पिछली कड़ी- समाजवाद के चक्कर में सरदार
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और सौवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
इ मर्जेंसी ने रंग दिखाया। सरकारी सूची के सारे ‘उत्पाती’ नेता जेल के अंदर कर दिए गए थे। देश भर में शांति छा गई। सरदार समझता था कि काँग्रेस (इ) को ही क्रांतिकारी संगठन में बदला जा सकता है। उसे अच्छा लगा, लगा कि अब जल्दी ही देश की फिजाँ बदलने लगेगी। लेकिन वह अभी इसे परखना भी चाहता था। नई-नई शादी हुई थी। 20-18 की उमर के पति-पत्नी जो केवल सप्ताह भर साथ रहे थे। होना तो हनीमून चाहिए था। पर वह अब तक सरदार के लिए पढ़ा सुना ही था। किसी को जाते नहीं देखा था। अब दोनों ख़तों से जुड़ गए थे। सरदार को रोज ख़त का इंतजार रहता। पर यह संभव नहीं था। हर दूसरे दिन जरूर आ जाता था। पढ़ कर तुरंत जवाब लिखा जाता। देव सो चुके थे, उन के उठने के पहले शोभा का आना संभव नहीं था। तब तक तो छह माह गुजर चुके होते। मिलने का जुगाड़ तलाशा जाने लगा। सरदार सगाई के दो साल पहले मामा के यहाँ गया था। ससुराल नगर अकलेरा रास्ते में पड़ता था। घर पर कहा गया कि अब तो शादी हो चुकी है। इसलिए इस साल वह मामा के यहाँ मनोहरथाना जरूर जाएगा और एकाध दिन ससुराल रुकने में भी कोई हर्ज़ न होगा। इजाजत मिल गई। शायद अम्माँ-पिताजी उस के मनोभाव समझे हों।
बाराँ से रेल से सालपुरा स्टेशन तक और वहाँ से बस पकड़ कर मनोहरथाना जाया जा जाता था, बीच में अकलेरा पड़ता। रेल का सफर पूरा हुआ और बस में बैठे। बस में अकलेरा के एक परिचित भी मिले जो बाराँ के दामाद थे और पत्नी को ले कर लौट रहे थे। अकलेरा से कोई चार किलोमीटर पहले बस रुक गई। बरसात हो गई थी। पुलिया पर इतना पानी था कि बस आगे नहीं जा सकती थी। अब एक ही राह थी। नाव में बैठो और नदी पार करो, फिर वहाँ से पैदल यात्रा। बरसाती नदी में चढ़ाव-उतार होता है। चढ़ाव में लोग नाव में नहीं बैठते। नाव पूरी भरे बिना चलती भी नहीं। नदी मौसम में पहली बार चढ़ी थी। बरसात अधिक नहीं थी। वापस लौटने के स्थान पर नदी पार करना उचित समझा। सरदार अपना छोटा सा सूटकेस हाथ में लटकाए नाव में बैठ गया। नदी पार की तो पता लगा जहाँ नाव पार लगी है वहाँ से सड़क अभी आधा किलोमीटर दूर है। बरसात में गीली हुई मिट्टी में चलते हुए सड़क तक पहुँचे। रास्ते में हैंडल ने एक तरफ से सूटकेस का साथ छोड़ दिया। अब उसे लटकाया नहीं जा सकता था और सूटकेस को काँख में दबा कर चलने के सिवा कोई चारा न था।
सड़क आ गई, सरदार औरों के साथ सूटकेस बगल में दबाए सड़क पर सब के साथ पैदल चलने लगा। आध मील चलने पर पीछे से मोटर सायकिल आने की आवाज आई। सब किनारे हट गए। मोटर सायकिल निकल गई। पीछे बैठे सज्जन की पीठ दिखी। सरदार को लगा वे उस के ससुर हो सकते हैं। साथ चलने वाले ने कहा –डाक्टर साहब ही थे, उन के दोस्त प्रधान जी मोटर सायकिल चला रहे थे। अब उस ने सोचा कहीँ ससुर जी ने उसे देखा तो नहीं? काँख में सूटकेस दबाए जरूर वह उज्बक लगा होगा¡ देख भी लिया होगा तो पहचाना थोड़े ही होगा¡ तभी मोटर सायकिल धीमी हुई, वापस मुड़ी और ठीक उस के पास आ कर रुक गई। ससुर जी ने सरदार को मोटर सायकिल पर बीच में बैठाया, सूटकेस खुद पकड़ा। मोटर सायकिल बस स्टेंड जा कर रुकी। वहाँ एक रेस्टोरेंट में ले जा कर बिठाया।
फिर कुछ नमकीन, कुछ मीठा आ गया, उस के बाद चाय। इस बीच डाक्टर ससुर जी कुछ देर को बाहर गए। शायद घर खबर भेजने, कि जमाई साहब पधारे हैं। पहले से तो उन्हें कोई खबर थी नहीं। शोभा को पता था, पर आने की तारीख उसे भी पक्की नहीं थी।
आध घंटे में घर पहुँचे। साले मिले, सालाहेली मिली, सालियाँ और सास मिली, पर वही नहीं मिली, जिस का इंतजार था। खैर¡ दो घंटे बाद जब सब लोग मिल चुके और सरदार कमरे में अकेला रह गया, तो वे नमूदार हुईं। दूर बैठ कर बात करती रहीं जैसे पहली बार मिली हों। सरदार पास गया तो, ताना मिला -दूर बैठो, यह मेरा मायका है, कोई आ गया तो? सरदार ने अपनी योजना बताई -कल मनोहरथाना चलोगी मेरे साथ? वहाँ जाने में देव सोए रहने की कोई बाधा नहीं है। वहाँ सप्ताह भर साथ रहेंगे। उत्तर मिला -बाबूजी से पूछो, वह कहेंगे तो चले जाएँगे। वह चली गई। शाम को हिम्मत जुटा कर बाबूजी से पूछा गया। वे क्या कहते? अपने जमाई की पहली ख्वाहिश को कैसे न पूरी करते? इजाजत मिल गई। दूसरा दिन ढलते-ढलते दोनों मनोहरथाना मामाजी के घर थे।
मामाजी, मामीजी और नानाजी तीनों बहुत खुश थे। उन के घर बेटे-बहू पहुँचे थे, बहू को लाड़ लड़ाने का अवसर मिला था। मामा जी ने एक कमरा अलग उन्हें रहने को दे दिया था। खुद पढ़ने लिखने के शौकीन और बहुत मजाहिया थे। किताबों का भंडार था। दिन बड़े मौज से गुजरता। मामाजी को परदा भी पसंद न था। सुबह-शाम पाँचों एक साथ भोजन पर बैठते। मामाजी चुहल करते रहते। अक्सर मामीजी उन का निशाना होतीं। वे मजाक समझती ही नहीं थीं, या देर से समझती थीं। उन के मजाक पर सब हँसते, तो वे भी हँस पड़तीं। उन्हें बहुत बाद में पता लगता कि मजाक का निशाना वे ही थीं। मामा जी शास्त्रीय संगीत के शौकिया लेकिन श्रेष्ठ गायक थे। रात के भोजन के बाद सरदार को ले पंचायत घर जाते। वहाँ संगीत की महफिल जमती। सरदार को गाना तो कभी न आया, पर शास्त्रीय संगीत सुनने और समझने का शऊर आ गया था, वह भी आनंद लेता। स्वनियोजित हनीमून चल पड़ा था।
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18 कमेंट्स:
बड़ा मजेदार रहा यह तो..अब अगला और मजेदार होना चाहिये अगर मनोहरथाना के दर्शनीय स्थल सरदार की नजर से दिखाये जायें उस वक्त की. :)
सरदार की युक्ति काम कर गई। काम न करती तो प्रशात प्रियदर्शी को चैन कैसे पड़ता। उसके बहाने से हमें एक शानदार तस्वीर देखने को मिली।
आज की कड़ी में हमें अकलेरा और मनोहरथाना का जिक्र बहुत रुचिकर लगा। ये दोनों कस्बे मप्र के राजगढ़ जिला मुख्यालय से साठ-सत्तर किमी के दायरे में ही हैं जहां हम भी छोटे से बड़े हुए।
बहुत बढ़िया।
चलो हम तो sardaar के लिए खुश हैं की उन्हें अपने साथी का साथ मिला वह भी स्नेहिल वातावरण में. बढिया जा रही है कहानी.
स्वनियोजन अक्सर काम कर ही जाता है।
रोचक संस्मरण्।
प्रशांत से बच कर रहना पड़ेगा मुझे भी, क्या पता किस बात की धमकी दे दे? :-)
अत्यन्त रोचक । यह कड़ी जारी रहे । आभार ।
नदी पार तो तुलसीदास ने भी की थी . वैसे हमारे यहाँ इस तरह की चपलता को तुलसीदास से ही जोड़ा जाता है .
पिताजी की पीढ़ी का रोमांस पढ़कर बड़ा रोमांच हो आता है,,,,,,अगली कड़ी की प्रतीक्षा है...
साधु साधु
बहुत भावप्रवण -जैसे कोई अपनी नहीं समवयी समष्टि की कथा कह रहा हो -अच्छा हुआ संस्मरण कार नदी पार कर जाने के बाद भी तुलसी न हुआ नहीं तो यहाँ कोई और ही यह कथा सुनाता !
रोचक संस्मरण है।
बधाई!
बहुत खूब!
मनोहरथाना का जिक्र हमें भी अच्छा लगा।
:)
जुगाड़ जमाना इसे ही कहते हैं शायद कि किस तरह से आखिर आपने मिलने और साथ रहने का जुगाड़ बिठा ही लिया।
जय जुगाड़ या दूसरे शब्दों में कहें तो जहां चाह वहां राह।
आपने लेखन में रोचकता ऐसी बनाए रखी है कि पाठक स्वमेव ही अगली किश्त का इंतजार करता है।
प्रतीक्षारत
इतनी भावप्रवणता से उकेरे गये यह स्मरण चित्र हमें भी रोमांचित करते हैं । द्विवेदी जी की लेखनी के मुरीद हैं हम । आभार ।
अरे वाह ! यह कड़ी तो एक रोचक उपन्यास की शक्ल में उभरती दीख रही है | सारे उद्-घाटित हो जाएँ तो संकलन कर छपवा भी दीजियेगा |
वाह ! अंततः उक्ति काम कर ही गयी. ये वकालत आप ही करते हैं न, उसकी पढाई कब की :)
तस्वीर तो क्लासिक है.
सालाहेली -- Heard this word first time !!
बेहद मनोरंजक तथा आत्मीयता से भरा विवरण है तथा अजित भाई को "बकलमखुद " के लिए भी बहुत बहुत बधाईयाँ
- लावण्या
गज़ब का संस्मरण. मज़ा आ गया.
Being in love is, perhaps, the most fascinating aspect anyone can experience. Nice हिंदी लव स्टोरी Ever.
Thank You.
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