Tuesday, September 15, 2009

सलाम बॉम्बे…टाटा मुंबई [बकलमखुद-104]

पिछली कड़ी- 1.पहुंचना सरदार का मायानगरी में [बकलमखुद-102]  

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और 103वे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

होलडॉल और अटैची हाथों में लटकाए सरदार अंधेरी स्टेशन से बाहर निकला तो सुबह के साढ़े चार बजे थे। मुम्बई में जितेन्द्र मित्तल जी के अलावा कोई और परिचित तो था नहीं उन से टेलीफोन पर ही संपर्क करना था। बाहर एक रेस्तराँ और पान की दुकान खुली थी। रेस्तराँ में टेलीफोन दिखा, पर वह खराब निकला। दूसरा टेलीफोन कोई एक फर्लांग दूर खुली होटल था। होलडोल और अटैची समस्या बने। मुम्बई के बारे में सुना था ‘किसी का भरोसा न करना; फिर सोचा मुम्बई के अंधेरी स्टेशन के बाहर पक्की दुकान में पान की दुकान खोले आदमी धोखा नहीं कर सकता, उस का भरोसा किया जा सकता है। पान वाले के यहाँ पान खा कर, उस की निगरानी में सामान रख, टेलीफोन करने गया। मित्तल जी ने स्टेशन से उन के फ्लेट तक का पहुँचने का रास्ता बताया। मुम्बई पहले भरोसे पर खरी उतरी। पाँच बज रहे थे। पहली बस लगने से पहले ही स्कूली बच्चे यूनीफॉर्म पहने पंक्तिबद्ध खड़े थे। सरदार भी सामान लिए पंक्ति में खड़ा हो गया। मित्तल जी के फ्लेट पहुँचा तो वे परिवार सहित भतीजी को मॉरीशस के लिए छोड़ने सांताक्रुझ जा रहे थे। सरदार को फ्लेट में अकेला छोड़ चल दिए। सरदार को फ्लेट के जुगराफिया से वाकिफ होने का अवसर मिला। वह स्नानादि से निवृत्त हो लिया। सब जल्दी ही लौट आए, प्लेन आया ही नहीं था। दस बजे मित्तल जी अपनी फिएट कार में सरदार को अपने ऑफिस ताड़देव ले चले। वहाँ सरदार ने उन से मुक्ति पाई और अकेले निकला, मुम्बई की सड़कें नापने। ताड़देव के आसपास की सड़कें, सेन्ट्रल, वीटी और चर्चगेट के स्टेशन देख शाम सात बजे तक वापस फ्लेट पहुँचा। मित्तल जी फिर एक बार भतीजी को छोड़ने जाने को तैयार थे, सरदार को साथ ले चले।
टाईम्स बिल्डिंग में कमलेश्वर से मुलाकात 
रदार की मुम्बई यात्रा का एक लक्ष्य यह भी था कि वह अपने लिए यहाँ कोई भविष्य खोजना चाहता था और वह उसे पत्रकारिता में दिखाई देता था। सारिका सरदार की कुछ लघुकथाएँ छाप चुकी थी, सारिका के संपादक कमलेश्वर और उपसंपादक रमेश बतरा से वही परिचय था। वह उन के माध्यम से जानना चाहता था कि उस के लिए भी मुंबई की पत्रकारिता में कोई स्थान हो सकता था या नहीं? मित्तल जी ने पूछा तो उन्हें भी यह बताया। मित्तल जी ने दोनों से मिलने को कहा। सरदार टाइम्स बिल्डिंग पहुँचा। बतरा पुराने दोस्त की तरह मिला। वहीं कमलेश्वर जी से भेंट हुई। वे उखड़े उखड़े लगे। पता लगा कि टाइम्स प्रबंधन उन्हें सारिका से बाहर करने को आमादा था और इस के लिए सारिका को ही दिल्ली ले जाने की तैयारी थी। जिस से वे खुद छोड़ दें और उन्हें कहना न पड़े। वे फिल्मों में भी व्यस्त थे, दिल्ली जा नहीं सकते थे। तीसरे दिन बतरा का गेस्ट हाउस वाला आवास देखा। वह एक कमरा था जिस में सोने के लिए तीन चारपाइयाँ और सामान रखने को तीन ही अलमारियाँ थीं। बतरा ने उसे एक अन्य मित्र के साथ किराए पर लिया हुआ था। तीसरी चारपाई देस से आए मेहमानों के लिए खाली रख छोड़ी थी। किराए में वेतन का चौथाई चला जाता था। कमरे में रहने का जुगाड़ सरदार को पसंद नहीं आया। हाँ, साल छह माह के लिए चल सकता था। शाम को मित्तल जी ने पूछा बतरा का निवास देखा? मैं उसी गेस्ट हाउस में सात साल रहा हूँ। सुन कर सरदार सकते में आ गया, वह तो शोभा को साथ ला कर रखना चाहता था।
करंट ने भी दिया झटका!!
न दिनों महावीर अधिकारी नवभारत टाइम्स से रिटायर हुए थे, जहाँ मित्तल जी उन के सहायक थे। अंग्रेजी साप्ताहिक कंरट ने हिन्दी करंट आरंभ किया था और अब अधिकारी जी उस के प्रधान संपादक थे। मित्तल जी ने उन से मिलने को कहा। सरदार दो दिन तक नरीमन पाइंट, ऑबेराय होटल की बगल मे बनी ऊंची इमारत के सत्रहवें तल्ले पर करंट के दफ्तर गया। वहाँ उपसंपादक होने का जुगाड़ हो सकता था। पर आवास का संकट। वहाँ जो वेतन मिल सकता था। उस हिसाब से तो सरदार दस साल तक भी बहुरिया को मुम्बई नहीं ला सकता था। दो ही दिनों में मुम्बई और पत्रकारिता का सपना हवा हो गया। तय किया कि कोटा जा कर एलएल.बी. पूरी करनी है और वकालत में निकल लेना है। सरदार के लिए मुम्बई में कुछ न बचा था। उसी दिन सेंट्रल जा कर रिजर्वेशन कराया जो दो दिन बाद का मिला। इन दो दिनों में मुम्बई घूमने के सिवा कोई काम न था। शाम times-of-indiaको फ्लेट पहुँच कर मित्तल जी को अपना निर्णय सुना दिया। मित्तल जी से पूछा -मुम्बई में क्या क्या देखना चाहिए? मित्तल जी बोले –सिर्फ कंक्रीट का जंगल है, जिस में इंसान दिन भर दौड़ता है और रात को गुफा में शरण ले लेता है। हाँ, चाहो तो एलीफेंटा जरूर देख आओ।
सिगरेट की एक दिवसीय सोहबत
रदार ने दूसरे दिन एलीफेंटा का जुगाड़ देखा। पर संग्रहालय में उलझ कर रह गया। वहाँ भारत का प्राचीन इतिहास साकार हो रहा था। वहीं शाम हो गई, लेकिन तसल्ली से पूरा न देख सका। अगले दिन एलीफेंटा देख कर मुम्बई छोड़ देनी थी। सुबह सुबह गेट-वे जा कर टिकट खरीदा और इंतजार करने लगा। अखबार के दफ्तर में कभी-कभी फूंकी गई सिगरेट का शौक चर्राया तो एक डिब्बी और माचिस खरीदी। किनारे पर ही दो डण्डियाँ फूँक डालीं। बोट में बैठने पर तो उसे भूल ही गया। सामने बैठी विदेशी युवती ने सिगरेट सुलगाई तो उसे अपनी डिब्बी याद आई। डिब्बी निकाली और होठों में सिगरेट दबा, माचिस से सुलगाने लगा। एक, दो, तीन .... कुल सात तीलियाँ जलाईं, लेकिन समंदर की तेज हवा ने सब की सब बुझा दी। उसे अपने इस करतब पर लज्जा आने लगी। माचिस बंद कर जेब के हवाले की। सिगरेट समंदर के हवाले होती उस के पहले युवती ने अपना गैस लाइटर जला कर आगे कर दिया। सिगरेट जली भी और फूंकी भी गई। पर वह डिब्बी जीवन की आखिरी डिब्बी थी। बोट में ही स्कूली बच्चों की पिकनिक मनाने जा रही टीम से दोस्ती हो गई। ऐलीफेंटा में वे दिन भर साथ रहे। शाम को वापसी में टिकट घर पर लाइन देखी तो पता चला सात बजे तक नंबर नहीं आएगा। ट्रेन छूट सकती थी। बच्चे काम आए, उन्हों ने टिकिट खिड़की से चार नंबर पीछे खड़ी महिला से आग्रह किया कि अंकल राजस्थान से आए हैं, ट्रेन पकड़नी है इन्हें आप के आगे स्थान दे दें। सरदार बच्चों को वहीं विदा कर बोट में बैठ गया। गेट-वे, बस से वीटी, दादर में ट्रेन बदल कर अंधेरी, फिर बस से फ्लेट। वहाँ मित्तल जी इंतजार कर रहे थे। भोजन करा कर अंधेरी स्टेशन छोड़ने आए, वहाँ से बोरीवली आ कर कोटा की ट्रेन पकड़ी।

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10 कमेंट्स:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बंबई माया नगरी की यही कहावत है
रोटलो मले पण ओटलो ना मले -
गुजराती से अनुवाद : रोटी का जुगाह हो जाता है पर रहने के लिए आवास ( ओटलो = बारामदा ) तक नहीं मिलता !
एलीफ़न्टा की सैर में , बच्चे काम आये ..और विदेशी युवती ने भी अपनी तहजीब के अनुसार , मदद ही की :)
यादगार रहा ये एपिसोड भी दीनेश भाई जी

Himanshu Pandey said...

सफर जारी है । बकलम खुद का यह सोपान भी रुचिकर लगा ।

संजय तिवारी said...

आपका हिन्दी में लिखने का प्रयास आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय उदाहरण है. आपके इस प्रयास के लिए आप साधुवाद के हकदार हैं.

आपको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.

विवेक रस्तोगी said...

सरदार का मुंबई का किस्सा रोचक रहा।

निर्मला कपिला said...

sसदा की तरह रोचक पोस्ट बधाई

Arvind Mishra said...

आपकी याददाश्त को दाद दी जानी चाहिए ये विवरण आपको सिलसिलेवार याद हैं ! तो किस्सा कोताह यह की बाम्बे ने आपको दगा दिया ! अब आगे ?

kshama said...

लावण्या जी से सहमत हूँ...कभी तो मुंबई वासी एकजुट हो जाते हैं...कभी किसीको सड़क पे तडपता छोड़ देते हैं!

http://shamasansmaran.blogspot.com

http://lalitlekh.blogspot.com

http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

विवेक सिंह said...

रोचक!

Arshia Ali said...

यह ज्ञान का खजाना ऐसे ही लुटाते रहें, आभार।
{ Treasurer-S, T }

Abhishek Ojha said...

एक-एक घटना बड़ी बारीकी से याद है आपको ! मान गए आपकी याददाश्त को.

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