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Sunday, February 7, 2010
विश्व पुस्तक मेला में मित्रों से मिलना
बी ते तीन दिनों से हम शब्दों का सफर से छुट्टी पर थे। नेशनल बुक ट्रस्ट के द्विवार्षिक आयोजन विश्वपुस्तक मेला देखने की बड़ी इच्छा थी। दिल्ली में रहते हुए भी इसे देखने का कभी योग नहीं बना। इस बार एक खास वजह से इस आयोजन में शरीक होने का सुयोग बन गया। बीते दो साल से सफर के साथियों का आग्रह था कि इसे पुस्तकाकार आना चाहिए। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग और राजकमल प्रकाशन से इसके लिए हमने सम्पर्क किया था और खुशी की बात है की दोनों ने ही इसमें रुचि दिखाई थी। दोनो ही प्रकाशनों का हिन्दी किताबों की दुनिया में एक नाम है, मगर किताब का प्रकाशन तो किसी एक जगह से ही होना था, सो राजकमल को किताब देने का फैसला किया गया। उम्मीद है मई जून तक किताब का पहला खण्ड बाजार में आ जाएगा। इससे जुड़ी औपचारिकताओं के संदर्भ में दिल्ली आना था सो इसी अवसर पर पुस्तक मेला घूमने-फिरने का भी मन था। अपने काम से जुड़ी कई पुस्तकों को एक ही जगह तलाशने की सुविधा और उनके मिलने की आशा भी थी। कई मित्रों से मिलने का कार्यक्रम भी बन गया और वे पुस्तक मेले में ही पंहुचे। दिल्ली अमर उजाला में डिप्टी एडिटर पंकज मुकाती सबसे पहले मिलने पहुंचे, मगर उनसे पहले मुलाकात हो गई कवि ब्लागर अविनाश वाचस्पति और पवन चंदन से। अविनाश जी से तो यह दूसरी मुलाकात थी, मगर पवन चंदन से पहली बार मिलना हुआ। इनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। फिर आए पंकज मुकाती। पंकज हमारे बहुत स्नेही-लाड़ले दोस्त हैं। पवन चंदन और अविनाशजी ने कुछ तस्वीरें इस मौके पर लीं। अविनाशजी ने बताया कि कविता वाचक्नवी भी कुछ देर में आएंगी। हम और पंकज पत्रकारिता की दुनिया के हालचाल साझा करने के लिए इन दोनों से इजाज़त लेकर कुछ देर को अलग हो गए।
दिल्ली पुस्तक मेला से मैं कतई प्रभावित नहीं हुआ। मैं हिन्दी का पाठक हूं और लगातार दुर्लभ और मूल्यवान प्रकाशनों की खोज में रहता हूं।
सबसे ऊपर दाएं से अभय, मनीषा, स्वधा, नीलाभ और एक अन्य साथी। नीचे अविनाश वाचस्पति के साथ पंकज। सबसे नीचे पवन चंदन।
ऐसे आयोजनों में प्रकाशकों को भी सुविधा रहती है कि वे बहुप्रतीक्षित पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन कर सकें और पुराना स्टाक भी खपा सकें। मेरे पास हिन्दी-मराठी के करीब तीस ग्रंथों की सूची थी। बड़ा अजीब लगा कि चाही गई पुस्तकों में मुझे मराठी भाषा की तीन पुस्तकें मिलीं, मगर हिन्दी के अधिकांश ग्रंथ अनुपलब्ध ही रहे। दो ऐसी पु्स्तकें जरूर मुझे काम की मिलीं जो मेरी सूची में नहीं थी। एक सांस्कृतिक प्रतीक कोश और दूसरी केंद्रीय हिन्दी संस्थान की उर्दू परिचय कोश। किताबों का बोझा संभालते हम थक चले थे अभय भाई का कहीं अता-पता न था। पंकज को अखबार के दफ्तर पहुंचना था क्योंकि साढ़े चार बज चुके थे। हमने वापसी का फैसला किया और मेट्रो स्टेशन पहुंच गए। तभी अभय का फोन आया कि वे 12 नंबर स्टाल पहुंच गए हैं। पंकज को विदा कर हम फिर भारी क़दमों से लौटे मगर अभय से मिल कर सारी थकान दूर हो गई। अभय ने इलाहाबाद से आए नीलाभ जी से परिचय कराया और शब्दों का सफर के बारे में उन्हें जानकारी दी। यह सुखद संयोग था कि जिन अभय ने शब्दों का सफर को हिन्दी ब्लाग-जगत से सबसे पहले भलीभांति परिचित कराया, उसके पुस्तकाकार आयोजन का पुख्ता आधार जिस दिन रखा गया, वे हमारे साथ थे और उनसे रूबरू होने का वह पहला अवसर था। तभी गीत चतुर्वेदी, मनीषा पांडे नमूदार हुए। एक प्यारी सी नन्हीं-मुन्नी भी उनके बीच चहक रही थी। पता चला कि गीत की बिटिया स्वधा हैं, पापा के साथ अकेली चली आईं। मनीषा से खूब हिली हुई थीं। सबके किरदारों को अपने अंदाज़ में पहचान कर उसके साथ एक टैग लगवाने का शग़ल चल रहा था। बिटिया ने अभय को हैडमास्टर का खिताब दिया और हमारे किरदार की शिनाख्त डस्टबिन के रूप में की। गीत बेटी से नाराज हो गए। हमने कहा कि हमें यह नाम अच्छा लगा है। हालीवुड का एक किरदार है मि.बीन्स। खूब हंसाता है। हम भी डस्टबिन बनकर खुश हैं। अभय, नीलाभ से बातें हो रही थीं कि और चोखेरबाली समूह की ब्लागर सुजाता के साथ अन्य सदस्य यानीमसिजीवी, राजकिशोर और प्रकाशन विभाग की संपादक आर.अनुराधा आ गए। कुछ देर में डॉ वेदप्रताप वैदिक भी आ पहुंचे। साढ़े छह बज चुके थे और अभय को गोरखपुर के लिए शाम साढ़े सात की ट्रेन पकड़नी थी जहां आठ को उनकी फिल्म का प्रदर्शन था। मनीषा और गीत को भी रात नौ की ट्रेन से भोपाल लौटना था। सबने विदा ली। हमने वहीं अनुराधाजी को यह सूचना दी कि शब्दों का सफर का प्रकाशन राजकमल से होना तय किया है। शब्दों का सफर प्रकाशन विभाग से निकले यह हमारी भी इच्छा थी। अनुराधाजी यह जानकर कुछ नाराज भी हुईं, हमें भी बुरा लग रहा था। पर क्या किया जा सकता था। उसे छपना तो किसी एक संस्थान से ही था। अनुराधाजी ने इस दौरान बहुत सहयोग किया। हम उनके आभारी हैं। निश्चित ही आगे उनके लिए काम करने का योग बनेगा। टीवी के दिनों के साथी पत्रकार समरेन्द्र भी वहां मिले। प्रगति मैदान से इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग तक हम, मनीषा और नन्ही स्वधा पैदल मार्च करते हुए आए। यहां हम नवभारत टाईम्स में चंदूभाई से मिलने चले गए और गीत मनीषा भोपाल के लिए रवाना हो गए। चंदूभाई के साथ ही हम आटो से वैशाली तक आए। कुछ देर हमारे घर चंदूभाई गपियाए। छह फरवरी को कुछ अन्य लोगों से मिलने का मंसूबा बांधे इस तरह पांच फरवरी का दिन तमाम किया मगर अगले दिन किसी से मिलना हो नहीं पाया। नोएडा में मोबाईल सिग्नल की समस्या रही। अजय झा, खुशदीप सहगल से फोन करते रहे पर सम्पर्क नहीं हुआ। प्रतिभावान गायक-पत्रकार गिरिजेश सुबह मिलने आ गए थे। स्टार न्यूज के ज़माने की यादें साझा की। हर्षवर्धन त्रिपाठी से भी मिलना तय था पर गिरिजेश ने बताया कि उन्हें अचानक उत्तराखण्ड जाना पड़ा। रवि पाराशर, आलोक शर्मा, अजित अंजुम, मुनीष, अशोक पांडे, दिलीप मंडल, प्रत्यक्षा सहित नभाटा के दफ्तर जाकर भी कई साथियों से मिलना न हुआ। शकील अख्तर और अरुण दीक्षित से चलती सी मुलाकात हुई। छह की शाम हम भी भोपाल के लिए रवाना हो गए।
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54 कमेंट्स:
पुस्तक प्रकाशन तय हो गया। ढेर सी बधाइयाँ। आप की दिल्ली यात्रा सफल रही।
अजित जी मुझे तो आपके साथ ही रहना था। इससे मैं गीत चतुर्वेदी जी से तो मिल लेता। आप कविता जी से नहीं मिल पाए और मैं गीत जी से। नीलाभ जी से भी मिलने की चाहत रही है। संभवत: वे संत नगर में रहे हैं। अगर मेरी सूचना सही है तो। खैर ... कुछ से आप नहीं मिल पाए और कुछ से हम। पर आज अजय झा और खुशदीप सहगल दिल्ली ब्लॉगर मिलन में खूब मिले और वहां पर आपस में मिलने के सिग्नल पूरे आ रहे थे। चित्रों में आप देख सकते हैं और शब्दों में पढ़। यह धर पकड़ चित्रों और शब्दों की जारी रहे तो रजा रहती है। न हो पाए तो सजा बहती है।
हम तो उस नन्ही मुन्नी का नजदीक वाले फोटो को ढूंढ रहे थे.. जो नहीं मिला.. :(
अरे हम बधाई देना तो भूल ही गए.. :) बधाई..
बहुत इच्छा होने पर भी , दफ्तर में सुबह-सुबह हुए वाक्-युद्ध की वजह से पुस्तक मेले में शुक्र को न आ सका , फिर शनि को गया . आप आये भी मगर मुलाक़ात न हो सकी सो मलाल है मगर उम्मीद करता हूँ की अगली दफा आप आयें तो ख़ातिर का मौका भी दें मैं इसे खुशकिस्मती समझूंगा. भाई अभय और प्रमोद जी इरफ़ान के साथ दफ्तर की तरफ आये थे सो दीदार हो गए.
waiting for your book !
bahut achha lga aapka itne abhasi mitro ka ak sath milna .ha ye bhi sach hai ki ham pustak mele me jin kitabo ki chahat rkhte hai vo kitabe nahi milti .mere sath indour me aisa hi hua tha fir ye to dilli ke itne bade mele ki bat hai fir hmara indour kahan?
shbdo ka sfar ke prkashn ke liye bahut bhut badhai.
बधाइयाँ...पुस्तक प्रकाशन के लिए.
सरजी आप दिल्ली में थे . मैं तो आपसे मिलना चाहता था . सूरमा भोपाली हो गए या अभी दिल्ली में ही हैं ?
How many books you gonna buy Ajitji???Already jealous of you:)
सोनाली , मैं तो कल ही गया था . लाल रंग के कुछ नोट जेब में थे . प्लास्टिक मनी की आदत हो गई है . अंदाजा नहीं था कि हिन्दी के प्रकाशक अभी भी गांधी मार्का पेपर ही स्वीकार करते हैं . जितना नोट जेब में था , खर्च किया . कई किताबें पसंद आई लेकिन जेब खाली . कैटलॉग ले आया हूं . आज जाना चाहता था लेकिन पढ़ने में लगा रहा . मेरे कई जानने वाले दोस्त कई दिनों से झोला भरकर किताबें ला रहे थे . मेरी श्रीमति जी भी चार बार झोला भर लायी थी . मैं कुछ चूक गया .
मैंने तो वहां शायद सेन्ट्रल बैंक है,पहां के एटीएम से पैसे निकाले। हिन्दी के पाठक अभी भी उधार-जुगाड़ पैसे लेकर किताबे खरीदते हैं सर। हमारी कामना है कि सभी हिन्दीवालों के पास लाल प्लास्टिक के कार्ड हों।..
विनीत बाबू , हमने तो वो जमाना देखा भी है कि जब पुस्तक मेले में सिर्फ लिस्ट बना लेते थे और रविवार को दरियागंज में वही किताबें तलाशते थे . ज्यादातर एक चौथाई या उससे कम भी खरीद लाते थे . आपके पास तो एटीएम भी है . हमारे पास तो पांच - छह ऐसी किताबें हैं , जो बड़े लेखकों ने अपने ऑटोग्राफ से साथ अपने मुरीदों को भेंट की थी . वहां हमें फुटपाथ पर मिली . इसम... और देखेंें उपेन्द्र नाथ अश्क का अश्क -75 भी है और बच्चन का दशद्वार से सोपान तक भी . मुझे ताज्जुब हुआ था कि कैसे लोग होंगे वो , जिन्होंने लेखकों की दी हुई किताबों को भी कबाड़ी वालों के हाथों बेच दिया . हां , इसमें एक किताब विष्णु प्रभाकर की भी है .
कई सालों से दरियागंज नहीं गया हूं , पता नहीं अब वहां फुटवाथ पर रविवार को किताबें मिलती भी हैं या नहीं ....पहले तो हम करीब - करीब हर रविवार जाया करते थे .
अजित भाई, आपका नंबर मेरे पास नहीं था, वर्ना सम्पर्क ज़रूर करता और हम सौ फीसद मिलते। विनीत को जो आप बता रहे हैं वों बहुत महत्वपूर्ण है। विनीत, मुझे वहां एटीएम का अंदाज नहीं था, सो बटुआ भर कर ही वैशाली से रवाना हुआ था। अलबत्ता बटुआ खाली होने की नौबत नहीं आई। मेरी तो किसी भी मेले में लुट जाने की ख्वाहिश रहती है, पर अब वो ताबो-आब कहीं नहीं रही। हम तो जिंदगी भर लुटने को तैयार हैं।
अजित भाई, विनीत भाई अगली बार पक्का रहा मिलना।
दो महिने पहले दरियागंज का चक्कर लगा था। फुटपाथ वाला वैसा नजारा तो नहीं था। अलबत्ता एक दो ठेले दिखे थे जिनपर लाल किताब से लेकर प्रबंधन गुरू अरिंदम चौधरी की किताबें पड़ी थीं। हमने भीतर की गलियों में समोसों की गंध और सब्जियों की रंगत का लुत्फ लेना बेहतर समझा।
सोनाली, करीब पांच किताबें मराठी की मिलीं और चार हिन्दी की। कुल नौ किताबें मिलीं। कुलकर्णी साहब का कोश इस यात्रा की उपलब्धि रहा। बाकी किताबें तो नियमित रूप से हर महिने पखवाड़े खरीदता हूं और यह क्रम सालों से है, सो पुस्तक मेले का कोई खास आकर्षण नहीं है। चाहत थी की दुर्लभ ग्रंथ हाथ लगते, पर अब वैसा बाजार नहीं है।
अब देखिए न,हंस से लेकर वसुधा में लेख लिखे। शोधपरक लेख। जिसके लिए करीब दस रातें खराब कि और कुछ पैसे तो दूर- भाड़ा लगाकर प्रति लाने जाना पड़ा। अब ऐसे में कैसे हिन्दीवालों के पास लाल कार्ड आएंगे। और मेरे पास जो एटीएम है वो लिखकर नहीं बल्कि उस स्कॉलरशिप की वजह से जो महीने के दो-चार दिन एहसास कराता है कि तुम बेरोजगार नहीं हो।
सिर्फ कुछ दिन और....बस। इसके बाद ये हिसाब लगाना होगा कि इतनी इन्कम पर टैक्स कैसे बचाया जाए....
शुभकामनाएं ...
बस आपलोगों की शुभकामनाएं काम आ जाए। बाकी अपने स्तर से जो हो सकता है कर ही रहे हैं,सर..
पुस्तक प्रकाशन पर बहुत बधाई सर.. रिपोर्ट आपकी बनाई हो तो सुन्दर होना लाजिमी है..
आभार..
जय हिंद...
पुस्तक प्रकाशन की बहुत बधाई.
पुस्तक प्रकाशन हेतु अनेक बधाईयाँ एवं शुभकामनाएँ.
बड़ी सारी मुलाकातें हो गईं.
अभय भाई को तो पहचानने में दो मिनट लगा..रुप बदला हुआ सा है :)
पुस्तकों के लिए लुटना
लूटना ही होता है
जुट जुट कर
लूटते रहें
आप वहां पर
शब्दों को कूटते रहें।
अजित जी, कुछ ऐसे ही समाचार की प्रतीक्षा में था. प्रकाशन आमंत्रण हेतु, बधाई.
ख़ूब बधाई अजित जी
काश हमें पता होता तो दो दिन और रुक जाते!!
बहुत बधाई हुकुम !!
वाकई बहुत अच्छा लगेगा जब मुझे मेरी मनपसंद किताब ऑनलाइन हुए बिना बिस्तर में घुस कर पढने को मिलेगी . प्रतीक्षा रहेगी.
अजित जी
आपसे मुलाकात मेरे लिए हमेशा ही ख़ुशी और ज्ञान का एक पूरा भंडार लेकर आती है. आपका अपनापन स्नेह और मार्गदर्शन हमेशा जिन्दगी को तनावमुक्त बनता है. आपको बहुत बधाई.
राजकमल से फायदा ये है ki किताब का सर्कुलेशन हो जायेगा. रोयल्टी नहीं देगा. शकील जी से आपका परिचय है, अच्छा लगा, भले पत्रकार हैं.
पुस्तक रूप में ]शब्दों का सफ़र ' राजकमल से आएगा , यह जानकर बहुत अच्छा लगा । कई दशक पहले 'हिन्दी की शब्द सम्पदा ' (डॉ विद्यानिवास मिश्र ) आई थी । दिक्कत यही है कि ये दाम ज़्यादा रखते है। प्रसारण ज़रूर उत्तम है ।पेपर बैक में कम दाम पर निकाले तो आम पाठकों का भी भला होगा । प्रकाशन विभाग से सस्ता निकलता लेकिन वितरण में राजकमल का मुकाबला नहीं कर सकते। आपके आने का समय पर पता नहीं चल पाया ।
पुस्तक प्रकाशन अत्यन्त प्रसन्न करने वाली सूचना है ।
राजकमल से आना बहुतों तक पहुँचायेगा किताब को !
पुस्तक प्रकाशन के लिए हार्दिक शुभकामनायें !
बहुत सी बधाइयां. शब्दों का सफ़र का प्रकाशन आपकी प्रतिबद्धता का परिचायक है वरना कई मौजी लेखक हुए हैं जिन्होंने कालजयी रचनाएँ की मगर पाठकों के लिए जिल्द रूप में कुछ छोड़ कर ना जा सके. आपको पुनः शुभकामनाएं.
पुस्तक पकाशन के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ...
यह पुस्तक मील का पत्थर बनेगा...हिन्दी भाषा के लिए आपका यह प्रयास वन्दनीय होगा...
पुस्तक प्रकाशित हो रही है बहुत बहुत बधाई और इन्तज़ार विसत्रित रिपोर्ट के लिये आभार्
अजित भाई , आये भी और मिल भी नहीं पाए.
पुस्तक प्रकाशन के बधाई एवम शुभकामनायें .
पुस्तक प्रकाशित हो रही है बहुत बहुत बधाई .
प्रकाशन की अग्रिम बधाई-यह कार्य ही इस स्तर का है -किसी भी प्रकाशक के लिए यह फख्र की बात होगी
खबर तो पहले ,से थी , तुम्हारे मुँह से पुष्टि की प्रतीक्षा थी सो अब बधाई स्वीकार करो। बस ये छपास कहीं सफर को विराम न लगा दे.
पुनः बधाई
आभार भैया,
शब्दों का सफर छपास का मामला नहीं है क्योंकि वह तो प्रिंट मीडिया में छह साल से छप ही रहा है।
सफर के महत्व को जब पाठकों ने पहचान लिया है तो इसका पुस्तकाकार रूप ही उनके लिए सुविधाजनक है।
वैसे भी यह सामग्री नेट पर पड़ी रहे और इसका अनुचित लाभ कोई ले इससे पेश्तर ये काम हम कर लें, बस यही उद्धेश्य इसका है।
बाकी यह शब्दयात्रा जारी रहेगी। यह खण्ड करीब चार सौ पेज का होगा।
दूसरा खण्ड भी लगभग इसी आकार में तैयार है। अब तो तीसरे पर काम चल रहा है।
आपका मेला-गमन सर्वथा सफल रहा। आपसे एक प्रश्न है। आपके नाम के बारे मंे। मेरे कुछ कुछ दोस्त आपके हमनाम है। उनमें से कुछ ‘अजीत’ लिखते हैं और कुछ ‘अजित’। दोनों में क्या भेद है। हो सके तो स्पष्ट करें।
@रंगनाथसिंह
दिलचस्प सवाल है और जवाब से कई हमनाम दुखी हो जाएंगे। इसका जवाब अगली पोस्ट के पुछल्ले में।
आपको बधाई!
राजकमल प्रकाशन को धन्यवाद!
अजित जी पुस्तक प्रकाशन के लिए बहुत बधाईयाँ.
मुझे इस खबर की प्रत्याशा बहुत पहले से थी। अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह में जब आप इलाहाबाद से सीधे दिल्ली राजकमल वालों से मिलने जाने वाले थे। :)
अन्ततः एक अच्छा और समर्थ प्रकाशक शब्दों का सफ़र प्रिन्ट में लेकर आ रहा है तो यह बहुत अच्छी बात है। अब आपके पाठकों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी, और अन्तर्जाल से बाहर के लोग भी इसका लाभ उठा सकेंगे।
आपको कोटिशः बधाइयाँ।
अजित भाई ..यह समाचार तो आपसे फोन पर ही प्राप्त हो गया था ..अब इस सार्वजनिक माध्यम से भी बधाई ।
पुस्तक पकाशन के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ. हिन्दी भाषा के लिए आपका यह प्रयास सराहनीय होगा.
महावीर शर्मा
Congrats!
बहुत बहुत बधाईयाँ -- आजकल टिप्पणी नहीं कर पा रही हूँ -
परंतु एक दिन बैठ कर सारे लिंक्ज़ पढूंगी --
या फिर
आपकी पुस्तक का ही इंतज़ार कर लूं :-)
चित्र बढ़िया रहे और विवरण भी ..
पुन: बधाई
स स्नेहाशिष
- लावण्या
ajitji,
Aapki delhi yatra ke baare me 'nukkad' se jaana, shbdo ke safar se saraabor hu.../ dhnyavaad.
बहुत बहुत आशीर्वाद और बधाइयां और शुभ मंगलकामनाएं और इसी तरह अनुबंघों पर हस्ताक्षर करते रहो ऐसी दुआएं ।खूग पढ़ो, खूब लिखोखूब छपो और खूब बढ़ो, खूब ऊंचे उड़ो साहित्य के अनंत आकाश् में ।।
ये तो पढ़ा ही नहीं था... मजा आया। अकेले अकेले दिल्ली घूम आए बड़े भाई।
बहुत बहुत बधाई।
घुघूती बासूती
बहुत बहुत बधाइयाँ!
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