Wednesday, July 16, 2008

मांटेसरी स्कूल के हत्यार गुरुजी [बकलमखुद - 56]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल1 पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा और हर्षवर्धन त्रिपाठी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के ग्यारहवें पड़ाव और पचपनवें सोपान पर मिलते हैं खुद को अलौकिक आत्मा माननेवाले प्रभाकर गोपालपुरिया से। इनका बकलमखुद पेश करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता है क्योंकि अब तक अलौकिक स्मृतियों के साथ कोई ब्लागर साथी यहां अवतरित नहीं हुआ है। बहरहाल, प्रभाकर उप्र के देवरिया जिले के गोपालपुर के बाशिंदे हैं । मस्तमौला हैं और आईआईटी मुंबई में भाषाक्षेत्र में विशेष शोधकार्य कर रहे हैं। उनके तीन ब्लाग खास हैं भोजपुर नगरिया, प्रभाकर गोपालपुरिया और चलें गांव की ओर । तो जानते हैं दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गोपालपुरिया की अनकही ।

 

 बचपन की शैतानियाँ

पढ़ने में बहुत तेज होने का यह मतलब नहीं कि प्रतिदिन स्कूल ही जाया जाए। बात उन दिनों की है जब मैं अपने छोटे भाई के साथ एक मांटेसरी स्कूल (एस.के.आइडियल,मांटेसरी स्कूल, पथरदेवा) में पढ़ने जाया करता था। उस समय मांटेसरी स्कूल के गुरुजी लोग बहुत हत्यार हुआ करते थे। मुझे याद है एक दिन मैं दोपहर को सबकी आँख बचाकर स्कूल से घर भागने की कोशिश कर रहा था, करता तो हमेशा था पर उस दिन दैव भी मेरे प्रतिकूल थे और ज्योंही बस्ता उठाए स्कूल के बाहर आया एक राय गुरुजी ने दौड़कर मुझे पकड़ लिया। इसके बाद रोल (वह गोल पतला काठ का डंडा जिसमें कपड़े की पीस लपेटी रहती है- इसी का हमलोग डंफल बनाकर पीटी भी खेलते थे) से मेरी इतनी धुनाई हुई कि पूछिए मत। आज भी वह रोल मेरी आँखों के सामने घूम जाता है और न चाहते हुए भी मैं तिलमिला उठता हूँ।

बरसात के दिनों में चांदी

खैर बरसात के दिनों में मेरी चाँदी रहती थी क्योंकि हमें कच्चे रास्तों से होकर स्कूल जाना पड़ता था और मैं खुद या अपने छोटे भाई को कीचड़ में गिरा देता था और कीचड़ सने घर आ जाता था। फिर स्कूल के लिए देरी हो जाती थी और मैं स्कूल जाने से बच जाता था पर कभी-कभी मेरे दादाजी किसी के साथ साइकिल से मुझे स्कूल भिजवा देते थे। पर आज उन कथित हत्यार अध्यापकों के लिए हृदय में अत्यधिक श्रद्धा और आदर है। कितना अपनापन और प्यार था उनके हृदय में बच्चों और अपने कर्तव्य के प्रति। हाँ एक बात और। मैं बचपन में चीनी बहुत खाया करता था। मेरी माँ जो कैंसर की मरीज थीं वे बराबर बी.एच.यू. में ही भरती रहती थीं। घर पर हम भाइयों की देखभाल हमारी दादी ही करती थीं। मैं जब भी घर में घुसता था तो धीरे से रसोईघर में चला जाता था। इधर-उधर नजर दौड़ने के बाद बटुली में से एक मुट्ठी चीनी निकालकर मुँह में डाल लेता था और हाथ झाड़कर चुपके से बाहर आ जाता था। जब दादी पूछती थी कि क्या लिया तो दोंनो खाली हाथ दिखाते हुए तेजी से बाहर भाग जाता था। यह प्रक्रिया दिन में कम से कम 15-20 बार दुहराता था।

किशोरावस्था और युवावस्था की लंठई

अब आइए थोड़ा अपनी लंठई से भी आप लोगों को परिचित करा दूँ। हाँ तो मेरे देखने में लंठई का मतलब यह होता है कि जानबूझकर गलत काम करना पर यह समझना कि जो कर रहा हूँ वह गलत नहीं है। यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। कभी-कभी दोपहर या तिजहर के समय हम कुछ यार-दोस्त गाँव से दूर के खेतों की तरफ निकल जाते थे ओर आपस में यह हाड़ाबदी (प्रतियोगिता) करते थे कि दूसरे के खेत में से गन्ना तोड़कर कौन कितना खा सकता है और देखते ही देखते गुल्लों का पहाड़ तो नहीं पर पहाड़ी लग जाती थी। या दूसरों के खेत में से मटर, चना आदि उखाड़कर होरहा लगाते थे। उस समय होरहा खाने का और कचरस (गन्ने का रस) पीने का मजा ही कुछ और होता था। फागुन के महीने में सम्मति (होलिका) गड़ने के बाद हम लोग पतई बिटोरने जाते थे यह कहते हुए (कि चलS लइकवा सम्मती के पतई बिटोरे हो हो।) और किसी के गोहरौरी में से गोहरा उठा लाते थे या किसी की छोटी मड़ई भी उठाकर कभी-कभी होलिका में डाल देते थे।

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सुखी परिवार

बिन्दु (मेरी पत्नी), मैं प्रभात को गोदी में उठाए हुए, और आदित्यानन्द (मेरे बड़े भाई साहब का लड़का।) जूहू के तट पर पहली बार सपरिवार पदार्पण।

 
                                                                                                   ...जारी

12 कमेंट्स:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

शरारत की बातें इतनी
शराफत से कह दी आपने !
ये तो बड़ी बात है भाई.

इधर बरसात के दिन ही हैं,
आपको बचपन की चांदी याद
आ गयी बरबस तो कोई आश्चर्य नहीं.

...और नटखट कैशोर्य का निराला वर्णन !
मज़ा आ गया पढ़कर.
आपके सुखी पारिवारिक जीवन में
हमारी शुभकामना का भी एक दीप
आपका पथ प्रशस्त करे.
===============================
डा.चन्द्रकुमार जैन

Udan Tashtari said...

बहुत ही हल्की फुल्की बाल सहज शैतानियाँ रहीं. इसलिए आपको अच्छे बच्चे का प्रमाण पत्र दिया जाता है. बडी जल्दी खतम हो गया जी!! खैर, मजेदार रहा आपको जानना.

अजित भाई का पुनः आभार.

शोभा said...

अच्छा लगा यह सब पढ़कर । और ये पंक्तियाँ याद आगई-
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी
एक सुखद अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा प्रयोग २x२ की टेबल का!

अजित वडनेरकर said...

आप जोहो पर हाथ आज़माइये ज्ञानदा, इस बीत हम लाइवराइटर को देखते हैं:)

Anonymous said...

ब्लॉग जगत के अपरिचित सदस्यों का परिचय जानना अच्छा लगता है. एक ही बार में पुरानी सभी कड़ियाँ पढ़ गए. मीनाक्षी

Anil Pusadkar said...

pre-primary school aur gurujanon ki kutai ki yaad taaza kar di aapne. Ajeet ji aapka aue prabhakar ji ka aabhari hun bachpaan ke kuch pal lautane ke liye

Unknown said...

लाइव राइटर के उपयोग से चित्र का प्रस्‍तुतिकरण काफी अच्‍छा लग रहा है।
अब इसी को चलाइये।

डॉ .अनुराग said...

वाकई बड़ी मासूम सी शैतानिया रही आपकी...अजीत जी ने मेहनत करके इस ब्लॉग को बेहद पठनीय बना दिया है ,बधाई के पात्र है......

Abhishek Ojha said...

शैतानियाँ भी की आपने? हमें तो लगा की आप अलौकिक हैं ! पर मानुष तन पाने के बाद आप भी हमारी तरह ही हो गए... होरहा की अच्छी याद दिलाई आपने.

Arun Arora said...

मेर भाइ ये ठीक है कि आप पहली बार जूहू पर फ़ोटो खिचवा रहे थे ,लेकिन ये बनियान का विज्ञापन ? :) चक्कर क्या है या बीच मे बाडि दिखा रहे थे किसी को :)

संजय बेंगाणी said...

चिट्ठाकारों को जानने का यह तरीका भी सही है.

अच्छा लगा जी.

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