Monday, July 14, 2008

मुम्बई मइया की गोद में [ बकलमखुद-55]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा और हर्षवर्धन त्रिपाठी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के ग्यारहवें पड़ाव और पचपनवें सोपान पर मिलते हैं खुद को अलौकिक आत्मा माननेवाले प्रभाकर गोपालपुरिया से। इनका बकलमखुद पेश करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता है क्योंकि अब तक अलौकिक स्मृतियों के साथ कोई ब्लागर साथी यहां अवतरित नहीं हुआ है। बहरहाल, प्रभाकर उप्र के देवरिया जिले के गोपालपुर के बाशिंदे हैं । मस्तमौला हैं और आईआईटी मुंबई में भाषाक्षेत्र में विशेष शोधकार्य कर रहे हैं। उनके तीन ब्लाग खास हैं भोजपुर नगरिया, प्रभाकर गोपालपुरिया और चलें गांव की ओर । तो जानते हैं दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गोपालपुरिया की अनकही ।

दीदी की कृपा से ऐशो-आराम की जिंदगी

खैर, एक दिन एक गँवई मित्र के साथ काशी गाड़ी से मैं चालू डिब्बे में मुम्बई चला आया। मुम्बई पहुँचते ही मेरी सारी शेखी रफूचक्कर होती नजर आई। जैसा मैंने मुम्बई मइया के बारे में सोचा था वो वैसी बिलकुल नहीं निकलीं। पर उस गँवई मित्र की कृपा से सांताक्रुज में एक सीए के कार्यालय में मेरे सोने की और उनके घर ही खाना खाने की व्यवस्था हो गई। दिन आसानी से बीतने लगे। पर अभी एक महीने भी नहीं बीते थे कि वह मेरा गँवई मित्र गाँव जाने की तैयारी कर दी पर मैं तैयार नहीं हुआ। वह तो चला गया पर मैं टिका रहा। एक दिन विले-पार्ले में मैं अपनी बहन के घर पहुँचा। उसको लगा कि अभी मैं गाँव से ही आ रहा हूँ पर जब मैंने उसे बताया कि मैं एक महीने से मुम्बई में ही हूँ तो वह रोने लगी और मुझे डाँटने लगी क्योंकि मैं उसे बहुत ही छोटा और कच्चा दिख रहा था। फिर उसने मुझे और कहीं जाने से मना कर दिया और मैं वहीं रहने लगा। उधर घरवालों ने भी मेरा नामांकन एमए में करा दिया था। अब मेरा मुम्बइया जीवन और भी ऐशो-आराम का हो गया था, कोई काम तो नहीं था पर पैसे की कमी भी कभी नहीं खली क्योंकि दीदी बराबर
पैसे दिया करती थी यहाँ तक कि दो-तीन सेट कपड़े भी बनवा दिए थे, घड़ी खरीद दी थी और भी जरूरत की अनावश्यक बहुत सारी चींजें। [चित्र परिचय- बुजुर्ग परिजनों में एकदम किनारे मोटे शरीरवाले मेरे पिताजी हैं। उनके बाद बीच में मेरे फूफाजी और उसके बाद मेरे दादाजी। सबसे आखिर में मेरी बुआ हैं।]

आई.आई.टी.जैसे सुरम्य और शैक्षिक संस्थान में

क दिन दीदी के घरवालों के माध्यम से मेरा पदार्पण आई.आई.टी. बाम्बे में हुआ और एक प्राध्यापक की महती कृपा से मैं भाषाओं के क्षेत्र में काम करने लगा। आई.आई.टी. में मुझ जैसे गँवार का टिक पाना बहुत ही मुश्किल था पर मेरी कड़ी मेहनत और लगन तथा उस प्राध्यापक को दिख रही मेरी आंतरिक योग्यता ने मुझे जमाए रखा और मैं U.N.L.(Universal
Networking Language) जो यूएनयू जापान की परियोजना थी पर काम करता रहा। फिर मैंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा और उसी गुरु माननीय प्रा.पुष्पक भट्टाचार्य (http://www.cse.iitb.ac.in/~pb/) की पारखी नजरों ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचा दिया कि मुझ जैसे गँवार को भी आई.आई.टी.में हास्टल-जीवन का आनन्द उठाने का मौका मिला। आज मैं हिन्दी और भाषाविज्ञान में एम.ए. हो गया हूँ और पी.एच.डी. के लिए भी प्रयासरत हूँ। आज मेरा पदनाम "शोध सहायक (Research Associate)" है। आई.आई.टी. ने रहने के लिए एक दो शयनकक्ष और एक महाकक्ष वाला कमरा भी मुहैया कराया है। अभी तक मेरे कई सारे शोध-प्रपत्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भी प्रस्तुत हो चुके हैं। आज भी शब्दरूपी ब्रह्म के बारे में अत्यधिक जानने के लिए मैं उत्कंठित हूँ और उसकी सेवा में लगा हुआ हूँ। इस आस में कि शायद एक दिन उस शब्दरूपी ब्रह्म की कृपा मुझ पर हो जाए।

ज मेरे दोनों बच्चे प्रगति (5वीं कक्षा) और प्रभात (2सरी कक्षा) आई.आई.टी.कैंपस में ही पढ़ते हैं। मेरी जीवन-संगिनी श्रीमती बिन्दु, मुम्बई में रहते हुए भी पति को परमेश्वर माननेवाली हैं। सब मिलाजुलाकर आप सब की कृपा से जीवन बहुत ही आनन्द में कट रहा है। मेरे दादाजी भी ठंडी में मेरे पास ही आ जाते हैं। आज मैं अपने पिताजी के लिए भी एक संस्कारी और आज्ञापालक पुत्र हूँ।

अब थोड़ा अपनी असलियत पर उतर आता हूँ न चाहते हुए भी- [ अगली कड़ी में जारी ]

12 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

sahi bah rahi hai Prabhakar ji ki katha. Jari rahiye, padh rahe hain jigyasa liye.

रंजू भाटिया said...

बहने सभी प्यारी होती हैं :) ..आगे के लिखे का इन्तजार है

दिनेशराय द्विवेदी said...

अभी तक तो भूमिका थी। अब असली खेल होगा।

अजित वडनेरकर said...

प्रभाकरजी, साथियों को यह जानकर कितना बुरा लगेगा कि इस भूमिका के फौरन बाद ही अंत आ जाने वाला है :)
समझदार को इशारा काफी होता है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मेरे कई सारे शोध-प्रपत्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भी प्रस्तुत हो चुके हैं।-- Badhaai !
Achchaa laga -- Parivaar ke sabhee ko Namaskar -
- Lavanya

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आज भी शब्दरूपी ब्रह्म के बारे में अत्यधिक जानने के लिए मैं उत्कंठित हूँ और उसकी सेवा में लगा हुआ हूँ। इस आस में कि शायद एक दिन उस शब्दरूपी ब्रह्म की कृपा मुझ पर हो जाए।
==============================================
शब्द ब्रह्म में निष्णात साधक
परब्रह्म को साध लेता है....
आप सही दिशा में चल रहे हैं.
प्रौद्योगिकी संस्थान में रहकर
हिन्दी की सेवा करना बड़ी बात है.
आपको बधाई.......और अजित जी,
इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए पुनः आभार.
============================
डा.चन्द्रकुमार जैन

राज भाटिय़ा said...

आप के लेख को दो तीन बार पढा बस मन्त्र सा कर दिया, बहुत ही खुब सुरत, मेहनत रगं तो लाये गी ही ना, अगली कडी का इन्तजार

Anil Pusadkar said...

sach mumbai maiya hi hai.usne sare desh se aane walon ko apna bachha hi mana,magar afsos hai ki aaj uske bacche aapas me jhagad rahe hain.aise me aapko mumbai ko maiya kehne ke liye yebadha

Ghost Buster said...

प्रभाकर जी का लिखने का अंदाज अलग है. अच्छा लगा पढ़कर. आशा है वे अजित जी का इशारा समझ गए होंगे. अभी उनकी कई कड़ियाँ पढ़ने को मिलेंगी, ऐसी आशा है.

PD said...

मुझे अपनी दीदी की याद दिला दी आपने..

Abhishek Ojha said...

आप आज्ञाकारी और अच्छे आदमी है ये तो हम जानते ही हैं... अब असलियात आ जाय तो थोड़ा और मज़ा आए :-)

Anita kumar said...

अगली कड़ी का इंतजार है

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin