Sunday, July 13, 2008

एक अलौकिक आत्मा- गोपालपुरिया [बकलमखुद - 54]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा और हर्षवर्धन त्रिपाठी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के ग्यारहवें पड़ाव और चौवनवें सोपान पर मिलते हैं खुद को अलौकिक आत्मा माननेवाले प्रभाकर गोपालपुरिया से। इनका बकलमखुद पेश करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता है क्योंकि अब तक अलौकिक स्मृतियों के साथ कोई ब्लागर साथी यहां अवतरित नहीं हुआ है। बहरहाल, प्रभाकर उप्र के देवरिया जिले के गोपालपुर के बाशिंदे हैं । मस्तमौला हैं और आईआईटी मुंबई में भाषाक्षेत्र में विशेष शोधकार्य कर रहे हैं। उनके तीन ब्लाग खास हैं भोजपुर नगरिया, प्रभाकर गोपालपुरिया और चलें गांव की ओर । तो जानते हैं दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गोपालपुरिया की अनकही ।

अलौकिक जीवन की रंगरेलियां

बात तब की जब मैं इंद्रलोक में चापलूसी और नेतागीरी विभाग का अध्यक्ष हुआ करता था, अगर किसी को चापलूसी या नेतागीरी सीखनी होती थी तो वह मुझसे संपर्क किया करता था। अभी आप को पता चल ही गया होगा कि नेतागीरी और चमचागीरी के बल पर मैं इंद्र के कितने करीब हुआ करता होगा? एकबार मैं इंद्रासन में इंद्र के साथ बैठकर सुरा और सुंदरियों के नृत्य और गायन का आनन्द ले रहा था। यहाँ आप सुरा का अर्थ शराब न समझकर सोमरस समझें और सुंदरियों यानि अप्सराएँ। मैं सुरा, सुंदरियों में इतना लीन था कि भगवान का वहाँ आना मुझे पता ही नहीं चला।

स्वर्ग से निष्कासन

गवान मुझपर चिल्लाए,"अरे तुम तो आदमी की जाति के देवता हो। तुम्हारा यहाँ क्या काम। तुम तो हर प्रकार की बुराइयों में भी निपुण हो। तुम अभी इसी वक्त धरती पर चले जाओ,ये मेरा आदेश है।" मैं बहुत रोया-गिड़गिड़ाया पर भगवान ने मेरी एक न सुनी। तभी मेरा एक साथी मेरे कान में बुदबुदाया,"बेवकूफी मत कर। आँख बंद करके धरती पर अवतरित हो जा। धरती पर तू खुद अपना मालिक होगा तो जितनी भी रंगलेरिया मनाना चाहता होगा, गलत काम करना चाहता होगा एक नेता बनते ही या कहूँ एक आदमी बनते ही सब आसानी से संभव हो जाएगा।"

लौकिक जीवन-ब्राह्मणकुल में जन्म

हाँ तो मित्रवर! भगवान के आदेशानुसार मैं 1 जनवरी 1976 को उत्तर-प्रदेश के देवरिया जिले (जो बिहार की सीमा से लगा हुआ है) के गोपालपुर गाँव में एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में अवतरित हुआ। यहाँ आपलोगों को कौतुहल हो रहा होगा कि मैंने उत्तर-प्रदेश के उस जिले को क्यों चुना जो बिहार की सीमा से लगा हुआ है? इसका कारणयह था कि जब मैंने इंद्रासन से धरती का अवलोकन किया था तो यही स्थान मुझे ऐसा दिखा था जहाँ घर-घर में नेतागिरी की सबसे अधिक खेती होती है। लोगों को लगता है कि नेतागिरी उनके बाप की बपौती है। और अब तो आप समझ ही गए होंगे कि आधुनिक युग में नेतागीरी के साथी-संगिनी कौन हैं; अरे काकाजी! झूठ, धूर्तता, नशाखोरी.....। हाँ तो अब आगे की दास्तान सुनिए। मेरा अवतार राम और कृष्ण की तरह तो नहीं हुआ था पर मैं भी ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगा लीलाएँ करने लगा।

बीसों उंगलियां घी में

गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय से दूसरी पास करने के बाद एक मांटेसरी स्कूल से पाँचवीं की परीक्षा पास की। मैं शुरु से ही बहुत ही भावुक और धार्मिक होने का ढोंग नहीं रच रहा था पर था ही। नौंवी तक मैं पढ़ने में बहुत ही तेज था पर उसके बाद ज्योंही मेरा नामांकन देवरिया शहर में हुआ, मेरी बीसों अंगुलियाँ घी में हो गईं। उस समय मैं दोस्तों के साथ विद्यालयी राजनीति में सक्रिय हो गया और यहाँ तक कि भाजपा ने मुझे अपने सेक्टर का महामंत्री भी बना दिया। अब एक होनहार पढ़वैया लड़का राजनीति देवी की बलि चढ़ने लगा और घर से पढ़ने के लिए मिलनेवाले पैसे इधर-उधर फालतू में खर्च करने लगा। पता नहीं कहाँ से इस बात की भनक मेरे घरवालों को लग गई और मुझपर कड़ी नजर रखी जाने लगी, यहाँ तक कि मुझे अब पढ़ने के लिए घर से ही आना-जाना भी शुरु करना पड़ा। उसी दौरान मेरी शादी भी हो गई।

दादाजी का ताना

बीए की पढ़ाई समाप्ति की ओर थी, परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं, एकदिन मैंने अपने दादाजी सेकहा कि मुझे देवरिया जाना है अस्तु मोटरसाइकिल में तेल भराने के लिए सौ रुपए दीजिए। मेरे दादाजी मुझे केवल चालीस रुपए देने के लिए राजी हुए क्योकिं उनका कहना था कि बस से चले जाओ,10-20 रुपए में ही काम हो जाएगा। जब मैंने गुस्ताखी शुरु की कि मैं मोटरसाइकिल से ही जाऊँगा तो मेरे दादाजी ने कहा,"पैसे की कीमत तुम नहीं समझोगे; जब कमाओगे तब तुम्हें पैसे की कीमत का पता चलेगा।"

कुछ कर के दिखाओ !

ह बात मुझे लग गई और मैंने कमाने की सोच ली। एकदिन मेरे दादाजी को कहीं से भनक लग गई कि मैं कहीं बाहर जाने की योजना बना रहा हूँ। दादाजी मुझे बुलाए और बहुत समझाए कि पढ़ाई पूरी कर लो फिर कहीं जाना। पर जब मैं उनकी सुनने से इनकार कर दिया तो वे गुस्से में बोल पड़े कि ठीक है जाना पर किसी सगे-संबंधी के पास नहीं जाना। और मैं भी देखता हूँ कि तुम कितने दिन कहीं ठहरते हो। तुम बहुत जल्दी ही लौटकर यहीं आओगे। [जारी]

30 कमेंट्स:

Sunil's World !!!! said...

बिल्कुल सही कहा आप के दादाजी ने जब तक कोई कमाने नहीं लगता है तब तक उसे सारे नोट एक जैसे नजर आते हैं, उसे उसके पीछे की गई मेहनत नजर नहीं आती है पर जब वही कमाने लगता है तब उसे 10 रुपये और 500 रुपये के नोट में अन्तर पता चलता है।

Udan Tashtari said...

वैसे प्रभाकर भाई को पढ़कर काफी हद तक अंदाजा था मगर आज कन्फर्म हो गया -वाकई आलौकिक हैं. :)

Gyan Dutt Pandey said...

प्रभाकर का व्यक्तित्व और लेखन - विशेषत: भोजपुरी लेखन मुझे आकर्षित करता रहा है। अब १९७६ की पैदाइश है तो मैं नाम के साथ "जी" नहीं लगा रहा - उस वर्ष तो मैं अपनी इन्जीनियरिंग की शिक्षा के उत्तरार्ध में था, पर उससे आत्मीय महसूस करने की भावना में कमी नहीं आती।
आगे उनकी लेखन से उनके विषय में जो प्रकटन होगा, उसकी प्रतीक्षा रहेगी।

दिनेशराय द्विवेदी said...

अंदाज निराला है, क्या कहें 1975 में हम ब्याह दिए गए थे।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

स्वागत...सफर में इस नई दस्तक का.
प्रस्तुति में उत्साह साफ़
नज़र आ रहा है.
शैली में दीन-दुनिया का
दोहरापन अनावृत्त हो रहा है.
युवावस्था में ऐसी
सर्जनात्मक पकड़ सराहनीय है.
बधाई.
==================
डा.चन्द्रकुमार जैन

Arun Arora said...

वाह अब आयेगा मजा, जब आगाज ऐसा है तो अंजाम कैसा होगा ?
इंतजार रहेगा आपकी आलोकिक लीलाओ के विवरण का इस मृत्यू लोक मे

Anonymous said...

"दादाजी मुझे बुलाए और बहुत समझाए"- लगता है आप ने समझ लिया ।

Sanjeet Tripathi said...

क्या लिखा है बंधु!
जी आदि नही कह रहा आप एक जनवरी वाले हो और मै 14 जनवरी वाला।

रोचक है, प्रतीक्षा रहेगी अगली कड़ियों की

PD said...

bahut badhiya sir ji..
neta bhi bane aur indra se bhi mile hain..
kya baat hai..
aage likhiye.. :)

रंजू भाटिया said...

रोचक लगा आपके बारे में जानना प्रभाकर जी

Rajesh Roshan said...

मजेदार...

नीरज गोस्वामी said...

बहुत दिलचस्प शुरुआत...आगाज इतना बढ़िया है तो अंजाम तक ना जाने क्या होगा??? बहुत खूब गोपाल जी. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा.
नीरज

Sajeev said...

वाह दर्शन हो गए प्रभु, कहाँ थे आप ?....बहुत ही बढ़िया अंदाज़ मस्त एकदम ....

अजित वडनेरकर said...

शुक्रिया प्रभाकर भाई, धांसू एंट्री रही है आपकी और अब ये आप पर है कि पाठकों का मज़ा कायम रहे। इशारा समझ गए ना ?

Prabhakar Pandey said...

अजित भाई, सादर नमस्कार। एक छोटी सी भूल है- मैं नौवीं तक तो पढ़ने में बहुत ही तेज था पर उसके बाद दसवीं करने के बाद मेरा नामांकन देवरिया में हुआ था। और हाँ एक बात और एक हेडिंग "दादाजी का ताना" थोड़ा खटक रहा है, क्योंकि उन्होनें सदा मेरा भला चाहा और आज मैं जो कुछ हूँ उन्हीं के आशीर्वाद से हूँ। पर अगर उस समय के आधार पर सोचता हूँ तो यह हेडिग ठीक ही लगती है क्योंकि उस समय युवा जोश में, मूर्खता में मुझे दादाजी की वो बात ताने जैसी ही कही जा सकती है।
आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। मुझ जैसे अपात्र को बकलमखुद में जगह देने के लिए।

Prabhakar Pandey said...

आप सभी बड़े-बुजुर्गों, अग्रज पाठकों को मेरा सादर नमस्कार। आपलोगों ने मुझे सुना और सराहा ये मेरी लिए बहुत बड़ी बात है। एक बार फिर आप सभी को मेरा हार्दिक आभार।

अजित वडनेरकर said...

आप ठीक समझे है प्रभाकर भाई। बुजर्गों के ताने प्रेरणा के लिए ही
होते हैं न कि हतोत्साहित करने के लिए। यही सोचकर मैने वह उपशीर्षक दिया था । हालांकि आपके लिखे में ताना शब्द कहीं नहीं था।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

प्रभाकर भाई की शुरुआत ही बडी निराली लगी - बहुत अच्छी रही स्वर्ग से अवतरण की भूमिका -
ये कथा, आगे भी सुनायेँ..
- लावण्या

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

प्रभाकर जी की अलौकिक प्रतिभा के कायल हम तभी हो गये थे जब इनकी भोजपुर नगरिया पर ३०० भोजपुरी मुहावरों और लोकोक्तियों का संग्रह और उनकी व्याख्या देखा था। मैं भी उसी क्षेत्र का होने के नाते इनके द्वारा भोजपुरी पर किये गये परीश्रम को बड़े चाव से पढ़ता हूँ। इस दिव्यात्मा के बारे में अजीत जी के माध्यम से जानने को मिल रहा है, इसका आभार…

Sarvesh said...

Waise to eenaki ek ek kahaniyan main padhta hun aur apani beti ko sunata hun (wo bhi shudh bhojpuri me taaki bachche bhojpuri ko bhula naa paayen), lekin aaj unake baare me padhane ka mauka mila. Gramin parivesh me ek vidyarthi aur guardian ke beech ka samvad jo ki har vidyarthi ke saath hota hai dekhane ko mila.

Abhishek Ojha said...

अरे प्रभाकर भाई की भोजपुरी वाली पोस्ट बड़ी मजेदार होती है. अलौकिकता वाली बात की तो हमें भनक ही नहीं थी. बिल्कुल धाँसू शुरुआत हुई है :-)

सागर नाहर said...

मजेदार शुरुआत की आपने प्रभाकर जी.. आगे की कड़ियाँ जल्दी जल्दी भेजिये।

अनूप शुक्ल said...

अच्छी शुरुआत। आगे का इन्तजार है।

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी said...

प्रभाकर भाई, परिश्रम और सूचना-संग्रहण कला का अदभुत समन्वय है. ल़गे रहिए.....

Capt Anvesh Chaudhary said...

Aree pandey ji aapki kahani bahoot achii lagi humko....per 1 baat batayiye ki apko punarjanam mai vishwas hai kyaaa.... :-) apse 1 req hai agar aap koi aisi site jante hai jaha per likhne se vo hidi mai badal de to jara hume jaroor batayee.....

Unknown said...

Bahut Achha Laga.


Dr. Ashish Thakur

Unknown said...

Prastuti sandar hain. Achha sanklan hain.

Anonymous said...

ये हमारे गाँव के ही हैं और गाँव में ये प्रभाकर नाहीं टुन्ना नाम से जाने जाते हैं । वेसे कुछ लड़के इन्हे साबू, प्रभुजी, तिवारी, सामला आदि भी बुलाते हैं।- दिलीप कुर्मी, सीब्ज, अंधेरी, मुंबई।

दिवाकर मणि said...

पांडेजी और उनकी लेखनी से पूर्व परिचित हूं ही, और अब वह पुणे में मेरे पड़ोसी और सहकर्मी दोनों ही हैं । शब्दावली पर उनके बारे में पढ़कर मन और भी गदगदा गया । अजीत जी को बहुत धन्यवाद....

Unknown said...

एक अच्छी शुरुवात, शायद एक नया चलन शुरू हो जाए। दूसरों के बारे में बेबाकी से कहना मनुष्य जाती का गुण हैं, लेकिन स्वयं के विषय में उसी बेबाकी का परिचय देना, तनिक कठिन हैं। यह मनुष्य नुमा एक खास प्रजाति में पाया जाता हैं।

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