Friday, October 31, 2008

पामीर खुर्द से चीन कलां तक...[क्षुद्र-5]

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पुरानी दिल्ली में एक मस्जिद है जिसका नाम कलां मस्जिद है और इसे काली मस्जिद भी कहा जाता है मगर इसका नामकरण करनेवालों का मंतव्य इसकी भव्यता और महानता से ही रहा होगा।
दियों पहले से नगरीय ग्रामीण बसाहट का राजस्व अर्थात सरकारी उगाही से गहरा रिश्ता रहा है। कोई भी आबादी जिस भूमि पर बसती थी वह राज्य का हिस्सा होती थी और वहां बसने और विभिन्न व्यापार-व्यवसाय की एवज में उसे राज्य को करों की अदायगी करनी होती थी। यही व्यवस्था आज भी जारी है। राजस्व का किसी भी बसाहट के आकार से गहरा रिश्ता है।
मतौर पर बड़ी बसाहटों से सरकार को अधिक करों की प्राप्ति होती है क्योंकि वहां विभिन्न प्रकार के क्रिया कलाप होते हैं जिससे व्यापारिक गतिविधियां तेज होती हैं। भारत में मुस्लिम शासनकाल में ग्रामीण बसाहटों को राजस्व व्यवस्था के तहत मज़बूत किया गया। मुग़लों ने लगभग पूरे देश में कर वसूली की प्रक्रिया को अपने हिसाब से सुव्यवस्थित किया । एक जैसे नामों वाली ग्रामीण बसाहटों में छोटी और बड़ी आबादी के हिसाब से नामों में संशोधन किया गया। छोटी आबादी वाले गांवों-कस्बों के पीछे खुर्द शब्द लगाया गया । फ़ारसी के इस शब्द का अर्थ होता है छोटा। यह खुर्द संस्कृत के क्षुद्र से ही बना है जिसमें लघु, छोटा या सूक्ष्मता का भाव है। देश भर में खुर्द धारी गांवों की तादाद हजारों में है।
सी तरह कई गांवों के साथ कलां शब्द जुड़ा मिलता है जैसे कोसी कलां , बामनियां कलां । जिस तरह खुर्द शब्द छोटे या लघु का पर्याय बना उसी तरह कलां शब्द बड़े या विशाल का पर्याय बना। कलां का प्रयोग लगभग उसी अर्थ में होता था जैसे भारत के लिए प्राचीनकाल में बृहत्तर भारत शब्द का प्रयोग होता था जिसमें बर्मा से लेकर ईरान तक का समूचा भूक्षेत्र आता था।  हालांकि किसी यात्रावृत्त में हिन्दुस्तान कलां जैसा शब्द नहीं मिलता।  ग्रेटर ब्रिटेन की बात चलती थी तो उसके उपनिवेशों का संदर्भ निहित होता था। इसी तरह कलां शब्द की अर्थवत्ता भी ग्रामीण आबादियों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
लां मूलतः फ़ारसी  का शब्द है जिसका मतलब होता है वरिष्ठ, बड़ा, दीर्घ या विशाल। वैसे इसकी व्युत्पत्ति अज्ञात है। कुछ संदर्भों में इसे सेमेटिक भाषा परिवार का बताया जाता है और इसे ईश्वर की महानता से जोड़ा जाता है। कलां की अर्थवत्ता के आधार पर यह ठीक है मगर इसकी पुष्टि किसी सेमेटिक धातु से नहीं होती। कलां शब्द का प्रयोग सिर्फ स्थानों का रुतबा बताने के लिए ही नहीं होता था बल्कि व्यक्तियों के नाम भी होते थे जैसे मिर्जा कलां या अमीर कलां अल बुखारी जिसका मतलब बुखारा का महान अमीर होता है। जाहिर है यहां कलां शब्द का अर्थ महान है।  
मुस्लिम शासनकाल में बसाहटों के नामकरण की महिमा यहीं खत्म नहीं होती। कई गांवों के नामों के साथ बुजुर्ग शब्द लगा मिलता है जैसे सोनपिपरी बुजुर्ग । जाहिर है हमनाम गांव से फर्क करने के लिए एक बसाहट को वरिष्ठ मानते हुए उसके आगे बुजुर्ग लगा दिया गया और दूसरा हुआ सोनपिपरी खुर्द । ऐसी कई ग्रामीण बस्तियां हजारों की संख्या में हैं। इसी तरह किसी गांव के विशिष्ट दर्जे को देखते हुए उसके साथ जागीर शब्द लगा दिया जाता था । इसका अर्थ यह हुआ कि सालाना राजस्व वसूली से उस गांव का हिस्सा सरकारी ख़जाने में नहीं जाएगा अथवा उसे आंशिक छूट मिलेगी। मुग़लों के दौर में प्रभावी व्यक्तियों को अथवा पुरस्कार स्वरूप सामान्य वर्ग के लोगो को भी गांव जागीर में दिये जाते थे। मगर उसी नाम के अन्य गांवों से फ़र्क करने के लिए नए बने जागीरदार उसके आगे जागीर जोड़ देते थे जैसे हिनौतिया और हिनौतिया जागीर

29pamir दुनिया की छतः बड़े  पामीर यानी पामीर कलां का वह हिस्सा जो पामीर अलाइ कहलाता है और ताजिकिस्तान और किर्गिजिस्तान में पड़ता है। चित्र सौजन्यःupdate.unu.edu/ 

क और दिलचस्प बात । खुर्द और कलां की मौजूदगी बृहत्तर भारत की तरह ही अंतराष्ट्रीय संदर्भो में भी है। जगत्प्रसिद्ध पामीर क्षेत्र दरअसल चीन, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, किर्गिजिस्तान, ताजिकिस्तान के दर्म्यान फैली हिन्दुकुश, कुनलुन, तिआनलान और काराकोरम पर्वतश्रंखलाओं के समूह को कहते हैं जिसे अंग्रेज दुनिया की छत कहते थे। पामीर का सुरम्य हिस्सा जो अफ़गानिस्तान में पड़ता है छोटा पामीर कहलाता है। इसे पामीर खुर्द भी कहते हैं। समूचे पाकिस्तान, ईरान, अफ़गानिस्तान में इसी नाम से जाना जाता है। शेष पामीर को पामीर कलां कहते हैं अर्थात बड़ा पामीर। इसी तरह अरेबियन नाइट्स के प्रसिद्ध अरबी सौदागर सिंदबाद जहाज़ी के यात्रा वर्णनों में चिनकलां, चीनकला या सिनकलां शब्द आया है जिसका मतलब वृहत्तर चीन के संदर्भ में दक्षिणी चीन के उस हिस्से से था जहां आज गुआंगझू – कैंटन प्रांत है। ऐतिहासिक संदर्भो मे भी सदियों पहले इस क्षेत्र का यही नाम प्रचलित था। इससे यह तो जाहिर होता है कि फ़ारसी के साथ साथ यह अरबी भाषा में भी खूब प्रचलित था।
खुर्द की तरह से छोटा के अर्थ में एक अन्य शब्द है कोचक। एशिया माइनर के लिए हिन्दी, उर्दू में एशिया कोचक शब्द का प्रयोग होता है। कोचक तुर्क-मंगोल मूल का शब्द है जिसका अर्थ होता है लघु या छोटा। कोचक शब्द की व्याप्ति हिन्दी में कम रही मगर चंगेज़ खान और उसकी संतानों ने सुदूर यूरोप तक खासतौर पर हंगरी में जो धावे बोले उसकी वजह से तुर्किक ज़बान का प्रभाव इस पूर्वी यूरोपीय देश पर पड़ा और यह किशुक, किसुक जैसे रूपों में हंगारी भाषा में प्रचलित है।                  समाप्त
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Thursday, October 30, 2008

बाटला खुर्द से देहली खुर्द तक...[क्षुद्र-4]

Andrews-Beyond-Grid_md राजस्व वसूली के लिए मुस्लिम दौर में एक से नामों वाली आबादियों के साथ खुर्द लगाने का चलन शुरू हुआ ...

सं स्कृत के क्षुद्र शब्द की उपस्थिति न सिर्फ पदार्थों के संदर्भ में नज़र आती है बल्कि बसाहटों, आबादियों में भी यह दिखती है। क्षुद्र से बने फ़ारसी के खुर्द शब्द में छोटा , अंश , टुकड़ा, खंड आदि भाव समाए हैं। खुर्द से खुदरा, खुर्दबीन, खराद जैसे शब्द ही नहीं बने है बल्कि सबसे ज्यादा अगर बने हैं तो भारत के क़रीब पांच लाख गांवों में से हजारों गांवों के नाम । जी हां, भारत सरकार के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्रालय की  सूची में गिनना शुरू कर दीजिए खुर्द शब्द की उपस्थिति वाले गांव मसलन जमालपुर खुर्द, रामपुर खुर्द, बाटला खुर्द या करोंद खुर्द । महीनों लग जाएंगे गिनते-गिनते मगर नाम खत्म नहीं होंगे।
रअसल भारत में मुस्लिम शासन के दौरान बसाहटों को अलग अलग किस्म के नाम भी मिले । उसी परंपरा में छोटी-छोटी मगर एक से नामों वाली ग्रामीण आबादियों के नाम के साथ खुर्द शब्द का चलन शुरु हुआ। यह परंपरा ईरान से पंजाब होकर भारत भर में फैल गई। खुर्द नाम वाले गांव धुर अफगानिस्तान , पाकिस्तान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश , राजस्थान और महाराष्ट्र से लेकर बर्मा तक में मिल जाएंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि तलाशने पर मलेशिया, इंडोनेशिया में भी ये नाम निकल आएं। मूलतः फ़ारसी के खुर्द शब्द का विशेषण की तरह प्रयोग करते हुए छोटी बसाहटों के लिए खुर्द नाम शुरु किया गया।
क सरीखे नाम वाली दो बसाहटों के बीच फर्क़ करने के लिए खुर्द शब्द का ईज़ाद हुआ। यह परंपरा मुगलकाल में परवान चढ़ी और फिर सदियों तक खुर्दबीनी होती रही एक से नामों वाली आबादियों की ताकि उनमें से किसी एक के साथ खुर्द लगाया जा सके।  जो आबादी कम या छोटी थी उसके बाद खुर्द लगा दिया गया मसलन वीरपुर गांव के अलावा अगर किसी राजस्व क्षेत्र या किसी ज़मीनदार की अमलदारी में इसी नाम का दूसरा वीरपुर हुआ तो उसे वीरपुर खुर्द कहा जाता । हालत यह है कि देश की राजधानी देहली है तो  एटा जिले में देहली खुर्द गांव भी है।
... अफ़गानिस्तान से लेकर धुर बांग्लादेश तक समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में खुर्द नाम वाली एक लाख से भी ज्यादा बस्तियां होंगी  ...
स व्यवस्था के पीछे मुख्यतः तो राजस्व वसूली में आने वाली गड़बड़ियों से बचना था जिसके न होने से भ्रष्टाचार की गुंजाईश बनी हुई थी। ज़मींदार की ओर से जब सालाना लगान वसूली होती थी तब एक जैसे नाम वाले गांवों के राजस्व रिकार्ड को रखने में परेशानी का सामना करना पड़ता था। कई स्थानों पर छोटा या बड़ा जैसे विशेषणों से भी फ़र्क करने की कोशिश की गई । मगर इसमें दोनों ही आबादियों के मूलनाम से छेड़छाड़ हो जाती थी। जैसे राजस्थान में दो सादड़ी हैं। छोटी सादड़ी और बड़ी सादड़ीइसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में बड़ी लुहारी, छोटी लुहारी है। पहले यह राजपूतों का गाँव था मगर जब मुस्लिमों ने उन्हें पराजित कर दिया तो लुहारी दरबार हसनखाँ के कब्ज़े में आ गई। इस तरह नया नाम हसनपुर लुहारी हो गया। इसके पास एक और लुहारी आबादी थी सो आम लोगों ने हसनपुर लुहारी को बड़ी लुहारी कहना शुरू कर दिया। पड़ोस का लुहारी छोटी लुहारी हो गया। राजस्व रिकार्ड में अलबत्ता हसनपुर लुहारी और लुहारी खुर्द जैसे नाम ही दर्ज़ हैं।

सी तरह मालवा, राजस्थान में बड़े या मूल गाँव के साथ बुज़ुर्ग लगाया जाता है जैसे अरनिया बुज़ुर्ग या अरनिया खुर्द। महाराष्ट्र में बुज़ुर्ग का रूपान्तर बुद्रुक हो जाता है जैसे पुणे के पास वडनेर और वडनेरबुद्रुक दो गाँव हैं। ज़ाहिर है पहला वडनेर खुर्द के रुतबे वाला है। इसी तरह किस आबादी की पुरातनता या बड़ा रुतबा दिखाने के लिए उसके साथ ‘जागीर’ लगाने का चलन भी रहा है जैसे जमालपुर और जमालपुर जागीर । खुर्द लगाने से फायदा यह था कि एक गाँव की मूल पहचान तो सुरक्षित रहती थी। गाँव के साथ खुर्द शब्द लगाने से अपने आप स्पष्ट हो जाता था कि उसका रुतबा छोटा है। आमतौर पर कम आबादी का राजस्व से रिश्ता रहा है मगर यह ज़रूरी नहीं था कि कम आबादी वाले गाँवों से राजस्व वसूली भी कम ही हो। इसी तरह नदियों के प्रवाह, बेहतर खेती, गाँवों से पलायन जैसी परिस्थितियों के चलते बीती सदियों से आजतक खुर्द नामधारी कई गाँवों की तकदीर भी बदली है और वे अपनी हमनाम आबादियों से कहीं बड़े हो गए हैं मगर कहलाते अभी भी ‘खुर्द’ ही हैं।
इन्हें भी ज़रूर देखें-
...इस श्रंखला से जुड़े कुछ और शब्दों की चर्चा अगले पड़ाव पर...

  • बेईमानी-साजिश की बू है खुर्दबुर्द में [क्षुद्र-3]
  • छुटकू की खुर्दबीन और खुदाई [क्षुद्र-2]
  • खुदरा बेचो, खुदरा खरीदो [क्षुद्र-1]
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    Wednesday, October 29, 2008

    बेईमानी-साजिश की बू है खुर्दबुर्द में... [क्षुद्र-3]

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    किसी दूसरे की सम्पत्ति पर कब्ज़ा जमाने के अर्थ में फारसी का एक शब्द उर्दू हिन्दी में राजा-महाराजा-नवाबों के दौर से चला आ रहा है। अखबारों अदालत,पुलिस, प्रशासन और अखबारों की शब्दावली में अक्सर खुर्दबुर्द शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है।
    फारसी खुर्द के जन्म सूत्र संस्कृत धातु क्षुद् में छुपे है जिसका अर्थ पीसना, घिसना, रगड़ना होता है और ये तमाम क्रियाएं पदार्थ के सूक्ष्म रूप से जुड़ी हैं। क्षुद्र इसी धातु से बना है जिसका अर्थ तुच्छ, छोटा, सूक्ष्म , बारीक, महीन आदि। एक खास बात यह कि सूक्ष्म और छोटे का अर्थविस्तार होते हुए संस्कृत का क्षुद्र हिन्दी में नकारात्मक चरित्र के अर्थ में नीच, घटिया, कंजूस, खोटा या ओछा के रूप में भी इस्तेमाल होता है जबकि फ़ारसी खुर्द का जन्मसूत्र चाहे क्षुद्र से जुड़ा हो मगर इसमें महीन, सूक्ष्म या आकार और परिमाण मे कमी संबंधी भाव ही आते हैं। खुर्दबुर्द जैसा शब्द युग्म फारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है खुर्द+बुर्द जिसका अर्थ है किसी सार्वजनिक, व्यक्तिगत, शासकीय सम्पत्ति में ग़बन करना, हेरफेर करना, जालसाज़ी से अपने नाम करा लेना। खुर्दबुर्द में नष्ट करना, बरबाद करने के भाव भी हैं। सम्पत्ति पर दूसरे का कब्जा होना किसी अन्य के लिए वैसे भी बरबादी ही है। यहां खुर्द का अर्थ तो स्पष्ट हो रहा है कि बेहद सूक्ष्मता से , बारीकी से , पैनेपन के साथ , चतुराई के साथ चालबाजी कर जाना (खुर्दबुर्द के अर्थ में)।
    डॉ शैलेष ज़ैदी की चिट्ठी
     Blue-Sky ब्दों का यह सफ़र ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण है. मेरी एक पुस्तक 1976 में प्रकाशित हुई थी -"तुलसी काव्य की अरबी-फ़ारसी शब्दावली : एक सांस्कृतिक अध्ययन." मैं समझ सकता हूँ कि शब्दों के मूल तक पहुँचाना कितना कठिन होता है. खुरदरा या खुदरा के सम्बन्ध में आपका विवेचन देखा. खुर्द निश्चित रूप से इंडो ईरानी परिवार का शब्द है किंतु अपने मूल रूप में यह बाज़ार का शब्द नहीं है. बाज़ार तक इसकी पहुँच इसलिए हुई कि यह व्यापारी शब्दावली की अपेक्षाएं पूरी करता था. फ़ारसी में 'खुर्द' का अर्थ है छोटा, क्षुद्र,बारीक, कण इत्यादि. कहावत भी है -'सग बाश बिरादरि-खुर्द न बाश' अर्थात कुत्ता हो जाना अच्छा है छोटा भाई होने से. भोजन या किसी चीज़ को खाने के लिए भी 'खुर्द' शब्द का प्रयोग होता है. कारण यह है कि किसी भोज्य पदार्थ को छोटे-छोटे टुकडों में ही विभाजित करके खाया जाता है. मसल मशहूर है. 'हर रोज़ ईद नीस्त कि हलवा खुरद कसे अर्थात हर दिन ईद नहीं है कि हलवा खाने को मिले. खुर्दबीन शब्द किसी छोटी वस्तु के देखने के लिए प्रयोग में आता है और इस दृष्टि से यंत्र का नाम ही 'दूरबीन' या 'खुर्द-बीन' पड़ गया. खुर्दा-फरोश तो आपने स्पष्ट कर ही दिया है. ध्यान देने की बात है कि जहाँ खुर्दः-फरोश फुटकर माल बेचने वाले को कहते हैं वहीं खुर्दः-गीर छिद्रान्वेषी के लिए प्रयुक्त होता है. खुर्द-बुर्द शब्द अभी भी नष्ट और बरबाद करने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है. यह बुर्द शब्द जो खुर्द के साथ जुडा हुआ है 'बुरादा' अर्थात लकडी, लोहे इत्यादि का बारीक सफूफ. वैसे खुर्द के साथ जुडा बुर्द शब्द 'रोटी-वोटी' की तरह भी हो सकता है. मूल रूप से बुर्द शब्द शतरंज की बाज़ी में आधी मात की स्थिति को कहते हैं जहाँ बादशाह अकेला पड़ जाता है. यह भी सम्भव है कि खुर्द-बुर्द में बुर्द शब्द इसी स्थिति को रेखांकित करने के लिए आया हो जिसकी वजह से खुर्द-बुर्द का अर्थ विनष्ट हुआ हो.
    यह प्रतिक्रिया सफर की पिछली कड़ी खुदरा बेचो, खुदरा खरीदो.[क्षुद्र-1..]पर मिली । डा ज़ैदी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष और फैकल्टी ऑफ आर्ट्स के डीन रह चुके हैं और युग-विमर्श नाम का ब्लाग चलाते हैं।
    बुर्द का जहां तक सवाल है कुछ लोग इसे खुर्द के साथ अनुकरणात्मक शब्द ( जैसे काम-वाम ) भी मानते हैं , मगर यह सही नहीं है। बुर्द शब्द की अपनी अलग अर्थवत्ता है। ध्वनिसाम्य, अनुकरण के आधार पर खुर्द से बुर्द के मेल ने इस नए शब्द में मुहावरे का असर पैदा किया। इसके जन्मसूत्र छुपे हैं इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भर ( bher ) या संस्कृत की भृ धातु में जिसमें भार, बोझा, रखना , लाना, ले जाना आदि भाव छुपे हैं। इसी धातु से जन्मे फारसी बुर्द का अर्थ होता है कब्जा, अधिग्रहण या पुरस्कार, ले जाना, नष्ट करना आदि। खुर्दबुर्द में निहित अवैध कब्जा, ग़बन या नष्ट करने के अर्थ में बुर्द शब्द को समझना कठिन नहीं है जिसमें चतुराई, साजिश और बेईमानी की बू भी आ रही है।
    खुर्द और बुर्द से दो अन्य शब्दों की रिश्तेदारी भी जुड़ती है। खराद शब्द यूं तो उर्दू फारसी का है मगर हिन्दी में भी चलता है। खुर्द के मूल स्रोत क्षुद् में निहित रगड़ने, पीसने, घिसने जैसे भाव खराद में एकदम साफ हो रहे हैं। लकड़ी के इमारती काम के दौरान उसे चिकना बनाने के लिए उसे रंदे से घिसा जाता है जिसे खरादना कहते हैं। इसी तरह बुरादा शब्द का चलन हिन्दी में खासतौर पर काष्ठचूर्ण अर्थात लकड़ी की छीलन के लिए प्रयोग होता है मगर इसमें हर तरह के पदार्थ यानी लकड़ी या धातु की छीलन, चूर्ण आदि शामिल है।

    इन्हें भी ज़रूर देखें-

    इस कड़ी से जुड़े कुछ अन्य शब्द सफ़र के अगले पड़ाव पर

     
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    Monday, October 27, 2008

    छुटकू की खुर्दबीन और खुदाई...[क्षुद्र-2]

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    रोज़मर्रा के जीवन में अपने परिवेश को लेकर अक्सर हम रूप-गुण-स्वभाव-आकार और परिमाण को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विशेषणों का प्रयोग करते हैं। ऐसा ही एक शब्द है छोटा । बहुत आम और सामान्य सा शब्द। यह गौरतलब है कि भाषा के क्षेत्र में आम और सामान्य की ही सबसे ज्यादा पूछ-परख है। खास और विशिष्ट शब्दों के बूते भाषा नहीं चलती। शब्द तो जितने सीधे-सरल होंगे, भाषा की राह उतनी ही आसान और टिकाऊ होगी। हिन्दी का छोटा शब्द सीधा सरल है और इसके वैकल्पिक अन्य शब्द होने के बावजूद लोग इसीलिए इसका इस्तेमाल ही अधिक करते है।
    छोटा शब्द संस्कृत के क्षुद्रकः का रूप है जो क्षुद्र शब्द से बना। इसमे सूक्ष्मता, तुच्छता, निम्नता, हलकेपन आदि भाव हैं। इन्ही का अर्थविस्तार होता है ग़रीब, कृपण, कंजूस, कमीना, नीच, दुष्ट आदि के रूप में। अवधी-भोजपुरी में क्षुद्र को छुद्र भी कहा जाता है। दरअसल यह बना है संस्कृत धातु क्षुद् से जिसमें दबाने, कुचलने , रगड़ने , पीसने आदि के भाव हैं। जाहिर है ये सभी क्रियाएं क्षीण, हीन और सूक्ष्म ही बना रही हैं। छोटा बनने का सफर कुछ यूं रहा होगा – क्षुद्रकः > छुद्दकअ > छोटआ > छोटा
    निम्न, नीच, निकृष्ट के अर्थ में ही कभी कभी छोटा शब्द भी इस्तेमाल होता है। छोटे लोग, छोटी बातें जैसे प्रयोग यही अर्थबोध कराते हैं। छोटा लंबाई-चौड़ाई और ऊंचाई में कम आकार की वस्तु के लिए छोटा विशेषण लगाया जाता है तो पद-प्रतिष्ठा-आयु में कम होने पर भी छोटा ही कहा जाता है। किसी भी किस्म की लघुता, ओछापन, कमी, तुच्छता या छिछोरापन को प्रदर्शित करने के लिए भी छोटा शब्द इस्तेमाल होता है। इससे छोटा-मोटा या छोटा मुंह बड़ी बात जैसे मुहावरे भी बने हैं। छोटा का स्त्रीवाची छोटी है। पन, पना या अई जैसे प्रत्ययों से छुटपन, छोटपन, छोटपना, छोटाई जैसे शब्द भी बने हैं। अंतिम संतान के लिए भी छोटा शब्द उनके नाम का पर्याय बन जाता है जैसे छोटी, छुटकू, छोटेलाल, छोटूसिंह, छोटूमल, छोटन, छुट्टन आदि।
    क्षुद् धातु में निहित पीसने, दबाने, कुरेदने जैसे भाव इस धातु से हिन्दी के अन्य महत्वपूर्ण शब्द के जन्मसूत्र बता रहे हैं । सुराख करने , गड्ढा बनाने या समतल सतह को गहरा करने की क्रिया को खोदना कहते हैं जो इसी मूल से जन्मा शब्द है। इस शब्द का प्रयोग रोजमर्रा में खूब होता है। कुछ उगलवाने के लिए या किसी का मन टटोलने के अर्थ में खोद-खोद कर पूछना या अपेक्षित परिणाम से निऱाशा की अभिव्यक्ति वाली कहावत खोदा पहाड़, निकली चुहिया इससे ही बनी है। खुदाई, खोद, खोदवाना, खुदवाना आदि कई शब्द इसी श्रंखला में आते हैं। इसी कड़ी में आता है असमान, कटी-फटी, ऊबड़-खाबड़ सतह के लिए खुरदुरा या खुर्दुरा शब्द। क्षुद् में निहित घिसने , रगड़ने के भाव सबसे ज्यादा इसी शब्द में प्रकट हो रहे हैं। खुरदुरा शब्द इतना आम है कि इसे स्पष्ट करने के लिए किसी और विशेषण या व्याख्या की ज़रूरत नहीं है।
    ...खुरदुरा शब्द इतना आम है कि इसकी व्याख्या के लिए किसी अन्य शब्द की ज़रूरत नहीं...
    क्षुद्र शब्द की उपस्थिति ईरानी परिवार की भाषाओं में भी नज़र आती है। फ़ारसी मे एक शब्द है खुर्दः जो क्षुद्र का ही रूपांतर है। फारसी में खुर्दः के अलावा खुर्द शब्द भी है। दोनों के मायने हैं छोटा, तुच्छ, सूक्ष्म आदि। माइक्रोस्कोप के लिए हिन्दी उर्दू में प्रयोग किया जानेवाला खुर्दबीन शब्द मूलतः फ़ारसी का है जिसका मतलब हुआ सूक्ष्मदर्शी अर्थात छोटी वस्तुओं को देखने का उपकरण। खुर्द शब्द के पीछे भी क्षुद् धातु की मौजूदगी है जिसमें पीसने, रगड़ने , घिसने जैसी क्रियाओं के परिणाम नज़र आ रहे हैं । जाहिर है कि छोटे से लेकर सूक्ष्मतम के लिए भी खुर्द शब्द काम दे रहा है। फारसी में खुर्द यानी सूक्ष्म और बीना यानी देखनेवाला और बीं अथवा बीनाई यानी देखना होता है। इस तरह खुर्दबीन अर्थात सूक्ष्मदर्शी शब्द बना। दूरबीन का अर्थ होता है दूरदर्शी। समूचे उत्तर पूर्वी भारत की बोलियों में घर की झाड़ बुहार के संदर्भ में कोना-खुदरा शब्द प्रचलित है जिसमे चप्पे चप्पे या छोटी से छोटी जगह का भाव निहित है।
    अगली कड़ी में पढ़ें इसी श्रंखला से जुड़े कुछ और शब्द
     इन कड़ियों को पढना न भूलें-
     
     

    किराने की धूम, बाबू किरानी, उस्ताद किरानी

    खुदरा बेचो, खुदरा खरीदो [क्षुद्र-1]

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    Sunday, October 26, 2008

    खुदरा बेचो, खुदरा खरीदो.[क्षुद्र-1..]

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    बा ज़ारवाद के इस दौर में एक शब्द आजकल ज्यादा सुनाई पड़ता है वह है खुदरा व्यापार अर्थात रिटेल बिज़नेस। खुदरा व्यापार का यूं हिन्दी अर्थ है फुटकर व्यापार यानी खुली दुकानदारी। दरअसल फुटकर रिटेल या खुदरा बाजार का तब तक कोई महत्व नहीं है जब तक थोक बाज़ार की बात न की जाए।
    बसे पहले करते हैं खुदरा की बात। सामान्य तौर पर बाज़ार शब्द से हमारे सामने जो तस्वीर उभरती है वह फुटकर बाजार ही होता है। आम आदमी जहां से रोज़मर्रा की खरीदारी करता है वह सामान्य बाजार ही कहलाता है फुटकर बाजार । खुदरा शब्द दरअसल भाषा के थोक बाजार से आया ऐसा शब्द है जिसने आम आदमी की पसंद के अनुरूप रूप बदल लिया वर्ना फ़ारसी भाषा में इसका असली रूप था खुर्दः जिसका मतलब है खंड, टुकड़ा, रेज़गारी, चिल्लर आदि। खुर्दः शब्द इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है। फारसी में खुर्दाःफ़रोश का मतलब होता है फुटकर माल बेचनेवाला, पंसारी या छोटा दुकानदार जो थोक व्यापारी से बड़ी मात्रा में सामान खरीदता है और उसे छोटी इकाइयों में बांट कर , खंड खंड कर बेचता है। फुटकर व्यापार के तौर पर खुर्दःफ़रोशी शब्द बना।
    हिन्दुस्तान की सरज़मी पर आकर इसका इसका अगला रूप हुआ खुर्दा। मुस्लिम शासन के दौरान यह शब्द हिन्दुस्तानी ज़बानों में भी शामिल होने लगा। वर्ण विपर्यय के चलते हिन्दी में पहले यह खुरदा हुआ और फिर बना खुदरा जिसमें खुला, बिखरा, छुट्टा जैसे भाव शामिल हुए। इससे बना खुदरा व्यापार जिसका मतलब हुआ दैनंदिन प्रयोग की वस्तुओं की सीधे आम आदमी को बिक्री करना। खुदरा के लिए हिन्दी में फुटकर शब्द मिलता है। यह बना है संस्कृत के स्फुट शब्द से जिसमें प्रदर्शित, स्पष्ट किया हुआ, खिला हुआ, बिखरा हुआ , अलग-अलग, दृष्यमान जैसे भाव शामिल हैं। जाहिर है कि फुटकर व्यापारी आम आदमी के लिए मंडी या वाणिज्यकेंद्र में अपना सामान बिक्री के लिए विभिन्न तरह से प्रदर्शित करता है क्योंकि उसके पास कई तरह की सामग्री होती है। वह सभी कुछ एक साथ मगर अलग-अलग दिखाना चाहता है। यही है फुटकर व्यापार। ऐसा करने वाला हुआ फुटकर व्यापारी।
    अंग्रेजी में फुटकर व्यापार के लिए रिटेल retail शब्द है। यह बना है टेलर tailor से अर्थात काटनेवाला । re उपसर्ग लगने से बना रिटेलर जिसका मतलब हुआ फिर से काट-छांट करनेवाला। व्यापार के संबंध में इसका भाव हुआ छोटे छोटे हिस्सों में व्यापार करना। यूं टेलर अंग्रेजी में दर्जी को कहते हैं जिसे ग्राहक कपड़ा खरीद कर देता है । उसे काट कर वह वस्त्र सिलता है और दाम पाता है। रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में रिटेल व्यापार को बेहतर समझा जा सकता है जहां पहले कपड़ों को बड़े पैमाने पर खरीदा जाता है। फिर उनकी अलग-अलग आकारों में काट-छांट की जाती है। बाद में उन्हें सिलकर परिधान तैयार किए जाते है और उन्हें दोबारा बेचा जाता है। यानी पहले थोक में खरीद , फिर अलग नाम और पैकिंग में बिक्री। इसे कहते हैं फुटकर व्यापार या खुदरा व्यापार। यही है रिटेल।
    इस श्रंखला से जुड़े कुछ और शब्दों पर अगली कड़ी में चर्चा
    इन्हें भी ज़रूर देखें-
    अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

    Saturday, October 25, 2008

    ठाकरे...तुम्हारे पुरखे कहां से आए थे ?

    राजवाड़े जी के लेख का अंश
    ''पा णिनी के युग में महाराज शब्द के दो अर्थ प्रचलित थे। एक , इन्द्र और दूसरा, सामान्य राजाओं से बड़ा राजा। पहले अर्थानुसार महाराजिक  इन्द्र के  भक्त हुए और दूसरे  Blue-Sky अर्थानुसार महाराज कहलाने वाले अथवा महाराज उपाधि धारण करने वाले भूपति के भक्त महाराजिक हुए । उक्त दोनों अर्थों को स्वीकार करने के बाद भी प्रश्न उठता है कि महाराजिक का महाराष्ट्रिक से क्या संबंध है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि राजा जिस भूमि पर राज्य करता है उसे राष्ट्र कहते हैं और जो राष्ट्र के प्रति भक्ति रखते हैं वे राष्ट्रिक कहलाते है। इस आधार पर महाराजा जिस भूमि पर महाराज्य करते थे वह महाराष्ट्र और जो महाराष्ट्र के भक्त थे वे महाराष्ट्रिक कहलाए । महाराजा जिनकी भक्ति का विषय थे उन्हें महाराजिक तथा महाराजा का महाराष्ट्र जिनकी भक्ति का विषय था उन्हें महाराष्ट्रिक कहा जाता था। तात्पर्य यह कि महाराज व्यक्ति को लक्ष्य कर बना महाराजिक तथा महाराष्ट्र को लक्ष्य कर बना महाराष्ट्रिक। महाराष्ट्रिक शब्द वस्तुतः समानार्थी है।
     उपनिवेशी महाराष्ट्रिक
    यहr2 निश्चय कर चुकने के बाद महाराजिक ही महाराष्ट्रिक थे, एक अन्य प्रश्न उपस्थित होता है कि जिस समय दक्षिणारण्य में उपनिवेशन के विचार से महाराष्ट्रिक चल दिए थे उस समय उत्तरी भारत में महाराज उपाधिधारी कौन भूपति थे और महाराष्ट्र नामक देश कहां था। कहना न होगा कि वह देश मगध था। प्रद्योत , शैशुनाग , नन्द तथा मौर्य-वंशियों ने क्रमानुसार महाराज्य किया था मगध में। महाराज्य का क्या अर्थ है ? उस युग में सार्वभौम सत्ता को महाराज्य कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अध्याय क्रमांक 38/39 में साम्राज्य, भोज्य , स्वाराज्य , वैराज्य, पारमेष्ठ्य, राज्य महाराज्य , आधिपत्य , स्वाश्य , आतिष्ठ्य तथा एकराज्य आदि ग्यारह प्रकार के नृपति बतलाए गए हैं। मगध के नृपति एकच्छत्रीय या एकराट् थे अर्थात् राज्य, साम्राज्य,महाराज्य आदि दस प्रकार के सत्ताधिकारियों से श्रेष्ठ थे, अतः है कि वे महाराज थे। अपने को मगध देशाधिपति महाराज के भक्त कहने वाले महाराष्ट्रिकों ने जब दक्षिणारण्य में बस्ती की तो वे महाराष्ट्रिक कहलाए ।"
    कहना न होगा कि उनका निवास ही महाराष्ट्र कहलाया। लेख काफी लंबा है। मगर हमारा अभिप्राय इससे भी पूरा हो रहा है। महाराष्ट्रीय होने के नाते मागधों अर्थात बिहारियों से यूं अपना रिश्ता जुड़ता देख मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।-अजित
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    पुरखों का लिखा

    ही पढ़ लो...

    प्राचीनकाल से अब तक विभिन्न समाजों का विभिन्न स्थानों पर आप्रवासन बेहद सामान्य घटना रही है। मनुष्य ने सदैव ही रोज़गार की खातिर, आक्रमणों के कारण और अन्य सामाजिक धार्मिक कारणो से अपने सुखों का त्याग कर, नए सुखों की तलाश में आबाद स्थानों को छोड़कर नए ठिकाने तलाशे हैं। उनकी संतति बिना अतीत में गोता लगाए पुरखों की बसाई नई दुनिया को बपौती मान स्थान विशेष के प्रति मोहाविष्ट रही।
    क्षेत्रवाद ऐसे ही पनपता है। आज जो राज ठाकरे और ठाकरे कुनबा बिहारियों -पुरबियों को मुंबई से धकेल देना चाहते हैं वे नहीं जानते कि किसी ज़माने में बौद्धधर्म की आंधी में चातुर्वर्ण्य संस्कृति के हामी हिन्दुओं के जत्थे मगध से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए थे। ऐसा तब देश भर में हुआ था। मगध से जो जन सैलाब दक्षिणापथ (महाराष्ट्र जैसा तो कोई क्षेत्र था ही नहीं तब ) की ओर गए और तब महाराष्ट्र या मराठी समाज सामने आया।
    इसे जानने के लिए यहां पढ़ें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े द्वारा एक सदी पहले किए गए महत्वपूर्ण शोध का एक अंश। उन्होंने तो महाराष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व करते हुए जो गंभीर शोध किए वे एक तरह से अपनी जड़ों की खोज जैसा ही था। उन्हें क्या पता था कि दशकों बाद उसी मगध से आनेवाले बंधुओं को शिवसेना के रणबांकुरे खदेड़ने के लिए कमर कस लेंगे।
     
    यह पोस्ट 19 जनवरी 2008 के सफर में छप चुकी है और संशोधित पुनर्प्रस्तुति है। 
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    Friday, October 24, 2008

    खुदावंद-रहमान-करुणानिधान...[भगवान-6]

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    भी धर्मग्रंथों में दया को धर्म का मूल बताया गया है। सबसे बड़ा धर्म इंसानियत का धर्म होता है। दया के बिना मनुश्य को पशु समान मानने की बात भी कही जाती है। दया के लिए हिन्दी में एक और शब्द भी प्रचलित है रहम । जो व्यक्ति दया करता है उसे दयालु कहा जाता है। अरबी , फारसी, उर्दू में इसका रूप होता है रहमदिल।
    ध्यकाल के प्रसिद्ध कवि रहीम ने कहा है-वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग। बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥ तो ऐसा ही है दया ,करुणा और रहम का रंग। रहम मूलतः अरबी ज़बान का शब्द है और सेमेटिक धातु रह्म से बना है जिसमें दया का भाव है। रहम शब्द उर्दू , अरबी , फारसी , हिन्दी में खूब प्रचलित है। सेमेटिक मूल का शब्द होने के नाते इसके रूपांतर हिब्रू भाषा में भी नज़र आते हैं। हिब्रू का रश्म या रशम racham शब्द भी इसी कड़ी में आता है जिसका मतलब भी करुणा , दया , प्रेम, ममता आदि है।
    रबी के रहम का सर्वोत्तम रूप है रहमान। इसका हिन्दी अनुवाद दयावान अथवा करुणानिधान हो सकता है। आस्था के संसार में ये दोनो ही शब्द ईश्वर का बोध कराते हैं। ठीक यही बात रहम से बने रहमान के साथ है जिसमें ईश्वर को रहमान बताया गया है। जो संसार में सर्वाधिक कृपानिधान, दयावान हैं।
    स्लाम में सिफ़ाते खुदावंदी अर्थात ईश्वरीय गुणों में रहम को सर्वोपरि बताया गया है। इसकी एक व्याख्या यह भी है कि रहम, दयालुता , करुणा, कृपा, परोपकार आदि सद्गगुण ईश्वर के समान बनाते हैं क्योंकि ईश्वर ऐसा ही है। इसीलिए उसे रहमान यानी परम कृपालु, दयानिधान कहा जाता है। रहमान की तरह ही रहीम शब्द भी दया, करुणा की अर्थवत्ता रखता है और जिसके मायने भी दयालु या कृपालु ही होते हैं। ईश्वर के कई नामों में रहमान की तरह ही रहीम का भी शुमार है। ईश्वरीय के लिए उर्दू में रहमानी शब्द शब्द है।

    ... जिस हृदय में दया, करुणा और कृपा के अलावा और कुछ नहीं हैं वह परमात्मा ही हो सकता है और कोई नहीं...

    कुरान की प्रसिद्ध पंक्ति बिस्मिल्लाह अर रहमान, अर रहीम [बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम- शुरू करता हूँ उस अल्लाह के नाम से जो अत्यंत दयावान और करूणामय है ] में प्रभु के इसी गुण को उजागर करते हुए उनकी स्तुति की गई है। इसी तरह हिब्रू में भी कहा गया है बशेम इलोहीम, हा रश्मन वा रशम [ bshem elohim, ha-rachaman, va rachum ] ये पंक्तियां भी क़रीब क़रीब कुरान की तरह ही हैं।
    हम से रहमत भी बना है जिसमें मेहरबानी , कृपालुता आती है। सभी धर्मग्रंथों में मनुश्य के लिए नसीहत है कि उसके मन में करुणा, दया , परोपकार की भावना होनी ही चाहिए। मगर अक्सर ऐसा नहीं होता । स्वार्थ, दुष्टता, लोभ-लिप्साओं का वहां पहले से डेरा रहता है और रहम जैसी कोमल सी भावना वहां दबी-कुचली रहती है। मगर जिस हृदय में दया, करुणा और कृपा के अलावा और कुछ नहीं हैं वह परमात्मा ही हो सकता है और कोई नहीं । इसीलिए रहमान यानी परमकृपालु अर्थात परमात्मा।
    इस श्रंखला की अन्य कड़ियां-
     
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    Thursday, October 23, 2008

    सुख भी भोगो , दुःख भी भोगो

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    अक्सर पढ़ते-सुनते हैं कि बाज़ारवाद के दौर में  उपभोक्ता प्रमुख हो गया है। सवाल है उपभोक्ता कब प्रमुख नहीं था ? लेन-देन , अदला-बदली तो मनुश्य के स्वभाव में है। सामान्य अर्थ में इस्तेमाल या प्रयोग करने में आनंद का अनुभव ही उपभोग कहलाता है। उपभोग करनेवाला हुआ उपभोक्ता। इस अर्थ में मनुश्य अनादिकाल से ही उपभोक्ता रहा है। बस, कुछ नया जुड़ा है तो वह है बाजार । उपभोग और उपभोक्ता के इर्दगिर्द ऐसे कई शब्द है जिन्हें हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं। बारीकी से देखें तो इनमें अंतर्संबंध स्पष्ट दिखाई देता है।
    पभोग शब्द बना है भोगः शब्द से जिसका अर्थ है सुखानुभव , आनंद , खान-पान, आय, राजस्व, भोजन, दावत और उपभोग आदि। यह शब्द बना है संस्कृत धातु भुज् से। भुज् धातु का संबंध उसी भज् धातु से है जिससे भग, भगवान और भाग्य जैसे शब्द बने हैं। भज् का अर्थ होता है हिस्से करना, विभक्त करना , अंश करना आदि। पके हुए चावल के लिए भात शब्द भी इसी भक्त की देन है। क्योंकि पकने के बाद भी चावल का एक-एक अंश विभक्त नज़र आता है इसीलिए इसे भक्त कहा गया जिससे भात शब्द प्रचलित हुआ। भात आज दुनिया की आधी आबादी के भोजन का पर्याय है।  
    भुज् का अर्थ होता है खाना, निगलना, झुकाना, मोड़ना, अधिकार करना, आनंद लेना , मज़ा लेना आदि। गौर करें कि किसी भी भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से पहले उसके अंश किए जाते हैं। पकाने से पहले सब्जी काटी जाती है। मुंह में रखने से पहले उसके निवाले बनाए जाते हैं। खाद्य पदार्थ के अंश करने के लिए उसे मोड़ना-तोड़ना पड़ता है। मुंह में रखने के बाद दांतों से भोजन के और भी महीन अंश बनते हैं। इसी तरह राजकोष में जाने वाली राशि राजस्व कहलाती है वह क्या है ? करदाताओं की ओर से दिया जाने वाला अंश । राजस्व से राजा के आमोद और प्रजा के कल्याण के कार्य होते हैं। दोनो ही प्रयोजन सुखकारी हैं। भोग में निहित भाव यहां स्पष्ट हो रहे हैं साथ ही भज् और भुज् धातुओं में  साम्यता भी । हाथों के लिए भुजा शब्द भी इसी भुज् की देन है। भुज् में निहित मोड़ने , झुकाने का भाव यहां उजागर है। भोग शब्द में आनंद या सुख अनुभव करने का भाव निहित है जो भुजाओं के जरिये ही होता है। सर्प के लिए भुजगः या भुजंग शब्द में वक्रता, टेढ़ापन जैसे गुण स्पष्ट हो रहे हैं। आहार के अर्थ में भोजन शब्द बना है भोजनम् से जो इसी धातु से जन्मा है। जाहिर है यहां अंश, विभक्त, टुकड़े करना, मोड़ना , निगलना जैसे भाव प्रमुखता से स्पष्ट हो रहे है। 
    भोजनम् का एक अर्थ संपत्ति, दौलत आदि भी होता है क्योंकि उसका उपभोग किया जाता है। एक मुहावरा है भुक्तभोगी जिसका अर्थ होता है स्वानुभुत या कटु अनुभव से गुजर चुकना। भुक्त शब्द भी भुज् धातु से ही बना है जिसमें खाया हुआ, अनुभव किया हुआ, उपयोग किया हुआ जैसे भाव हैं। भुक्तनीय  शब्द से बना हिन्दी का भुगतना जो आमतौर पर सज़ा, दुख, कष्ट से गुज़रने के अर्थ में प्रयोग होता है।  सुखानुभव तक सीमित भोग शब्द का प्रयोग बाद में इतना व्यापक हुआ कि दुख भी भोगा जाने लगा। भोग के साथ सुख का रिश्ता कितना गहरा है इसका गवाह है आहार-व्यंजनों में छुपा सुखानुभव जो राजभोग, छप्पनभोग और मोहनभोग के रूप में सामने आया।धारा नगरी के प्रसिद्ध राजा भोज का नाम भी इसी मूल से जुड़ा हुआ है जिसका अर्थ है स्वामी, ऐश्वर्यशाली, प्रसिद्ध, अधिकारी आदि। भोज दसवी सदी में हुए थे और संस्कृत विद्वान के तौर पर भी उनकी ख्याति थी। उनका लिखा सरस्वती कंठाभरण ग्रंथ प्रसिद्ध है।
    ...सुखानुभव तक सीमित भोग शब्द का प्रयोग बाद में इतना व्यापक हुआ कि दुख भी भोगाजाने लगा...
    भोजन का अर्थ व्यापक रूप में आहार न होकर भोग्य सामग्री से है। ईश्वर की पूजा अर्चना के बाद उन्हें भेंट स्वरूप जो अन्न समर्पित किया जाता है वह भोग होता है। भोग लगने के बाद वह अन्न प्रसाद कहलाता है। शब्दकोशों में इस शब्दश्रंखला के हर संदर्भ में हर बार स्त्री का भोग्या, प्रसाद , वारांगना आदि के रूप में उल्लेख मिलता है । इससे साफ है कि इस शब्द के साथ ये तमाम अर्थ तब जुड़े जब ईश्वर आराधना की परंपरा में कुरीतियों का प्रवेश हुआ और देवदासी प्रथा जैसी अपसंस्कृति समाज पर हावी हो गई। शासक स्वयं को भगवान का अवतार समझने लगें तब उसके उपभोग का दायरा आहार तक कहां सीमित रहता है ? किसी वक्त उपभोग में मूलतः भोजन सामग्री और उसका सुखोपयोग शामिल था और ऐसा करने वाला ही उपभोक्ता था।
    इसे भी ज़रूर देखें-
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    Tuesday, October 21, 2008

    कातिबे-तक़दीर कुछ तो बता दे...

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    हते है कि पुस्तक से अच्छा कोई मित्र नहीं होता। पुस्तक यानी पोथी-पत्रा, ग्रंथ आदि। मगर इतने विकल्प होने के बावजूद पुस्तक के अर्थ में हिन्दी में ज्यादातर किताब शब्द का चलन है। पुस्तक भी प्रचलित शब्द है मगर इसका इस्तेमाल लिखने में ज्यादा होता है बोलचाल में किताब शब्द ही अधिक प्रयोग में आता है। क़िताब मूलतः अरबी का शब्द है और फ़ारसी–उर्दू में भी प्रचलित है।
    रबी की धातु है कतब जिसमें लिखने का भाव निहित है। कतब से बने अनेक शब्द अरबी, फ़ारसी, उर्दू में प्रचलित हैं और हिन्दी समेत अनेक बोलियों में प्रचलित हैं। किसी इमारत या स्मारक जिसमें क़ब्र भी शामिल है में अक़्सर एक पत्थर लगाया जाता है जिस पर उस स्थान और उससे जुड़े व्यक्ति के बारे में विवरण होता है जिसे हिन्दी में शिलालेख अथवा अभिलेख कहते हैं। अरबी में इसे कत्बः या कत्बा कहते हैं। कतब में निहित लिखने के भाव यहां स्पष्ट हैं। इसी का एक रूपांतर है खुत्बः या खुत्बा जिसका मतलब होता है प्राक्कथन, पुस्तक की भूमिका। खुत्बा धर्मोपदेश भी होता है और नमाज़ या निकाह के वक़्त भी पढ़ा जाता है।
    सी श्रंखला में आता है ख़त जिसे जिसका अर्थ होता है आड़ी टेड़ी रेखाएं बनाना, चिह्नांकन करना, चिह्न, निशान, चिट्ठी-पत्री, परवाना, तहरीर आदि। इस कड़ी का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है किताब जिसका मतलब होता है पुस्तक, ग्रंथ, पोथी, पन्ना, कॉपी आदि। उर्दू में सुलेखन बहुत विशिष्ट कला विधा रही है। सुलेखन का काम किताबत कहलाता है। पुस्कालय या लाइब्रेरी को किताबखाना या किताबिस्तान कहते हैं। किताबी चेहरा एक मुहावरा है जिसका अर्थ है चित्रोपम या कल्पना के अनुकूल। भाव है ऐसा चेहरा जो किताबों में वर्णन रहता है।
    सी मूल का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है कातिब अर्थात लिखनेवाला। कातिब उर्दू में बाबू , क्लर्क या लिपिक को भी कहते हैं। वैसे हर लिपिक कातिब हो सकता है मगर हर बाबू या क्लर्क कातिब नहीं होते। जिस कर्मचारी के पास कार्यालय संबंधी पत्रों के लिखने, दर्ज करने आदि का काम हो वहीं कातिब कहलाता है। उर्दू के अखबार में कम्पोजिटरों को कातिब ही कहा जाता है क्योंकि वहां अभी भी मशीनी लिखाई की जगह हाथ से लिखने का काम होता है। चूंकि सबके भाग्य का लेखा ईश्वर के पास है इसलिए तकदीर लिखनेवाला ईश्वर ही हुआ । उर्दू में इसे कातिबे-तकदीर कहा जाता है।
    bt दफ्तरों के कातिब यानी बाबू के पास कई लोगों की तकदीर की फाइलें रहती है  पर कातिबे-तकदीर तो कोई और ही है..
    तब से ही कई अन्य शब्द भी बने हैं जैसे सरकारी दफ्तर जहां लिखा-पढ़ी का काम ही होता है मकतब कहलाता है। कुतुब यानी जहां शिक्षणकार्य किया जाए । मकतब और कुतुब दोनों का इस्तेमाल पाठशाला के अर्थ में भी किया जाता है। कुतुब का अर्थ किताब का बहुवचन भी होता है। कुतुबी, कुतुबफ़रोश पुस्तक विक्रेता को कहते हैं। लाइब्रेरी के लिए भी कुतुबखाना शब्द चलता है। कुछ लोग इसे अशुद्ध बताते हैं । कुतब अपने आप में बहुवचन है इसलिए उसके साथा खाना शब्द लगाना गलत है।  अरबी के कतब से बने ये तमाम शब्द विभिन्न रूपों में अन्य
    कई भाषाओं में भी मौजूद हैं जैसे तुर्की में किताब को किताप कहेंगे, स्वाहिली में इसका रूप किताबू है। फारसी में कुतुब का उच्चारण कोतोब की तरह होता है। इसी तरह कुतुब का तुर्की रूप कुतुप ही होगा।
    इन्हें भी ज़रूर पढ़े
    अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

    Monday, October 20, 2008

    नाचीज़ हूं...जौहर क्या दिखाऊंगा ?

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    फर का पिछला पड़ाव तिल श्रंखला की तीसरी कड़ी पहली मिस यूनिवर्स थी। इस पर कात्यायन जी की प्रतिक्रिया मिली। कानपुर निवासी कात्यायन जी भाषा, संस्कृति और इतिहास के अध्येता है। मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उनके निजी संग्रह में चार हजार से भी अधिक पुस्तकें हैं। यथासंभव मेरा प्रयास भी रहता है कि पुस्तकों को अपना संगी-साथी बनाऊं सो आलमारियों में मेरी भी कुछ सहेलियां हैं। बीच बीच में किसी टिप्पणी को आधार बना कर दीगर बातें कहने की कोशिश भी करता हूं। इस बार कात्यायन जी की प्रतिक्रिया का उत्तर इसका माध्यम बना है।
    म्मान्य कात्यायन जी, बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ। आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है हमेशा की तरह। शब्दों के सफर में ज़रूर हूं मगर हड़बड़ी में नहीं। सफर के लिए रात के चार घंटे तय हैं। उतनी अवधि में संतोषप्रद काम हो जाए तो ठीक वर्ना उसे मुल्तवी कर देता हूं। जल्दबाजी में कोई पोस्ट नहीं लगाता। इस खाते में सिर्फ वर्तनी की गलतियां कभी कभी नज़र आती जिन्हें दुरुस्त किया जा सकता है। शोध के स्तर पर भरसक प्रयास करता हूं कि कोई कमी न रहे। गलतियां होती आई हैं, होती रहेंगी। सावधान , सचेत रहना ज़रूरी है।

      कात्यायनजी की चिट्ठी

    Blue-Sky अजित जी,शब्दों के सन्धान का सफर नित्य लिखनें के पराक्रम के चलते पटरी से उतरता प्रतीत हो रहाss tilottama001 है।ब्रह्मा विश्वकर्मा अप्सरा तिलोत्तमा सुंद एवं असुंद वैदिक पारिभाषिक शब्द हैं जिनके तात्विक अर्थ हैं।पुराणकारों का कार्य वेदों मे वर्णित विशिष्ट ज्ञान को जन सामान्य की भाषा में रूपांतरित एवं प्रचारित प्रसारित करना था किन्तु उनकी व्यंजनात्मक शैली नें कार्य और कठिन कर दिया। आप तो शब्दविद हैं अतः विशेष दायित्व बनता है। प्रथम विश्व सुन्दरी जैसी हेड़िग समीचीन नहीं है।
    अलबत्ता आपकी प्रतिक्रिया हमेशा की तरह मार्गदर्शन करती नज़र आई मगर कहीं कहीं अस्पष्ट संकेत मिले। उन्हें जितना समझ पाया उसने यह पोस्ट लिखवा ली।
    वैदिक पारिभाषिक शब्दों वाली बात भी सत्य है और पुराणकारों का अनुपम सृजन भी। वैदिक शब्दों की अर्थवत्ता और उनकी प्रतीकात्मकता की व्याख्या करना मेरे कार्यक्षेत्र में नहीं है। वह एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण काम है जिसे करने की योग्यता मुझमें नहीं है। पुराणकारों ने वैदिक कथनों के जो भी भाष्य रचे हों, अपने कथातत्व और रंजकता की वजह से वे महत्वपूर्ण हो गए हैं। जनसामान्य से लेकर विद्वान तक उन्हें ही याद रखे हुए है। आश्चर्य तो तब होता है जब इन्हीं कथाओं के आधार पर रचे गए कर्मकांडों, व्रत-त्योहारों में हिस्सेदारी करते नज़र आते हैं। गहराई से देखें तो कर्मकांड की नींव तो वैदिक यज्ञों में ही नज़र आती है। अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए प्रिय वस्तुओं को भेंट देने के प्रतीक कालांतर में पशुबलि और मानवबलि की भूमिका नहीं बन गए ? कहां जौ, चावल, तिल आदि पदार्थों की हवि और कहां बलि ? कुछ लोग यज्ञों की व्याख्या प्रकृति के शुद्धिकरण से करते हैं । हजारों वर्ष पहले तो प्रकृति वैसे ही शुद्ध थी उसे शुद्ध करने के लिए किसी यज्ञ की कहां आवश्यकता थी ? वैदिक युग में सब कुछ वैज्ञानिक, तार्किक और सुचिंतित था ऐसा मैं नहीं मानता। विभिन्न विद्वान इस बारे में लिख चुके हैं। इसीलिए यह मानना कि वेदों में सब कुछ सांकेतिक भाषा में , प्रतीकों में लिख दिया गया था और पुराणकार उसे डीकोड नहीं कर पाए, सही नहीं लगता।
    प्राचीन काल के मनुष्य ने साहित्य, शिल्प, परंपरा आदि में जो भी प्रमाण छोड़े हैं , वह अपने समय का उत्कृष्ट संचित ज्ञान ही था। मगर उसे कालजयी सत्य नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता पुराणों को रचे जाने का उद्देश्य चाहे जो रहा हो , वे भी अपने समय का उत्कृष्ट साहित्य हैं और इस रूप मं भरपूर ज्ञानवर्धन और मनोरंजन भी करते हैं जो साहित्य की महत्वपूर्ण कसौटियां हैं। मिस यूनिवर्स तो संदर्भ है, उससे परहेज़ कैसा ? इससे एक दायरा बना कर चलूंगा तो सामान्य पाठक भी यहां नहीं आएगा। इस शीर्षक को पढ़कर कुछ ऐसे लोग भी यहां आए होंगे जो अन्यथा नहीं आते। प्राप्ति तो सकारात्मक ही उन्हें हुई होगी।मगर सोचता हूं कि अगर इसकी जगह कोई और शीर्षक होता तो भी कोई दिक्कत नहीं थी।

     Blue-Sky प्रणाम गुरुदेव

    शब्दों का सफर शुरू करने के वक्त से ही मेरी यह SKVARMA इच्छा थी  कि मेरा काम प्रो वर्मा की निगाह से भी गुजरे। अपने कॉलेज जीवन में भाषा विज्ञान के ख्यात विद्वान प्रो. सुरेश वर्मा से इस विषय में ज्ञान प्राप्त करने का सुयोग बना । हाल ही में अचानक उन्होंने मुझे फोन किया। 1983 मध्यप्रदेश के राजगढ़ से में एमए करने के बाद से मेरा उनसे सम्पर्क नहीं था। सफर को सभी ने पसंद किया , मगर मन में यही बात थी कि डॉ वर्मा की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। अगर उन्हें यह पसंद आया तो समझूंगा कि सफर सही दिशा में चल रहा है। उनसे अचानक संवाद होना सुखद आश्चर्य था। उससे भी महत्वपूर्ण यह कि उन्होने फोन पर शब्दों का सफर पर ही बात की और इसे सराहा। डॉक्टर साहब को ब्लॉग न सिर्फ पसंद आया बल्कि उन्होने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। प्रो वर्मा की अब तक कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें भाषाविज्ञान पर लिखी पुस्तकें शामिल हैं। दो नाटक- दिशाहीन और निम्नमार्गी, एक कहानी संग्रह –जंग के बारजे पर प्रकाशित हो चुकी हैं। पैंग्विन से शीघ्र ही मुमताज़महल के जीवन पर आधारित एक उपन्यास भी प्रकाशित होने वाला है।
    आपके जैसे अन्य गंभीर पाठकों को भी यह बात खटकी होगी। इस पर आगे और विचार करूंगा। आप जैसे लोग यहां आते हैं इससे सफर की दिशा के बारे में पता चलता है, काम की गंभीरता का बोध होता है। अलबत्ता आपको अगर ऐसा लगता है कि रोज़ एक शब्द के बारे में लिखना मेरी बाध्यता है जिसकी वजह से संभवतः अब मैं बेगार टाल रहा हूं तो ऐसा सोचना सही नहीं है। रोज़ लिखना मेरे अनुशासन का हिस्सा है।  मगर रोज़ नई पोस्ट ही डालूं ये ज़रूरी नहीं है। मिसाल के तौर पर जिस पोस्ट के आधार पर आप सफर को पटरी से उतरा हुआ बता रहे हैं वो तो साल भर पुरानी श्रंखला का हिस्सा है जिसमें कुछ संशोधन किए हैं। मैं न तो कोई कीर्तिमान बना रहा हूं और न ही पराक्रम कर रहा हूं। मैं बहुत झिझक के साथ सबके बीच आया हूं। मेरे कार्य के संदर्भ में इस किस्म की शब्दावली मुझे हतोत्साहित करने के लिए काफी है। 
    खुद को दुरुस्त करने के लिए हमेशा तत्पर हूं। सफर का उद्देश्य वहीं है जो लिखा है - शब्दों की व्युत्पत्ति के बारे में सहजता से सामान्य लोगों के समझ आने लायक भाषा में बात कह सकूं। आप लोग मेरे कर्म को अध्येतावृत्ति समझ रहे हैं मगर मैं सिर्फ पत्रकार दृष्टि से ही काम कर रहा हूं। मैं साधारण शिक्षित हूं । पत्रकार के रूप में भी उल्लेखनीय नहीं। अपनी सीमाओं का ज्ञान है । भूमिका में मैने इसे स्पष्ट कहा भी है कि बोलचाल के शब्दों की व्युत्पत्ति के प्रति अपनी जिज्ञासा और उससे हुई प्राप्ति मैं आपसे साझा कर रहा हूं। उम्मीद है इसी तरह सफर में बने रहेगे।
    साभार....अजित
    अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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