ये तमाम फोटो स्वित्जर्लैंड में प्रोफेसर के घर की रसोई के हैं। उनके शाकाहारी बनने के दौरान की. |
Tuesday, September 2, 2008
बड़े-बड़े सपने [बकलमखुद-68]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और छियासठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
सपने इतने बड़े देखता हूँ कि चर्चा कर दूँ तो सामने वाला घबरा जाता है, फाइनल ईअर में कंपनी खोलने का भूत ऐसा चढा था की बस... और कुछ नहीं सूझता था. मेरे एक मित्र ऐसे-ऐसे आईडिया लेके आते की क्या बताऊँ. पर उनकी ७ अंको की तनख्वाह वाली नौकरी लगी तो ढीले पड़ गए.
कभी ये कभी वो
मेरा दिमाग कुलबुल करता रहा... अभी करता है और किसी दिन ज्यादा कुलबुला गया तो कभी भी बोरिया बिस्तर बाँध के सड़क पर उतर जाऊंगा :-) कंपनी भले कुछ दूर हो लेकिन पढने वाले सपने अभी भी पूरे हो रहे हैं और अभी चलते रहेंगे. नौकरी के साथ पढ़ाई भी चल ही रही है और शायद जीवन भर चले. और नौकरी लग गई: जब दिसम्बर में कैम्पस चालु हुआ तो हर जगह शोर्टलिस्ट हो जाता रिज्यूमे गुरु तो घोषित हो ही चुका था तो इस कला का खूब फायदा उठाया. पहली कंपनी ने ऐसा उलझाया कि साँस लेना कठिन मालूम होने लगा इंटरव्यू रूम से बाहर आके ही खुली हवा मिल पायी. दूसरी में गया तो उन्होंने ये पूछ लिया की तुम्हारा रिज्यूमे तो कहता है कि तुम पढने भाग जाओगे. बताओ जीआरइ स्कोर क्या है? मैं कुछ भी कहूं उन्हें भरोसा नहीं हुआ की मैं नौकरी चाहता हूँ.
हल चलाऊंगा
उसके बाद लगभग हड़ताल... कंपनी आती मैं बैठता ही नहीं लोगो की मदद करता. एक कंपनी की एच आर का ४ बार फोन आया कि ये तो बता दो क्यों नहीं बैठे. उसकी आवाज़ इतनी अच्छी थी कि मिलने चला गया कालर ट्यून भी उसने पहला नशा लगा रखा था जब पंहुचा तो देखा कि इनका ८ वां १० वां प्यार हो चुका होगा. खैर बिना कारण दिए मैंने उनसे कह दिया कि मेरे इंटेरेस्ट नहीं मिलते इस कंपनी से. अपने दोस्तों में ये घोषणा कर दी की ८.५ लाख सीमा रेखा है इससे कम देने वाली कंपनी में बैठने का सवाल ही नहीं और काम भी होना चाहिए गणित का. लोग ही ज्यादा परेशान होते... मैं फिल्में देखता. नौकरी नहीं लगी तो क्या करोगे, कहाँ जाओगे? मैं मस्ती करता कहता हल चलाऊंगा :-)
माइक्रोसॉफ्ट के अंतिम राऊंड में
बीच में माइक्रोसॉफ्ट के अन्तिम दौर तक चला गया गणित पूछा तो पास करता गया, एक बार डर लगा की अगर गलती से हो गया तो जिंदगी भर कोडिंग करनी पड़ेगी. पर इसकी नौबत नहीं आई अन्तिम राउंड में उन्होंने कोडिंग करने को कहा और मैंने हाथ खड़े कर दिए. एक दोस्त बहुत गुस्सा हुआ उसकी खूब मदद की सही और ग़लत दोनों तरीकों से आखिरी राउंड के पहले वो टॉप पर चल रहा था, मैं उस कंपनी के लिए नहीं बैठ रहा था उसने कहा की साले तू मुझे फंसाना चाहता है अच्छी कंपनी नहीं है मैंने कहा ऐसी बात नहीं है भाई मेरी बात और है तू चला जा. उसे भरोसा नहीं हुआ और आखिरी इंटरव्यू में उसने कुछ बोला ही नहीं. फिर नाचते हुआ बाहर आया... बाद में उसकी उससे बहुत अच्छी नौकरी लग गई.
छोरे को मिल गई नौकरी
फिर एक दिन देखा की क्रेडिट स्विस आ रही है न्यूयार्क से, भारत में चालू ही होने वाली है और इनवेस्टमेंट बैंकिंग डिविजन के लिए आ रही है... हमने भी भर दिया... छंटते-छंटते अन्तिम चार में पहुच गया... इंटरव्यू में मैं ये मान के चल रहा था की होना तो है नहीं जो पूछते मैं ऐसे जवाब देता की ये तो बाए हाथ का खेल है और सबको अपने किसी न किसी प्रोजेक्ट से जोड़ देता. मैं फेकता गया और उन्हें लगता गया की लड़का नहीं हीरा है हीरा :-) इंटरव्यू के बाद लोगों ने पूछा कि कैसा हुआ तो बोला की कोई चांस ही नहीं है अगर बण्डलबाज़ को लेना हो तो ले जायेंगे पर उन्हें बण्डलबाज़ी ही पसंद आ गई... और फिर क्रेडिट स्विस ने एक ही को लिया और छोरे को स्विस बैंक में नौकरी मिल गई.
अगली कड़ी में समाप्त
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10 कमेंट्स:
जिस के पास सपने हैं वही आगे जाता है। जिस के पास सपने नहीं वह अपने लिए स्थान तलाश करता रह जाता है। ज्ञान और कर्म का सामंजस्य सब स्थानों पर आवश्यक है।
बोरिस स्कूल से यहाँ तक की यात्रा .बहुत बढ़िया :)
यार बाकी पता नही तुम कहा कहा पंगे लेने के चक्कर मे लगे रहे पर हमे दिख रहा है कि तुम रसोईये जरूर धांसू च फ़ासू हो, कभी हमे भी बुलाओ ना या फ़िर हमारे यहा आ जाओ आजकल वैसे भी तुम्हारी भाभी घर गई हुई है. हम भी शाकाहारी बन जायेगे :)
ये बड़े सपने वाले अभिषेक
बड़े अपने-से लगते है भाई,
इनके ज़ज्बे में हमने
सफल जीवन की छवि पाई.
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बधाई...बधाई...बधाई !
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
एक बार पहले भी हमने इस रसोई की झलक आपके ब्लॉग पर देखी थी ....गणित से आपकी मुहब्बत जग जाहिर है ...पर आपके दोस्त देखकर भी अब इत्मीनान है की खूब गुजारी जिंदगी आपने........ कोई कहे न कहे हम सच्चे दिल से मानते है....."हीरा है हीरा...
waah kya khana banaten hain aap!!
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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
........दिलचस्प। सुनाते रहें हम सुन रहे हैं।
पिछली कुछ कडियां छूट गयी थीं, उन्हें भी पढ़ा। मजा आया। बिहार की बाढ़ की त्रासदी और धर्म को लेकर चल रही नफरत की हवा के बीच प्रोफेसर ब्राइट के बारे में जानना बहुत ही रुचिकर रहा।
aap ko dekh kar lagta nahi hai ki aap khana bhi khaate hai....shayad sirf soongh kar hi apne aap ko itna fit bana rakha hai...achhha aur kya kya chupa rakha hai apne baare me ?....
अरे पण्डित; तोहके ई सब बनऊब आवथ का हो!
जो किसी के पेट को पटा सके वह कभी असफल नहीं हो सकता! :-)
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