Sunday, December 16, 2007

मन गंदा तो कैसा तीरथ ?[किस्सा-ए-यायावरी 3]

तीर्थों नें हमेशा ही दुनियाभर के सभी धार्मिक समाजों में सदाचार, दान-पुण्य, पाप मुक्ति के लिए ललक पैदा की है। सचमुच के भटकैये यानी साधु सन्यासी तो स्वयं तीर्थ हो जाते हैं मगर आम आदमी के मन की भटकन को सहारा तीर्थयात्रा से ही मिलता है।

हिन्दू परंपरा में तीन तरह के तीर्थ माने गए हैं। 1-जंगम 2- स्थावर 3-मानस।

1-जंगमः- जंगम का मतलब होता है जीवधारी, चलने-फिरनेवाला, हिलने-डुलनेवाला। जंगम बना है संस्कृत की गम् धातु से जिसमें जाना, प्रयाण करना वाले भाव हैं। गौरतलब है कि जनमानस में भारतभूमि की पावनतम नदी गंगा की व्युत्पत्ति इसी गम् धातु से मानी जाती है। ( ये अलग बात है कि ज्यादातर भाषाविज्ञानी इसका जन्म आस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार से मानते हैं। ) जंगम श्रेणी के अंतर्गत जो तीर्थ कहलाते हैं वे साधु , सन्यासी , परिव्राजक, श्रमण, भिक्षु आदि होते हैं।
2- स्थावरः- दूसरी श्रेणी है स्थावर तीर्थ की । इसमें सप्तपुरियां, चारधाम और देशभर में बिखरे अन्य तीर्थ हैं।
3-मानसः- तीर्थों का तीसरा वर्ग है मानस तीर्थ। धर्मजगत में भारतीय मनीषा की सबसे सुंदर कल्पना लगती है मुझे मानस तीर्थ। कहा गया है कि दुष्ट , कपटी, लोभी, लालची, विषयासक्त मनुश्य उपरोक्त जंगम और स्थावर तीर्थों का कितना ही दर्शन लाभ क्यों न पा ले, मगर यदि उसमे सत्य, क्षमा, दया और इन्द्रिय संयम , दान और अन्य सदाचार नहीं हैं तो कितने ही तीर्थों का फेरा लगा ले , उसे पावनता नहीं मिल सकती । सार यही है कि ये तमाम सद्गुण ही तीर्थ हैं और सर्वोच्च तीर्थ मनःशुद्धि है।
मानस तीर्थ की अवधारणा ही हमें सत्कर्मों के लिए प्रेरित करती है और किसी भी किस्म की कट्टरता , पाखंड और प्रकारांतर से प्रचार-प्रमाद से दूर रखती है। इसीलिए यही तीर्थ मुझे प्रिय है। सदाचारों की सूची में आप आज के युग के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं। बावजूद इसके आप खुद को हल्का ही महसूस करेंगे। पाकिस्तान जा बसे शायर जान एलिया की बुद्ध पर लिखी कविता की आखिरी पंक्तियां याद आ रही हैं-

घरबार हैं बीवी बच्चे हैं
आदर्श यही तो सच्चे हैं
जीवन की तपती धूप में हूं
मैं खुद भगवान के रूप में हूं।

जीवनकर्म को छोड़ कर , सत्य की तलाश में पत्नी बच्चों को त्याग यायावरी कर बुद्ध का दर्जा तो हासिल किया जा सकता है, मगर दुनियादारी में रच बस कर तीर्थ का पुण्य प्राप्त कर लेना बड़ी बात है। हम और क्या कर रहे हैं ? फिर कैसी मायूसी , कैसी फिक्र ?
आपकी चिट्ठी
पिछली कड़ी रमता जोगी , बहता पानी...यायावरी के रूप पर अनूप शुक्ल , संजय, प्रत्यक्षा,मीनाक्षी , बालकिशन , संजीत, शास्त्रीजी और बोधिभाई की टिप्पणियां मिलीं। आप सभी का आभार। संजीत भाई, ठीक कहा आपने। शब्दजाल में फांसने और फंसने से बेहतर है शब्दों का सफर करना। देशबंधु सचमुच अच्छा अखबार था। शास्त्रीजी , आपकी शुभकामनाओं से पुस्तक पर काम शुरू हो चुका है। देखिये , कब पूरा होता है।
ये पड़ाव कैसा लगा ?
अगली कड़ी में कुछ और यायावरी।

6 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

मन से बड़ा यायावर क्‍या कोई और हो सकता है अजित भाई? लेकिन यह इतना भी आसान नहीं. मन के आवेगों से मुक्ति वह कस्‍तूरी है जिसकी तलाश में इंसान रूपी मृग सारी जिंदगी न जाने कहां कहां भटकता है. पर इस बात से सहमत हूं कि मानस तीर्थ की अवधारणा ही हमें सत्कर्मों के लिए प्रेरित करती है. इस तीर्थ (पोस्‍ट) ने बहुत कुछ फिर सोचने को दे दिया.

अनूप शुक्ल said...

मानसतीर्थ वाली बहुत अच्छी लगी। हम रोज तीर्थाटन करेंगे अब तो।

Shiv Kumar Mishra said...

"जीवनकर्म को छोड़ कर , सत्य की तलाश में पत्नी बच्चों को त्याग यायावरी कर बुद्ध का दर्जा तो हासिल किया जा सकता है, मगर दुनियादारी में रच बस कर तीर्थ का पुण्य प्राप्त कर लेना बड़ी बात है।"

एक दम सच है सर....दिनकर जी ने लिखा है...

मही नहीं जीवित है, मिट्टी से डरने वालों से
जीवित है वह उसे फूँक सोना करने वालों से
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता, अनाशाक्त रस्भोगी

बहुत बढ़िया पोस्ट सर...

मीनाक्षी said...

आपके शब्दों के सफर में आज का पड़ाव सबसे बढ़िया रहा.... मानस तीर्थ यात्रा की तो समझिए चारों धाम की यात्रा हो गई....
बहुत पवित्र-पावन पोस्ट

Gyan Dutt Pandey said...

बस - मानस तीर्थ। उसतक जाने का रास्ता जरूर सब से दुर्गम है!
शिव ने अच्छा कोट किया है दिनकर को।

Asha Joglekar said...

आपका मानस तीर्थ बहुत सुखकर लगा ।

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