पहले हप् ध्वनि की बात। भोजन करने में चबाने की क्रिया खास है। दाँत, जीभ और तालु की स्पर्शीय क्रियाओं से चप्-चप् ध्वनि निकलती है, हप् हप् नहीं। मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में हप् वाली प्रविष्टि में इसका कोई स्वतंत्र अर्थ न देते हुए इसे संस्कृत धातु ह्लप् का पाठान्तर (लैटिनः वेरिया-लैक्शिओ) बताई गई है। अर्थात मूल शब्द ह्रप् जिसका अर्थ है to speak जिसमें आवाज़ करना, उच्चार करना, बोलना आदि भाव हैं। स्पष्ट है कि मोनियर विलियम्स ने इसका रिश्ता भोजन करने की ध्वनि से नहीं जोड़ा हैं। शब्दसागर में हड़प को ध्वनिअनुकरण पर बना शब्द तो बताया है पर इसके मूल का उल्लेख नहीं है। वहीं शब्दसागर में हप का रिश्ता ध्वनिअनुकरण के आधार पर कोई वस्तु चट से मुँह में रख कर होठ बन्द करने की आवाज से जोड़ा है। जब हड़प का अर्थ निगला हुआ, पेट में डाला हुआ बताया जाता है तो इसकी मूल ध्वनि हप् बताने कोशकार कैसे भूल गए, यह समझ से परे है। हिन्दी में हप् करना, हप कर जाना जैसे मुहावरे भी हैं और मीठा मीठा हप, कड़वा कड़वा थू जैसी कहावत भी है जिसका अर्थ पसंदीदा वस्तु को अपने पास रख लेना। जॉन प्लैट्स प्राकृत के जिस हड़प्प से हड़प की तुलना का सुझाव देते हैं, उस हड़प्प का अर्थ उनकी प्रविष्टि में chest, cupboard दिया हुआ है। चेस्ट यानी सीना, छाती, वक्ष आदि। दरअसल चेस्ट एक प्रकोष्ठ होता है जहाँ दिल महफ़ूज़ रहता है। इसे हृदय-प्रकोष्ठ कहा जा सकता है। मगर यह हड़पने के मूल भाव से मेल नहीं खाता।
मेरे विचार में दो बातें हैं। जल्दी से कोई चीज़ मुँह में रखने की क्रिया में होठ बन्द करने की ध्वनि हप् है और यह वही है जिसका उल्लेख प्लैट्स भी करते हैं। मगर मोनियर विलियम्स मगर इसका रिश्ता होठों से तो क्या, खाने की क्रिया से भी नहीं जोड़ते। मेरे अपने विचार में हप् ध्वनिअनुकरणात्मक शब्द तो है, मगर भक्षण सम्बन्धी अर्थों से जोड़ने में इसका ध्वनिअनुकरणात्मक होना कम और लक्षणात्मक होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। किसी वस्तु को सीधे अपने मुँह में लपकने की कोशिश कर के देख लीजिए, हप् की ध्वनि नहीं निकलती। हप् में निश्वास की प्रक्रिया है, आश्वास की नहीं। अब अगर आप हप् का सायास उच्चार चाहते ही हैं तो वस्तु मुँह में जाने के बाद ही हप् उच्चार पाएँगे, अन्यथा नहीं। हाँ, बिना मुँह में कुछ डाले सिर्फ़ हवा में तैरती किसी काल्पनिक चीज़ को लपकने की कोशिश करें, सौ फ़ीसद साफ़ आवाज़ में हर बार हप् हप् का उच्चार सुनाई पड़ेगा। मेरा मानना है कि यह मानवेतर जीव-जंतुओं की भोजन करने की प्रक्रिया को देखते हुए उपजा लाक्षणिक शब्द है।
आदिकाल से मनुष्य ने मगरमच्छों, अजगरों, साँपों, सारसों, छिपकलियों, मेंढकों और नाना अन्य प्राणियों को इसी अंदाज़ में अन्य जंतुओं को चट-पट, झपाटे में अपना आहार बनाते देखा है। इस क्रिया की त्वरता, तीव्रता, शीघ्रता, विचित्रता, भीषणता और भयानकता को उसने वर्षों अनुभव किया है। इसके अनुकरण के प्रयास में यह हप् ध्वनि हाथ लगी है, अन्यथा न तो जानवर हप् की ध्वनि करते हैं और न ही मनुष्य। मेरे इस विचार की पुष्टि भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक कोश में रॉल्फ़ लिली टर्नर की प्रविष्टि से भी होती है। टर्नर हप् को हप्प लिखते हैं। हप का हप्प रूप भी प्रचलित है जैसे गप का गप्प। गल्प से जैसे गप्प बनता है वैसे ही ह्लप् से हप्प बनेगा। टर्नर ने हप्प का जो पहला आशय लिखा है- sudden movement, वो महत्वपूर्ण है। सडन मूवमेन्ट यानी अप्रत्याशित या आकस्मिक हरकत या क्रिया। टर्नर इसके बाद अन्य आर्य भाषाओं में इससे विकसित शब्दों के अर्थ बताते हैं जैसे कुमाऊँनी में हपकाउणो यानी भकोसना, नेपाली में हप्खानूँ यानी निगलना, हिन्दी मे हप यानी झपट्टा, हपकाना यानी भकोसना, हापर यानी पेटू. हपराना यानी चबर-चबर खाते रहना, मराठी में हप्का यानी झपाटेदार लहर, हपाटणे (अपटणे) यानी पछाड़ देना, झपाटे का विलोम, चित्त करना आदि। स्पष्ट है कि संस्कृत के मूल हप या हप्प का प्रमुख अर्थ टर्नर की निगाह में भी आकस्मिक हरकत ही है। आहार या भोजन की क्रिया के सम्बन्ध में भी आकस्मिकता इसके दायरे में आती है, न कि यह इसका प्रमुख अर्थ है। ध्यान देने की बात है कि हप्प या हप के सन्दर्भ में जीवभक्षियों की त्वरित क्रिया का अनुकरण मनुष्य ने करने का प्रयास किया तो हप् ध्वनि निकली। दरअसल यह किसी क्रिया का आदिम रीक्रिएशन जैसा था। नाटक का जन्म अनुकरण से ही हुआ है। यह जो हप् है, नाटकीय रूपान्तर ही है। ध्यान रहे, मोनियर विलियम्स लैटिन की टर्म वेरिया-लैक्शिओ यानी पाठान्तर का प्रयोग कर रहे हैं, न कि ह्रप् को ह्लप् का रूपान्तर या क्रमिक विकास बता रहे हैं। गौरतलब है कि प्राचीन ग्रन्थों के विभिन्न भाष्यों में पाठान्तर इसलिए होता रहा क्योंकि हस्तलिखित प्रतियाँ टीकाकार पण्डित खुद भी बनाते थे और पेशेवर नक़लनवीस भी। इसलिए किन्हीं अक्षरों को समझने में भूल-चूक भी होती थी और श्रुतलेखन के दौरान उच्चारणभेद नहीं हो पाता था। इसीलिए दो पाठान्तर मिलने से मोनियर विलियम्स ने यहाँ इसीलिए ह्रप या ह्लप से उत्पन्न हप का रिश्ता भोजन सम्बन्धी क्रिया से नहीं जोड़ते हुए सिर्फ़ उच्चार से जोड़ा है। यही सावधानी टर्नर ने भी बरती है और वे भी हप्प को सिर्फ़ त्वरित, शीघ्रतापूर्ण, आकस्मिक क्रिया ही मानते हैं।
हड़प शब्द का जन्मसूत्र हप् से नहीं है, यह स्पष्ट है। यह भी लगता है कि हप् से हड़प नहीं बल्कि हड़पने की क्रिया में जो व्यापक आशय हैं, उससे हप् में निहित भावार्थ और भी पुष्ट हुए और धीरे धीरे कोशकार बजाय हप् को हड़प से सम्बद्ध करने के, हड़प के हप् से व्युत्पन्न होने की सम्भावना जताने लगे। विभिन्न सन्दर्भों को टटोलने के बाद मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि हड़प के मूल में वही हृ धातु है जिसमें मुग्ध करना, आकृष्ट करना, लेना, अधीन करना, वशीभूत, कब्जा करना, दबोचना, चुराना, डाका डालना, छीन लेना, हथियाना, ले जाना, स्वामित्व जताना, मालिक बनना, इच्छा जताना, अधिकार जताना जैसे भाव हैं। टर्नर कोश से इसकी पुष्टि होती है। टर्नर बताते हैं कि भारोपीय वैदिक हृत् हड़प के मूल में है। हृत् की धातु हृ है। हृत् का पाली रूप हटा है, प्राकृत रूप हड़ा है। दर्दी ज़बान में यह हूढ़ो है। पश्चिमी पहलवी में इसका एक रूप हड़ है। टर्नर सम्भावना जताते हैं कि इसका आशय बाढ़ से हो सकता है। गौरतलब है कि बाढ़ में भी हड़पने की लीला है।
हृ से ही हर, हरण, हारना, हराना जैसे शब्द बने हैं जिनमें पराभव, खोना, गँवाना, अधीन होना-करना जैसे भाव हैं। माला के अर्थ में हार भी इसी मूल से बना है। हार में जो अनुशासन है वह एक सूत्रता का है। इस सूत्र के अधीन होने के लिए विभिन्न वस्तुओं को अपनी निजता खोनी पड़ती है। एक रूपाकार में होकर ही वे माला में पिरोए जा सकते हैं। हार में पिरोए जाने के बाद बहुत सी चीज़ें आसानी से इधर-उधर ले जाई जा सकती हैं।
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