पिछली कड़ी- 1.सरदार और हनीमून की युक्ति 2.शतक पूरा....जारी है बकलमखुद
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और एक सौ एक वे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
सप्ताह कैसे निकला दोनों को पता ही नहीं लगा। यहाँ वे कुछ और नजदीक आए। फिर सरदार शोभा को अपने ससुराल छोड़ कर वापस बाराँ लौट गया। अब फिर से मिलने के लिए कम से कम चार माह तो प्रतीक्षा करनी ही थी। बाराँ पहुँचते ही जीवन के प्रश्नों से जूझने का वक्त आ गया था। बी.एससी. उत्तीर्ण कर ली गई थी। आगे पढ़ने के लिए एम.एससी. रसायन करने की चाह थी। पर उस में प्रवेशार्थियों की लम्बी लाइन थी, कोटा में प्रवेश संभव नहीं था। जन्तु विज्ञान और वनस्पति विज्ञान से मन उचट चुका था। कोटा से बाहर पढ़ाने को पिताजी सहमत नहीं थे। उन पर तीन और भाइयों और दो बहनों की जिम्मेदारी भी थी, यह सरदार भी समझने लगा था। शादी के बाद उसे घर से जेब खर्च लेने में भी संकोच होने लगा था। प्रशासनिक पदों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं का मार्ग था, लेकिन उस के लिए बैठे रहना मूर्खता के सिवा कुछ न था। कोटा कॉलेज में एलएल.बी मे एडमीशन ले लिया गया। रोज सुबह दस बजे बाराँ से ट्रेन पकड़ कोटा पहुँचना, शाम छह से नौ बजे तक कक्षाएँ पढ़ना और रात को कोटा-बाराँ शटल से वापस लौटना। कभी रात कोटा रुकना होता तो मौसी या मामा जी की बेटी मनोरमा जीजी के यहाँ रुक जाना। कॉलेज चलने के दिनों यही क्रम बन चला था। इस बीच अखबारों के लिए समाचार जुटाना और भेजने का सिलसिला जारी था। जेब खर्च जितना जुगाड़ इस से हो लेता था।
बैठकों का दौर
टेलीफोन एक्सचेंज के नीचे ही ब्रुक बांड का डिपो था। सेल्समेन ओझा जी भले आदमी थे। शिवराम ने ही उन से परिचय करवाया था। वहाँ बैठकें होने लगी थीं। बैठक से ही एंगेल्स की पुस्तक परिवार, निजि संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति पढने को मिली। यह नृवंशविज्ञानी मोर्गन के शोध ग्रंथ ‘परिवार’ की एक समीक्षा थी। इस पुस्तक ने मेंडल और डार्विन को पढ़ने के बाद विकसित हुई समझ को आगे बढ़ाया था। समझ आने लगा था कि समाज का विकास कैसे हुआ है? समाज ने एक एक कर उन्नत अवस्थाएँ हासिल की हैं, जिन में हर बार मानव का जीवन पहले की अपेक्षा कम कष्टकारी हुआ है। यह भी कि समाज का सतत विकसित होता है और होता रहेगा, वह आगे की मंजिल में भी प्रवेश करेगा जो मनुष्य के लिए आज से कम कष्टकारी होगी। इतिहासकारों और राजनीति विज्ञानियों की पुस्तकों ने इस समझ को मजबूत किया। समाजवाद एक लोकप्रिय शब्द के रूप में सामने आया। लेकिन उस की अनेक व्याख्याएँ थीं। सरदार सब को समझने में जुट गया। धीरे-धीरे उस का यह भ्रम टूटने लगा कि भारत में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस एक जनपक्षधर दल के रूप में परिवर्तित हो सकती है। वह था जान गया था कि यह असंभव है। हिटलर से ले कर इंदिरा गांधी तक ने जनता पर तानाशाही लादने के लिए समाजवाद के छाते का आश्रय लिया था। इमर्जेंसी और संजय गाँधी के नाटक ने इसे और स्पष्ट कर दिया था। यह छाता इतना बदनाम हो चुका था कि बहुत से लोग उसे देखना भी पसंद नहीं करते थे। तभी वैज्ञानिक-समाजवाद के बारे में जाना। यह थी तो परिकल्पना ही, लेकिन ठोस तथ्यों और समाज विकास के अब तक जाने परखे नियमों पर आधारित। इस ने यह विश्वास पैदा किया कि समाज की अगली अवश्यंभावी अवस्था समाजवाद है, समाज को उस में जाना ही है। उसे रोका तो जा सकता है लेकिन टाला नहीं जा सकता। हो सकता है, समाजवाद शब्द के बदनाम हो जाने के कारण उसे कोई और नाम दे दिया जाए।
कांग्रेस को चुनौती
इमर्जेंसी में नगरपालिकाओं के चुनाव हुए। बाराँ में काँग्रेस के भीतर के नौजवानों ने मांग उठाई कि कम से कम एक तिहाई पदों के उम्मीदवार नौजवान हों। युवा काँग्रेस के ब्लाक अध्यक्ष होने के नाते नेतृत्व सरदार के पास रहा। आश्वासन भी मिले, लेकिन जब उम्मीदवारों की घोषणा हुई तो उन में नौजवान एक भी न था। सारे नौजवान एकत्र हुए। बैठक में नगर के कुछ अमीर बुजुर्ग भी शामिल थे जिन की टिकट याचिका अस्वीकृत हो गई थी। निर्णय के अनुसार सब स्थानों पर काँग्रेस उम्मीदवारों के समानांतर नौजवानों की उम्मीदवारी दाखिल कर दी गई। काँग्रेस के सिवा कोई दूसरा दल चुनाव मैदान में नहीं था। प्रदेश काँग्रेस में हड़कंप मच गया। इमर्जेंसी में पार्टी के अंदर से ही विद्रोह कैसे? राजधानी से मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी बात करने के लिए अकुलाते रहे। सरदार नगर में ही अज्ञातवासी हो कर विद्रोही उम्मीदवारों में डटे रहने की हिम्मत जुटाता रहा। सरकारी कारिंदे मुख्यमंत्री से उस की बात कराने को तलाश करते रहे। हर उम्मीदवार को धमकाया गया कि उसे पार्टी से ही न निकाला जाएगा मीसा में और बंद कर दिया जाएगा। दूसरे दिन तक पाँच के अलावा शेष उम्मीदवार डर गए और उम्मीदवारी से नाम वापस ले लिया। नाम वापसी तक एक के सिवाय शेष भी धराशाई हो गए। केवल एक विद्रोही मैदान में डटा रहा। आधे से अधिक वार्डों में कांग्रेसी निर्विरोध चुन लिए गए। शेष में भी नाम को संघर्ष था। एक में जहाँ युवा विद्रोही टिका हुआ था वहीं संघर्ष था। काँग्रेस ने पूरे शहर का जोर वहीं लगा दिया। फिर भी विद्रोही उम्मीदवार जीत गया। शायद यही जनता का इमर्जेंसी का विरोध व्यक्त करने का तरीका रहा हो। इस घटना ने सरदार का काँग्रेस से मोह भंग कर दिया था। वह जानने में जुट गया कि देश के करोडों गरीब लोगों का भाग्य बदलने का मार्ग क्या हो सकता है? शिवराम के सहयोग से दिनकर साहित्य समिति की बैठकें नियमित हो गई थीं। पहले से बन रही पत्रिका प्रकाशन की योजना शिवराम के आने से साकार हुई, और ‘अभिव्यक्ति का प्रकाशन आरंभ हुआ।
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17 कमेंट्स:
जब परिवर्तन की हवा बहती है तो ऐसे ही वातावरण का सृजन होता है ।
बेहतर रहा सफर । आभार ।
मोह भंग स्वभाविक था..अच्छा लगा रहा है सरदार को और ज्यादा जानना!!
राजनीती की अगर आप इमानदारी से समीक्षा करे तो मोहभंग हो ही जाएगा . लेकिन जब राजनीती रोज़ी रोटी से जुड़ जाती है तो .... तो ही है .
एक धारावाहिक जैसे आजकल बालिका वधु का क्रेज है वैसे ही वकील साहिब के बकलमखुद का
महत्वपूर्ण प्रसंग हैं यह ! इन्हें जानना दिलचस्प है । आभार ।
सरदार का संस्मरण तो कुछ अपनी जीवनी जैसा ही लग रहा है।
बहुत बधाई!
पिछली कड़ी में समीर लाल जी ने मनोहरथाना को चित्रों सहित जानना चाहा था। पर सरदार कथा में शायद उस का स्थान नहीं है। 'नितिन बागला' को उस का उल्लेख अच्छा लगता है, क्यो न लगे उन का जन्म स्थान जो है। वैसे उन्हें वहाँ के बारे में बताना चाहिए। हालांकि सरदार कथा में जिस मनोहरथाना का उल्लेख है उस में और नितिन के जन्मस्थान वाले मनोहरथाना में बहुत अंतर आ चुकाहै। मुझे तो इस का भी अफसोस रहा कि मैं उन के विवाह में वहाँ न जा सका। मनोहरथाना पर एक पोस्ट अलग से लिखी जा सकती है जो उन दिनों हनीमून के लिए आदर्श स्थान था, किसी भी मौसम में। और खास बात यह कि सरदार नाम भी मनोहरथाना की देन है। लावण्या दीदी ने 'सालाहेली' शब्द पहली बार पढ़ा-सुना है। इसे स्थानीय बोली में साळाहेळी बोला जाता है जिस का अर्थ है छोटे साले की पत्नी,वही बड़े साले की हो तो बड़सास कहलाती है।
-सरदार
बैठक से ही एंगेल्स की पुस्तक परिवार, निजि संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति पढने को मिली। यह नृवंशविज्ञानी मोर्गन के शोध ग्रंथ ‘परिवार’ की एक समीक्षा थी। इस पुस्तक ने मेंडल और डार्विन को पढ़ने के बाद विकसित हुई समझ को आगे बढ़ाया था। समझ आने लगा था कि समाज का विकास कैसे हुआ है?
और यही से शुरू हुआ आज के दिनेश (बड़े ) भाई का बनना
!
और हाँ उपर्युक्त कारणों से ही कांग्रेस रसातल तक जा पहुँची थी
बहुत रोचक लग रहा है शन:शन: सरदार जी की प्रतिभा के दर्शन हो रहे हं। हम लोग जो बाद मे बलागिँग मे आये उनके लिये ये बहुत उपयोगी है।बौत बहुत धन्यवाद्
coffee house...
...peepal ka ped !
aur wo baithkoon ka daur !!
सुंदर संस्मरण, सरदार जी से मिलवाने के लिये शुर्किया.
संस्मरण सामाजिक हो रहा/गया ...
जानना दिलचस्प है
अच्छा लगा यह सब जानकर.. हैपी ब्लॉगिंग
तब से अब की राजनीती में भी कितना परिवर्तन आ गया है .पहले कमसे कम ५० फीसदी राजनेता पढ़े लिखे होते थे .अब दस फीसदी...
hmm, safar rahe, sahyatri bana hua hu.
आपकी प्रभावपूर्ण शैली हर विषय को महत्वपूर्ण बना देती है।
Think Scientific Act Scientific
तो यूँ हुई वकालत की पढाई शुरू .
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