इस साल की शुरुआत में अमेरिका के सुदूर अलास्का प्रांत में एक भाषा की मौत हो गई। उस अमेरिका में जो खुद को दुनियाभर में मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार समझता है, वहां घुटती-सिमटती और काल के गाल में समाती भाषा को बचाने की फिक्र कहीं नज़र नहीं आई। भाषा , जो मनुश्य के होने का सुबूत है...एक समूदाय के अस्तित्व का पुख्ता सुबूत...मगर जिसे खत्म हो जाने दिया गया....इस दुखद घटना पर कादम्बिनी की संपादक मृणाल पांडे ने पत्रिका के अप्रैल माह के अंक में एक विचारोत्तेजक संपादकीय लिखा। हालांकि यह खबर उससे भी काफी पहले समाचार एजेंसियों पर आ चुकी थी। मैने भी उसे पढ़ा और शायद छापा भी। मृणालजी का यह लेख आप तक पहुंचाने की इच्छा थी , सो कम्प्यूटर में सहेज लिया । ये अलग बात है कि ऐसा करने के बाद मैं इसे भूल भी गया। आज अचानक उस फाइल पर नज़र पड़ी । पेश है शब्दशः वह संपादकीय- |
Wednesday, September 17, 2008
एक मातृभाषा की मौत
भाषा विशेषज्ञों के अनुसार इंटरनेट, शहरी पलायन और ग्लोबल बाजारों के बढ़ते दबाव तले अगली सदी तक हमारे वक्त की कुछ नहीं तो पचास फीसदी भाषाएं गायब हो चुकी होंगी। इन भाषाओं के साथ जाने कितने करोड़ मानव परिवारों के राग-विराग , उनके सदियों पुराने इतिहास, उनकी मान्यताएं, विश्वास और रीति-रिवाज भी मानो हवा में घुल जाएंगे।
कहने को मैरी स्मिथ नौ बच्चों की मां थी, लेकिन जब उसने अपने बच्चों को अपने मायके अलास्का के मूलवासियों की एक लुप्तप्राय भाषा ‘एयाक’ सिखाने की कोशिश की, तो उसके ओरेगनवासी अमेरिकी पति और संतानों ने अंग्रेजी के साथ एक मिट चली प्रजाति की धुंधलाती भाषा को सीखने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। होते-होते मैरी की मातृभाषा घर तक और घर के भीतर भी स्वयं उसी तक सिमट कर रह गई और बच्चों की झोली में उसके सिर्फ इक्के- दुक्के ही शब्द पड़े। 1990 में मैरी की इकलौती बड़ी बहन के स्वर्गवास के बाद मैरी दुनिया में अलास्का के मूलवासियों की इस भाषा की इकलौती जानकार बनकर रह गई। 1993 तक यों भी दुनिया में इस भाषा में बातचीत करने वाले सिर्फ 38 लोग बचे थे और चूकिं मैरी समेत उन सभी को रिकार्डिंग मशीनें और माइक लेकर मंडराने वाले शोधकर्मी अंग्रेजीभाषी गोरों में काई रुचि नहीं थी, इस भाषा की जानकारी चिंताजनक रूप से क्षीण होती गई। अंतत: 21 जनवरी 2008 को 89 वर्षीया मैरी की मौत के साथ ही ‘एयाक’ भाषा इतिहास की चीज बनकर रह गई।
पाणिनी ने कहा है कि शब्द बातचीत से बनते हैं (आख्यातजानि) और कोई भी भाषा उसे बोलने वालों के परिवेश और जीवनशैली की खराद पर गढ़ी जाती है। अलास्का में ज्यों-ज्यों गोरे लोगों की पैठ बढ़ी और वहां के मूलवासियों (एस्कीमो और तिलगिंत) ने पूंजीवादी ढर्रे की अमेरिकी जीवनशैली अपना ली, त्यों-त्यों ग्रामीण मछुआरों की ‘एयाक’भाषा की उल्टी गिनती शुरू हो गई। वह भाषा जो इस हिमजड़ित प्रदेश में नौका खेते हुए विशेष तरह के जाल से मछली पकड़ने वालों की बोलचाल की भाषा थी; वह भाषा, जिसमें दिशा ज्ञान-सूचक शब्द नदी के प्रवाह से निकले थे ; वह भाषा जिसमें इलाके ‘स्प्रूस’ वृक्ष की फुनगी से लेकर जड़ों तक के अंग-प्रत्यंग तथा उनसे मिलने वाले उत्पादों के बारे में दर्जनों अलग-अलग शब्द थे; वह भाषा जिसमें ताजा बर्फ, जमी हुई बर्फ के विभिन्न प्रकारों, यहां तक कि बर्फ पिघलने पर जूतों पर लिपटने वाले चिपचिपे कीचड़ के लिए भी खास संज्ञाएं थीं, समय प्रवाह के साथ विस्मृति की कोख में समाने लगीं।
मैरी के परिवार के ‘एयाक’ भाषाभाषी लोग मूलत: आइसलैंड के मछुआरे थे। बताया जाता है कि हजारों साल पहले उनके पुरखे बेरिंग खाड़ी में अपनी नावें खेते हुए कनाडा के उत्तर में अलास्का आ पहुंचे थे। मैरी के पिता भी, चूंकि एक कुशल मछुआरे थे और मां एक सामान्य गृहिणी, मैरी ने अपना बचपन और किशोरावस्था घर के भीतर पारंपरिक कहानी-किस्सों और एस्कीमों विश्वासों -परंपराओं के बीच बिताए। उसके स्कूल में तब तक पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो चुकी थी और बच्चों द्वारा ‘एयाक’ बोलने पर कड़ी रोक थी। होते-होते कई मध्यवर्गीय शहरी भारतीय बच्चों की तरह मैरी का मन अपनी मातृभाषा से उचट-सा गया और बाद में जब उसने ओरेगन प्रांत के एक गोरे अमेरिकी से शादी कर ली और उसके बच्चों ने ‘एयाक’ सीखने में खास रुचि नहीं दिखाई तो उसने भी उनको जबरन अपनी मातृभाषा सिखाने की कोशिश नहीं की, लेकिन मातृभाषा और परंपरा हर मनुष्य की आत्मा का अभिन्न हिस्सा होते हैं। इसीलिए यौवन के उफान में भुलाई पुरखों की यादें बुढ़ापे में हर व्यक्ति को ‘हांट’ करने चली आया करती हैं।
मैरी भी अपवाद न थी। बड़ी बहन की मृत्यु के बाद उसे अचानक लगा कि वह अपनी भाषा ही नहीं, उस भाषा में कैद जातीय स्मृति-धरोहर की भी इकलौती वारिस है। लिहाजा गम गलत करने को उसने बेतरह शराब-सिगरेट पीना शुरू कर दिया और ‘एयाक’ के बारे में जानकारी बटोरने आये अकादमिक शोधकर्ताओं को डपटकर बाहर खदेड़ती रही पर जब उसे लगने लगा कि इस विरासत को सहेजने और आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़ जाने का उत्तरदायित्व उसी का है तो मैरी ने मरने से पहले अपनी भाषा, जातीय दंतकथाओं और परंपराओं से जुड़ी अनमोल जानकारी का खजाना अलास्का विश्वविद्यालय के भाषाविद् माइकल क्रॉस और ‘न्यूयार्कर’ पत्रिका की पत्रकार एलिजाबेथ कोलबर्ट को थमा दिया। मित्रों के अनुसार मरने से पहले मैरी को पक्का यकीन हो चला था कि आने वाली सदियों में शायद उसकी मातृभाषा एक बार फिर जी उठेगी। क्या मैरी की ही तरह हमारे लिए भी अभी इस पर तनिक ठहर कर इन्हें बचाने के लिए अपने उत्तरदायित्व पर सोचना उचित नहीं होगा? पंजाबी सिंधी, गुजराती, मराठी द्रविड़ , उड़िया , बंगाली, विंध्य-हिमाचल तक प्रवाहित भाषाओं के बिना क्या हम विराट भारत भाग्य विधाता की कल्पना साकार कर सकेंगे?
[कादम्बिनी से साभार]
[मृणालजी के इस आलेख को मैने स्वयं कीइन किया है। सावधानी के बावजूद अगर भाषा संबंधी कोई ग़लती नज़र आए तो ज़रूर ध्यान दिला दें , ताकि उसे सुधारा जा सके। ]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:28 AM
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13 कमेंट्स:
मन खराब होरहा है, यह प्ढ़ कर...
डर भी लग रहा है कि हमारी आंचलिक भाषाओं का यही हाल होने वाला है ?
याद आ रहा है, हमारे यहाँ प्रचलित कैथी लिपि व भाषा, जो कि अपनी पीढ़ी में केवल मैं जानता हूँ.. इसमें किसी अन्य को दिलचस्पी ही नहीं... यह भी शायद मर रही है..
मन खराब हो रहा है..
यह सब जगह हो रहा है.पता नहीं हम देख पा रहे हैं या नहीं.हमारी बोलियां भी इसकी चपेट में आयेंगी यह सोचकर डरता हूं.इसलिये आजकल भोजपुरी पर लाड़ आता रहता है.यह भी देख रहा हूं कि हमारा भोजन कितना बदल गया है.
पंत जी ने कहा है -'अहे,निष्ठुर परिवर्तन....'
आजकल कई इंग्लिश मीडियम स्कूलों में भी हिंदी बोलने पर सख्त सजा दी जाती है. एयाक भाषा का हश्र एक सबक बन सकता है. यह दुर्लभ लेख पढ़ने का अवसर देने के लिए धन्यवाद. अंतिम से तीसरी पंक्ति में एक करेक्शन दिखा है.. :)
....अपने उत्तदायित्व पर सोचना उचित नहीं होगा?
उत्तरदायित्व
आपने कहा, इसलिए उल्लेख किया..:)
यह केवल भाषाओं के साथ ही नहीं हो रहा है। जीवन के जुड़े हर पहलू के साथ यह हो रहा है। स्वाभाविक तौर पर। फ़िज के साथ घड़े गायब हो रहे हैं, डिस्पोजेबल ग्लास के साथ कुल्हड़। गांव में तमाम शब्द तिरोहित हो रहे हैं। शहर में नये बन रहे हैं, पुराने गायब हो रहे हैं। आप जैसे लोगों की दुआ है जो कुछ-कुछ झलक मिलती रहती है इस संपदा की।
हर भाषा रोज़ किसी न किसी तरीके से मर रही है. रोज़ न जाने कितने शब्द लुप्त हो जाते हैं. विकास की इस अंधी दौड़ में शब्द और भाषा की चिंता अजित भाई आज किसको है? हम हमारी ही भाषाओं के साथ कैसा सलूक कर रहे हैं? यह देखने के लिए सितम्बर महीने में किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए, वहां हिन्दी भाषा की खूब माँ-बहिन हो रही है. चचा गालिब कह गए हैं ना 'कीजिये हाय हाय क्यूँ'
आधुनिक...उत्तर आधुनिक जैसी
संज्ञाएँ हमें उधार में मिलीं हैं
और मूल धन से वंचित हम
अपनी ही ज़बान से हाथ धो बैठें
तो आश्चर्य की बात न होगी. एक
भाषा के निमित्त, यहाँ भाषाओं के
जीवन पर जो चिंता व्यक्त की गयी है
वह सचमुच चिंतनीय है...आभार.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
यह आलेख महत्वपूर्ण है और अनूप जी की टिप्पणी और भी अधिक महत्वपूर्ण है। उन्हों ने इस प्रक्रिया की व्यापकता की ओर संकेत किया है जिस में अनेक चीजें नष्ट हो रही है।
एक भाषा का जड़ से समाप्त हो जाना बहुत दुखद है...अभी भी चेत जाना चाहिए वरना कई भाषाएं इसी तरह दम तोड़ देंगी!
एक चेतावनी परक आलेख ,पर क्या भाषा विचार से बढ़कर है ? आशा कीजिये मानव विचार बचा रहे -क्योंकि साईबोर्ग संस्कृति अब उस पर भी धावा बोल चुकी है !
हिन्दी तो नहीं पर कई आंचलिक भाषाओँ का यही हाल होना है... इसके लक्षण दिख रहे हैं... शायद शादियों बाद हिन्दी का भी ये हाल हो !
धन्यवाद इस सम्पादकीय के लिए.
ये तो हम लोगों पर ही है की हम अपनी भाषा को कितना संजोते हैं.आजकल बहुत कम लोग अपने बच्चों को मातृभाषा सीखाते हैं.इंग्लिश का ज़माना है,हिन्दी बोलने में भी शर्म मह्सूस करते हैं.सभी को एक बार ये संपादकीय जरूर पढ्ना चाहिये.
" एक दीप सौ दीप जलाये मिट जाये अँधियारा "
जब तक कालिदास रहेँगेँ,सँस्कृत के प्रति आकर्षॅण रहेगा
मानस के साथ जीवित रहेगी अवधी और नरसैँया के भजन से ठेठ गुजराती,
हिन्दी को हम और आप २१ वीँ सदी मेँ आगे बढाने का भगीरथ प्रयास करते रहेँगेँ
आशावान हूँ ...इसीलिये शायद, इस तरह सोच रही हूँ ..चलिये, अब देखते हैँ मुन्न्ना भाई बम्बइया अँदाज़ मेँ क्या बोले ...
- लावण्या
बड़ी सुंदर बात की है आपने. अमेरीका ही नहीं भारत भी राजस्थानी जैसी भासा का दम घोटने पर तुला हुआ है. अगर भारत का ये रवैया आने वाले २० वर्षों तक इसीप्रकार रहा तो या तो भारत में अलगाववाद की संभावना है या फिर राजस्थानी को दुनिया से रुकसत होना पडेगा.
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