Saturday, December 15, 2007

रमता जोगी , बहता पानी...[किस्सा-ए-यायावरी 2]

यायावर के साधु-सन्यासी के अर्थ में तीर्थ शब्द का उल्लेख सफर के पिछले पड़ाव में हुआ। शब्दकोशों में तीर्थ शब्द का अर्थ है घाट, नदी पार करने का स्थल । बाद में इसमें मंदिर ,धार्मिक-पवित्र कर्म करने के स्थल वाला भाव भी जुड़ता चला गया। इस संदर्भ में गौरतलब है कि प्रायः सभी प्राचीन सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं यही वजह है कि नदी पार करने के स्थान ही मनुश्यों के समागम , विश्राम का केन्द्र बने। दूर दूर से देशाटन करने निकले यायावरों का जमाव ऐसे ही घाटों पर होता जहां वे विश्राम करते । ये स्थान महत्ता प्राप्त करते चले गए। पौराणिक कथाओं में देवी-देवताओं के उल्लेख इन्हें प्रामाणिकता भले ही न देते हों मगर जनमानस मे तीर्थ के रूप में विश्वसनीय ज्ररूर बनाते हैं।

तीर्थ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की तृ धातु से हुई है जिसका मतलब हुआ बहना, तैरना, पार जाना, बढ़ना, आगे जाना आदि तृ से तरलता के अर्थ वाले कई शब्द बने हैं जैसे तरल, तरंग, तर(गीला) तरंगिणी (नदी) । तीर्थ बना है तीरम् से जिसमे नदी या सागर के तट या किनारे का भाव शामिल है। वर्णक्रम में ही आता है सो तृ की तरह धृ धातु का मतलब भी चलते रहना, थामना आदि हैं। धृ से ही बना है धारा जिसका अर्थ होता है नदी, जलरेखा, सरिता , बौछार आदि।
वर्णक्रम में ही आता है वर्ण। तीर की तर्ज पर ही नीर का मतलब भी होता है पानी, जलधारा। यह बना है नी धातु से जिसमें ले जाना, संचालन करना आदि भाव शामिल हैं। नेतृत्व, निर्देश, नयन आदि शब्द इनसे ही बने है क्योंकि इनमें सभी में ले जाने का भाव है। वर्णक्रम की अगली कड़ी मे आता है। इससे बने दीर में भी बहाव, किनारा, धारा का ही भाव है। फारसी में नदी के लिए एक शब्द है दर्या (हिन्दी रूप दरिया ) जो इसी दीर से बना है।

यूं ही चलत-फिरत नहीं

गति , बहाव और आगे बढ़ने की वृत्ति का बोध कराने वाले इन तमाम शब्दों की रिश्तेदारी अंततः तीर्थ से स्थापित होती है जिसका संबंध तीर यानी किनारा और नीर यानी पानी से है। जाहिर सी बात है कि कहावतें यूं ही नहीं बन जाती। रमता जोगी बहता पानी जैसी कहावत में यही बात कही गई है कि सन्यासी की चलत-फिरत नदी के बहाव जैसी है जिसे रोका नहीं जा सकता। पानी रुका तो निर्मल, पावन और शुद्ध नहीं रहेगा। इसी तरह जोगी के पैर थमे तो ज्ञानगंगा का स्रोत भी अवरुद्ध हो जाएगा।

आपकी चिट्ठी
पिछली पोस्ट मनमौजी जो ठहरा यायावर पर प्रत्यक्षा, अनूप शुक्ल ,बोधिसत्व, पर्यानाद, स्वप्नदर्शी , बालकिशन, प्रमोदसिंह और भाई अभय तिवारी की टिप्पणियां मिलीं। आप सबका आभार मेरे सफर में यायावरी के लिए। हम सफर हैं आप।
प्रत्यक्षा जी, आपने यायावर के संदर्भ में जादू की दुनिया की जिक्र किया। आपने शायद सफर की यह पोस्ट नहीं पढ़ी। जादू शब्द भी इसी या की उत्पत्ति है।
शुक्रिया आप सबका। ये पड़ाव कैसा रहा, ज़रूर बताएं । फिलहाल इसी घाट ( तीर्थ) पर रुकने का मन है। अगली कड़ी में कुछ और.....

9 कमेंट्स:

अनूप शुक्ल said...

शानदार यायावरी। आगे क्या है? दिखायें।

Sanjay Karere said...

एकदम सही, तमाम सभ्‍यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ. यह पड़ाव बहुत अच्‍छा चुना और बहुत ही रोचक साबित हुआ क्‍योंकि यायावर सचमुच एक जादुई शब्‍द है और आप जादूसुखन. वैसे मुझे पता है कि जादू फारसी का शब्‍द है... क्‍योंकि यहीं तो पढ़ा था कुछ समय पहले.

Pratyaksha said...

हमने तो सफरी झोला उठा लिया है और चल पड़े हैं । आँखों के सामने प्राचीन कबीलों का काफिला नदी के तट पर सुस्ताता दिखता है । ज़माने पहले पढ़ी सोश्यॉलजी अंथ्रोपॉलोजी दुबारा पढ़ने का मन करने लगा है ।
हाँ जादू वाली पोस्ट छूट गई लगता है । पढ़ती हूँ ।

मीनाक्षी said...

मन यायावर सा आपके शब्दों के सफर में यहाँ से वहाँ भटकता हुआ सुख ही नहीं ज्ञान भी पाता है.

बालकिशन said...

जानकारी को रोचक ढंग से परोसने के लिए धन्यवाद. आप वास्तव मे चिटठा जगत मे एक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है. आप को कोटी-कोटी साधुवाद.

Sanjeet Tripathi said...

अखबार में छपे शब्द जोड़-जोड़ कर और उससे पहले स्कूल में अक्षर ज्ञान लेकर पढ़ना सीखा। फ़िर किताबों की दुनिया ने अपनी ओर खींचा उसके बाद पत्रकारिता ने शब्दों का सफ़र शुरु करवाया। लेकिन इन सब के बीच अब जाकर आपके इस ब्लॉग के माध्यम से
उन्ही शब्दों की उत्पत्ति और व्यवहार की जानकारी मिल रही है जिन्हें हम अब तक लिखने-बोलने में धड़ल्ले से उपयोग करते आए हैं।

बचपन से स्थानीय देशबंधु अखबार पढ़ता-पढ़ता बड़ा हुआ, या यूं कहूं कि यही वह अखबार था जिसके अक्षर अक्षर जोड़-जोड़ कर शब्द और शब्द-शब्द जोड़कर वाक्य पढ़ना सीखा,इसमें मेहरोत्रा जी का हर इतवार को ऐसा ही एक कॉलम आता था जिसमें शब्दों कि उत्पत्ति-व्युत्पत्ति और व्यवहार के बारे में जानकारी दी जाती थी। पर तब उस कॉलम में उतनी रूचि नही हुआ करती थी,शायद उम्र का असर रहा हो तब।

लेकिन अब आपका यह शब्दों का सफर तो ऐसा लगता है कि इसे पढ़कर आनंदित होता हूं। इतनी जानकारी जो मिलती है।

जारी रहे शब्दों का सफर

Shastri JC Philip said...

शब्दों का यह सफर काफी उत्साहजनक है. भाषा से मेरा प्रेम हमेशा रहा है. अब उसके दिलचस्प पहलुओं पर नजर डालने का अवसर मिल रहा है. आभार !!

आपके सारे लेखों को छाप कर एवं सीडी पर सुरक्षित रखें क्योंकि कुछ साल के बाद इनको एक आधिकारिक एवं पठनीय संदर्भ ग्रंथ के रूप में सहेजा जा सकता है. ईश्वर करे कि ऐसा जरूर हो.

बोधिसत्व said...

जारी रहे यह सफर....

गांडीव said...

धार्मिक स्थलों को तीर्थ शायद इसलिए भी कहते हों कि यह एक तरह से तीर ही हैं जिनके पास लोग वैतरणी सुगमता से पार करने का लक्ष्य लेकर आते हैं।

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