आपाधापी वाले समाज में आमतौर पर समाचारों के जरिये अपने दिन की शुरूआत करते हुए अक्सर जिस एक शब्द से हमारा साबका पड़ता है वह है हत्या। यह शब्द जन्मा है संस्कृत के मूल शब्द यानी धातु हन् से जिसका अर्थ है मार डालना , नष्ट कर देना , चोट पहुंचाना अथवा जीतने न देना , पछाड़ना या पराजित करना आदि।
प्रोटो इंडो -यूरोपियन भाषा का एक मूल शब्द है ग्वेन । इससे ही भाषाविज्ञानी संस्कृत के हन् या हत् का रिश्ता जोड़ते हैं। इस हन् की व्यापकता इतनी हुई कि अरबी समेत यह यूरोप की कई भाषाओं में जा पहुंचा और चोट पहुंचान या मार डालना जैसे अर्थों में तो अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई ही साथ ही इसके विपरीत अर्थ वाले शब्द जैसे डिफेन्स (रक्षा या बचाव) के जन्म में भी अपना योगदान दिया। यही नहीं हत्या के प्रमुख उपकरण -अंग्रेजी भाषा के गन शब्द की उत्पत्ति भी इसी हन् से हुई है। हन् न सिर्फ हत्या - हनन आदि शब्दों से बल्कि आहत, हताहत, हतभाग जैसे शब्दों से भी झांक रहा है। यही नहीं, निराशा को उजागर करनेवाले हताशा और हतोत्साह जैसे शब्दों का जन्म भी इससे ही हुआ है।
कहावत है कि बेइज्जती मौत से भी बढ़कर है। हन् जब अरबी में पहुंचा तब तक संस्कृत में ही इसका हत् रूप विकसित हो चुका था। अरबी में इसका रूप हुआ हत्क जिसका मतलब है बेइज्जती, अपमान या तिरस्कार। इसी तरह हत्फ़ यानी मृत्यु। यही हत्क जब हिन्दी में आया तो हतक बन गया जिसका अर्थ भी मानहानि है। बात चाहे मौत की हो, हताशा की हो या बेइज्जती की हो भाव तो एक ही है - कुछ नष्ट होने का , चले जाने का।
Wednesday, September 12, 2007
हताश हत्यारा और गन
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:15 PM
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3 कमेंट्स:
बहुत खूब !! अच्छा शोध है आपका। चलिय आज फिर कुछ नई बात पता चली. शुक्रिया
यह साफ हुआ कि हताशा/निराशा में कहीं कुछ है जो "हत" होता है या मरता है. हताशा के भाव को उसी सेंस में लेना चाहिये!
कई दिन के बाद आने का मौका मिला (यात्रा इत्यादि के कारण). चार नये लेख एक ही बैठक में पढ गया. वाह ! आप ऐसा संपुष्ट भोजन परोस रहे हैं कि मजा आ गया.
मैं बताना भूल गया था कि मैं ने एक शब्दकोश एवं एक विश्वकोश (4 खंड) की मलयालम भाषा में रचना की है. अत: व्युत्पत्ति पर आपका हर लेख मुझे बहुत आनंद देता है -- शास्त्री जे सी फिलिप
आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)
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