Saturday, July 19, 2008

प्रभाकर , तूँ कबो सुधरबS ना ? [बकलमखुद-57]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल1 पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा और हर्षवर्धन त्रिपाठी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के ग्यारहवें पड़ाव और छप्पनवें सोपान पर मिलते हैं खुद को अलौकिक आत्मा माननेवाले प्रभाकर गोपालपुरिया से। इनका बकलमखुद पेश करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता है क्योंकि अब तक अलौकिक स्मृतियों के साथ कोई ब्लागर साथी यहां अवतरित नहीं हुआ है। बहरहाल, प्रभाकर उप्र के देवरिया जिले के गोपालपुर के बाशिंदे हैं । मस्तमौला हैं और आईआईटी मुंबई में भाषाक्षेत्र में विशेष शोधकार्य कर रहे हैं। उनके तीन ब्लाग खास हैं भोजपुर नगरिया, प्रभाकर गोपालपुरिया और चलें गांव की ओर । तो जानते हैं दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गोपालपुरिया की अनकही ।

लंठई के कुछ और किस्से...

 

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कुछ पल 

मुंबई आईआईटी के अपने  दोस्तों केसाथ एक सेमिनार में हिस्सेदारी के बीच फुर्सत के लम्हे गोवा में

क और मजेदार घटना सुनाकर अपनी लंठई का इतिश्री कर देता हूँ- बात उन दिनों की है जब मैं एम.ए. की परीक्षा देने के लिए मुम्बई से गाँव गया था। मैंने परीक्षा के लिए नोट्स भी बना लिए थे और घूमते समय भी कभी-कभी उन्हें पढ़ लिया करता था। एकदिन मेरे कुछ दोस्तों ने कहा कि बहुत दिनों के बाद आप आए हैं और आपके जाने के बाद हमलोग भी ठीक से कभी होरहा नहीं खा पाए। मैं बोला ठीक है,चलो आज ही होरहा लगाते हैं और जमकर खाते हैं। दोपहर का समय था और मेरे दादाजी दरवाजे पर ही बैठकर कुछ लोगों के साथ बातचीत कर रहे थे। मैं खिड़की के रास्ते घर से बाहर निकला और पहुँच गया नहर के पास जहाँ हमारे गाँव के ही एक पंडीजी का खेत था। उस खेत में बहुत ही बढ़िया और अनघा मटर था। हमारे दोस्त पहले से ही उस खेत के आस-पास में छिपे थे।

म लोगों ने आव देखा ना ताव और पंडीजी के खेत में ऐसे टूट पड़े जैसे बाभन लोग दही-चिउरा-चिनी पर टूट पड़ते हैं। जल्दी-जल्दी हमलोग एक-एक मोटरी मटर उखाड़कर छिपते-छिपते बहुत दूर भाग गए। इधर क्या हुआ कि जो नोट्स मेरे पैंट के पिछली पाकेट में खोंसे हुए थे वे मटर उखाड़ते समय पंडीजीके खेत में ही गिर गए थे और हड़बड़ी में मैंने ध्यान नहीं दिया था। पंडीजी आधे-एक घंटे के बाद अपने खेत में पहुँचे तो उनको वे नोट्स पड़े मिले। पंडीजी वे नोट्स लेकर मेरे दादाजी के पास आए और बोले के आज मेरे खेत में से मटर उखाड़ा गया है और वहीं ये कागजात मिले। फिर इधर-उधर से काफी छानबीन के बाद मेरे दादाजी को यह पता चला कि वे नोट्स किसके हैं। मैं होरहा-वोरहा खाकर जब घर आया तो दादाजी ने मुझे बुलाया और गुस्से में सिर्फ इतना ही कहा-"तूँ! कबो सुधरबS ना? (तुम कभी नहीं सुधरोगे?)"

मेरा भोलापन, बचपना, बेवकूफी या कुछ और...

मेरी ये अनकही पढ़कर आप लोग मुझे 'बुद्धि का भसूर', 'गोबर गणेश', 'महामूर्ख', 'महाबैल' या 'महागर्दभाधिराज' जैसी उपाधियाँ मत दे दीजिएगा।

मारे यहाँ गाँवों में अगर किसी के सर में कौवा चोंच मार दे तो इसे बहुत ही अशुभ समझा जाता है। लोगों का मानना है कि अगर जिसके सिर में कौवे ने चोंच मार दिया, उसके नाम पर अगर कोई और उसका सगा-संबंधी शोक प्रकट कर दे तो अशुभता खतम हो जाती है। बात उस समय की है जब मैं पाँचवीं में पढ़ रहा था। एक दिन मेरी चाची ने मुझसे कहा,"मेरे सिर में कौवे ने चोंच मार दी है। अस्तु तुम नानी (चाची की माँ) के पास चले जाओ और उससे कह देना कि चाची मर गईं। जब वो रोने लगेगी तो बता देना मरी नहीं हैं, कोवे ने सिर में चोंच मारा है।"मैं नानी के पास जाने के लिए तैयार हो गया। मैं बहुत खुश था कि मुझे साइकिल चलाने को मिलेगी और घूमने का मौका भी।

चाची ने कहा है कि वे मर गई हैं..

स समय मैं लँगड़ी साइकिल अच्छी तरह से चला लेता था। नानी का गाँव भी बहुत पास में ही है। जब मैं नानी के घर पहुँचा तो नानी बाहर ओसारे में ही बैठकर कुछ औरतों से बात कर रही थीं। मुझे देखकर वे बहुत खुश हुईं। मैंने पँवलग्गी की और उनके पास ही बैठ गया। उसके बाद नानी उठकर घर में गईं और खाने-पीने की बहुत सारी चीजें जैसे भुजा-भरी, लाई आदि लाकर मेरे आगे रख दीं।

ब मैं खाने लगा तो नानी ने मुझसे घर का समाचार पूछा। मैंने कहा कि सब ठीक है पर चाची को कोवे ने मार दिया है अस्तु उन्होंने मुझे तुम्हारे पास यह कहने के लिए भेजा है कि चाची मर गईं। अरे यह क्या? मेरे इतना कहते ही नानी और वहाँ बैठीं अन्य महिलाएँ हँसने लगी। उनका हँसना, मुझे मेरी मूर्खता का आभास करा गया। नानी बोली कि कोई बात नहीं। तुम खाओ-पीओ। फिर नानी ने अपनी सास (चाची की दादी) के पास चाची-मरण का झूठा संदेशा भिजवाया और अपने न रोकर अपनी सास को रुलवाया। इस घटना को सुनकर आप लोग मुझे 'बुद्धि का भसूर', 'गोबर गणेश', 'महामूर्ख', 'महाबैल' या 'महागर्दभाधिराज' जैसी उपाधियाँ मत दे दीजिएगा।  

pp


गुरु के साथ


गोवा के उसी सेमिनार के दौरान अपने गुरु, मार्गदर्शक पुष्पक सर और मित्रों की संगत में कुछ हल्के फुल्के क्षण

                                                                                            अगली कड़ी में समाप्त

[अब तक छप्पन- साथियों ये बकलम की छप्पनवीं कड़ी है। जिन साथियों ने हमारे अनुरोध को कुबूल तो कर लिया है पर अभी तक लिखना शुरू नहीं किया है वे ज़रा समय निकालें :)]

 

14 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

'बुद्धि का भसूर', 'गोबर गणेश', 'महामूर्ख', 'महाबैल' या 'महागर्दभाधिराज' !!!


हा हा!! अरे आपको ऐसा कैसे कह सकते हैं. :)

बहुत सही रहा-अगली कड़ी का इन्तजार है.

Arun Arora said...

:)

कुश said...

'महामूर्ख', 'महाबैल' या 'महागर्दभाधिराज'...अब आप हमसे हमारी उपलब्धिया ना छीने,,,

अजीत जी अब तक छप्पन बोल के डरा रहे है क्या.. वैसे बहुत बहुत बधाई!! हम तो छप्पन हज़ार तक पढ़ते रहेंगे..

Dr. Chandra Kumar Jain said...

ठेठ भाषा का ठाठ....कमाल है !
...लेकिन प्रभाकर जी, आपके
कहने के अंदाज़ से साफ़ है कि
संप्रेषण आपको सध-सा गया है.
बीते दिनों को वर्तमान करने का
यह स्थल सचमुच अद्भुत है
और इसके प्रस्तोता कोटि-कोटि
साधुवाद के अधिकारी हैं.
==========================
बधाई और शुभकामनाएँ
डा.चन्द्रकुमार जैन

रंजू भाटिया said...

इस तरह के लेखन से वो यादे भी ताजा हो जाती हैं जो समय के साथ साथ हम अक्सर याद नही कर पाते हैं ..सबके पुराने दिनों ,बातो को याद कराता यह ब्लॉग पढ़ना अच्छा लगता है ..

Sajeev said...

majedaar chala hai kissa prabhakar ji

डॉ .अनुराग said...

आप जितने भले लोग IIT में रहे है बड़ी हैरानी की बात है.....वहां की मिटटी तो सबको बदल देती है......दिलचस्प है आपको पढ़ना भी.....

मीनाक्षी said...

भोले बचपन की यादें हमेशा अच्छी लगती है और अपनी पुरानी यादें भी ताज़ा हो जाती हैं..

नीरज गोस्वामी said...

बहुत रोचक रहा आप का बचपन और जीवन संस्मरण....काश एक आध कड़ी और जोड़ देते आप.
नीरज

दिनेशराय द्विवेदी said...

प्रभाकर तो खुद खाने पीने के ख्याल में डूबे थे। कहाँ किसी के मरने की खबर सुनाते।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

पण्डीजी के खेत से मटर उखाड़ कर होरहा लगाना तो ठीक था लेकिन नोट्स पकड़े जाने पर आपका जो होरहा बना उसे तो मासूमियत से छिपा ले गये पण्डीजी।… यहाँ भी लंठई?

ghughutibasuti said...

जो जो कहना था और नहीं भी कहना था उन सब उपाधियों से तो आप स्वयं ही को विभूषित कर चुके। अब हम तो यही कहेंगे कि बहुत मजेदार बचपन था आपका। पढ़कर मजा आया।
घुघूती बासूती

Abhishek Ojha said...

क्षेत्रीय शब्दों का भरपूर उपयोग किया आपने यहाँ भी, और आप महामूर्ख हो जायेंगे तो हम का करेंगे :-)

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अच्छा लेखन, रहा !
आपकी जीवनी के बारे मेँ पढकर आनँद आया
- लावण्या

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