हरिद्वार की साहित्यिक –सांस्कृतिक संस्था वाणी ने प्रख्यात व्याकरणाचार्य आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की स्मृति में एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। उस कार्यक्रम में सरस्वती वंदना गाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई। समारोह में राजेन्द्र माथुर भी थे। माथुर साहब से पहले से परिचित था क्योंकि राजगढ़ में रहते हुए मैं नई दुनिया में पत्र संपादक के नाम स्तम्भ के लिए खूब चिट्ठियां लिखा करता। माथुर साहब खुद चिट्ठियां पढ़ते और इसी नाते वे मेरा नाम जानते थे। बाद में वे नवभारत टाइम्स के संपादक बन कर दिल्ली आ गए। समारोह के बाद हमारे घर रात को महफिल जमी। माथुर साहब, प्रभाष जोशी शॉल ओढ़ कर बैठे थे। कविताओं का दौर चला। मामा ने कविताएं सुनाई। हमें ताज्जुब हुआ कि प्रभाष जी ने खुद होकर एक कविता सुनाने की घोषणा की। मुझे नहीं पता था और वहां बैठे लोग भी नहीं जानते थे कि प्रभाष जी कविता भी लिखते हैं। उन्होंने कुछ समय पहले की प्रभासपट्टन (गुजरात) की यात्रा के दौरान लिखी कविता सुनाई। बाकायदा उनकी डायरी साथ थी और उसे देख कर कविता-पाठ हुआ। शीर्षक भी प्रभास तीर्थ ही था। कविता को सबने पसंद किया। माथुर साहब ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा था- अर्थात् आपका यह काम भी अभी चल रहा है!!! उसके बाद संगीत का दौर चला। मुझे गाने के लिए कहा गया। प्रभाष जी को याद था कि मैने वीणावादिनी की वंदना गाई थी। उन्होंने प्रोत्साहित किया। आमतौर पर मैं कभी पंकज उधास की ग़ज़ल नही गाता था, पर पता नहीं, उस दिन उन्ही की कोई चीज़ सुनाई। सबने पसंद की। प्रभाष जी ने भी तारीफ की मगर कहा- जितना अच्छा गाते हो, तब यह भी सीखो कि गले की खूबी को उजागर करनेवाली चीज़ों का चुनाव कैसे किया जाए। मैं समझ गया था। और गाने की फ़रमाईश हुई। उसके बाद जगजीत साहब की कुछ ग़ज़लें सुनाई जिस पर दोनों काफी खुश हुए। प्रभाष जी मराठी भी बहुत अच्छी बोलते थे। जाते-जाते प्रभाष जी ने मुझे गाने को लेकर सचेत किया और मराठी मे कहा– सोड़ू नकोस...अर्थात इस कला को छोड़ना नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, कि वह तो छूट चुकी है। इसके बाद जब भी उनसे मिलना होता, हमेशा यही पूछते कि गाने का अभ्यास चल रहा है या नहीं।
हरिद्वार दो-तीन बार अलग अलग अवसरों उनसें मुलाकातें हुईं। साथ साथ गंगा किनारे घूमना फिरना हुआ। वे गुरुगंभीर संपादकों जैसे नहीं थे। मुझ जैसे कॉलेजिएट छोकरे से बड़ी सहजता से बतियाते थे। एक बार (संभवतः अर्धकुम्भ से पूर्व ) वे हरिद्वार आए। गंगापार डाम कोठी में ठहरे थे। शाम को मामा कमलकांत बुधकर के साथ हर की पौड़ी पर आरती में जाने का कार्यक्रम था। प्रसंगवश बताता चलूं कि हर की पौड़ी पर, गंगा की बीच धार में जो इकलौता गंगा मंदिर है, पीढ़ीगत रूप से वह मेरे ननिहाल के कुटुम्ब यानी बुधकर परिवार के पास है। इस मंदिर की परिक्रमा में बैठकर गंगामैया की आरती का जो दृष्य दिखता है, वह अद्भुत होता है। गंगामैया की कृपा से हम बचपन से यह पुण्य-सुख ले रहे हैं। खैर, हम जब डामकोठी पहुंचे तब प्रभाष जी करीब करीब तैयार थे। उन्होंने मामा से कहा- कमलजी, आप चाय वाय पीजिए, तब तक मैं हरिद्वार में वाणी द्वारा आयोजित आचार्य किशोरदास वाजपेयी व्याख्यानमाला में दाएं से गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ बलभद्र कुमार हूजा, प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर और माइक के सामने खाकसार। चित्र करीब 1983-84 का है। कुछ लिख लेता हूं। हमें याद आया कि अगले दिन रविवार था। दरअसल उनका प्रसिद्ध स्तम्भ कागद कारे संभवतः तब तक शुरु हो चुका था। संपादकीय पेज पर पूरे ढाई कॉलम में ऊपर से नीचे तक ठसा-ठस होता था वह। किसी हालत में ढाई हजार शब्दों से कम नहीं। हमे लगा, आरती तो छूटी समझिए। वे लिखते रहे, हम चाय पीते रहे। ताज्जुब था कि प्रभाष जी ने मुश्किल से पंद्रह मिनट में अपना काम खत्म कर लिया। पता चला कि अभी आधा लिखा है, बाकी वे रास्ते में लिखेंगे। मंदिर पहुंचने पर प्रभाष जी ने फिर कलम संभाली और बाकी लेख पूरा किया। फिर मुझसे कहा कि पण्डित, अब इसे दिल्ली पहुंचाने की जिम्मेदारी तुम्हारी। डाकघर जाकर मैने उसे जनसत्ता के कार्यालय में फैक्स किया। 1985 में नवभारत टाइम्स में उपसंपादक बनकर मैं जयपुर आ गया। करीब तीन-चार साल बाद वहां उकताहट होने लगी। इस बीच जनसत्ता का मुंबई संस्करण भी शुरू हुआ। मामा जी ने किसी मुलाकात के दौरान मेरी इच्छा उन्हें बताई। तत्काल उन्होंने दिल्ली बुलवाया। प्रभाष जी ने स्पष्ट किया कि मुंबई में मकान की बड़ी दिक्कत है। तुम्हें अपने रहने की व्यवस्था देख कर ही वहां जाने का मन बनाना चाहिए। मुंबई की इस खासियत के बारे में जो न जानता हो, वह मूर्ख। मकान अब ज्यादा आसानी से मिलने लगे हैं, तब सचमुच मुश्किल थी। खैर, उन्होंने मुंबई जाने को कह दिया। पर मैं चुपचाप बिना कुछ कहे जयपुर भाग आया और नभाटा में जमा रहा। उसके कुछ साल बाद दिल्ली में फिर प्रभाष जी से उनके दफ्तर में मिलने गया। बातचीत चल ही रही थी कि लम्बा कुर्ता पहने एक सज्जन ने कमरे में प्रवेश किया। प्रभाष जी ने परिचय कराया कि ये राहुलदेव हैं और मेरे बारे में उन्हें बताया कि ये हरिद्वार के पंडित कमलकांत बुधकर के भांजे अजित हैं। नाम सुनकर राहुल जी ने मुझे गौर से देखा। प्रभाष जी जोर से हंसे, बोले – हां, यही है वो...भापड़ा झोपडपट्टी में रहने के डर से तुम्हारे पास नहीं आया। राहुलजी जनसत्ता मुंबई के स्थानीय संपादक थे। मैं मन ही मन उस बात से शर्मिंदा तो था ही, यह जानकर कि प्रभाष जी ने सचमुच मुझे मुंबई के लिए चुन लिया था, पर मैंने ही उन्हें धोखा दिया, ग्लानि के मारे फिर कुछ बोल ही नहीं सका।
प्रभाषजी को धोखा देने का एक कलंक और लगा। नभाटा में करीब आठ साल काम करते हो चुके थे। 1991-92 में फिर उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। तब जनसत्ता का चंडीगढ़ संस्करण भी शुरू हो चुका था। उन्होंने मुझे चंडीगढ़ जाकर तत्कालीन स्थानीय संपादक ओम थानवी से मिलने को कहा। मैं चंडीगढ़ पहुंचा। ओमजी ने कहा- आपकी औपचारिक परीक्षा का कोई मतलब नहीं है। ऐसा करिये कुछ घूम आइये। या मन न हो तो लाईब्रेरी में बैठकर पुरानी फाईलें देख डालिये और जिस विषय पर मन करे,एक रिपोर्ट लिख दीजिए। मैने दोनो के बीच का रास्ता चुना। पता चला कि उसी दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंतसिंह की सरकार ने सौ दिन पूरे किए थे। बस कुछ देर घूम-घाम कर लोगों से बातचीत की और फिर लाइब्रेरी में आकर अखबारों को खंगाला और एक रिपोर्ट बना कर ओमजी को दे दी। ओमजी ने मुझे जल्दी ही सूचना देने की बात कह कर जाने की इजाज़त दे दी। वापसी में फिर प्रभाष जी से मिला। उन्होंने मेरे सामने फैक्स लहराते हुए बताया कि मेरी रिपोर्ट चंडीगढ़ से उनके पास पहुंच चुकी है। जल्दी ही आगे की सूचना मिलेगी। एक हफ्ते के भीतर सकारात्मक सूचना भी आ गई। इस बीच कई लोगों ने कहा कि जनसत्ता चंडीगढ़ तो बंद होने वाला है। नभाटा में मेरे जाने की सूचना जब मैने दी तो मुझे जयपुर में ही एक प्रमोशन दे दिया गया। मैंने फिर जनसत्ता जाना टाल दिया। यह बात 1991-92 की है। उसके बाद से प्रभाषजी से मिलने से मैं खुद होकर कतराने लगा। हालांकि रूबरू होने के अवसर भी आए, उन्होंने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वे मुझसे नाराज हैं। उनके सानिध्य और नेतृत्व वाले अखबार में काम करने का अवसर न छोड़ता तो निश्चित ही बौद्धिक, आर्थिक और अनुभव की दृष्टि से आज की तुलना में कई गुना समृद्ध होता। पर यह सिर्फ सोच है। होता वहीं है जो नियति ने तय किया है। खुद प्रभाष जी ने कहां तय किया था कि वे क्रिकेट के घाट पर ज्यादा दिन गुजारेंगे या पत्रकारिता के तट पर। सर्वोदय धाम में ज्यादा रमेंगे या लोक-संस्कृति के मेले में।
प्रभाष जी पर अभी लम्बे समय तक शोध चलता रहेगा। निश्चित ही आज के दौर में जब नई पीढ़ी के युवा पत्रकारों को राजेन्द्र माथुर का नाम नहीं पता, यह उस पीढ़ी पर एक एहसान की तरह है कि प्रभाष जी इतना जिए। अफ़सोस और गुस्सा आता था कि एक ही वक्त में पत्रकारिता का नया रंगरूट माथुर साहब और प्रभाष जी के नाम के साथ फर्क करता था। प्रभाषजी ने रिपोर्टिंग की जो भाषा पत्रकारों को सिखाई, वैसा काम उनके अग्रज या समकालीन अन्य कोई संपादक नहीं कर पाए। राजेन्द्र माथुर भी नहीं। प्रभाष जी निश्चित ही अभी और जी जाते। वे सक्रिय थे और लिख भी रहे थे। कुछ योजनाएं भी भविष्य की रही होंगी। पर काल के रजिस्टर में शायद उनकी जिम्मेदारियां पूरी हो चुकी थीं। जो कुछ वे कर गए हैं, वह वैसे भी इतना महत्वपूर्ण है कि हर पत्रकार उनके दौर को याद करना चाहेगा। कारपोरेट दबावों के आगे चाहे पत्रकारिता का चेहरा आज बदल चुका हो, मगर मुझे भरोसा है कि प्रिंट मीडिया में जनसत्ता युग फिर आएगा।
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27 कमेंट्स:
मुझे भरोसा है कि प्रिंट मीडिया में जनसत्ता युग फिर आएगा...
आपकी बात सत्य हो...
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
@संजय करीर
आमीन कहता हूं संजय भाई। यक़ीनन, मीडिया के सही मायने सिर्फ अख़बार में ही उजागर होते हैं। सी ग्रेड फिल्मों से भी गया बीता प्रदर्शन करते न्यूज़ चैनलों की गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। अफ़सोस कि प्रिंट मीडिया खुद बाज़ार की ताकतों के आग़ोश में जो गरमाहट महसूस कर रहा है, पत्रकारिता की आत्मा के लिए यह गरमाहट इन्क्यूवेटर की उसी असंतुलित तपिश जैसी है जिसमें झुलसकर नवजात शिशु दम तोड़ देते हैं।
यह असंतुलन सिर्फ हिन्दुस्तान में ही संभव है। पाकिस्तान चाहे कमजोर मुल्क है मगर वहां लोग जनांदोलन करना जानते हैं। हमारे यहां इस शब्द को लोग भूल चुके हैं। दो दशक के बाद हर चीज का दोहराव बहुत ज़रूरी होता है। चाहे नारा हो, फैशन हो, या आंदोलन। सही मायनों में कोई आंदोलन चले तो तीन दशक से ज्यादा हो चुके हैं। एक समूची पीढ़ी को पता नहीं जनांदोलन क्या होता है???
72 साल की नौजवान उम्मीद हमेशा के लिए सो गई...शरीर बेशक प्रभाष जी का सांध्यकाल का था लेकिन उनकी सोच हमेशा सूरज की पहली किरण वाली रही...युवाओं से हीं ज्यादा युवा...इस उम्र में भी अखबारों ने पैसा खाकर चुनाव में ईमान बेचा तो प्रभाष जी ने पूरी ताकत के साथ विरोध किया...प्रभाष जी को अपना अंत निकट होने का जैसे आभास हो गया था...तभी उन्होंने हाल में एक लेख में लिखा था कि उनके पिताजी का भी 72साल की उम्र में ही निधन हुआ था...क्रिकेट के लिए सोने-जागने वाला इंसान क्रिकेट देखते देखते ही दुनिया से विदा हुआ...अलविदा प्रभाष जी लेकिन आपकी सोच हमेशा हमारे साथ रहेगी...उसे भगवान भी हमसे अलग नहीं कर सकता...
जय हिंद...
प्रभाष जोशी जी को
अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ!
प्रभाष जी पर आपके निजी संमरण पढ़े -और उन्हें श्रद्धांजलि दी !
उनकी चिंतन प्रखरता का कायल कौन नहीं ,मगर क्रिकेट के प्रति उनका अतिशय मोह/एक अजब सा क्रश उनकी बौद्धिकता से हमेशा बेमेल ही रहा मेरी अल्प समझ में !
आज अखबार कारपोरेट संस्कृति से अछूता नहीं हो सकता। प्रभाष जी जिस मीडिया से जुड़े थे वह भी कारपोरेट मीडिया ही था। लेकिन वहाँ रह कर अपने मूल्यों को बनाए रखना और उन्हें स्थापित करना। जनता और जनसंगठनों का मूल्य समझना उन्हें तरजीह देना बहुत बड़ी उपलब्धियाँ थीं। इन के लिए वे हमेशा जाने जाते रहेंगे।
ना जाने कब कैसे प्रभाष जी के कागद कारे से मुलाकात हो गई थी और फिर ऐसा रिशता बना कि छूटा ही नही। सोचता हूँ कल रविवार है क्या कागद कारे आऐगा? और उस रिश्ते का क्या होगा? अब बात नही होगा बस साथ साथ यादों में चलेगा। प्रभाष जी को मेरी नमन।
सही कह रहे हो भाऊ,लेकिन जनसत्ता भी तो अब रोगग्रस्त है,यकीन न आये तो रायपुर संस्करण देख लिजिये।
बेहतरीन संस्मरण, औचक रूप से लिखा गया है. सोचता हूँ आप अपनी सुविधा से इसे लिखते तो क्या होता ? फिर भी इतना त्वरित और समसामयिक विवरण लिखने वाले विरले ही हैं. सच है आप ने जिन दिनों का जिक्र किया है मेरी फंतासी भरी दुनिया उन्हीं से पूरी होती है. नव भारत के जयपुर संस्करण के दिनों नारायण बारेठ साहब जोधपुर ब्यूरो के प्रभारी हुआ करते थे. उनकी अनिवार्य शर्त थी कि चाहे जिस पंथ को सराहो पर अच्छा लिखने के लिए जनसत्ता जरूर पढो. वो एक दौर था जिसमे पत्रकारिता और पत्रकारों ने जागरण का काम किया था. आप उसी समय सुघड़ हुए हैं. मुझे लगता था कि आपसे आकर्षण की कुछ वजहें जरूर होगी, आज पाया है कि मेरे बदन पर जमी गर्द से आती महक उन्हीं रास्तों की है जिन से आप लोग सरपट निकले थे.
अल्बेयर कामू के "पतन" का नायक कहता है " अगर हम बीसवीं सदी के मनुष्य का इतिहास लिखना चाहें तो क्या लिखेंगे इसके सिवा कि उसने अखबार पढ़े और व्यभिचार किया ..." आज सोचता हूँ कि अगर इक्कीसवीं सदी के मनुष्यों के बारे में लिखा जायेगा तो सिवा इसके क्या होगा " उसने टीवी पर खबरें देखी और पगला गया..." कामू के अवचेतन में जरूर रहा होगा कि बीसवीं सदी में अखबार समाज को बचाए रखेंगे तमाम व्यभिचारों के बाद भी कुछ बुना ही जायेगा. आज सिर्फ नष्ट होने की आशंकाएं है. बड़ी आशंका ये है कि आपकी समझवाली पीढी का पोषण जिस नाल से हुआ था उसे काट दिया गया है. अब जो बचा है वह परखनली शिशु है जिसके संस्कार निश्चित नहीं है.
पत्रकारिता के इस दुरूह क्षेत्र में जीवट की बड़ी जरूरत होती उस पर अगर आप हिंदी में लिखते हैं तो और ज्यादा... मुझे कहा गया था कि अगर पत्रकार बनो तो अंग्रेजी में लिखना ताकि जीवन जीने लायक पैसा जुगाड़ सको. सोचता हूँ आठ सौ रुपये वाला ट्रेनी नब्बे के आगाज़ में कैसे अपने दिन हंसते हुए काट रहा था, वो ख़ुशी कुछ अच्छे लोगों और समूह के साथ काम करने की थी. प्रभाष जी की वैचारिक सोच से मेरा मन नहीं मिलता परन्तु ९१ में जोधपुर आगमन पर देखने जरूर गया था क्योकि वे जिस अखबार के शीर्ष थे, उसी अखबार से मैंने सीखा था खबरों में मानवीय भावनाओं का संचार कैसे हों ?
आपका फोटो भी अपने आप में एक पूरा संस्मरण है.
प्रभाष जोशी का का नाम बना रहे अगर आत्मा का अस्तित्व है तो उसे भी शांति मिले.
"खैर, हम जब डामकोठी पहुंचे तब प्रभाष जी करीब करीब तैयार थे। उन्होंने मामा से कहा- कमलजी, आप चाय वाय पीजिए, तब तक मैं कुछ लिख लेता हूं। हमें याद आया कि अगले दिन रविवार था। दरअसल उनका प्रसिद्ध स्तम्भ कागद कारे कुछ अर्सा पहले ही शुरु हुआ था। संपादकीय पेज पर पूरे ढाई कॉलम में ऊपर से नीचे तक ठसा-ठस होता था वह। किसी हालत में ढाई हजार शब्दों से कम नहीं। हमे लगा, आरती तो छूटी समझिए। वे लिखते रहे, हम चाय पीते रहे। ताज्जुब था कि प्रभाष जी ने मुश्किल से पंद्रह मिनट में अपना काम खत्म कर लिया। पता चला कि अभी आधा लिखा है, बाकी वे रास्ते में लिखेंगे। मंदिर पहुंचने पर प्रभाष जी ने फिर कलम संभाली और बाकी लेख पूरा किया।"
क्रिकेट के उस अनन्य प्रेमी की, पत्रकारिता की पिच पर कितनी तेज़ 'रनिंग बिटवीन द विकेट्स' ! श्रद्धांजलि !
प्रियवर,
तुम्हारा लेख आद्योपांत पढ़ा। प्रभाष जी कितने हमारे अपने थे यह अब बड़ी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा हूं। तुमने बहुत सी बातें याद कराईं जिन्हें याद करने में मुझे वक्त लगता। वे हस्ती थे पर मस्ती भरी हस्ती थे। जो चित्र तुमने लेख के साथ लगाया है ''वाणी'' वाला, उसके साथ के चित्र मेरे विराट संग्रह में कहीं खेए हुए हैं। कल मैं ढूंढता रहा अपने आलेख के साथ भेजने के लिएए मुझे मिले ही नहीं। अस्तु। अपने लेख का लिंक भेज रहा हूं।
http://www.navabharat.org/images/bsp4news7.jpg
सस्नेह
कमलकांत बुधकर
http://www.navabharat.org/images/bsp4news7.jpg
aamin!
श्री जोशीजी को श्रधा सुमन |गंगा जी की कृपा आप पर बनी रहे |
प्रभाष जी को श्रध्दांजली ।
समय भी यह शुन्यता शायद ही भरे .
प्रभाष जोशी एक संस्था थे, जिन्हें पढकर हमने समाज और राजनीति पर अपने विचार बनाये. तसल्ली ये है कि उन्होंने जाने से पहले अपने जैसे सोच वाले अनेक पत्रकार खडे किये, एकल्व्य की तरह.
ढाई साल पहले सूचना के अधिकार पर हुई एक संगोष्ठी में १० मिनट के लिए उनको सुनने का मौका मिला था. उन १० मिनट की वजह से शायद आपके इस निजी संस्मरण को बेहतर महसूस कर सकता हूँ. आपका भरोसा सत्य हो !
अजित भाई, कोई 17 साल पहले मैंने सागर में हुए एक लोकोत्सव की लंबी चौड़ी रपट जनसत्ता में प्रकाशनार्थ भेजी। करीब एक माह तक प्रकाशन नहीं होने के बाद प्रभाष जी के नाम एक पत्र लिख भेजा और अपने मन का क्षोभ उसमें जमकर उड़ेला। अगले हफ्ते रपट प्रकाशित हुई और बाद में प्रभाष जी का लिखा चार लाइन का पत्र आया ... उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था: यह जोश कायम रहे। संपादक से सवाल पूछने का साहस और अधिकार तुम्हें है। और लिखो, और अच्छा लिखो, छपेगा। पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।
इसके बाद मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। जो भेजा संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। वे सदा प्रेरणा देते थे और देते रहेंगे।
समझ सकता हूं कि आप किस युग के लौटने की आशा कर रहे हैं... काश कि यह हो सके!!! जनांदोलन वाली बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं कि एक पीढ़ी निकल गई जिसे इस शब्द का अर्थ ही समझ नहीं आया।
क्या मेरा यह सोचना सही है कि कहीं न कहीं इसके लिए आज के दौर के हम पत्रकार भी जिम्मेदार हैं जो प्रभाष जी जैसे शलाका पुरुषों की जलाई मशाल को थामकर उनके बताए रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाए।
क्या 1983-84 में कागद कारे शुरू हो चुका था, शायद नही।
@किशोर चौधरी
आपकी टिप्पणी ने बरसों दूर किसी आंगन में उतार दिया। बहुत शानदार लिखा है। सचमुच आठसौ छियासठ रुपए मासिक में हम बहुत सुखी थे। रंगकर्मियों की सोहबत, साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी करते हुए पत्रकारिता चल रही थी। यह वही दौर था जब पत्रकारिता में बहुत सी धाराएं आकर एक हो जाती थीं। नारायण जी हमारे प्यारे मित्र हैं। बातें-मुलाकातें कम हैं, पर गर्मजोशी जिंदा है।
@संजय करीर
भाई, जनांदोलन वाली बात के संदर्भ में आपकी सोच से सौ फीसद सहमत हूं। पत्रकारिता ही इसके लिए जिम्मेदार है काफी हद तक। बाकी समाज के तथाकथित जागरुक, पढ़े लिखे कहे जाने वाले तबके और राजनीतिक दल इस पाप के भागी हैं।
@बेनामी
शायद आप सही कह रहे हैं। पर हमने ऐसा कहां लिखा है कि कागद कारे 1983-84 में छपने लगा है। 1983-84 में तो उनसे हमारी पहली मुलाकात हुई थी। उसके कुछ साल बाद फिर जब हरिद्वार में मिले तब का यह उल्लेख है। ज़रा ध्यान से देखें। अलबत्ता उनका आलेख उस वक्त हर रविवार को छपनेवाले किसी नियमित स्तम्भ के लिए ही था। आपको याद आए तो ज़रूर बताएं कि कागद कारे कब शुरु हुआ था।
बेहद आत्मीय संस्मरण । आभार ।
आपका आलेख,संस्मरण ,आपबीती और सरोकार सब समेटे है.
प्रभाष जी की कमी खाश कर अब खलेगी,क्योंकि इस उम्र में भी ,बिकी पत्रकारिता से उनकी लड़ाई कौन आगे ले जायेगा ,उसी साहस और जोम के साथ ?
25-27 साल पहले मै जनसत्ता प्रभाष जी के लेखों के लिये ही खरीदा करता था । अनेक कठिनाईयों के बावज़ूद उन्होने सुविधाओ से समौझौता नही किया और एपने मूल्यो के लिये सतत संघर्ष करते रहे । उनका यह रूप ही अनेक युवा पत्रकारो के लिये मशाल का काम करता था । उनकी पुस्तक " हिन्दू होने का धर्म " ( राजकमल प्रकाशन 2003) बहुत ही महत्वपूर्ण लेखो का संग्रह है ।
मालिक, भौत दिन बाद सोचा सब लेख सफ़र के पढ़े जायें जो छूटे हुये हैं। इसे पढ़ा तो प्रभाष जी के होने और न होने का फ़र्क और साफ़ हुआ। बेहतरीन संस्मरण। "खाकसार" की पुरानी फोटॊ देखकर बहुत अच्छा लगा।
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