हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है । सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच. विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’ शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था ।
एलेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’ भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान में हैं ।
बलूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’ या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है । अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है ।
भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता ।
भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था । सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है ।
खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है । देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) = काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)। क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर ) = सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) = चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली ) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी ।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और आखिर किसे परिचित करा रहे थे ?
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |