खांचों में बंटी इस दुनिया में इन्सान के एक होने का तर्क गले उतारने के लिए समाजवादी तरीके से बात समझाई जाती है और अक्सर खून-पसीने का जिक्र किया जाता है। यानी खून सबका लाल होता है और पसीने में मेहनत ही चमकती नज़र आती है वगैरह वगैरह। भाषा विज्ञान के नज़रिये से भी यही साबित होता है कि हम सब एक हैं। पसीने के लिए अंग्रेजीके स्वेट और इसके हिन्दी पर्याय स्वेद की समानता पर गौर करें। दरअसल यह शब्द भी प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का है और भाषाविज्ञानियों ने इसकी मूल धातु sweid मानी है जो हिन्दी-संस्कृत के स्वेद के काफी करीब है। स्वेद की उत्पत्ति स्विद् धातु से हुई है। । यूरोपीय भाषाओं में इससे बने शब्दों की बानगी देखें मसलन स्पैनिश में यह sudore है तो जर्मन में schweib है। डच ज़बान में यह zweet है और लात्वियाई में sviedri के रूप में मौजूद है। तमाम यूरोपीय भाषाओं में इसी तरह के मिलते जुलते रूप मिलते है पसीने के अर्थ वाले शब्द के लिए ।
बात पसीने की
मोटे तौर पर तो पसीना शब्द इस कड़ी का हिस्सा नहीं लगता । बोलचाल की हिन्दी उर्दू में स्वेद के अर्थ में सर्वाधिक यही लफ्ज प्रचलित है। ज्यादा मेहनत करने के संदर्भ में पसीने-पसीने होना जैसा मुहावरा भी इससे ही निकला है। दिलचस्प बात ये कि पसीना भी संस्कृत के स्विद से ही निकला है। स्विद में प्र उपसर्ग लगने से प्रस्वेदः बना । इसके प्रस्विन्नः जैसे रूप भी बने जिसका मतलब हुआ बहुत ज्यादा पसीना। इससे ही बना पसीना।
डॉक्टर कहे तो स्वेटर पहनो
स्वेटर यानी सर्दियों का एक आम पहनावा। यह शब्द भी अंग्रेजी से हिन्दी में आया और आज गांवों से शहरों तक बेहद आमफहम है।
सर्दियां आते ही आज तो दुकानें गर्म कपड़ों से सज जाती हैं और घर के बक्सों से स्वेटर भी निकल आते है। यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि किसी जमाने में डाक्टर की सलाह के बाद स्वेटर पहना जाता था। जैसा कि नाम से पता चलता है स्वेटर अंग्रेजी के स्वेट शब्द से बना है । जाहिर है स्वेटर के मायने हुए पसीना लाने वाला। पहले लोगों को जाड़े का बुखार आने पर पसीना लाने के लिए डाक्टर एक खास किस्म के ऊनी वस्त्र को पहनने की सलाह देते थे। तब इसे कमीज के अंदर पहना जाता था। बाद में जब सर्दियों से बचाव के लिए कमीज से ऊपर पहने जाने वाले पहनावे भी चलन में आए तो भी उनके लिए स्वेटर शब्द ही चलता रहा। सर्दियों में ही पुलोवर भी पहना जाता है। इस पर गौर करें तो पता चलता है इसका यह नाम गले की तरफ से खीच कर पहनने से (पुल-ओवर) पड़ा होगा।
यह पड़ाव कैसा लगा , ज़रूर बताएं।
आपकी चिट्ठी
गंदुमी रंगत और ज़ायके की बात पर ज्ञानदत्त पाण्डेय, संजीत त्रिपाठी, बालकिशन और सचिन लुधियानवी की टिप्पणियां मिलीं। आपका आभार। सचिन , आपको गो के बारे में जो याद आ रहा है वह सही है। सही संदर्भों के साथ यह सफर के अगले किसी पड़ाव में आप देखेंगे।
किस्सा ए यायावरी की आखिरी कड़ी -संत की पतलून को संजय, ज्ञानदत्त पाण्डेय, शास्त्री जेसी फिलिप, रजनी भार्गव, संजीत त्रिपाठी और दिनेश राय द्विवेदी ने पसंद किया । आपका आभार सहयात्री बने रहने के लिए। ज्ञान जी, पतलून का पायजामें से रिश्ता है , यही तो पिछली कड़ी में हमने बताया था। संजय जी, ट्राऊज़र के बारे में इसीलिए नहीं लिखा क्योंकि आलेख काफी लंबा हो गया था। इसकी उत्पत्ति स्काटिश भाषा से हुई है ।
Sunday, December 23, 2007
पसीने की माया और स्वेटर का बुखार
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:37 AM
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7 कमेंट्स:
असल में भाषाई संदर्भों में मिलने वाली समानता इस बात का प्रतीक ही है कि मानव जाति का उद्गम एक ही था. कालांतर में भेद पैदा हुए. इसलिए आज भी जब हम इतिहास को टटोलते हैं तो पता चल जाता है कि कहीं न कहीं सब आपस में जुड़ते हैं. ट्राउजर के बारे में कुछ रिसर्च खुद ही कर डाली थी लेकिन आपने भी बताया, इसके लिए शुक्रिया अजित भाई. स्वेटर पहने डॉगी की तस्वीरें भी अच्छी हैं.
जाड़े के मौसम में स्वेटर की बात अच्छी है।
बड़ी तेजी से शब्दों की रंगत और रिश्तेदारी बदलती है! भरतलाल स्वेटर को सूटर बोलता है। स्वेटर से सूटर और सूटर से स्कूटर न होने लगे! तब तक स्कूटर के दाम इतने हो जायें कि खरीदने में पसीना आये तो यह शब्द रिश्तेदारी भी स्वेद से जुड़ जायेगी! :-)
स्वेटर के बारे में बढ़िया जानकारी...बहुत खूब.
सर्दी के मौसम में पसीने की बात। बढ़िया है। शब्दों की आपकी साधना का स्थायी महत्व रहेगा। बधाई।
दूर की कौड़ी इत्ते पास ले आते हैं जी आप तो. आज दैनिक भास्कर में आपका पुलाव खाया।
ओहो... दिन भर में कायाकल्प ही कर डाला. नया अवतार बहुत सुंदर लग रहा है. :)
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