Saturday, September 19, 2009

सरदार ने पहना कालाकोट [बकलमखुद-5]

पिछली कड़ी- 1.सलाम बॉम्बे…टाटा मुंबई 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के पंद्रहवें पड़ाव और 104वे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

त्रकार बनने का लक्ष्य मुम्बई में छूट चुका था। एक ही ध्येय था, अब वकालत करनी है। सरदार ने प्रेस जा कर अखबार के मालिक/प्रधान संपादक जी को अपना इरादा बता दिया। एवजी पत्रकार स्थाई हो गया। वह पढ़ाई में जुट गया। परीक्षा के दौरान उस का मुकाम हमेशा की तरह मामा वैद्य जी के निवास पर लगा। मामा जी का पुत्र ओम भी साथ ही एलएल.बी. कर रहा था। दोनों साथ पढ़ते। परीक्षा का एक पेपर रहा होगा, उस दिन मामा जी बाराँ हो कर लौटे। पता लगा, शोभा ने पुत्र को जन्म दिया था लेकिन वह कुछ ही घंटों का मेहमान रहा। मन विषाद से भर गया। शोभा की स्थिति पर विचार किया तो अपना विषाद तुच्छ लगने लगा। आखिरी पेपर दे कर आधी रात बाराँ पहुँचा। शोभा से थो देर तक बात करता रहा। सारा हाल जाना। सुबह उठते ही तैयार हुआ और हरीशचंद्र गोयल के दफ्तर में पहुँच गया वे कवि भी थे और हरीश ‘मधुर’ नाम से लिखते भी थे। देखते ही पूछा – परीक्षा कब निपटी? सरदार ने बताया- कल ही निपटी है, रात को बाराँ पहुँचा हूँ और अभी यहाँ हाजिर हूँ। आप की फाइलें संभलाइये। वे समझ गए कि उन के दफ्तर में पहला जूनियर प्रवेश कर चुका है।
स बीच वे लड़के जो नाटकों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और विमर्श के माध्यम से जुड़े थे, जनवादी नौजवान सभा बनाने को बैठे थे। सरदार के जाते ही बैठक कर उसे पहला संयोजक चुन लिया गया। कोटा के महेन्द्र ‘नेह’ उन दिनों जनवादी नौजवान सभा के जिला अध्यक्ष थे। तभी कॉलेज में स्टूडेंट फेडरेशन बन गया। गांवों में किसान सभाएँ बन रही थीं। नगर की में एक मात्र कारखाना चावल मिल थी, जिसे मार्केटिंग को-ऑपरेटिव चलाती थी, वहाँ भी कोई बीस कामगारों की एक यूनियन बन गई थी। सभी संगठन आपस में सहयोग करते। वकालत का प्रायोगिक अभ्यास आरंभ हो गया। दो माह में परीक्षा परिणाम भी आ गया। बार कौंसिल को सदस्यता के लिए आवेदन कर दिया। दिसंबर में सदस्यता भी मिल गई। जैसे ही सरदार ने यह सूचना अपने वकालत गुरू ‘मधुर’ जी को दी तो उन्होंने दो दिन पहले सिल कर आया खुद का काला कोट उसे पहना दिया। जब उसे दूसरे वकीलों ने उसे कोट पहने देखा तो मध्यान्ह की चाय पर सब ‘मधुर’ जी से मिठाई मांगने लगे। मधुर जी कहाँ पीछे रहने वाले थे वे पहले ही मिठाई के डब्बे मंगा चुके थे।
न्हीं दिनों कोटा डिविजन में कुछ छात्रों और नौजवानों की हत्याएँ हो गई थीं जिहें स्पष्ट रूप से राजनैतिक माना जा रहा था। हत्यारों के तार सीधे राज्य की जनता पार्टी सरकार के कुछ मंत्रियों से जुड़े थे। उन्हीं दिनों शिक्षा मंत्री विद्यार्थी परिषद के प्रतिभावान विद्यार्थी समारोह में मुख्य अतिथि हो कर आए। नौजवान सभा, स्टूडेंट फेडरेशन और समाजवादी युवा दल ने संयुक्त रूप से इन हत्याओं के विरोध में ज्ञापन देने का निश्चय किया। मंत्री जी को विश्राम गृह मिलने गए तो वहाँ नेताओं ने उन को इतना घेरा हुआ था कि वे किसी से मिले ही नहीं। अब केवल विद्यार्थी परिषद का कार्यक्रम था जहाँ ज्ञापन दिया जा सकता था। वहाँ कार्यक्रम के संयोजकों से अनुमति ली गई। संयोजकों की टीम के एक नेता सरदार समेत तीनों संगठनों के एक एक प्रतिनिधि को ज्ञापन देने के लिए पांडाल के पीछे के रास्ते से मंच की ले जाने लगे थे कि कुछ आयोजनकर्ताओं को विरोधी विचारों के लोगों का इस तरह अंदर आ कर मंत्री से मिलाने का करतब नागवार गुजरा। उन्होंने तंबू में प्रवेश करते ही तीनों की धुनाई शुरू कर दी। उस समय तीनों को एक ही बात सूझी, नारे लगाओ। तीनों ने पूरा जोर लगा कर इंकलाब-जिन्दाबाद¡ के नारे लगाना आरंभ कर दिया। शामियाने में हाजिर जनता बाहर निकल आई। तीनों बड़ी मांर से बचे, और मैदान के सामने की खुली पुस्तक की दुकान पर जा बैठे। मिनटों में खबर शहर में फैल गई।
कुछ ही देर में ‘मधुर’ जी पहुँच गए, तीनों को अपने दफ्तर ले गए। धीरे-धीरे वहाँ नगर के बहुत मित्र एकत्र हुए। सब का सुझाव था इस का प्रतिवाद होना चाहिए। ट्रेड यूनियन के साथी कहने लगे अभी ही जुलूस निकाल कर डाक बंगले जा कर मंत्री को ज्ञापन देना चाहिए और शाम को चौराहे पर जनसभा करनी चाहिए। कुल बारह व्यक्ति नारे लगाते हुए सड़कों पर निकले और मंत्री जी को ज्ञापन देने डाक बंगले पहुँचे। तब तक मंत्री जी मंत्री जी नगर छोड़ चुके थे। तब नगर के सब से बड़े हाकिम एसडीओ के घर जा कर ज्ञापन दिया गया। वहाँ से लौटे तो पता लगा कि जनसभा की मुनादी करने के लिए ठेले पर लाउडस्पीकर ले नगर में निकले हम्माल मित्र भैरूलाल को पुलिस पकड़ कर ले गई है। जलूस थाने पहुँचा। वहाँ मंत्रीजी के कार्यक्रम के आयोजनकर्ता छात्रों की भीड़ जुटी थी, वे भैरूलाल के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवा रहे थे कि, उस ने लोगों को चाकू दिखाया और शांति भंग करने का प्रयास किया। जलूस को नारे लगाते देख भीड़ भी नारे लगाने लगी। धीरे धीरे भीड़ छंटने लगी। दो चार छात्र रह गए। लेकिन जलूस के बारह लोग बारह ही रहे। रात को मित्र लोग फिर बैठे। तय हुआ कि रात में ही पर्चा छाप कर बांटा जाए और सुबह चौराहे से एसडीएम के दफ्तर तक जलूस की शक्ल में जाया जाए जहाँ धरना दिया जाए। दूसरे दिन चौराहे पर जब जलूस के लिए ठेले पर लाउडस्पीकर लग कर पहुँचा तो वहाँ सरदार के अतिरिक्त कोई नहीं था। कुछ तमाशबीन बच्चे इकट्ठा हो गए थे। सरदार ने उन्हें ही नारे लगाना आरंभ किया। कुछ देर में चार साथी और एकत्र हुए। सरदार, चार साथी और बच्चों का जलूस बना, धरना स्थल तक पहुँचे, दिन भर धरना चला और पर्चे बंटते रहे। धरने पर दिन भर में कभी दस-पन्द्रह व्यक्तियों से अधिक नहीं रहे, लेकिन में शामिल व्यक्तियों की संख्या सौ से भी ऊपर थी।
रात को फिर सभी संगठनों की बैठक हुई। तय हुआ कि हफ्ते भर बाद एक बैठक की जाए जिस में कोटा के ट्रेडयूनियन नेता परमेंद्रनाथ ढंडा और उन के साथियों को बुलाया जाए। तीसरे दिन अदालत में आयोजनकर्ताओं के वकील नेता मिले। कहने लगे, बच्चे मूर्ख थे, उन्हें पीटने के लिए तुम्ही मिले, जो पिट कर भी पोलिटिकल क्रेडिट ले जाए। किसी दुर्जन को पीटते तो कुछ हासिल भी होता। हफ्ते भर बाद सभा हुई। सभा पर हमले की संभावना थी। पर सभा में ट्रेडयूनियनों, किसान सभा, छात्र और युवा संगठनों के लोगों और बाराँ की जनता की संख्या पाँच हजार से भी ऊपर पहुँच गई। किसी के हमला करने की हिम्मत न हुई। इस शानदार सभा ने बाराँ में नौजवान सभा के संगठन को जमा दिया। [जारी]

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11 कमेंट्स:

Asha Joglekar said...

आखिरकार नौजवान सभ ागठित हो ही गयी . लेकिन मे तो शोभा और सरदार के दुःख से दुखी हो गयी.

हेमन्त कुमार said...

शानदार सफर ।आभार ।
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं ।

Udan Tashtari said...

बड़े लम्बे के इन्तजार के बाद अब जाकर सरदार नें काला कोट पहना. :)

मस्त रहा एपिसोड.

Arvind Mishra said...

लो शुरू हुए जनसंघर्षों में भागीदारी के स्वर्णिम दिन......... !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मित्रता निभाने का सबसे अच्छा माध्यम है,
संस्मरण।
अच्छा लगा सरदार से मिल कर!

Anonymous said...

कुछ घंटों के मेहमान का दुख समझा जा सकता है।
वैसे संस्मरण की यह कड़ी भी बढ़िया रही।

बी एस पाबला

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

काला कोट क्या क्या गुल खिलायेगा आगे का इंतज़ार .

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

ये सरदार तो शुरुआत से ही धुरन्धर व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। इनकी जीवन यात्रा रोचक तो है ही, प्रेरक भी है। जय हो...।

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया संस्मरण है । नवरात्र पर्व की शुभकामनायें आभार्

शोभना चौरे said...

संस्मरण दर सस्मरण रोचक होता जा रहा है किन्तु छोटे मेहमान की विदाई टीस भी दे गया |
नवरात्री की शुभकामनाये \
आभार

VIMAL VERMA said...

संस्मरण को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा बहुत रोचक व्यक्तित्व के लगे,हमारी शुभकामनाएं।

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