Tuesday, July 1, 2008

सरदारजी की शरारत [पुस्तक चर्चा- 1]

स साल की शुरूआत में हमने नियमित तौर पर पुस्तक चर्चा चलाने की बात कही थी मगर एक कड़ी के बाद कुछ लिखना नहीं हुआ । अलबत्ता हमेशा की तरह पढ़ा खूब गया। कोशिश है कि धीरे धीरे उन तमाम पुस्तकों के बारे में बताता चलूं जो इस दौरान पढ़ी गई हैं। इस बार पेश है खुशवंतसिंह की आत्मकथा ।


अंग्रेजी के प्रसिद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह की दिलचस्प आत्मकथा अब हिन्दी में भी उपलब्ध है। राजकमल प्रकाशन ने इसका पेपरबैक संस्करण निकाला है। मेरा मानना है कि किस्सागोई में उर्दूवालों की तरह ही पंजाबीवालों का भी कोई जवाब नहीं। हिन्दीवाले जहां भारी भरकम शब्दावली और चमत्कार पैदा करने की ग़लतफ़हमी के साथ नीरस वर्णन और विवेचन में लगे रहते हैं वहीं उर्दू-पंजाबी लेखक बड़ी आमफ़हम भाषा में ऐसे ऐसे किस्सों के जरिये अपनी बात कह जाते हैं कि ज़रा भी ऊब महसूस नहीं होती।

खुशवंतसिंह की आत्मकथा भी इसी वर्ग में आती है और पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक ऊबने नहीं देती। लंबे राजनयिक और फिर पत्रकारीय जीवन के चलते सरदारजी के सामाजिक संपर्कों का दायरा बहुत बड़ा रहा है। आज़ादी से पहले और बाद की राजनीति और समाज को उन्होने बहुत बारीकी से समझा, परखा और जाना फिर अपने अंदाज़ में उसे लिख डाला। इस पुस्तक में राजनीतिक क्षेत्र की प्रमुख हस्तियों जैसे नेहरू, इंदिरा, कृष्णमेनन, मेनका, संजयगांधी से लेकर सामाजिक-फिल्मी क्षेत्र की प्रमुख हस्तियों तक के बारे में बड़ी बेबाकी से खुलासा किया गया है और जहां आवश्यक हुआ उन्हें निशाने पर भी रखा गया है।

खुशवंतसिंह के लेखन की सबसे बड़ी खूबी वे औरतें रही हैं जो जीवन में कभी न कभी उनके सम्पर्क में आई हैं या ताउम्र उनके इर्दगिर्द रही हैं। औरत-मर्द रिश्तों के बारे में वे इतना खुलकर लिखते हैं कि कभी कभी लगता है कि वे शायद मनोरोगी हैं। खासतौर पर औरतों के जिस्म की बातें इतनी ज्यादा इस पुस्तक में आई हैं कि लगता है जैसे उन्होंने ढूंढ ढूंढ कर ये मौके तलाशे हैं। मगर ऐसा नहीं है। वे देश के सबसे महत्वपूर्ण दौर यानी आपात्काल के दौरान की राजनीति और पत्रकारिता की दुनिया में जब हमें ले जाते हैं तो कई बडे चेहरे बेनकाब होते हैं। कुल मिलाकर पुस्तक अपने शीर्षक- सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत के मुताबिक इन तीनों ही चीज़ों का मेल है । बस, थोड़ी सी की जगह शरारत ज़रूरत से ज्यादा नज़र आती है।

ढ़ने के शौकिनों के लिए यह एक अच्छी पुस्तक है। अनुवाद ठीक ठाक है मगर हेमामालिनी को धर्मेन्द्र की रखैल बताने जैसे वाक्य खटकते हैं। पुस्तक का मूल्य 195 रूपए है जो सामान्य है।

25 कमेंट्स:

Ashok Pande said...
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दिनेशराय द्विवेदी said...

भाई, सरदार जी की कोई किताब नहीं पढ़ी। पर उन का लेखन खूब पढ़ा है। वे बेबाक हैं। अगर वे सम्पर्क में आई महिलाओं की खूबसूरती की तारीफ करते हैं या कुछ अधिक आजादी के साथ लिखते हैं तो बुरा क्या है कम से कम वे अपने जज्बात छुपाते तो नहीं। यहाँ दागिस्तानी कवि रसूल गम्जातोव याद आते हैं। औरत प्यार करती है और प्यार करने के लिए है। वह प्रकृति की सबसे खूबसूरत नियामत है, उस की खूबसूरती और प्यार का बखान क्या खुदा की कीर्ती का बखान नहीं है।

अजित वडनेरकर said...

अशोक भाई, आपकी जैसी ही धारणा मेरी भी है सरदारजी के बारे में। पर क्या किया जाए ? आप भी घोर आलोचक होने के बावजूद उनकी तमाम पुस्तकों के रेफरेंस दे रहे हैं जाहिर है , वे आपकी पढ़ी हुई होंगी ही।
सरदारजी के लिखे को पढ़कर कई बार कोफ्त होती है। एकबार तो मैने पेंसिल से किताब पर उन्हीं के अंदाज़ में गाली गलोज के साथ उन्हें सबोंधित कर दिया था। बाद में परिवार की एक लड़की ने उसे पढ़ा और में शर्मिंदा हो गया।
कुल मिलाकर खुशवंतसिंह की आलोचना करने के लिए ही उन्हें पढ़ना ज़रूरी हो जाता है। ज्यादा गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं , बावजूद इसके पाठक का काम , खासतौर पर मीडिया से जुड़े पाठक को सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ना चाहिए बल्कि सचाई के कई आयामों को देखने के लिए पढ़ना चाहिए। और राजनीति-समाज को समझने में किसी भी दौर के लफ्फ़ाज़ तक को खारिज़ करना मुझे गवारा नहीं । कुछ सचाई तो छन कर आती ही है न !!

दिनेशराय द्विवेदी said...

रखैल शब्द बुरा लगता है। वे खूबसूरत हैं, नृत्यांगना भी, नृत्य शिक्षिका भी, अभिनेत्री भी और अब सांसद भी मगर एक पत्नी के होते हुए धर्मेन्द्र जी के साथ जो संबंध बनाया है। 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम के बाद उन की हैसियत इस से अधिक क्या है? सरदार जी ने सही शब्द इस्तेमाल किया। लोगों को बुरा लगे तो लगे। यही तो सरदार जी की बेबाकी है।

अजित वडनेरकर said...

@दिनेशराय द्विवेदी
वाह दिनेश जी, आपने कायल कर लिया रखैल के संदर्भ में। सचमुच इस नज़रिये से हमने नहीं सोचा था। तार्किक है आपकी बात , आखिर वकील जो ठहरे ! शुक्रिया

ghughutibasuti said...

दिनेश जी का तर्क सही हो सकता है । पर अजित जी, रखैल शब्द कैसे बना और उसका असली अर्थ क्या है बता सकते हैं। क्या रखी गई स्त्री सा कुछ नहीं ? इस अर्थ में हेमा मालिनी के पास मकान , सम्पत्ति सब है तो कोई पुरुष उन्हें इस अर्थ में रखने की क्या हैसियत रख सकता है ? दोनों का ही विवाह कानून की दृष्टि में हुआ ही नहीं । बुरे या भले जो भी शब्द प्रयुक्त किए जा सकते हैं वे दोनों के बारे में किए जा सकते हैं। वैसे देखा जाए तो कानून तो विवाहित ने तोड़ा है न कि अविवाहिता ने।
घुघूती बासूती

Ashok Pande said...
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अजित वडनेरकर said...

@अशोक पांडेय
अजी हुजूर, क्यों ख़फा हो रहे हैं, जी क्यो खट्टा कर रहे हैं! मीर बाबा का बदला अब क्यों इस बूढे सरदार से लेना चाहते हैं। वैसे भी उनकी उम्रवालों के लिए तो दया दृष्टि ही रखिये :)
आपकी तमाम बातें यही तो साबित करती हैं कि आपने उन्हें पढ़ा है । हम भी यही कहते हैं कि उन्हें पढ़ा ज़रूर जाना चाहिए। आप उन्हें खारिज़ करते हैं इससे हमें कहां एतराज़ है। हम भी उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लेते हैं फिर भी उन्हें पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि तभी उन पर उंगली उठाई जा सकेगी।
कैसे खुशवंत सिंह बरसों तक दूतावासों में जमे रहे ? कैसे वे पत्रकार , लेखक बने , किनने उन्हें लेखक के तौर पर सिर चढ़ाया ? किन लोगों ने उन्हें राज्यसभा में पहुंचा दिया ? कैसे हुआ ये सब ? उन राजनेताओं से बुरे तो नहीं खुशवंतसिंह जिन्होने उन्हें राज्यसभा में पहुंचाया। उनसे हम किस बात की उम्मीद रख रहे हैं ?
स्त्रियों की देह के बारे में पढ़ते पढ़ते कोफ्त हो जाती है तो भी मेरे भीतर का पत्रकार जानना चाहता है कि नब्बेसाल की उम्र वाला बंदे के पास दुनिया के अनुभव तो हैं जिसे वो बता रहा है। शैली उसकी अपनी है, सो इस बार भी मैं उन्हें कोसते - कुसाते पूरा पढ़ गया।

रखैल बेशक गंदा लफ्ज है इसीलिए तो खटका । मगर दिनेशजी ने सही तर्क दिया है। हमारे समाज मे इस शब्द का इस्तेमाल होने की नौबत क्यों आए ? प्यार इश्क में सब जायज़ है तो विवाह की जिद क्यों ? और अगर घटिया मानसिकता वाला समाज विवाहेतर सहजीवन के संदर्भ में स्त्रियों के लिए रखैल शब्द गढ़ लेता है तो उस पर ध्यान भी क्यो दिया जाए ? दिनेश जी शायद यही कहना चाहते हैं कि अगर उस पर ज्यादा गौर करेंगे तो तर्क वहीं होगा-कानूनसम्मत :)
अशोक जी , जी खट्टा मत करिये .....:)

Ashok Pande said...
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Abhishek Ojha said...

सरदारजी मौके की तलाश में लगे रहते हैं ये तो हमने भी सुन रखा है... कभी पढ़ा नहीं उनको...
आपकी पुस्तक समीक्षा की श्रृंखला अच्छी रहेगी इसमें कोई दो राय नहीं... शुभकामनायें, और धन्यवाद इस अच्छी शुरुआत के लिए.

इस पोस्ट पर आई टिपण्णीयां... ब्लॉग्गिंग में टिपण्णी का महत्त्व साबित करती हैं... सरदार जी के बारे में बस थोड़ा बहुत इधर-उधर ही सुना-पढ़ा है, ऐसी चर्चा हर ऐसे पोस्ट पर हो जाय तो हम जैसों का ज्ञानवर्धन होता रहे.

अजित वडनेरकर said...

@अशोक पांडेय
अजी साहेब, आपको ये क्यूं लग रहा है कि हम डिफेंड कर रहे है किसी को भी । हम तो आपकी ही बात कह रहे हैं कि हुजूर भारतीय परंपरा के तहत आप पढ़कर कोस रहे हैं तो औरों को भी उसी परंपरा पर चलने दीजिए न ?

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

शादी के बाहर के सँबँध या वेश्याएँ या कई सारे अन्य प्रकार के ...
आज की बात नहीँ है
समाज मेँ बहुत कुछ
आदिकाल से चला आ रहा है -
आज कानून बना है ..
पर इन्सान हमेशा
कानून तोडने मेँ ही लगा रहता है --
खुशवँतजी की अँग्रेजी कीताबेँ और आलेख ,
पहले भी पढे हैँ -
- लावण्या

डा० अमर कुमार said...

अजित भाई,

खुशवंत के बेबाक लेखन और कथावस्तु न होते हुये भी
पाठक को बाँधे रखने की क्षमता का मैं कायल रहा हूँ ।
मैंने यह आत्मकथा पढ़ी है,
क्या आपको नहीं लगता कि कई जगहों पर वह भाषाप्रयोग में अविवेकी हो गये हैं ? मुझ कूढ़मग़ज़ को तो लगता है, क्षमा करें !

Udan Tashtari said...

हेमामालिनी को धर्मेन्द्र की रखैल-मुझे इससे ज्यादा अपेक्षा भी नहीं थी खुशवंत सिंग की सोच से.

सच मानिये कि मेरे विचार न बदल जायें इसलिये मैने बाकि टिप्पणियां अभी नहीं पढ़ी हैं टिपियाने के बाद पढ़ूंगा.

मेरी शुरु से मान्यता है कि खुशवंत जी चाहे कितने भी लोकप्रिय हो जायें, कहीं न कहीं बहुत पुराने नासूर से परेशान हैं.

मैं उनकी खूब किताब पढ़ता हूँ और जब जब मौका लगता है उनके बारे में पढ़ता हूँ, बस इसलिये कि मुझे हर बार यह संबल मिले कि मैं उनके बारे में गलत धारणा तो नहीं कायम कर बैठा. मगर हर बार वो मेरी अवधारणा को नया बल देते हैं. आज भी यही हुआ.

जरुर पढ़ूंगा इस किताब को- इस लिहाज से वो सफल लेखक कहलाये.


आपका आभार जो आपने उन्हें यहाँ स्थान दिया. यह उनका ही सौभाग्य कहलाया.

E-Guru Maya said...

खुशवंत सिंह अत्यन्त बेशर्मी के साथ अपनी बात कह जाते हैं, बिना यह देखे और सोचे कि सामने वाले पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा. और कमाल की बात यह है कि सब उन्हें सनकी, सठियाया बूढा कह कर चुप हो लेते हैं.

श्रद्धा जैन said...

मैने अब तक जो भी सुना था उनके बारे में अच्छा ही सुना था किताबें नही पढ़ी अब तक कोई भी ,
मगर आज आप सभी की बातों से मन में उत्सुकता है कि ज़रूर पढ़ा जाए क्या है ऐसा जो सभी लोग नाराज़ है उनसे

शुक्रिया अजीत जी

आपके इस ब्लॉग पर भटके भटके आई और एक बार आते ही ,रोज आने लगी

आप ने जो परिचय का सिलसिला शुरू किया उसे पढ़ कर बहुत अच्छा लगा
आपका ब्लॉग सबसे अलग और मन को पसंद आने वाला रहा
बात अजीब सी है मगर है तो सच ये भी
कि पहली ही दिन किसी बात से इतना प्रभावित होना कि उसे अपने साथ जोड़ लेना
शायद इसे ही कहते हैं first Impression

कुश said...

मैने तो टिप्पणियो को गंभीरता से पढ़ा.. अभिषेक भाई से सहमत हू इस तरह की पोस्ट आती रहनी चाहिए बढ़िया ज्ञानवर्धन होता है..

अजित वडनेरकर said...

आप सबका आभार जो इस पुस्तक चर्चा में हिस्सा लिया । अशोक भाई ने नाहक अपनी टिप्पणियां मिटा डालीं ।
हर लेखक की अपनी शैली होती है। लेखक समाज से हटकर नहीं होता। कहीं न कहीं सबकी कुंठाएं होती हैं । चाहे राजनीतिक चिंतक हों या इतिहास लेखक । विशुद्ध सामाजिक लेखन करनेवाले साहित्यकार हों या कवि - सबके मनोविकार - ग्रंथियां कहीं न कहीं उनके लेखन से उजागर होते हैं। पाठक होना कोई आसान बात नहीं कि पढ़ा, और खारिज़ किया अथवा पढ़ा और वाह वाही कर दी। दरअसल आपको जो पाना है , आपकी जो अपेक्षा है वह किस हद तक पूरी हो रही है , ये महत्वपूर्ण है। ये वहीं बात हुई कि शक्ल तो अच्छी है मगर आवाज़ खराब है । या आदमी तो अच्छा है मगर बोलता ज्यादा है। या स्वभाव के चिड़चिड़े मगर दिल के साफ।
यही बातें लेखक के संदर्भ में भी सोचनी चाहिए । लेखक भी विभिन्न परिवेशों से आते हैं। बहुत ज्ञानी, संत महात्माओं जैसी बातों की उम्मीद हर किसी से नहीं की जा सकती हैं। लिखने का सलीका जिसे भी आता है वह लिख सकता है । क्या लिखता है , कैसे लिखता है जैसा उसका किरदार होगा उससे तय होता है। आमतौर पर मसाले खाने वाला आदमी खिचड़ी भी मसालेदार ही बनाएगा ।
पाठक को सोचना है कि सौ में से कितने फीसदी उसकी अपेक्षा पूरी हुई।

डॉ .अनुराग said...

खुशवंत जी ठीक वैसे ही है जैसे आप कभी पी कर अपने खास दोस्तों से कुछ गप्पे मारे ओर अगले ६ महीने बाद उन्हें अखबारों या किताब में छापा देखे ...जैसे कहा जाता है की पुलिस वालो से न दोस्ती अच्छी न बैर ....खुशवंत जी भी उसी श्रेणी में आते है ...अलबता उनकी लिखी कई किताबो से मैंने ट्रेन का अपना लंबा सफर बखूबी काटा है उनकी साफगोई कही कही खटकती भी है ओर कही कही लगता है वे हर चीज़ को सरेआम कर रहे है .....पर एक आम पाठक को वो दिलचस्पी से बांधे रहते है .दरअसल उन्हें वास्तव में औरत प्रेम रहा है ओर बेबाकी भी ...ओर वे बाजार की नब्ज भी जानते है ..बतोर लेखक उनकी एक ही किताब मुझे पसंद है ट्रेन टो पकिस्तान ...शयद उन्हें भी यही हो....एक दो समारोह मैंने attend भी किए है ...जिसमे वो मुख्या अतिथि के तौर पर आए थे ....आप उन्हें प्रकाशक के लिए अच्छा कमाऊ लेखक कह सकते है ....वैसे इमर्जेंसी के दौरान उनका व्यवहार काफी विवास्पद रहा है.....

नीलोत्पल said...

Is pustak ka original (Truth, Love and Little Malice) maine 2002 mein padha tha. Kuchh 6-7 din lage the - khasi moti pustak thi. Khushwant Singh ke lekhan ki khasiyat unki bebaki aur pathakon ko bandhane ki kshamata hai. Auraton ka jiqr unke lekhan mein bar bar aata hai - lekin mujhe usmein kuchh bhi distasteful nahin laga. Jahan tak Hema Malini ko Dharmendra ki rakhail kehne ki baat hai - hamein is sandarbh ko dekhana hoga. Main us prakaran ka jiqr yahan nahin karna chahta - behtar hoga aap khud pustak padhen aur nirnay len.

@ Ajitji - main aapke blog ka niyamit pathak hoon, lekin aaj pehli baar apni tippani likh raha hoon. Maine aapke blog ke jariye hamein kafi kuchh sikha hai - bahut bahut dhanywad.

PD said...

हम लेट से आये.. यहां क्या बात हो रही थी वो अशोक जी के कमेंट पढने के बाद ही समझ आ सकती थी जो अब संभव नहीं है..
कोई बात नहीं इसे हम भी ढूंढ कर पढते हैं.. :)

रंजू भाटिया said...

खुशवंत सिंह की कई किताबे पढ़ी है सबसे अच्छी उनकी ट्रेन टू पकिस्तान ही लगी है हर किसी का अपना अपना लिखने का ढंग है ..पढेंगे इस किताब को भी

बलबिन्दर said...

ट्रेन टू पाकिस्तान वाकई में बहुत अच्छी किताब है।
गाहे-बेगाहे जो पढ़ा जाता है, खुशवन्त जी की कलम से, लगता है- ना काहू से दोस्ती-ना किसी से बैर

Anita kumar said...

अगर रखी हुई औरत के लिए शब्द रखैल है तो रखे हुए मर्द के लिए क्या है? और लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले क्या कहलाते हैं?

Dr Mohan Bahuguna said...

खुशवंत सिंह की नई किताब के बारे में जानकारी ठीक ठाक है लेकिन आश्चर्य है कि हिंदी में ब्लॉग लिखे जाने के बावजूद भी इसके हिंदी अनुवादक का कहीं नाम नहीं दिया गया है। क्या अभी भी हम ऐसी मानसिकता से जी रहे हैं कि अंग्रेजी किताब के लेखक आदि का पूरा ब्यौरा तो दिया जाता है किंतु हिंदी अनुवादक का कहीं नामोनिशान भी नहीं होता। क्या उसकी मेहनत या परिश्रम किसी से कम है। आशा है इस ओर ध्यान देंगे।

मोहन बहुगुणा

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