मन्दिर शब्द का निर्माण हुआ है मंद धातु से। संस्कृत की मंद धातु की व्यापक अर्थवत्ता है। मूलतः मंद में जड़ता का भाव है। मंद यानी कुंद बुद्धि, जड़मति, धीमा, स्थिर आदि। मन्द का प्रयोग आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू व्यक्तियों के लिए भी किया जाता है। मन्द एक विशेषण है जिसमें सुस्ती, जड़ता, ढिलाई, धीमापन, मूर्खता जैसे भाव हैं। इसके साथ ही मन्द में नशेड़ी, बीमार, आलसी, दुर्बल, कमजोर या शिथिल की अर्थवत्ता भी है। ईश्वर की महिमा के अनुरूप ही मन्दिर भी महिमा वाला शब्द है। ऐसे में इन तमाम विशेषणों की मन्दिर से रिश्तेदारी कुछ अटपटी लगती है। गौर करें मन्द में निहित जड़ता के भाव पर। जड़ता का यही भाव मन्द् से बने मन्दर में प्रमुखता से उभर रहा है जिसमें पर्वत का भाव है। पौराणिक काल के एक पर्वत को मन्दारगिरि भी कहा गया है। मन्द से मन्दार यानी पर्वत बनने के पीछे वही प्रणाली काम कर रही है जिसने अचल शब्द में पर्वत की अर्थवत्ता स्थापित की। संस्कृत-हिन्दी में अचल का अर्थ पर्वत होता है। अ+चल् यानी जो गति न करे, स्थिर रहे। पर्वत से ज्यादा जड़ और क्या हो सकता है? इसी जड़ता के भाव से जन्मा है मन्द से मन्दार यानी पर्वत। जो जड़ है, अचल है। इस तरह मन्दार यानी पर्वत पर बने आवास को कहा गया मन्दर या मन्दिर जिसमें मानव आवास का ही भाव था। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने पर्वतो की उपत्यकाओं में आश्रय तलाशा। शुरुआती दौर में मानव पहाड़ी कंदराओं में ही निवास करता था। पौराणिक मनीषा भी यही कहती रही है कि पर्वतों में ही देवी-देवताओं का वास रहता है। दुर्ग का अर्थ पर्वत को अचल कहते हैं यानी जो चल न सके। यही भाव मन्दार में है। यानी जो मन्द हो, जड़ हो, वही है मन्दार यानी पहाड़, आलय, निवास आदि। |
आज चाहे गढ़ी या किला होता है पर असल में दुर्ग का अर्थ है पहाड़ यानी जहां जाना दुर्गम हो। जहां चलना कठिन हो। देवी का नाम दुर्गा इसीलिए पड़ा क्योंकि वे पर्वतवासिनी हैं। शिव, विष्णु के धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ पहाड़ों पर ही हैं। शिव का विलक्षण धाम कैलाश मानसरोवर अपनी ऊंचाई के लिए जगप्रसिद्ध है। किले के अर्थ में कोट शब्द भी बहुप्रचलित है, किन्तु मूल रूप से कोट का अर्थ भी पहाड़ ही होता है जो कूट धातु से बना है। चित्रकूट से आशय पर्वत का ही है। मन्द का एक अर्थ हाथी की तरह विशाल, यम अथवा शनिग्रह भी है। स्पष्ट है कि मन्दार में सर्वप्रथम आश्रय का भाव है। मनुष्य की घुमक्कड़ी का महत्वपूर्ण पड़ाव था आवास बना कर रहना। आवास जड़ होता है। आवास नहीं चलते, मनुष्य चलता है। घर में आकर्षण होता है जिससे मनुष्य बंधा रहता है। तरक्की में हमेशा घर ही रुकावट बनाता है क्योंकि यह जड़ होता है और जड़ बनाता है। इसलिए लिए मन्द् (जड़)धातु से से बने मन्दार या मन्दिर में आवास का भाव है तो आश्चर्य कैसा? इसी क्रम में मन्दिरम् शब्द अस्तित्व में आया। प्रारम्भिक रुप में मन्दिर का अर्थ सामान्य आवास ही था। गिरि-कंदराओं में सुरक्षित आलयों का निर्माण करने की वजह से ही पर्वतीय आश्रयों को मन्दिर कहा गया। पहाड़ी आश्रयों के स्थान पर मनुष्य ने जब मैदानों, पठारों पर निवास आरम्भ किया तब पर्वतीय कंदराओं, आलयों को देवालयों के अर्थ में मन्दिर की पृथक अर्थवत्ता मिल गई। यू मन्दिर में आवास, भवन, शिविर, नगर, बस्ती का ही भाव प्रमुख है। संस्कृत में मंदिरा भी एक शब्द है जिसका अर्थ होता है घुड़साल यानी अश्वशाला। जाहिर है आलय या आश्रय का भाव तो है ही। दिलचस्प है कि मन्द का ही पूर्व रूप था मन्थ जिसमें धीमी हलचल या शिथिल क्रिया का भाव है। मन्थन यानी बिलौना की मूल धातु यही मन्थ है। गौर करें मन्थन में द्रव को आलोड़ित करने या धीरे-धीरे उसे घुमाने का भाव ही है। मन्थर भी इसी मूल से बना है जिसमें शिथिलता, धीमापना, रुकावट जैसे भाव हैं जो मन्द् से जुड़ते हैं। मन्थर की तरह मन्दर शब्द का अर्थ भी भी धीमा, सुस्त या विलंबित होता है। स्कूली जीवन में अलंकार पढ़ते वक्त रीतिकालीन कवि भूषण को पढ़ा था-ऊंचे घोर मन्दर में रहनवारी, अब ऊंचे घोर मन्दर में रहाति है। यहां विरोधाभास की बात कही जा रही है। एक स्थान पर ऊंचे घोर मन्दर का अभिप्राय ऊंची प्रशस्त अट्टालिका से है तो दूसरे स्थान पर ऊंचे घोर मन्दर से आशय पहाड़ी कंदरा से है। दोनो स्थानों के उल्लेख से भाग्य और दुर्भाग्य की ओर इशारा किया गया है। बहरहाल यह तो स्पष्ट है कि मन्दर पहाड़ भी है, मन्दिर भी है, कंदरा भी है। संस्कृत में मन्दार नाम एक वृक्ष का भी होता है जिसे चलती हिन्दी में आक या अकउआ कहते हैं। मदार का पेड़, मन्द से ही निकला है।
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14 कमेंट्स:
शब्द चर्चा पढ़ कर अच्छा लगा |
मंद पर पढ़ते हुए गांव के पेड़
मदार की याद आ गई | और
फिर शिव जी याद आये ---------
''मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय''
दिलचस्प लगा ...
धन्यवाद् ... ...
बहुत सुंदर विश्लेषण है। मंदिर को मकान और आवास के रूप में ही लिया जाता रहा है। यहाँ तक कि तुलसीदास जी की रामचरित मानस में भी मंदिर शब्द का अर्थ आवास से ही है न कि ईश्वर के निवास से। ईश्वर के निवास के रूप मे मंदिर का अर्थ तो बहुत नया प्रतीत होता है।
बढ़िया जानकारी...आभार!
जहाँ जड़ की पूजा और चेतन क उपेक्षा होगी तो वहाँ जड़ता ही व्याप्त होगी!
दिनेश भाई की बात सही है-
मंदिर मंदिर प्रति कर सोधा। देखे जँह तँह अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माही। अति विचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महि न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तँह भिन्न बनावा॥
(तुलसी रामायण, सुन्दर काण्ड)
जब हनुमान जी लंका में प्रवेश करते हैं तो वहाँ राक्षसों के बड़े-बड़े 'मन्दिरों' को देख कर दंग रह जाते हैं..रावण के भी मन्दिर में जाते हैं.. फिर पाते हैं कि एक उनके भगवान का भी मन्दिर है..
बहुत रोचक विश्लेषण -मंदिरा माने घुड़साल!हे मंदिरा बेदी !
मन्दरो का अचल अटल होना,
मन में फिर किस तरह खलल* होना ?
शब्द में भावः है निहित फिर भी,
आस्था का अदल-बदल होना!
मन में अब डर का वास क्योंकर हो?
भ्रांतियों का निवास क्योंकर हो,
ज्ञान का दर जो मन में खुल जाए,
आस्था का विनाश क्योंकर हो.
* खराबी, व्यावधान .
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने
आपका बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत सुंदर विश्लेषण है।
mandap se mandir tak kee yaatraa, rochak hai .shaayad aap bhavishy men akshar-akshar vishleshan karte hue beejaaksharon ke rahasya tak jaa pahunchenge . yadi swanim aur roopim kee drishti se shabdon kaa adhyayan kiyaa jaaye to 'indo-bharopeey' kaa myth bhee toot saktaa hai .
मन्दिर पर सुन्दरकाण्ड वाली चौपाई मुझे भी याद आ गई और उसका कारण भी। जानकारी के लिये धन्यवाद!
डोम और मंद दोनों से ही मंदिर का सम्बन्ध अद्भुत लगा. टिपण्णी में मानस की पंक्तियाँ भी जानकारी दे गयी. जै हो !
@मन्सूर अली हाशमी
आपकी काव्यात्मक टिप्पणियां बेमिसाल होती है। बहुत खूब कहा आपने-
मन में अब डर का वास क्योंकर हो?
भ्रांतियों का निवास क्योंकर हो,
ज्ञान का दर जो मन में खुल जाए,
आस्था का विनाश क्योंकर हो.
@ अरविन्द जी - बहुत रोचक विश्लेषण -मंदिरा माने घुड़साल!हे मंदिरा बेदी ! - हा हा हा!
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बहुत आनन्द आया। अधिक प्रसन्न न होइए मैं लेख से अधिक टिप्पणियों की बात कर रहा हूँ। ;) आप के लेखों से आनन्द आना तो स्थायी भाव हो गया है, कहना सुनना क्या करें।
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