मीठा सबद सुनाय के, जग अपनी कर लेत ।।
कबीरदास के इस दोहे का संदेश साफ है कि मधुरवाणी सबको प्रिय है अन्यथा बेचारे कौवे ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा और न ही कोयल ने किसी का भला किया है। बस फर्क सिर्फ वाणी का है। कोयल और कौवे (कौए) का जिक्र अनादिकाल से हमेशा एक साथ ही आता है। कोयल का उल्लेख जहां मीठी मधुर ध्वनि के लिए होता है वहीं कौवे की आवाज़ को हमेशा से ही कर्कशता का प्रतीक माना जाता है और बेचारे को इसी लिए हर मुंडेर से उड़ाया जाता है। इसके विपरीत कोयल की आवाज़ सुनना मंगलकारी माना जाता है। मधुर आवाज़ वालों को कोयल की संज्ञा दी जाती है यही नहीं आम के पेड़ को कोकिलःआवासः इसीलिए कहा जाता है कि उस पर कोयल निवास करती है। दरअसल कोयल और कौवे की रिश्तेदारी यूं ही नहीं है । दोनो का जन्म एक ही मूल से हुआ है और इसके पीछे है उनकी आवाज़।
देवनागरी के क वर्ण में ही ध्वनि का भाव छिपा है। संस्कृत की एक धातु है कु जिसका अर्थ है ध्वनि करना , बड़बड़ाना, कराहना , क्रंदन करना, भिनभिनाना आदि। कलकल शब्द इससे ही बना है जिसमें पत्थरों से टकराकर बहते पानी की ध्वनि छुपी है। इसी कल से बना शोर के अर्थ में कोलाहल । मधुर आवाज़ के लिए प्रसिद्ध कोयल का नामकरण भी इसी सिलसिले की कड़ी है इसे । कोकिला के नाम से भी जान जाता है जिसका जन्म संस्कृत की कुक् धातु से हुआ है जिसमें ध्वनि करना या कूकने की ध्वनि का भाव है। संस्कृत कोकिलः से कोयल बनने में कोइल > कोइलो > कोएल > कोयल जैसा क्रम रहा होगा। कोयल की आवाज के लिए कुहुक या कुहू कुहू जैसी ध्वनियो का इस्तेमाल होता है। कोयल के लिए अंग्रेजी का कुकू (cuckoo) शब्द भी ध्वनि अनुकरण के आधार पर ही बना है और संस्कृत की कुक् धातु से इसकी समानता गौरतलब है। इससे ही एक शब्द और बना है काकली अर्थात् मधुर-मधुर ध्वनि। यह कोयल की स्वर लहरियों के लिए भी कहा जाता है। निराला जी की एक कविता भी है सान्ध्य काकली। निरंतर कुछ न कुछ चुगते हुए कुट-कुट ध्वनि करने वाले मुर्गे के लिए कुक्कुटः शब्द भी इसी क्रम में आता है।
कौवे के लिए संस्कृत में काकः कहा जाता है । यह बना कै धातु से जिसका मतलब है ध्वनि करना या शोर मचाना इसीलिए हिन्दी में कांव-कांव करना मुहावरा है जिसका मतलब ही है शोरमचाना। कै से बने काकः से कौवा बनने का क्रम कुछ यूं रहा काकः > कागओ > कागो > कागु > कागा > काआ> कौआ या कौआ । हिन्दी की देशी बोलियों में इसके लिए कागा शब्द भी प्रचलित है। कौवा या कौआ जैसे रूप भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि कौवे की एक आंख ही होती है इसीलिए एकाक्ष या काणाकौवा जैसे शब्द भी बने। मनहूस के लिए आमतौर पर इसे इस्तेमाल किया जाता है। पतंग के लिए कनकव्वा जैसा देशी शब्द भी इसी तरह बना । कर्ण+काक=कनकव्वा । काग़ज के चारों कर्ण (कोने) पर बांस की खपच्ची लगाने की वजह से ही इसका यह नामकरण हुआ होगा । फिजूल घूमना, निठल्लेपन के लिए कव्वे उड़ाना जैसे मुहावरे में भी इसकी महत्ता साफ है। अब बेकार आदमी से मुंडे़र से अपशकुनी कौवे ही उड़वाए जाएगे या फिर वह कनकव्वे उड़ाएगा। अंग्रेजी में कौए के लिए क्रो शब्द है और इसकी कौवे से साम्यता गौरतलब है। वहां भी क ध्वनि ही काम कर रही है। आर्तनाद, मदद के लिए आवाज़ लगाने, शोरमचाने , पुकारने के अर्थ में अंग्रेजी में क्राई शब्द है। हिन्दी में क्रंदन है। जाहिर है कि ध्वनि अनुकरण के आधार पर ही ये शब्द बने होंगे।
पुराणों में काकभुसुंडि का भी उल्लेख है जिसके मुताबिक भगवान शिव ने हंस का रूप धारण कर काकभुसुंडि नामक कौवे से रामकथा सुनी थी। दरअसल वे पहले एक ब्राह्मण थे और शापग्रस्त होकर काकयोनि में पहुंच गए थे ।
16 कमेंट्स:
बोली में शब्दों का जन्म पहली बार इन ध्वनियों से ही हुआ होगा। आज भी हम बिल्ली के लिए बच्चे को पहले म्याऊँ बोली ही सिखाते हैं बिल्ली बाद में।
जानकारीपूर्ण आलेख. आभार.
प्रभाकर भाई!
बहुत सही..... इस तरह की प्रयोगधर्मिता अच्छी लगती है. लगे रहिये....
कागा और कोयल !
क्राई और क्रंदन !
कमाल है साहब,
शब्द जब बोलते, मचलते हैं
अर्थ भी दूर तलक चलते हैं.
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आभार
डा.चन्द्रकुमार जैन
ध्वनि और शब्द .रोचक रहा इस बार का सफर भी अजीत जी शुक्रिया जानकारी देने के लिए
रोचक जानकारी !साहित्य की महिमा तो देखिये कि तुलसी ने कबीर के कहे को ही उलट दिया -
मधुर बचन बोलेऊ तब कागा -कर्कश वाणी के लिए कुख्यात कौवा भी काकभुसुन्दि बन रामचरितमानस सुनाने लगा .
पर ये ऊपर का चित्र जो पोस्ट पर है न कौवे का है और न ही कोयल का ........
काला कौवा.. कांव-कांव... कोयल की कु, मजेदार जानकारी.
आप का शब्द ज्ञान अचंभित कर देता है अजित जी, बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट.
नीरज
शानदार प्रस्तुति, आपको बधाई
मेरा ब्लॉग भी आप देख कर मुझे अनुग्रहित करे
ध्वन्यात्मक शब्दों की व्युत्पत्ति प्रायः भाषा निरपेक्ष है। कू-कू, काँव-काँव, क्राई, क्रोऽक इत्यादि गले के एक ही स्थान से निकलते हैं। ऐसे ही जैसे सभी भाषाओं में ‘माँ’ के समानार्थी शब्दों की ध्वनियाँ एक ही स्थान (दोनो होठ) से निसृत होती हैं। यही भाषा की नैसर्गिकता है। अच्छा विश्लेषण… साधुवाद।
संस्कृत की एक धातु है कु जिसका अर्थ है ध्वनि करना , बड़बड़ाना, कराहना , क्रंदन करना, भिनभिनाना आदि।
वैसे तो हमारा संस्कृत का ज्ञान जीरो है पर हम तो समझे थे कु का अर्थ होता है बुरा जैसे कुकर्म में। क्या इस धातु के दो अर्थ हो सकते है एक ध्वनी पर आधारित और दूसरा उसके संदर्भ पर आधारित
अनिताजी, बहुत अच्छी बात उठाई। दरअसल हमें यह पहले ही स्पष्ट कर देना चाहिए था। संस्कृत का प्रसिद्ध उपसर्ग है कु जो बुरा , निम्न,खराब, पाप, तुच्छता आदि भाव उजागर करता है।
पहली बार शायद कौवे के लिये किसी ने अच्छे शब्द कहे होंगे की उसने किसी का बुरा नही किया,सिर्फ उसकी वाणी के लिये उसे दुत्कारा जाता है.बहुत खूब दादा.
स्वाति
कु का अर्थ हम भी हमेशा बुरे के रूप में लेते थे...आज इसका नया अर्थ जाना... अजित जी..सच मे आप शब्दवीर है...मीनाक्षी
बहुत दिलचस्प जानकारी। आभार !!!
अर्थपूर्ण जानकारी हेतु धन्यवाद।
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