्दबुर्द, खुरदुरा जैसे शब्द इसी मूल से आ रहे हैं। दूसरा रूपांतर क्षुद्रकः के अवेस्ता के कुटक(ह) से हुआ। अवेस्ता का ट फारसी में जाकर त में बदला क वर्ण का लोप हुआ और इस तरह कमी, न्यूनता या सूक्ष्मता के अर्थ में कोताह शब्द सामने आया। कोताह का लघु रूप कोतह भी होता है। कमी के लिए कोताही शब्द भी बना। उर्दू फारसी में छोटा के अर्थ में कोताह शब्द से कई समास बनते हैं जैसे कोताह-कद (ठिंगना), कोताह-गरदन, कोतहनज़र, कोतहअंदेश (अदूरदर्शी), कोताहफहमी (कमअक्ल),कोताहदामन (संकीर्ण हृदय का) वगैरह वगैरह।
किस्सा शब्द सेमिटिक भाषा परिवार का है और अरबी से आया है। हिन्दी में इसकी आमद फारसी से हुई है। सेमिटिक धातु q-s- (क़ाफ-साद-) से इसका जन्म हुआ है जिसमें अनुसरण करना, पालन करना, पीछे चलना, ध्यान देना आदि भाव हैं। इससे बना है अरबी का क़स्सा शब्द जिसमें अनुसरण करना, पीछे चलना जैसे भाव हैं। इसी मूल से उपजा है किस्साह qissah जिसका अर्थ है कहानी, कथा, गल्प आदि। मूलतः किस्साह इस्लामी दर्शन का पारिभाषिक शब्द है जिसमें कथा-कहानी वाले मनोरंजन का भाव न होकर दृष्टांत या प्रसंग सुनाने वाले के शब्दों के पीछे चलने का भाव है। अर्थात श्रोता के लिए कहानी पर गौर करना ज़रूरी है तभी उसका निहितार्थ समझ में आएगा। गौरतलब है कि हर संस्कृति में पुराख्यानों का उद्धेश्य समाज को धर्म-नीति की शिक्षा देना रहा है। प्रवचनकर्ता का मानसिक अनुगमन कर ही मूल कथातत्व समझ में आता है जो मूलतः सीख या नसीहत ही होती है।
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14 कमेंट्स:
बढ़िया जानकारी, आभार!
किस्सा पूरा पढ़ा और ये क्या !! समझ में भी आया इस मूढ़ को .... कोई कोताही नहीं बरती सर जी ..
बहुत ही बढ़िया ..
इतने अच्छे आलेख पर कमेन्ट देने की कोताही हम भी कर रहे हैं ...:)
सफर अच्छा लगा....पहेलियों का सफर भी होना चाहिए.....
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विलुप्त होती... नानी-दादी की बुझौअल, बुझौलिया, पहेलियाँ....बूझो तो जाने....
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http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
काम की जानकारियाँ।
अजित जी , ज्ञान के भण्डार हैं आप. अच्छी लगी ये जानकारी. आभार.
अजित भाई , हिंदी ब्लोग्गिंग में जब भी मौलिक लेखन और हिंदी ब्लोग के विरासती ब्लोग का जिक्र होगा श्बदों का सफ़र का जिक्र होगा उसमें ..। आज की जानकारी भी बहुत अच्छी थी ...शुक्रिया
अजय कुमार झा
'कोताह' को विस्तार दिया है,
कैसा चमत्कार किया है!
क्षूद्र से लेकर खुर्द तलक को,
सूई को भी तलवार किया है
-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
ज्ञानवर्धक आलेख. रामनवमी की शुभकामनायें.
बहुत उम्दा व संक्षेप में वर्णित इस उपयोगी लेख के लिए धन्यवाद्
जानकारी के लिए आभार!
आपका शब्दो का सफर बहुत अच्छा चल रहा है!
साथियो!
आप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.
महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.
आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं.
आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.
मैं कोशिश कर रहा हूँ कि समानधर्मा रचनाकार साथियों के ब्लॉग का लिंक अपने हमज़बान पर ज़रूर दे सकूं..कोशिश जारी है.
ग़जब ! कोताह संस्कृत से कहाँ कहाँ गया और फिर वापस आ गया।
आप ने आलसियो पर बड़ी मेहरबानी की। हम सीना तान कह सकते हैं, हम कोताही करते हैं क्यों कि सुसंस्कृत हैं ;)
ये शहरोज जी 'उत्तर दक्षिण परोक्ष अपरोक्ष' की बातें कर रहे हैं। पूरब पश्चिम मिला कर इन पर भी एक ठो लेखवा दै दो न भाऊ !
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