Tuesday, September 23, 2008
नींबू, अमरूद का पेड़ और मुर्गियां...[बकलमखुद71]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के तेरहवें पड़ाव और उनहत्तरवें सोपान पर मिलते हैं रंजना भाटिया से । कुछ मेरी कलम से नामक ब्लाग चलाती हैं और लगभग आधा दर्जन ब्लागों पर लिखती हैं। साहित्य इनका व्यसन है। कविता लिखना शौक । इनसे हटकर एक ज़िंदगी जीतीं हैं अमृता प्रीतम के साथ...अपने ब्लाग अमृता प्रीतम की कलम से पर । आइये जानते हैं रंजना जी की कुछ अनकही-
बचपन यूँ तो बीत जाता है पर उसकी मधुर यादे साथ ही रह जाती है ..घर से अलग होने का यह मेरे लिए पहला मौका था | यहाँ दो भाई थे कजन ,पर दोनी बहुत ही छोटे | तिलक नगर का स्कूल और वहां पर पहली सखी बनी ""अनु "' अनुराधा और इसी ने मेरे कविता लिखने के शौक को हवा दी |
जो बीत गई , सो बात गई......
जब बड़ी माँ थी तो वह कई बार हमें "हरिवंश राय बच्चन "की कविता का वह अंश लोरी के रूप मे सुनाती थी "जो बीत गई वह बात गई ..जीवन मे एक सितारा था ..माना वह बेहद प्यारा था " ..वह कविता अब समझ मे आने लगी थी और जो लिखती थी वह भी लफ्ज अब अर्थ देने लगे थे .. ..मम्मी के बुक शेल्फ मे प्रेमचंद और गुरुदत्त को पढ़ा था ...मीना कुमारी की फिल्मों से जो उनकी बेपनाह मोहब्बत देखी थी ...इतनी की उनके मरने पर घर मे खाना नही बना था ...वह सब अब धीरे धीरे समझ मे आने लगा | अनु [अनुराधा ] शिवानी और अमृता प्रीतम की ढेरों किताबों मे गुम रहती थी ....उस से पहली किताब शिवानी की "केंजा" ले कर पढ़ी और फ़िर अमृता की उस के बाद जो नशा हुआ पढने का वह अब तक नही उतरा ..फ़िर उसी ने मेरी लिखी कविता पहली बार स्कूल मेग्जिन मे दी | वहां से निरंतर लिखने का सिलसिला चल पड़ा |
वीरवार का खट्टा-मीठा इंतजार...
देखते देखते दो साल गुजर गए और स्कूल शिक्षा समाप्त हो गई | पर मम्मी पापा भाई बहन से अलग रहना और दिल्ली से जम्मू अकेले जाने का जो आत्मविश्वास ख़ुद में पैदा हुआ , वह दो साल की यह जिंदगी बहुत कुछ सिखा गई | १२ वी क्लास के पेपर देते ही मैं जम्मू चली गई और रिजल्ट आने पर वही वूमेन कॉलेज में दाखिला ले लिया | जम्मू में हमारा घर गांधी नगर ,स्वर्ण सिनेमा हाल के पास था | साथ ही पीर बाबा की मजार जहाँ हर वीरवार मत्था टेकने जाते थे | पीर बाबा पर मत्था टेकना तो ख़ास लगता ही था पर उसी दिन वहां आलू की चाट और भेल पूरी वाला खड़ा होता था..वह खाने का बहुत चस्का लगा था तब .:) सो वीरवार का इन्तजार बहुत खट्टा मीठा सा लगता था उन दिनों घर छोटा सा था| मकान मालिक भी साथ ही एक तरफ़ रहते थे और एक तरफ़ हम |
जो कभी नहीं सुधरेंगे...
घर में नीम्बू - अमरुद के पेड़ और एक छोटा सा मुर्गी घर भी था | मकान मालिक जिन्हें हम दब्बू जी कहते थे ,उनका लगाव अपने बच्चो से ज्यादा इन पेड और मुर्गियों की तरफ़ ज्यादा रहता था ,ख़ास कर मेरे वहां आने से क्यों की कोई अमरुद नीम्बू पेड पर सुरक्षित नही रहा था और मुर्गी घर का दरवाजा जो पहले बंद रहता था ,उन्हें अब अक्सर खुला मिलता और जब वह मुर्गी पकड़ने उनके पीछे भगाते तो वह मुझे देखने में जो खुशी मिलती थी उसका वर्णन करना बहुत मुश्किल है ..| निम्बू तोड़ने में मेरे पूरे बाजू तक छिल जाते थे पर मजाल है कि एक भी निम्बू पेड़ पर मिल जाए उन्हें ..इस लिए उस परिवार को बहुत पसंद नही थी मैं | :) मेरी बहने दोनों बहुत शराफत से पेश आती थी पर हम तो वो थे , "'जो कभी नही सुधरेंगे" पर यकीन करते हैं |
जम्मू में कॉलेज के दिन...
कॉलेज की अपनी मस्ती थी वूमेन कॉलेज था बहुत सख्ती रहती थी | सफ़ेद सलवार लम्बी सी कमीज और उस पर सही से पिन किया दुप्पटा | बहुत गुस्सा आता था कि कॉलेज से बंक नही मार सकते इसी ड्रेस कोड के कारण पर रोज़ रोज़ क्या पहने के झंझट से बहुत आराम भी था | जिस दिन कोई मौका होता कि आज यूनीफोर्म में नही जाना तो उस दिन "बागे-बहु तवी नदी के किनारे एक पुराना किला और देवी माँ का मन्दिर है वहां भाग जाते या हरिसिंह पैलेस ..जो तवी नदी के दूसरे किनारे पर था | पता नही वहां के लोग उसको शहर क्यूँ कहते थे ? जबकि शहर तो इस तरफ़ भी था .. कॉलेज की पढ़ाई भी यहाँ उस वक्त स्कूल की तरह थी | हमारा ग्रुप अपना अलग ही था , और मैं अपने लंबे कद के कारण मैं अलग से पहचान में आ जाती थी .... नॉवल पढने और लिखने का शौक यहाँ और अधिक बढ गया ... कई बार कॉलेज फंक्शन में भाग लिया ,अपनी लम्बाई से परेशान हो कर कविता तो अब याद नही पर एक लेख लिखा था लम्बाई वरदान या अभिशाप, वह सबने बहुत पसंद किया था ..इसी लम्बाई के कारण बास्केट बाल खेल में कॉलेज स्तर पर कई बार हिस्सा लिया | माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए तो हर २० या २५ दिन में भाग जाते थे ,कभी कोई रिश्तेदार आया उसके साथ नही तो एक हमारे ग्रुप की लड़की कटरा की रहने वाली थी , जब वह सप्ताहांत में घर जाती तो उसके साथ पूरा ग्रुप हो लेता | क्या दिन थे वह ....
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28 कमेंट्स:
जीवन के आनन्द आपको कदम-कदम पर मिलते रहे हैं, यहाँ पढ़कर जाना तो बहुत अच्छा लगा। इस आनन्द को यूँ ही बनाए रखॆं। शुभकामनाएं।
जो बीत गई सो बात 'आई' वाकई अच्छी लग रही है।
अमृता और मीना कुमारी तब से पसंद हैं आपको... ! कॉलेज के दिन तो 'क्या दिन थे' होते ही हैं.
बहुत बढिया रँजू जी ..वाह !
कोलिज के दिनोँ की याद आ गई
स्नेह,
- लावण्या
बचपन के दिन भी क्या दिन थे..
उड़ते फिरते तितली की तरह..
अच्छा है..बहुत अच्छा है..
कहा सुना माफ़,
- पंकज
बच्चन जी की कविता लोरी के रूप में! सच में कोई उत्कृष्ट गेय कविता सुन्दर लोरी बन सकती है।
आपके संस्मरण अच्छे लग रहे हैं।
बहुत सही चल रही है कहानी...जो बीत गई...:)/// जारी रहें.
बच्चन जी की यह कविता मुझे भी बहुत प्रिय है ,वे बहुत आशावादी कवि है -उनकी रचनाएं सचमुच बहुत प्रेरणा देती हैं .बकलम ख़ुद गति पकड़ रहा है ....जारी रखें ....
अच्छा लग रहा है आपके बारे में जानकर
वाह आप तो पूरी तारफ डूब गई है हैं यादों में ....:) अच्छा है
बहुत अच्छा चल रहा है
सिलसिला संस्मरण का.
बधाई रंजना जी को
आभार अजित जी आपका.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
कालेज की लाइफ के कहने ही क्या। बस एक मधुर स्मृति बन कर रह जाती है साथ, फुरसत के लमहों में याद करके मुस्कराने के लिए।
बहुत बढ़िया लगा रहा है आपके साथ आपकी जिंदगी के सफ़र में चलना....वैसे आपकी हाईट कितनी है!आपकी लम्बाई के बारे में पढ़कर यूं ही उत्सुकता हुई...
बहुत अच्छा लगा आपकी जिन्दगी के बारे में जान कर रंजूजी. अच्छा लगा. जारी रखे
अंजू जी बहुत अच्छा लग रहा है आपकी कलम से आपके जीवन के बारे में पढ़ना। अगली कड़ी का इंतजार है।
रंजू जी आप तो बड़ी छुपी रुस्तम निकली । :)
आपकी शरारतें वल्लाह ... :)
बहुत मजा आया ये सब पढ़कर ।
wakai bahut badhiya din rahe honge... abhi to baithe hai dari bichakar.. aage ka intezar hai..
सादी भाषा में सादी बात, सीधे दिल से निकली बात।
अजितभाई आप यह एक महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। इसके लिए आपको अनेक बधाई और शुभकामनाएं।
आपके कदम से कदम मिलाकर आपकी जिंदगी के साथ चलना अच्छा लग रहा है। साथ ही कॉलेज की याद भी आगई। और सोच रहा था आपकी कटरा वाली मित्र के परिवार वालों का क्या होता होगा ये भी लिखिएगा।
सही लिख रही हैं। लगता है, सहशिक्षा में आकर लड़कियों को आजादी मिल पाती है। महिला विद्यालयों और महाविद्यालयों में उन पर घोर पाबंदियाँ होती हैं।
जरा कुछ फोटो -शोटो भी हो जाये उस जमाने के फैशन के तो ....ओर लुत्फ़ आ जाये किस्से में......
सुन्दर। फोटो-सोटॊ होने चाहिये जैसा अनुराग कह रए हैं!
padh rahe hain batate rahiye
गुड है, पढ़ रहा हूं।
मानना पड़ेगा आपकी हिम्मत को-
माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए तो हर २० या २५ दिन में भाग जाते थे!
यहॉं तो हालत ऐसी थी कि एक बार इतनी चढ़ाई कर वैष्णों मॉं का दर्शन कर लिये तो उनसे यही गुजारिश करता कि अब अगले साल (भी) बुलाना मॉं।
well childhood... read by blog
http://catalyst-mib.blogspot.com/2009/06/memories-falling-leaves-f-yesterday.html
itz my attemp to recollect the memories...
अच्छा लग रहा है आपको पढना .
अमृता जी का साहित्य , व्यक्ति और व्यक्तित्व सभी कुछ मन के बहुत करीब लगे .खूब पढ़ा भी .सम्पूर्णता और समर्पण एकाकार थे उनमे .
इमरोज़ जी से भेंट हुयी तो उस सम्पूर्णता को अमृता जी के जाने के बाद भी उनकी ' परिपूर्णता ' को एक ' वजूद ' के रूप में पाया ' इमरोज़ ' में .एक लम्बे विडिओ इंटरवियु में ' इमरोज़ ' जी ने उनके स्मरण कहे जैसे की वह आज भी वजूद में हों तो उस अमृत का विस्तार भी जाना ,महसूस किया .
फिर किसी ने बताया की ' रंजू ' अमृता की यादों को समर्पित है तो कौन है ये रंजू , उत्सुक कर गया .
तो आज उस रंजू के दर्शन हो गए , जान पा रहा हूँ ,उसी की जुबानी .
acha laga to like maro
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