यूं कारवां शब्द अरबी में भी चलता है मगर यह इंडो-ईरानी मूल का शब्द है और बरास्ता फारसी, यह दुनिया भर की भाषाओं में प्रचलित हुआ। कारवां के विभिन्न रूप प्रचलित हैं जैसे अंग्रेजी में यह कैरवैन caravan
है। डच में यह कारवान है तो जर्मन और डेनिश में कारवाने, फ्रैंच में कैरवन है तो तुर्की में इसका रूप कुछ-कुछ क्यारवाँ जैसा है। संस्कृत में कार्पटिक शब्द है जिसका मतलब है तीर्थयात्रियो का दल, व्यापारिक समूह, साधु-सन्यासियों का जत्था या सामान्य यात्रियों का काफिला आदि। हिन्दी शब्दसागर के अनुसार कार्पटिक के निम्न अर्थ हैं- कार्पटिक-संज्ञा पुं० (सं०) १. तीर्थयात्री २. पवित्र तीर्थजल ले जाकर जीविका प्राप्त करने वाला व्यक्ति। ३. तीर्थयात्रियों का सार्थ या कारवाँ। ४. अनुभवी व्यक्ति। ५. परपिंडोपजीवी। ६. धूर्त। वंचक। ७. विश्वासपात्र। अनुगामी (को०)।
कार्पटिक का ही ईरानी रूप कारवां हुआ होगा, ऐसा लगता है क्योंकि इसकी मूल धातु कृ की कारगुजारियां इसमें साफ नज़र आ रही हैं। विभिन्न संदर्भों में कारवां का विकल्प कार्पटिक ही बताया गया है। कार्पटिक बना है संस्कृत के कर्पटः से जिसका अर्थ है चिथड़ा, गुदड़ा, लत्ता, जर्जर-मलिन वस्त्र आदि। दोनों ही बने हैं कृ धातु से। यह वही कृ धातु है जिससे संस्कृत हिन्दी में कई तरह के शब्द बने हैं। कृ का मतलब होता है करना, निर्माण करना, बनाना, रचना, धारण करना, पहनना, ग्रहण करना आदि। कर्पासः (कपास, रुई) का मूल भी यही धातु है। रुई की धुनाई, कताई, सुताई से लेकर कपड़ा बनाने और फिर वस्त्र निर्माण सम्पन्न होने से लेकर उसे धारण करने तक की क्रियाओं में ये सभी अर्थ स्पष्ट हो रहे हैं। मलिन, अस्तव्यस्त, क्लांत जैसे लक्षण आज भी यात्रियों की आम पहचान हैं, तब सैकड़ों साल पहले की दुर्गम पदयात्राओं की कल्पना करें तो आसानी से चिथड़े धारण करनेवालों को कार्पटिक कहने की वजह समझ में आ जाती है, क्योंकि लम्बी पदयात्रा के चलते वस्त्रों की यह गत बननी स्वाभाविक थी। तीर्थ-यात्री तो यूं भी चीवर धारण कर ही सफर पर निकलते थे।
व्यापार व्यवसाय के लिए क्रय-विक्रय शब्दों के मूल में भी यही कृ धातु है। कृ से बने कृयाणम् का भाव व्यापार कर्म करनेवाले से है। हिन्दी का किरानी शब्द इसी मूल का है। फारसी-अरबी के कारोबार शब्द के मूल में भी कृ धातु की छाया साफ दिख रही है। जाहिर है कारोबारी काफिले के तौर पर भी कारवां का पुख्ता अर्थ इसी धातुमूल से उपजा है।
फारसी में जाकर कार्पटिक का समूह अर्थ प्रमुख हो गया। कार्पटिक का अर्थ हिन्दी शब्द सागर में अनुगामी भी बताया गया है। अनुगमन में एक के पीछे एक चलने का भाव है जो सीधे-सीधे कारवां के चरित्र से मेल खाता है। कारवां शब्द अंग्रेजी में कैरवान/कैरवैन बन कर दाखिल हुआ जो कई अर्थों में इस्तेमाल होता है मसलन रेगिस्तान में सफर करनेवाले यात्रियों का काफिल, पशुओं का रेवड़, बहुत से वाहनों का समूह। चूंकि कारवां के साथ पदयात्रा के बावजूद बैलगाड़ी, घोड़ागाडी या ऊंटगाड़ियां चलती रही हैं इसलिए अंग्रेजी में इसका अर्थएक विशाल पर्यटन वाहन भी है। गौरतलब है कि पर्यटन वाहन अथवा बडे यात्री वाहन के लिए अग्रेजी का वैन van शब्द इसी कैरवैन शब्द का संक्षिप्त रूप है जिसे हिन्दी में भी वैन कहा जाता है। पश्चिमी जगत में कैरवैन का बहुत प्रचलन है। पूर्वी योरप के जिप्सी अपनी पूरी गृहस्थी ही इन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बसा कर पीढ़ियों के घुमंतूपन को ज़िंदा रखे हैं। कैरवैन में रहने की सनक ऐसी है कि बरसों से यायावरी छोड़ दी, पर गाडियों में ही रह रहे हैं। यह बहुत कुछ भारतीय सड़कों के हाशियों पर बरसों से बसे और गाड़ी में गृहस्थी चलानेवाले गाड़िया लुहारों वाला मामला है। प्राचीन भारत में कारवां की तर्ज पर सार्थवाह sarthvaha चलते थे। सार्थवाह अब बोलचाल की हिन्दी में लुप्त हो चुका है अलबत्ता ऐतिहासिक संदर्भों में यह अपरिचित शब्द भी नहीं हैं। ये दरअसल व्यापारिक कारवां होते थे जिनके स्वामी आज की मेट्रों सिटीज़ के बड़े कारपोरेट घरानों की तरह तत्कालीन महानगरियों-उज्जयिनी, पाटलीपुत्र, वैशाली, काशी और तक्षशिला के श्रेष्ठिजन होते थे। सुदूर पूर्व से पश्चिम में मिस्र तक इनका कारोबार फैला हुआ था। ईसा पूर्व मिस्र में भारतीय व्यापारियों की एक बस्ती होने का भी उल्लेख मिलता है। आप्टे कोश के मुताबिक सार्थवाह का अर्थ धार्मिक श्रद्धालुओं का जत्था अर्थात तीर्थयात्री भी है। सार्थवाह बना है संस्कृत के सार्थ+वाह से। सार्थ का मतलब है समूह, झुण्ड, रेवड़, जत्था, यूथ, ग्रुप, समाज, अनुचर, अनुगामी, मित्र, सहचर आदि। वाह शब्द संस्कृत की वह् धातु से बना है जिसमें जाना, ले जाना जैसे भाव हैं। बहाव इससे ही बना है जिसमें गति और ले जाना स्पष्ट हो रहा है। वह् का वर्ण विपर्यय हवा हुआ जिसमें बहाव और गति है। ले जाने वाले कारक के तौर पर वाहन शब्द का निर्माण भी वह् मूल से ही है। कम्पनी, टुकड़ी या ब्रिगेड के लिए हिन्दी में वाहिनी शब्द भी इसी मूल का है। गौर करें कि इस अर्थ में वाहिनी स्वयं ही कारवां हैं। स्पष्ट है कि सार्थवाह का अर्थ हुआ, जो समूह को अपने साथ ले जाए वह है सार्थवाह यानी कारवां। जिस तरह कारवां का अग्रेजी रूप यान के अर्थ में कैरेवान या वैन होता है उसी तरह सार्थवाह से भी यान के अर्थ में वाहन शब्द जन्मा है।
इस संदर्भ में खान, खाना या खानक़ाह शब्दों का उल्लेख भी ज़रूरी है। ख़ान या ख़ाना जैसे शब्दों में आश्रय का भाव स्पष्ट है। यह इंडो-ईरानी मूल का शब्द है। खान या खाना व्यापारिक मार्गों पर चलनेवाले काफिलों या कारवां के यात्रियों के अस्थाई ठिकाने होते थे जिन्हें मुसाफिरखाना कहा जाता था। एक मज़बूत, एक मंजिला या बहु मंजिला इमारत जो प्रायः आयताकार होती थी और इसकी चारों भुजाओं में कई कोष्ट होते थे, जिसमें मुसाफिर ठहरते और बीच में चौरस ज़मीन का खाली टुकड़ा होता, जहां उनकी गाड़ियां, नौकर-चाकर, मवेशी आदि की व्यवस्था रहती थी। संस्कृत धातु खन् का अर्थ होता है खोदना,खुदाई करना,खुरचना या खोखला करना। खन् में भी गुफा, कंदरा या बिल का भाव है यानी यहां भी निवास है। इसी खन् का असर बजरिये अवेस्ता ईरानी में भी आया। खाना मूलतः फौजी व्यापारिक कारवां के लोगों की विश्रामस्थली के लिए प्रयोग में आनेवाला शब्द था। बाद में अन्य शब्दों के साथ भी इसे लगाया जाने लगा जैसे बजाजखाना यानी वस्त्र भंडार, नौबतखाना यानी जहां वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं, ज़नानखाना यानी अंतःपुर वगैरह वगैरह। खन् धातु का रिश्ता संस्कृत के खण्ड् से भी जुड़ता है जिसका मतलब है टुकड़े करना, तोड़ना, काटना, नष्ट करना आदि। यानी वही पर्वतों-पहाड़ों में आश्रय निर्माण की क्रियाएं। खण्ड् से बना खण्डः जिसका अर्थ होता है किसी भवन का हिस्सा, कमरा, अंश, अनुभाग, अध्याय आदि। किसी आलमारी या दीवार में बने आलों को भी खन या खाना कहा जाता है। बघेलखण्ड, उत्तराखण्ड, बुंदेलखण्ड, रुहेलखण्ड जैसे भौगोलिक नामों का आधार भी यही है। अर्थात संबंधित जाति या समूह का निवास या आश्रय। फारसी तुर्की में इसका रूप कंद हुआ जो समरकंद, ताशकंद, यारकंद में नज़र आ रहा है।
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13 कमेंट्स:
मुझे याद आ रहा है कि मध्यप्रदेश में खिलचीपुर से राजगढ़ ब्यावरा जाने के लिए रात के समय गाड़ियाँ रोक दी जाती हैं और जब दस-पाँच गाड़ियों का कारवाँ नहीं बन जाता उन्हें आगे नहीं जाने दिया जाता है।
शब्दों की व्याख्या रोमांचित करती है।
शब्दों का जुटान गजब है । अनेक शब्द क्रमशः अवतरित होते हैं, और जैसे स्वयं को अभिव्यक्त करते चलते हैं ।
आभार ।
If we assume 'Car' as 'char' and 'Van' as Vahan, the etymology becomes easy. These two are the examples of 'roopim' and 'swanim' modifications. Your opinion is expected.
अजित जी,
शब्दों के कारवां के साथ चित्रों की बेहतरीन जुगलबंदी...सोने पर सुहागा...
वैसे हम ब्लॉगर्स के कारवां के अगुआ तो आप जैसी ही चंद विभूतियां हैं...
आप जो लिखते हैं वो तो हम सबके लिए मिसाल है ही लेकिन आप इंसान कितने अच्छे हैं, ये मैं भाई रवि पराशर से जान चुका हूं...मुझ जैसे नाचीज पर बात के लिए आपने दो पल निकाले, तहेदिल
से उसके लिए शुक्रगुज़ार हूं...
जय हिंद...
मजा आ गया। आप तो शब्दों का जन्म, इतिहास व कालांतर में उनका मेटामोर्फिसिस बता रहे हैं। जब मुझे उपयुक्त शब्द नहीं सूझता तो आपका ध्यान आता है कि आपके पास उपयुक्त शब्द अवश्य होगा। आप शब्दों के धनी हैं।
घुघूती बासूती
ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।
@विनय वैद्य
आपका कहना सही है विनय जी, मगर शब्दों का सफर दरअसल ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की पटरी पर चल रहा है। शब्द व्युत्पत्ति के जरिये भाषा के विकास को समझने का यही तरीका आम आदमी की दिलचस्पी के लिहाज से ठीक लगता है। अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य की बातें भी वक्तन-फ-वक्तन उजागर होती हैं।
आपका शुक्रिया। सफर में आपकी हिस्सेदारी महत्वपूर्ण है, बने रहें साथ। आभार।
बढिया जानकारी.शानदार तस्वीरें.
"खण्ड् से बना खण्डः जिसका अर्थ होता है किसी भवन का हिस्सा, कमरा, अंश, अनुभाग, अध्याय आदि। किसी आलमारी या दीवार में बने आलों को भी खन या खाना कहा जाता है। बघेलखण्ड, उत्तराखण्ड, बुंदेलखण्ड, रुहेलखण्ड जैसे भौगोलिक नामों का आधार भी यही है। अर्थात संबंधित जाति या समूह का निवास या आश्रय। फारसी तुर्की में इसका रूप कंद हुआ जो समरकंद, ताशकंद, यारकंद में नज़र आ रहा है।"
बढ़िया विश्लेषण है।
बहुत सुन्दर विश्लेषण |आपकी पोस्ट पढ़कर मुझे नीरजजी के गीत की ये
pankti याद आ गई
कारवा गुजर गया गुबार देखते रहे |
कारवां तो फिर भी सुना है... सार्थवाह तो आज पहली बार ही सुना !
प्रिय अजितजी,
नमस्कार,
मैं आपका ध्यान इस ओर आकृष्ट कराना चाहता था कि भाषाशास्त्रियों ने जानबूझकर ऐसे 'मिथ' खड़े किये हैं,
जिनसे यह भ्रम पैदा होता है कि 'लेतिन' तथा 'संस्कृत' सामान भाषाएँ हैं, ऐसा ही एक भ्रम 'इंडो-यूरोपीय' भाषा-समूह के नाम पर खडा किया गया है . वास्तव में 'संस्कृत' ही सबकी 'जननी' है, यदि आप तैत्तिरीय उपनिषद देखें, तो वहाँ शिक्षा और व्याकरण आदि के संबंध में अत्यंत संक्षिप्त रूप से कहा गया है . 'संस्कृत' में जिसे 'रूपिम' कहा गया है, वह 'अर्थसाम्य' न होकर 'लिपि-साम्य' से उत्पन्न शब्द की ओर संकेत करता है . 'स्वनिम' अवश्य ही 'ध्वनि-साम्य' का पर्याय है.
आशा है कि आप भाषा के विकास के इस पक्ष की उपेक्षा तो नहीं ही करेंगे. मैं मानता हूँ कि आपकी मेहनत और लगन किसी तपस्या से कम नहीं है, इसके लिए जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है, लेकिन गलत स्थापनाएँ रूढ़ न हों, इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है, मैं बस यह कहना चाहता हूँ .
अजित जी ,
'खुदकश ....' पर कमेन्ट का शुक्रिया . आपका ब्लॉग दिलचस्प जानकारियों से लबरेज़ है , हर नई पोस्ट ख़ुद को पढ़वा कर ही मानती है . शब्दों के सफ़र को जानना अपने सोचने की प्रक्रिया को जानना है. जिन ख़यालों से हमारी शखसियत बनती है उन्हें अल्फ़ाज़ ही पहचान देते हैं, और यह अल्फ़ाज़ किन किन मरहलों से गुज़र कर मायनेखेज़ होते हैं यह जानकारी अपने विरसे को जानने जैसी है.
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