छंदमुक्ति तो एक सुविधा है
प्रकृति की स्तुति, कालांतर में देवता की स्तुति का आदिम उपकरण कविता ही रही है। कविता आज चाहे आम आदमी से दूर होती जा रही हो मगर प्राचीनकाल से ही कविता का प्रमुख तत्व
इसे भूमिका समझें
कवि, कविता, कथा की श्रंखला से जुड़े शब्द पर पोस्ट लिखने बैठा मगर भूमिका लिखते-लिखते बहक गया। संभव है कवि-मित्र इससे नाराज़ हो जाएं। निवेदन है कि वे मुझे अ-कवि, अ-रसिक मानते हुए क्षमा कर दें। फिलहाल इसे मेरी आगामी पोस्ट की लंबी भूमिका समझ कर पचा लें
संगीत रहा है। संगीत तभी सधता है जब कविता छंद में हो। पुराने उद्धरणों , सूक्तियों , कहावतों में जो कुछ हमें याद रह जाता है वह छंद होता है, संदेश या कथ्य तो उसमें समाया ही है। यही वजह है कि आज की छंदमुक्त कविता आमजन में उतनी व्याप्त नहीं है । उसे सुना जा सकता है , पढ़ा जा सकता है, मगर कंठस्थ कर सुनाया नहीं जा सकता । सहज बातचीत में उसे उद्धरित नहीं किया जा सकता। कुछ आलोचक दंभ से कहते पाए जाते हैं कि आज की कविता सीधे समाज से संवाद करती है। दो टूक बात के लिए छंद का आडंबर नहीं चलता है। तो क्या कबीर की कविता समाज की समझ से दूर थी ? कबीर ने अपनी बात कहने के लिए छंद का आडंबर रचा ? कबीर से ज्यादा दो-टूक कहने की हिम्मत आज की फिरकापरस्ती में कितने लोग कर पाते हैं ? दरअसल छंद तो कविता का अनुशासन है और छंदमुक्ति एक सुविधा। उधर कुछ कवि यह भी कहते हैं कि उनकी कविता आम आदमी के लिए नहीं है। तो भला किसके लिए है ? प्यारे आलोचकों के लिए ?
कवि-कलरव के दिन बीते
कविता का छंदबद्ध या छंदमुक्त होना बेशक कवि की अनुभूति पर निर्भर करता है। मगर कवि की अनुभूति लोक से तभी जुड़ेगी जब उसमें छंद होगा। छंद में भी शास्त्रीयता हो ज़रूरी नहीं निराला, पंत जैसे कवि छंदमुक्त धारा के अग्रणी रहे मगर ठाठ से उनकी कविताएं उद्धरित की जाती हैं। वजह है छंदमुक्त होना शास्त्रीयता से मुक्त होना था मगर उनकी कविताओं में नैसर्गिक लय थी जिसने नया छंद रच दिया इसीलिए मंचों पर भी वे लोकप्रिय थे। बाद के दौर में छंदमुक्त कवि नई कविता के आंदोलन में रमें सो उनसे मंच भी छूट गया। शास्त्रमुक्त नए छंद [या कोरी तुक] के बूते बरसों तक मंच लूटने की कला को हास्य कवियों ने हथियाए रखा । अब उसकी भी दुर्गति हो चुकी है। आज के गुरु-गंभीर, आलोचकों के लाड़ले कवि छुटपुटिया पत्रिकाओं में समा कर खुश हो जाते हैं। मंचों पर कवि-कलरव के दिन बीत गए। कवियों को बुरा लग सकता है मगर आज साहित्य में छंदमुक्त कविता लिखनेवाले लोकप्रिय नहीं हैं। कवि-आलोचक बिरादरी में एक दूसरे की पीठ खुजाने वाले सतत प्रशस्तिगान को मैं मुक्तछंद के किसी कवि की लोकप्रियता का पैमाना मानने को तैयार नहीं हूं।
कविता की उम्र
कविता के नाम पर सदियों से जो कुछ ज़िंदा है वह छंद है, लय है , गीत है। सुदीर्घ गद्य की तरह कविताएं भी आज के दौर के संघर्षों में तपे-खरे कवियों ने लिखी। उन्हें पढ़ा तो जा सकता है मगर सुना नहीं जा सकता। वे अच्छे लोग हैं, अच्छी बातें करते हैं, वैश्विक समझ रखते हैं, कला के पारखी हैं और उम्दा बहस कर लेते हैं। वे पत्रकार हैं, नौकरशाह हैं, व्यवसायी हैं और अध्यापक हैं। मगर कविता की उम्र पर नहीं सोचते। इसलिए वैसा लिखते नहीं। राह आसान बनाना और आसान राह चुनने में बहुत फर्क है। कविता की उम्र क्या सिर्फ पोथी की उम्र से तय होगी या जन-मानस में पैठने वाले गुण से तय होगी ? कबीरबानी ग्रंथों में सुरक्षित रही या जनमानस में ? क्या आज की कविता सदियों तक उद्धरित की जाएगी ? इसने नई कहावतें या मुहावरे गढ़े हैं ? यह प्रक्रिया लगातार चल रही है या लुप्त ही हो गई है ?
बंद कमरे में खुश हो लेना तो अच्छी बात नहीं दोस्तों !
26 कमेंट्स:
आगे की कड़ियों का इन्तजार है।
'थोड़ी कोशिश छन्द में भी करो । उस से छन्द छोड़ कर लिखने की शक्ति आती है। कवियों में एक सधी हुई लय तो होनी ही चाहिए। आजकल उसकी कोई चिन्ता नहीं करता। इसलिए आज की ज़्यादातर कविता ख़ाली जा रही है ।' - भवानी प्रसाद मिश्र ( मुझे लिखे,२.१२.८१ के पोस्ट कार्ड से)
मेरे मन की बात.. छंद से हाथ धोकर कवियों ने बहुत कुछ हाथ से गँवा दिया.. चलो छंद न हो कम से कम लय तो हो.. पर हाल तो ये है कि बड़े-बड़े कवियों को पढ़ते हुए आप असमंजस में पड़े रहते हैं कि ये थ्योरी है कि कविता..?
बहुत कुछ सोचने लायक है इस लेख में ...
बहुत सही चीज को उठाया आपने , आज तो कविता पढते समय लगता है आप फ़ैलाकर पंक्तिया मे लिखे गद्ध को पढ रहे है, और अगला उसे कविता बताये जा रहा है . मै भी अग्रिम माफ़ी मे साथ ही कह रहा हू . कविवर कृपा बनाये रखे नाराज ना हो .मै वैसे भी कविता के बारे मे ज्यादा नही जानता.
अब वोट देना हो तो हम छन्द के पक्ष में ही देंगे।
कविता का छंद्ध बद्ध होना या छंद मुक्त होना, समकालीन कविता के लोकप्रिय न हो पाने की वजह को सतही और सरलीक्रत करके देखना ही है. ये ठीक है कि हिंदी कविता या कहें भारतीय भाषाओं की कविता अपने आरम्भिक दौर में छंद्ध बद्ध ही है. ग्यान विग्यान के हर ढेरों विषय आरम्भिक दौर में एक ही है. वहां न तो भौतिकी का बट्वारा है न रसायन का.न अंक गणित का बटवारा है न बीजगणित का. न भुगर्भ विग्यान का बटवारा है और न ब्रह्माण्ड का. तो फ़िर छंद मुक्त और छंद्ध बद्ध का बटवारा कैसे संभव होता. उम्मीद है कविताओं की इन दोनों धाराओं को भी ऎसे ही देखते हुए कुछ विस्तार से लिखेंगे. यह अलग बात है कि कौन लोकप्रिय है कौन नही और क्यों.
कविता पर यह मुक्त हस्तक्षेप
सफर का अनूठा पड़ाव है...!
इसमें मैं लय भी देख रहा हूँ
फिर क्षमा याचना क्यों ?
साहित्य सहित विमर्श के
किसी भी मुद्दे में सत्य का
संधान वाद-प्रतिवाद से ही होता है.
आपने प्रभावशाली शुरूवात की है.
रहा सवाल कविता के अधुनातन कलेवर का
तो इस वक्त इतना ही कि जिस कविता में
लोक-लय विद्यमान है वह बद्ध या मुक्त जो भी हो
उसमें जीवन है. चुनिन्दा कवियों की
नई कविता और नव-गीत दोनों
धाराओं में इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है.
...फिर भी कवि सम्मेलन और छंद से दूर हो रही
कविता पर आपकी दृष्टि, चिंतन के बंद दरवाज़े पर
पुरज़ोर दस्तक है...मुक्ति के नाम पर कहीं
शब्दों के परिंदे नई क़ैद के आदी तो नहीं हो गए हैं
पड़ताल करने में कोई बुरी नहीं है भाई...आपको बधाई.
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शुभ भावों सहित
डा.चन्द्रकुमार जैन
ऊपर टिप्पणी में बुरी... है...दरअसल बुराई
कृपा कर सुधार कर पढिए ==============
डा.जैन
सटीक और विचारणीय लेख। साधुवाद।
विजय गौर जी ने कहा; "कविता का छंद्ध बद्ध होना या छंद मुक्त होना, समकालीन कविता के लोकप्रिय न हो पाने की वजह को सतही और सरलीक्रत करके देखना ही है."
हम भी सतह पर ही बैठे हैं. डर लगता है डूबने का.
अजितजी, क्षमा याचना क्यों... आपने जो लिखा उस पर चिंतन होना ज़रूरी है....
हमारे लिए तो छन्दयुक्त कविता अलंकारों से सजी भारतीय नारी सी है जिसमे हमारा पुराना वैभव है तो छन्दमुक्त कविता आज के समय की आधुनिक नारी जो अलंकार रहित अपनी पहचान बना रही है...
आपको क्षमा याचना की जरुरत नहीं, भूमिका तो बहुत सही बाँधी है... अगली पोस्ट देखते हैं अब. कबीर जैसी वाणी शायद दुबारा सम्भव नहीं.
Great post. Needs to be discussed. May be I reserve a comment for now.
कविता किसे कहेँ ये लम्बी बहस का पहला सफा बन गया है आज के समय मेँ -
अजित भाई ने बहोत अच्छा लिखा
और मीनाक्षी जी की बात भी पसँद आयी !
hmmmm chliye koi to bola ki kavita main se chand gayab karke sabhi ne kahani ko kavita ka naam dene shuru kar diya hai
apni saralata ko sabdon ko kavita kahe rahe hain
bina lay bina sur bina taal ke kuch sabad likh dena mukt kavita hai ye to bus bachhav hi kahe sakte hain
umeed hai kuch loh aapke lekh se chand ko seekhne ka praays karenge
jo ki use kathin samjh kar bhaag rahe hain
बहुत सही विषय उठाया है।इस पर विचार होना ही चाहिए।अन्य टिप्पणीयों द्वारा कही बातॊं पर भी गौर करना चाहिए।
आपने बहुत सही कहा है.मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ.
आपने अपने सधे हुए शब्दों से वह लिख दिया जो कोई साधारणतया कोई सोच भी न सके ! हालत इतनी ख़राब हो चुकी है की हर कोई "कविता" लिखना शुरू कर देता है, आपका धन्यवाद !
आपने बहुत सही मुद्दा उठाया है। सच तो यह है कि जो हम, विशेषकर मैं कभी कभार लिखती हूँ उसे 'कविता जैसा कुछ' की श्रेणी में डाला जा सकता है। अब यह एक नई श्रेणी भी बनाऊँगी।
घुघूती बासूती
हिन्दी में छंद के स्वरूप और उस की अनिवार्यताओं पर अन्तरजाल पर कोई साहित्य उपलब्ध नहीँ जहाँ कुछ सीखा जा सके। इस कारण से अनेक लोग दूषित छंदों में रचनाएँ कर रहे हैं और पाठक (साथी ब्लागर) वाही वाही करने में नहीं सकुचा रहे हैं। नतीजा यह कि जहाँ छंद आ भी रहा है तो दूषित की मात्रा 90% है। कोई सुधी विशेषज्ञ इस विषय पर कुछ आलेख अन्तरजाल पर डाले तो सभी खुद को सुधारने की ओर आगे बढ़ेंगे तो बहुत सारा साहित्य छंदों में आने लगेगा और उस का स्थायित्व भी अधिक होगा।
बड़ी हिम्मती पोस्ट है, अजित भाई और उतना ही विचारणीय मुद्दा. मेरी आशा के उलट अभी तक सब ठीक चल रहा है. :)
अनेकों शुभकामनाऐं.
आगामी पोस्ट का इंतजार रहेगा, वैसे लग रहा है कि आज के कवि खुद को गलत मान रहे हैं, वरना इस पोस्ट पर विवाद हो सकता था :)।
तो सीधा सा कारण समझ मे आ रहा है कि अपने भाव संप्रेषण को कविता कहा तो जा रहा है, पर कवि जानता है कि को वो गलत है।
यह हो सकता है कि कोई सरल शब्दो मे फ़िर लय-छ्न्द के बारे मे समझायें, तो कवि वास्तव मे कवि बनने के लिये पहल कर सकते हैं। :)
अजित भाई - बहुत खूब - बड़े दिनों बाद आया - मज़ा आया- जय हो - छंद की अपनी अलग आत्मीयता है शायद इसलिए जल्दी दोस्ती होती है ज्यादा लोगों से - मुक्तछंद (शायद) प्रतिरोध का लहर तारा है - थोड़ा अलग है - लेकिन है तो - क्यो ? - वोट ही देना हो तो मुश्किल है - लेकिन मिठास छंद में ही है - सादर मनीष
Aapke wichar se sahmat hoon muze bhi chand men bandhi huee kawita jyadaa pasand hai par log ise outdated mante hain.
yeh blog bohot kaam aaya mujhe............keep it up!!!!!
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