Monday, August 31, 2009

रसिक, रसोई और रसना [खानपान-14]

tongue_452675पिछली कड़ियां- 1.टाईमपास मूंगफली 2.पूनम का परांठा और पूरणपोली 3.पकौडियां, पठान और कुकर 

स्वा द के लिए रस शब्द का प्रयोग भी होता है। यह संस्कृत के रसः से बना है। रस में व्यापक अर्थवत्ता समाई है। खानपान से लेकर साहित्य और दर्शन की शब्दावली में भी रस तलाशा जाता है और उसकी विवेचना होती है। भरतमुनि ने साहित्यशास्त्र के सिद्धांतों में रस सिद्धांत को प्रमुख माना है। आहारशास्त्र में रस से अभिप्राय तरल-पेय पदार्थों से है। मूलतः रस शब्द का अभिप्राय खानपान से ही जुड़ा है। फल-सब्जियों और अन्य वनस्पतियों से निसृत होने वाले द्रव को रस कहा गया। इसमें उस पदार्थ के सार तत्व का आशय भी छुपा है। मनुष्य ने जब जाना कि रस पदार्थ में अंतर्निहित होता है जो आनंद की सृष्टि करता है। इस तरह जीवन के अन्य आयामों में भी आनंदानुभूति के लिए रस शब्द का प्रयोग होने लगा। आयुर्वेद और ओषधिशास्त्र में पारा का प्रयोग बहुतायत होता है। प्राचीन ऋषियों ने इसके गुणों के आधार पर पारे को रसराज भी कहा है। रस में जीवनी शक्ति होती है। रस कैमिस्ट्री के लिए हिन्दी का रसायन शब्द इसी रस से बना है जो विज्ञान की भारतीय परम्परा में आयुर्वेद से आ रहा है। रस में तरलता का भाव है। पानी, दूध, मदिरा आदि सभी रस हैं। रस को जीवनाधार मानते हुए परमौषधि भी कहा गया है अर्थात शुद्ध जल का सेवन कई व्याधियों से दूर रखता है। रस में जीवन है अर्थात आनंद है। आनंदयुक्त, स्वादिष्ट पदार्थों को रसिक भी कहते हैं और आनंदलेनेवाले व्यक्ति को भी रसिक कहते हैं। जिव्हा को रसना इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह रस लेना जानती है। 

खाना बनाने के स्थान के लिए भोजशाला, पाकशाला जैसे शब्द भी हैं मगर सर्वाधिक जिस शब्द का प्रयोग होता है वह है रसोई या किचिन। मूल रूप से पाकशाला के लिए रसोईघर शब्द है। रसोई शब्द से भी रस शब्द ही झांक रहा है। यह बना है रसवती शब्द से अर्थात रसवतीगृह से। यह बना है रसवती रसऊती रसौती रसोई के क्रम में। राजस्थीनी में दावत के खाने को रसोड़ा भी कहते हैं। रसोई शब्द का अर्थ पाक शाला भी होता है और भोजन भी होता है। इसीलिए सनातनी हिन्दुओ में दोkitchen तरह की रसोई बनती है- कच्ची रसोई और पक्की रसोई। रोजमर्रा के आहार के लिए जो सामग्री पकाई जाती है वह कच्ची रसोई कहलाती है। इसमें सिर्फ जल और अग्नि का योग होता है जैसे सब्जी-रोटी, दाल-भात आदि। जिस रसोई में तेल-घी की प्रधानता हो उसे पक्की रसोई कहते हैं। कच्ची रसोई को रसोईघर में बैठकर भी खाया जाता है जबकि पक्की रसोई कहीं भी खाई जा सकती है। जातिवादी समाज में रसोई भी वर्णभेद की शिकार है। हिन्दू रसोई और मुस्लिम रसोई किसी ज़माने में आम बात थी। अब ये शब्द सुनने को नहीं मिलते। 

पाकशाला शब्द बना है पाक+शाला से। पाक शब्द के मूल में संस्कृत की पच् धातु है। संस्कृत का पक्व शब्द इससे ही बना है जिसमें पकाना, भूनना, भोजन बनाना आदि भाव हैं। भाषा विज्ञानियो ने इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में एक धातु खोजी है pekw पेक्व जिसका अर्थ है पकना या पकाना। लैटिन में इसका रूप हुआ कोक्कुस जो कोकस होते हुए पुरानी इंग्लिश के कोक coc में ढल गया और फिर इसने कुक का रूप धारण कर लिया। कुक यानी खाना बनाना । जाहिर है कुकर उस उपकरण का नाम हुआ जिसमें खाना जल्दी पकता है। पेक्व की सादृश्यता संस्कृत शब्द पक्व से गौरतलब है जिसका अर्थ पकाया हुआ होता है। खास यह कि पक्व में भोजन का बनना भी शामिल है और उसका पचना भी। रसोई घर के लिए पाकशाला के अतिरिक्त रसशाला, पाकस्थानम्, पाकागार जैसे शब्द भी हिन्दी में हैं। किसी चीज़ की मज़बूती के संदर्भ में हिन्दी में पक्का और उर्दू-फारसी में पुख्ता शब्द प्रचलित हैं जो इसी शब्दमूल अर्थात पच् से निकला हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि रसोई घर के लिए किचन शब्द भी भारोपीय भाषा परिवार का ही शब्द है और इसका मूल भी यही धातु है। लैटिन coquina से अंग्रेजी के किचन शब्द का जन्म हुआ है जो लैटिन के ही coquus से बना है जिसमें पकाने का भाव है। अंग्रेजी के cook से इसकी समानता देखी जा सकती है।

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Sunday, August 30, 2009

खलीफा, खिलाफत, मुखालफत [विरोध-1]

islam-eu-caliphateसंबंधित कड़िया-1.जो हुक्म मेरे आका, मेरे कक्का, मेरी अक्का 2.वजीरेआजम से वायसराय तक 3.पति की बादशाहत 

क्सर विरोध के अर्थ में हिन्दी में खिलाफ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसके क्रियाविशेषण रूप में खिलाफत शब्द का प्रयोग भी ठाठ से होता है जो ग़लत है जबकि होना चाहिए मुखालफत। हिन्दी मीडिया जगत में अक्सर इस मुद्दे पर कहा जाता रहा है। यूं खिलाफत और मुख़ालिफ़त दोनों ही शब्द एक ही मूल से जन्में हैं मगर दोनों के अर्थ में ज़मीन आसमान का अन्तर है। मुख़ालिफत का मतलब होता है विरुद्ध होना, विरोध करना। इसके मूल में खिलाफ शब्द है जबकि खिलाफत में परम्परा खासतौर पर इस्लामी शरीयत की परम्परा के तहत प्रशासनिक व्यवस्था का भाव है। खिलाफत के उपरोक्त अर्थ को खलीफा शब्द से भी जोड़ कर देखा जाता है मगर वह सरलीकरण है। भारत में खिलाफत आंदोलन (1919-1924) के संदर्भ में भी लोग इस शब्द से परिचित है जो ब्रिटिश दौर में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में तुर्की के आटोमन शासकों को अंग्रेजों द्वारा अपदस्थ करने के विरोध में चला था जिन्हें उस वक्त खलीफा का दर्जा प्राप्त था।
रअसल खिलाफ, खलीफा, खिलाफत, मुखालफत एक ही मूल से जन्मे हैं। यह अरबी भाषा का शब्द है। सेमिटिक भाषा परिवार की धातु ख़ल्फ़ khlf से इनकी व्युत्पत्ति हुई है जिसमें वारिस, विरासत, उत्तराधिकार या पीछे का भाव है। इसके अलावा इसके मायने कपूत या बिगड़ी हुई संतान भी हैं।  इसी धातु से बना है खलीफा जिसका अभिप्राय हिन्दी में शासक, बादशाह, राजा से लगाया जाता है मगर वास्तविक अर्थ है उत्तराधिकारी या वारिस। गौर करें, सभी शासक किसी न किसी के वारिस रहे हैं सो बतौर शासक भी खलीफा में वारिस का भाव विद्यमान है। मोहम्मद साहब के बाद इस्लामी विश्व के धर्मगुरू और धर्मराज्य के वारिस के तौर पर अबु बक्र ने ही काम सम्भाला था। वही खलीफा कहलाए क्योंकि उन्हें खिलाफत हासिल हुई जो ख़ल्फ़ से ही बना शब्द है। खिलाफत यानी विरासत। दुनिया के लिए खिलाफत का मतलब हो गया शासनाधिकार और खलीफा यानी शासक। मद्दाह के उर्दू हिन्दी कोश मे खलीफा का
IMG_44 अब्बासी खलीफाओं में सबसे  मशहूर खलीफा हारूं अल रशीद की मध्य एशिया में मिली(ई.850)कांसे से बनी प्रतिमा जिसका उपयोग शतरंज के मोहरे की तरह होता था।
मतलब प्रतिनिधि,  नायब, नुमाइदा अथवा किसी के स्थान पर उसका काम करनेवाला है। मुस्लिम शासकों की एक उपाधि रही है खलीफतुल मुस्लिमीन इसका मतलब हुआ मुसलमानों का नेता। 
रबी भाषा में क्रिया विशेषण बनाने के लिए अत प्रत्यय का इस्तेमाल होता है जैसे विरासत, अमानत आदि। इस लिहाज से देखें तो खिलाफ से सहज तौर पर खिलाफत बना लेने का सिलसिला शुरू हुआ जो लगातार जारी है, मगर यह गलत है। पहले देखें कि खल्फ से बने खिलाफ़त शब्द में जब वारिस का भाव है तो इसी धातु से बने खिलाफ शब्द में विरुद्ध, विरोध जैसे अर्थ कैसे समा गए!! दरअसल खल्फ़ में निहित विरासत के भाव का अर्थ हुआ अनुसरण करना, अनुगमन करना। वारिस वही बनता है जो बाद में आता है, पीछे से आता है। अरबी, फारसी, उर्दू में एक शब्द है मुखालिफ जिसका मतलब होता है विरोधी, दुश्मन, प्रतिद्वन्द्वी आदि। मूल रूर से खल्फ से बने मुखालिफ में भाव था वह व्यक्ति जिसे विरासत मिलेगी। गौर करे कि अगर किसी गुरु का शिष्य उसकी परम्पराओं पर नही चलता है या उनसे मतभेद रखता है तो उसे क्या समझा जाएगा? जाहिर है बड़ी आसानी से उसे विरोधी कह दिया जाएगा। खल्फ से जन्मे अरबी के खिलाफ शब्द में यही भाव है। कालांतर में मुखालिफ का अर्थ भी विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी के तौर पर रूढ़ हो गया।
मुखालिफ में निहित दुश्मन या शत्रु वाले भाव पर भी गौर करें। यहां भी खल्फ में निहित विरासत का भाव ही उभर रहा है। विरासत यानी उत्तराधिकार अर्थात वह हक जो बाद में प्राप्त होता है। वंशक्रम में उत्तराधिकारी वही होता है जो छोटा होता है, जो वर्तमान प्रमुख का कनिष्ठ है, जो पीछे से आता है। यह शिष्य, पुत्र, अनुसरणकरता भी हो सकता है। खास बात यह कि विरासत में पीछे या पश्चात का भाव ही उभर रहा है। अब शत्रु के चरित्र पर गौर करें। वह भी छुपकर, पीछे से वार करता है। सवाल उठता है कि विरोध या शत्रु हमेशा पीछे से आए ज़रूरी नहीं। विऱोध सामने से भी होता है। गौर करें कि किसी का भी विरोध तब होता है जब उसे जान लिया जाता है। अर्थात उसकी परम्परा, चालचलन, चरित्र को जानने के बाद ही उसका समर्थन या विरोध होता है। अर्थात जानने के पश्चात ही विरोध होता है। यहां पश्चात पर ध्यान दें। जान लेने के बाद विरोध आमने-सामने का भी हो सकता है। स्पष्ट है कि खल्फ से बने खिलाफ शब्द का क्रियाविशेषण मुखालफत बनता है। खिलाफत में विरासत, प्रशासनिक अमल या शरीयत की व्यवस्था पर अमल जैसे भाव निहित हैं। खलीफा से खिलाफत शब्द नहीं बना है बल्कि ये दोनों शब्द एक ही धातुमूल खल्फ से निकले हैं। अंग्रेजी में इसके रूप है कालिफ Caliph और Caliphate. इधर खलीफा शब्द की अवनति भी हुई है। गुरु, उस्ताद, बुद्ध, पीर की तरह से खलीफा शब्द भी चालाक, अतिचतुर और अपना काम निकालने में माहिर व्यक्ति के लिए इस्तेमाल होने लगा है।

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Saturday, August 29, 2009

सरदार, सरदारनी और पसीना[बकलमखुद-99]

पिछली- कड़ी-किस्से सरदार की शादी के 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और अट्ठानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

चां रेलगाड़ी से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँचा तो छोटे मामा जी खुब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के पास दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार देर रात पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात बारह बजने में सिर्फ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी और उस की ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था ता ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से बंद था। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता। जो बाहर जगराते में देवताओं को मनाते गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर के खुद न खोल देतीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार कर लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। वह मुहँ दीवार की तरफ कर
"सरदार की रामकहानी अब मंगलवार के साथ साथ हर शनिवार भी"
के लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद मुखड़ा दिखा लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी।
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब रोशन हो गया। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा।

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Friday, August 28, 2009

बंदूक अरब की, कारतूस-पिस्तौल पुर्तगाल के

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बंदूक का नामकरण उसकी गोली से हुआ। बेहद कठोर आवरण होने की वजह से अखरोट जैसे फलों का प्रयोग गुलेल जैसे हथियारों में भी किया जाता रहा
बं दूक यानी एक ऐसा आग्नेयास्त्र जिसने कई सदियों से जंग के मैदान में आमने-सामने की लड़ाई में अपना दबदबा कायम रखा हुआ है। बंदूक का नाम लेते ही राईफल, दुनाली, बारह बोर जैसे नाम भी याद आ जाते हैं जो बंदूक के ही अलग-अलग प्रकार हैं। हिन्दी, उर्दू, अरबी और फारसी में बंदूक समान रूप से प्रचलित है मगर हिन्दी में इसकी आमद अरबी से हुई है। बंदूक मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द भी नहीं है। हिन्दी का बंदूक शब्द अरबी में बुंदूक है। इसका तुर्की रूप फिन्दिक है जो अरबी बुंदूक का ही परिवर्तित रूप है।

शिया और यूरोप के सीमांत पर काला सागर है जिसका दक्षिणी हिस्सा प्राचीनकाल में पोंटस कहलाता था। यह ग्रीक साम्राज्य का हिस्सा था। इसमें तुर्की, ईरान, आर्मीनिया जैसे इलाके आते थे। इस क्षेत्र में कठोर परत वाले एक फल को पोन्टिका, पोंटिक या पोंटिकोन कहा जाता था। यह कॉफी से मिलता जुलता होता है। गौरतलब है कि कॉफी के बीज बादाम की तरह एक कठोर कवच के अंदर होते हैं। अंग्रेजी में इसे हेजलनट कहा जाता है। यह हिन्दुुस्तान में नहीं पाया जाता मगर कोशों में इसे पहाड़ी बादाम बताया गया है। पोंटिकोन का ही अरबी रूप अल-बोंदिगस हुआ। इसका अगला रूप फुंदुक और फिर बुंदूक हुआ। बंदूक का नामकरण उसकी गोली से हुआ। बेहद कठोर आवरण होने की वजह से पोंटिकोन जैसे फलों का प्रयोग गुलेल जैसे हथियारों में भी किया जाता रहा है। बाद में जब राईफल का आविष्कार  हुआ तो उसकी गोली यानी कारतूस को बंदूक कहा जाने लगा। बाद में मुख्य हथियार का नाम ही s290bबंदूक लोकप्रिय हो गया। दिलचस्प है कि स्पेन में मीटबॉल जैसी एक रेसिपी को अल्बोंदिगस कहा जाता है। यह नाम अरबी प्रभाव में बना। आज अल्बोंदिगस मैक्सिको के विशिष्ट सामिष पदार्थों में शुमार है। गोल होने की वजह से ही बुलेट को गोली कहा जाता है। इसी तरह अंग्रेजी में बुलेट शब्द में भी गोलाई झांक रही है। लैटिन शब्द बुल्ला bulla का अर्थ होता है गोल वस्तु या घुंडी। फ्रैंच में इसका रूप हुआ बॉलेट boulette जिससे अंग्रेजी में बना बुलेट

सी कड़ी में कारतूस भी आता है जो है गॉथिक मूल का शब्द है। अंग्रेजी में इसके लिए कार्ट्रिज शब्द है मगर हिन्दुस्तानी में यह पुर्तगाली से दाखिल हुआ। पुर्तगाली में इसका रूप है कार्तूशो cartucho जिसका उच्चारण हुआ कारतूस। कारतूस का मतलब भी बंदूक की गोली से ही होता है। मूलतः यह एक खोल या डिब्बी होती है जिसमें बारूद भरी रहती है। अंग्रेजी का कार्ट्रिज फ्रैच भाषा के कार्तोशे cartouche से बना है। फ्रैंच में यह इतालवी ज़बान के कार्तोसियो से दाखिल हुआ जिसका मतलब होता है कागज का बंडल या रोल। कार्तोसियो का जन्म लैटिन के कार्टा से हुआ है जिसका मतलब होता है काग़ज। अग्रेजी के चार्ट और कार्ड शब्द इसी मूल से आ रहे हैं जिनसे कागज झांक रहा है। अंग्रेजी का चार्ट शब्द प्राचीनकाल से ही सामुद्रिक नक्शों के लिए प्रयोग होता आया है। इस अरबी में नक्शे के लिए
cart01 1857 के दौर में ब्रिटिश फौज इंग्लैंड की जिस एन्फील्ड कंपनी का कारतूस इस्तेमाल करती थी, उसका भीतरी रूप। सिपाहियों को शक था कि इसका खोल गाय की चमड़ी से बनाय जा रहा है।
खरीता शब्द मिलता है। इस चार्ट का उद्गम ग्रीक शब्द khartes से माना जाता है जिसका लैटिन रूप हुआ चार्टा/कार्टा और अंग्रेजी में हुआ चार्ट। अंग्रेजी में नक्शानवीस को कार्टोग्राफर कहा जाता है। इन तमाम शब्दों का रिश्ता जुड़ता है काग़ज़ से, पत्तों से। गौरतलब है कि प्राचीनकाल से ही दुनियाभर में लिखने की शुरूआत पत्तों पर ही हुई। मूलतः सेमेटिक भाषा परिवार के चरीता से ही ग्रीक khartes  भी बना। इसका अरबी रूप खरीता हुआ जिसका मतलब था नक्शा। सेमिटिक चरीता, अरबी खरीता और ग्रीक khartes की समानता गौरतलब है। हिन्दी उर्दू में खरीता या खलीता का मतलब एक छोटी थैली या बटुआ भी होता है। राजशाही दौर में राजाज्ञा-पत्र या प्रमुख दस्तावेज मलमल की एक छोटी थैली, बांस अथवा पत्तों की बनी नली में लपेटे जाते थे।  कहने की ज़रूरत नहीं है कि इसी तरह किसी ज़माने में बंदूक की गोली या कारतूस का आवरण एक खास किस्म की सुखाई हुई वनस्पति से होता था। बाद में इसकी जगह काग़ज़ का उपयोग होने लगा। काग़ज़ के स्थान पर जानवरों की पतली चमड़ी के इस्तेमाल की तरकीब भी बाद में निकाली गई। अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के मूल में चमड़ी से बना कारतूस का खोल ही था।

बंदूक की तरह ही पिस्तौल शब्द भी हिन्दी मे लोकप्रिय है। पिस्तौल शब्द की हिन्दी में आमद पुर्तगाली भाषा से हुई है। यूरोपीय समाज में प्रचलित कई शब्द ऐसे हैं जिनकी आमद बरास्ता अंग्रेजी ज़बान न होकर पुर्तगाली ज़बान से हुई है क्योंकि अंग्रेजों से भी पहले पुर्तगालियों ने भारतीय तटों पर अपनी बस्तियां बसानी शुरू कर दी थी। दिलचस्प तथ्य है कि बंदूक शब्द ध्यान में आते ही लंबी नली नज़र आती है मगर बंदूक के नामकरण में नली का नहीं बल्कि गोली का योगदान है। इसके विपरीत बेहद छोटे आकार के जेबी हथियार के तौर पर बनाई गई पिस्तौल की पहचान नली की बजाय उसका हत्था और ट्रिगर होती है, मगर पिस्तौल के नामकरण में नली का योगदान है। पिस्तौल शब्द का मूल पूर्वी यूरोपीय माना जाता है। रूसी भाषा में एक शब्द है पिश्चैल paschal जिसका अर्थ होता है लंबी पतली नली। पिस्तौल का विकास होने से पहले तक लंबी नलीदार बंदूकों का ही प्रचलन था। पिस्तौल का आधुनिक स्वरूप रिवाल्वर है जिसमें घूमनेवाला चैम्बर लगा होने से उसे रिवाल्वर कहा जाता है।
बंदूकों का इस्तेमाल सबसे पहले चीन में शुरू हुआ क्योंकि चीन के पास ही बारूद निर्माण की तकनीक थी। घोड़ो पर बैठ कर बंदूक से निशाना साधने में होने वाली दिक्कत के चलते सोलहवी सदी में पिस्तौल का विकास हुआ। रूसी पिश्चैल से चेक भाषा में बना पिस्टाला जिसका अर्थ था छोटा आग्नेयास्त्र। बाद में जर्मन और फ्रैच भाषा में इसका रूप हुआ pistole जो अंग्रेजी में जाकर हो गया pistol .भारतीयों ने यह पिस्टल सबसे पहले पुर्तगालियों के हाथों में देखी और इसे एक नया नाम मिल गया–पिस्तौल। फारसी प्रभाव से इन शब्दों में ची प्रत्यय का चलन भी शुरू हुआ जिसमें कर्ता का अभिप्राय होता है जैसे बंदूकची यानी बंदूक चलानेवाला या पिस्तौलची अर्थात पिस्तौल चलानेवाला। बंदूकों के कई प्रकार होते हैं जैसे दुनाली बंदूक। किसी भी आग्नेयास्त्र का प्रमुख हिस्सा वह नली होती है जिसमें से होकर गोली गुज़रती है। जिस बंदूक में दो नालियां या बैरल होती है उसे दुनाली या डबल बैरल बंदूक कहते हैं।
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Thursday, August 27, 2009

एलान और घोषणा

संबंधित कड़िया-1.भौंपू, ढिंढोरची और ढोल 1.सूई चुभोनेवाली सूचनाएं 3.दरिया तो संगीत है.announcement
कि सी तथ्य को सार्वजनिक रूप से सबके सामने लाने के लिए हिन्दी में सूचना, घोषणा, मुनादी, एलान जैसे शब्द प्रचलित हैं। इनमें से सूचना और घोषणा शब्द संस्कृत मूल के है जबकि एलान और मुनादी सेमिटिक मूल के हैं और हिब्रू-अरबी जैसी भाषाओं से होते हुए हिन्दी में भी आमतौर पर इस्तेमाल हो रहे हैं। प्राचीनकाल में सार्वजनिक सूचना का जरिया ऊंची आवाज़ में किसी तथ्य की घोषणा करना था। इसके तहत नगाड़ा, ढिंढोरा, ढोल जैसे वाद्यों के साथ एक व्यक्ति जोर जोर से सूचना का पाठ करता चलता था। संचार के आधुनिक साधनों के तहत अब सूचनाएं बिना किसी ध्वनिविस्तार के पत्र-पत्रिकाओं और नोटिस-बोर्ड पर चस्पा पुर्जे के जरिये लोगों तक पहुंचती हैं।

लान शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है। यह सेमिटिक मूल का है। एलान की धातु-व्युत्पत्ति के बारे में announcement_thumb[35]ठोस सामग्री उपलब्ध नहीं है। अरबी ज़बान के इलान/अलाना से बना है यह शब्द जिसके एशिया की कई भाषाओं में विभिन्न रूप हैं मसलन अजरबैजानी में एलान, फारसी में एलान, स्वाहिली में इलानी, तातारी में इग्लान, तुर्की में इलान आदि। अरबी इलान का मतलब होता है विवरण देना, जतलाना,  बतलाना, कहना, आदि। जाहिर है ये सभी भाव घोषणा या मुनादी में शामिल हैं। एलान के ये सभी रूप जुड़ते हैं सुमेरियाई भाषा की उल, इल और इलु (ul,Il ,Ilu) जैसी धातुओं से जिनमें ऊंचाई, उच्चता, उठाना, बढ़ाना, आगे, तेज, तीव्रता जैसे भाव हैं। एलान मे बतलाना या जतलाना जैसे भाव हैं जिसका अर्थ होता है किसी किस्म का बोध कराना। गौर करें कि घोषणा के लिए तेज़ और ऊंचे सुर में बोलना पड़ता है। प्राचीनकाल में किसी भी राजकीय सूचना के साथ नगाड़ा या ढिंढोरा इसीलिए बजाया जाता था ताकि उसकी ऊंची आवाज़ सुनकर लोग सचेत सावधान हो जाएं और उन्हें सरकारी निर्देश पढ़कर सुनाया जा सके। मुनादी करनेवाला व्यक्ति भी प्रायः चबूतरे या चौकी पर खड़े होकर ही सूचना पढ़ता था। यहां भी ऊंचाई का भाव उजागर हो रहा है। लिखित सूचनाएं भी पेड़, स्तंम्भ या दीवार के ऊंचे हिस्सों पर चिपकाई जाती रही हैं। नोटिस बोर्ड, होर्डिंग, श्यापपट्ट, तख्त, चौकी आदि सूचनाओं को सार्वजनिक करने का माध्यम ही हैं और इनमें ऊंचाई का तत्व शामिल है। बोध से जुड़ा एक प्रसिद्ध अरबी शब्द है इल्म जिसे ul,Il ,Ilu धातुओं के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है। पश्चिम एशिया में एलाम एक प्राचीन सभ्यता रही है। एलान की तरह ही उर्दू, फारसी अरबी में एलाम शब्द भी है जिसमें ज्ञान कराना, बतलाना, जतलाना जैसे भाव निहित हैं। आज के दक्षिण-पश्चिमी ईरान में इराक की सीमा से सटे एक राज्य का भी यह नाम है। यह एक पर्वतीय प्रदेश है। जाहिर है उक्त धातुओं में निहित उच्चता, ऊंचाई के भावों के चलते ही इस भूक्षेत्र का नाम एलाम पड़ा होगा। बाईबल के मुताबिक हज़रत नूह के पुत्र शेम के बड़े बेटे का नाम भी एलाम ही था। ज्येष्ठ पुत्र में उच्चता का भाव उजागर है।


... सूचना और सूचक शब्दों में रिश्तेदारी है। सूचना का काम भी जतलाना और बतलाना है। सूचक भी यही करता है...road sign 
मुनादी के लिए संस्कृत हिन्दी में घोषणा शब्द प्रचलित है जो बना है संस्कृत के घोषः से। घोषः  का जन्म संस्कृत की घुष् धातु से हुआ है जिसके मायने कोलाहल करना, चिल्लाना, सार्वजनिक रूप से कुछ कहना आदि होते हैं। घोषः या घोष का मतलब गोशाला तो होता ही है, इसके अलावा ग्वालों की बस्ती, गांव या ठिकाने को भी घोष ही कहते हैं। अहीरों के टोले और बस्तियां भी प्राचीनकाल में घोष ही कहलाती थीं। गौरतलब है कि मवेशियों को लगातार हांकने और देखभाल करने के लिए इन बस्तियों में लगातार होने वाले कोलाहल की वजह से यह नाम मिला होगा। उत्तरप्रदेश के एक जिले का नाम घोसी है। प्राचीनरूप में यह घोष ही है जिसमें ग्वालों की बस्तियों का भाव है। यह समूचा क्षेत्र आज भी काऊबेल्ट, गौपट्टी या यादव-बहुल माना जाता है। सूचना शब्द का जन्म हुआ है संस्कृत की  सूच् धातु से जिसमें चुभोना, बींधना जैसे भावों के साथ तो हैं ही निर्देशित करना, बतलाना, प्रकट करना जैसे अर्थ भी इसमें निहित हैं। दरअसल इसमें सम्प्रेषण का तत्व प्रमुख है इसीलिए संकेत करना, जतलाना, हाव-भाव से व्यक्त करना, अभिनय करना भी इसमें शामिल है। इन तमाम भावों का विस्तार है पता लगाना, भेद खोलना और भांडाफोड़ करना आदि। इस तरह सूचना का अर्थ हुआ समाचार, खबर, जानकारी, संकेत, निर्देशन, इंगित, वर्णन, वाणी, उदघोष, रहस्य, बींधना, इशारा करना आदि। पत्रकारिता विभिन्न सूचनाओं के जरिये यह काम बखूबी कर रही है।  रास्तों में हमें कई जगह तीर के निशान लगे मिलते हैं जो हमें किसी निर्दिष्ट स्थान आदि का पता बतलाते हैं। इसे सूचक कहते हैं। सूच् धातु से बने सूचक में उपरोक्त तमाम भाव एक साथ नज़र आ रहे हैं। यही नहीं, बींधना, चुभोना जैसे तत्व भी इसमें मौजूद हैं।
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Tuesday, August 25, 2009

किस्से सरदार की शादी के [बकलमखुद-98]

पिछली कड़ी- अंग्रेजी से मुक्ति, वैद्यकी से नाता… 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और सत्तानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

बी एससी. होने के दो बरस पहले ही जब सरदार कुल जमा अठारह साल का भी न था उस के ब्याह के लिए रिश्ते आने लगे। पिताजी माँ और बहन-भाइयों के साथ लड़की भी देख आए। इस का पूरा हाल आप अनवरत के आलेख ‘सौ साल पहले ............ आज भी है, और कल भी रहेगा’ पर पढ़ सकते हैं। सरदार को इस का पता लगा तो वह परेशान हो गया। अभी अपना ही ठिकाना नहीं, और यहाँ शादी की पड़ी है। पर जीवन साथी के बारे में सोच आरंभ हो गई। भावी जीवन साथी को देखना संभव नहीं हो सका था, लेकिन जैसी जानकारियाँ मिली थीं उस से लगता था कि वह चाह जैसी तो नहीं होगी, लेकिन वैसा तो किसी के साथ संभव नहीं। जो है वह ठीक ही होना चाहिए। बी.एससी. का अंतिम वर्ष आरंभ होता उस के पहले ही सरदार को सगाई के लिए मना लिया गया और गर्मियों में सगाई हो ली।
गाई के बाद जब जीवन साथी तय हो चुका तो उसे देखने और जानने की, कम से कम पत्र सम्पर्क बनाने की इच्छा बनी रही। लेकिन यह भी संभव नहीं हो सका। वास्तविक होते हुए भी जीवन साथी केवल कल्पना पर आधारित था। शादी की कोई तारीख तय नहीं थी लेकिन लगता था उसे दो-तीन साल तक तो टाला ही जा सकता है। तब तक जीवन की कुछ दिशा बनने ही लगेगी। इस बीच दाज्जी की एक देवरानी का अचानक देहान्त हो गया। दाज्जी ने कहना आरंभ कर दिया, सरदार का ब्याह करो। मुझ से दस बरस छोटी अचानक चली गई। मेरा क्या भरोसा? शादी की तारीखें देखी जाने लगीं। सरदार ने बहुत प्रयत्न किया कि शादी साल दो साल तो टाल ही दी जाए। लड़की वाले शायद तैयार भी हो जाते। लेकिन दाज्जी को कौन समझाता। आखिर वह दिन आ ही गया जब विवाह होना था।
बीएससी अंतिम वर्ष के पेपर हो चुके थे केवल केमिस्ट्री की प्रायोगिक परीक्षा होनी शेष थी। तभी वह दिन आ गया। उन दिनों शादी के बाद के आशीर्वाद समारोह नहीं हुआ करते थे। बारात रवाना होने के दिन या उस से एक दिन पहले मंडप में सब को दावत दे दी जाती थी। दावत के ठीक पहले सरदार को शौच की हाजत हुई। किराए वाले घर में यह सुविधा थी ही नहीं। मंदिर के नोहरे में ही इस सुविधा का उपयोग होता था। लेकिन वहाँ जाने का रास्ता दावत की तैयारी से अवरुद्ध था। सरदार शंका निवृत्ति के लिए अपने एक मित्र के घर पहुँचा। वहाँ विजया तैयार थी। उस से भी आग्रह किया गया। मना करते करते भी कुछ तो लेना ही पड़ा। शाम को दावत हुई। आधी दावत तक तो सरदार को पता रहा कौन आया? और कौन नहीं? उस के बाद का तो विजया को ही पता। रात नौ बजे दावत निपटी तो निकासी निकाली गई। सरदार घोड़ी पर सवार। आधी रात निकासी निपटने के पहले ही बारात की बस आ गई। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
स सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र विष्णु वर्मा बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम¡ आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।
सुबह-सुबह बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना और सजना चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर एक पान मेरे लिए कोई न कोई ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे। अब तो लघुशंका रोकना भी वकील साब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। शंका थी कि निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस लौटने को तैयार न थी। अब वहाँ अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाथरुम से बाहर आ गया।
गर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने से भी निकला। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था। किस्मत में तो पहली नजर का प्यार और लव मैरिज भी नहीं थी? साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंकानिवृत्ति यहाँ भी नहीं हुई। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम की आँच बनी है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। रात साढ़े बारह पर फिर घोड़ी हाजिर थी दूल्हे को भाँवर के लिए ले जाने को। शादी होते-होते सुबह हो गई। सुबह गौरण का भोज था। भोज के बाद आधे बाराती वहीं से अपने अपने गाँवों को खिसक लिए। बारात आधी ही रह गई थी। पिताजी समझदार से वापसी के लिए बस रोकी ही नहीं थी। रूट की बस में बैठ बारात सालपुरा स्टेशन आई और वहाँ से रेलगाड़ी में बाराँ वापस। सालपुरा में प्रयास किया गया कि दुल्हन से बात हो जाए पर विफल रहा। बाराँ स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही सरदार नीचे उतरा और सीधे बुक स्टॉल पर पहुँचा। कलाई में पड़े कड़े-डोरड़े आस्तीन में छुपाए, एक पत्रिका खरीदी। तभी एक सहपाठी सामने आ खडा हुआ। पूछ रहा था। क्या शादी में से आ रहे थे। उसे सरदार की शादी की खबर नहीं थी। सरदार ने जवाब दिया –हाँ, एक बारात में गया था। तब दुल्हन गाड़ी से उतर रही थी। पलट कर प्रश्न हुआ –किस की बारात में? तो सहपाठी को उत्तर मिला। वह दुल्हन उतर रही है उसी बारात में गया था।

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Monday, August 24, 2009

दियासलाई और शल्य चिकित्सा

संबंधित कड़ी-1.कश्मीरी शाल और पश्मीना 2.डॉक्टर दीक्षित और चिकित्सक
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लाई शब्द हिन्दी का बहुत प्रचलित  है मगर अब इसका प्रयोग कुछ कम होता जा रहा है। पहले घर-घर में धातु की सलाइयों के जरिये स्वेटर बुने जाते थे, अब यह रिवाज़ कम हो गया है। तब मनोरंजन के नाम पर हस्तकलाओं का अभ्यास किया जाता था और बात की बात में घर के उपयोग की वस्तुएं तैयार हो जाती थीं। अब उत्पादन बढ़ने से वो तमाम चीज़े बहुत सस्ती हो गई हैं जो पहले हाथ से बनाई जाती थीं। दूसरी ओर मनोरंजन का बडा साधन टीवी चौबीस घंटें गृहिणियों को बुलाता रहता है। बहरहाल सलाई नाम के वस्तु और इस शब्द का प्रयोग कम ज़रूर हो गया है मगर इनसे लोग खूब परिचित हैं। यह शब्द रोजमर्रा की एक और वस्तु के साथ जुड़ा हुआ है जिसे माचिस कहते हैं। माचिस का हिन्दी नाम है दियासलाई अर्थात दिया जलाने की छड़। इसे  अग्निदण्डिका और अग्निशलाका के तौर पर प्रचारित करने के प्रयास भी हुए मगर इन शब्दों को परिहास के तौर पर ही प्रयोग किया जाता है।

लाई बना है संस्कृत के शलाका से जिसका मतलब होता है छोटी छड़ी, दण्ड, खूंटी, बाण, तीली, पतला तीर आदि। शलाका बना है संस्कृत की शल् धातु से जिसमें तीक्ष्णता, तेजी, हिलाना, हरकत करना, कांपना, बर्छी, कांटा आदि भाव हैं। स्पष्ट है कि छड़ी या दण्ड का भाव शलाका ने बाद में ग्रहण किया, पुरातन काल में यह मानव का शस्त्र रहा होगा जिसे फेंक कर शत्रु पर प्रहार किया जाता होगा। फेंकने की क्रिया में गति भी है और शस्त्र के तौर पर शलाका में तीक्ष्णता का गुण भी है। यह बना है संस्कृत के शलाकिका > सलाईआ > सलाई से।  चिकित्सा से जुड़े हुए ऑपरेशन और सर्जरी जैसे शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित हैं मगर इनके लिए प्राचीनकाल में शल्य-चिकित्सा शब्द प्रचलित था औरstick आज भी यह सरकारी हिन्दी में इस्तेमाल होता है। सर्जरी के अर्थ में शल्य शब्द का मतलब है शरीर में कांटा चुभना या चुभोना। ऑपरेशन में शरीर के भीतरी हिस्से की चिकित्सा की जाती है जिसके लिए शरीर को चीरा लगाया जाता है। शल्य में निहित चुभोने के भाव से शल्य चिकित्सा शब्द का अर्थ स्पष्ट है। माना जाता है कि शल्य-चिकित्सा दरअसल प्राचीन भारतीय विद्या ही है। आज दियासलाई और शल्य चिकित्सा की रिश्तेदारी खोजें तो यही तथ्य सामने आएगा कि प्रगति के आत्ममुग्ध दौर में भी हमारे देश में दियासलाई की रोशनी में ऑपरेशन का कौशल दिखाने वाले अध्याय लिखे जाते हैं।
चुभोने के गुण की वजह से ही संस्कृत में में शलभ शब्द का प्रयोग कीट-पतंगों, टिड्डों के लिए किया जाता है। वृक्ष  की छाल कोमल नर्म आंतरिक भाग की रक्षा करती है और काफी कठोर होती है। अधिकांश वृक्षों का आवरण खुरदुरा, चुभनेवाला भी होता है। हिन्दी का छाल शब्द संस्कृत के शल्क शब्द का देशज रूप है। शल्क इसी शल् धातु से बना है जिसका क्रम कुछ यूं रहा-शल्क > शल्ल > छल्ल > छाल। गौर करें, आवरण या परत के अर्थ में छिलका शब्द भी इसी मूल से उत्पन्न हुआ है। मोटे तौर पर शल् धातु में वनस्पति का संकेत भी है।
शाल्मलि वृक्ष को हिन्दी में हम सेमल के पेड़ के तौर पर पहचानते हैं। सेमल एक बहुउपयोगी वृक्ष है। इसके फूल, फल, पत्ती और लकड़ी का ओषधीय उपयोग होता है। सेमल का फल गूदेदार होता है जो पकने पर रेशेदार रूई में बदल जाता है। सूखने पर यह फटता है और इसके बीजों के साथ ये रेशे दूर-दूर तक बिखर जाते हैं। इस प्रजाति में वंशवृद्धि की यही शैली है। दूर-दूर तक फैलने की विशेषता के चलते ही इस वृक्ष को शाल्मलि नाम मिला जो शल् धातु से ही उपजा है। ऐसा माना जाता रहा है कि प्राचीनकाल में इस रूई से नर्म कपड़े बुने जाते थे। ओढ़ने के वस्त्र अथवा उत्तरीय के तौर पर दुशाला और शाल शब्द इसी मूल से उपजे हैं। हालाँकि यह भी तथ्य है कि सेमल की रुई कताई करने योग्य नहीं मानी जाती । गौर करें कि संस्कत में जुलाहे या बुनकर के लिए शालिकः शब्द है । शल् धातु की महिमा न्यारी है जिसमें तीक्ष्णता, गति के साथ कोमलता के गुणधर्म रखनेवाली वस्तुओं का बोध एक साथ हो रहा है। शाल की कोमलता के साथ शल्क अथवा छाल की तीक्ष्णता और शस्त्र के तौर पर शलाका की तीव्रता सचमुच इसे विलक्षण बनाते हैं।
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Sunday, August 23, 2009

रबड़ी पर भारी है राबड़ी…

makai_ni_raab ... मूलतः राबड़ी मीठी ही बनती थी मगर चाहे रबड़ी हो या राबड़ी,  मीठा हमेशा ही गरीब की पहुंच से दूर रहता है, सो इसे आमतौर पर फीका या नमकीन ही बनाया जाता है...

स्वा दिष्ट मीठे व्यंजनों की बात हो और रबड़ी का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। खीर, बासुंदी की तरह ही रबड़ी भी दूध से बना एक ऐसा मीठा अर्धतरल पदार्थ है जिसका ज़ायका लाजवाब होता है। खीर बनाने में चावल की आवश्यकता होती है मगर मीठी रबड़ी बनाने में सिर्फ दूध काफी है। बाकी सिर्फ दो चीज़े ज़रूरी हैं- आंच और धैर्य। पहले तेज, फिर धीमी आंच पर दूध को खूब ओटा जाता है जिसमें काफी वक्त लगता है। इसीलिए कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है। रबड़ी मीठी होती है मगर इसी मूल से निकला एक अन्य शब्द राबड़ी  भी है जिसका स्वाद नमकीन भी होता है और मीठा भी।

बड़ी जहां शहराती व्यंजन बन चुका है वहीं राबड़ी मूलतः खान-पान की लोक-संस्कृति में रचा-बसा व्यंजन है। उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सावन शुरू होने के बाद राबड़ी की बहार आ जाती है। राबड़ी नमकीन और मीठी दोनों तरह की बनती है। मालवा में ताजी मक्का यानी भुट्टे के दानों को पीस कर छाछ में पकाया जाता है। लपसीनुमा इस पदार्थ में अक्सर नमक ही मिलाया जाता है। मगर स्वादिष्ट बनाने के लिए अक्सर एक पंथ दो काज कर लिये जाते हैं। नमक अत्यल्प मात्रा में मिलाया जाता है ताकि भरपेट नमकीन राबड़ी खाने के बाद मधुरैण समापयेत की भावना के तहत बची हुई राबड़ी को गुड़ या शकर घोल कर खाया जा सके। मूलतः राबड़ी मीठी ही बनती थी मगर चाहे रबड़ी हो या राबड़ी, पर मीठा हमेशा ही गरीब की पहुंच से दूर रहता है, सो इसे आमतौर पर फीका या नमकीन ही बनाया जाता है। इसे गर्म नहीं बल्कि ठण्डा खाने में ज्यादा मज़ा आता है। ग्रामीणों से पूछो तो राबड़ी ही रबड़ी पर भारी पड़ती नज़र आती है। 
राबड़ी शब्द राब से आ रहा है। गौरतलब है राब कहते हैं अधपके गन्ने के रस अर्थात शीरे को। राब बना है संस्कृत के द्रव शब्द से। द्रव अर्थात तरल, रस, पानी, रिसनेवाला पदार्थ आदि। जाहिर है, गन्ना इस देश की प्रमुख फसलों में है और घास परिवार के इस प्रमुख सदस्य को मानव ने प्राचीनकाल मे ही अपनी आहार-श्रंखला में शामिल कर लिया था। द्रव शब्द बना है संस्कृत की द्रु धातु से जिसमें भागना, बहना, दौड़ना, तरल होना, रिसना जैसे गतिवाचक भाव हैं। गौर करें कि तरल पदार्थों में गति का गुण होता है
दूध के मलाईदार लच्छों के लिए शहरी हलवाई अब ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल करने लगे हैं जिससे दूध को ज्यादा खौलाना-ओटाना भी नहीं पड़ता। rabri
यानी वे बहते हैं। बहाव में गति निहित है। इस तरह द्रु का अर्थ हुआ धारा। गौर करें पंजाब प्रांत की सतलज नदी के नामकरण में यही द्रु झांक रहा है। इसका प्राचीन नाम था शतद्रु जो शतद्रु > शतझ्रु > शतरुज > सतलुज > सतलज बन गया। शत+द्रु= शतद्रु। अर्थात सौ धाराएं। किसी ज़माने में अपने स्रोत से निकल कर सतलज नदी आगे बढ़ते हुए सौ धाराओं में बंटती रही होगी इसलिए उसका नाम शतद्र पड़ा। वैसे इसी शब्द से सतधारा शब्द की व्युत्पत्ति भी होती है। आंचलिकता का फर्क है। पंजाब में इसे सतलुज ही कहा जाता है जबकि शेष भारत में सतलज शब्द प्रचलित है। इसी तरह द्रव के देशी रूप में वर्णविग्रह हुआ द-र-व। इसमें से का लोप हुआ और जो बचा वह राब बन गया। ध्यान रहे, हिन्दी की तत्सम शब्दावली के तद्भव रूपों में देवनागरी का वर्ण अक्सर में बदलता है जैसे वैद्य से बना बैद
गांवों में जब गन्ने से गुड़ बनाने का मौसम आता है तो मीलों दूर तक मीठी-मादक गंध छायी रहती है जो भट्टी पर पकते राब से ही आ रही होती है। इस मौसम में राब खूब पिया जाता है। इसी राब में अनाज यानी मक्का को पकाने से राबड़ी की शुरुआत हुई, जिसके अब विभिन्न प्रकार सामने आए हैं। दूध से बनी रबड़ी इसी राब से से जन्मी है। सीधी सी बात है, दानेदार शकर से परिचित होने से पहले दूध को ओटाने के बाद मिठास के लिए उसमें राब ही डाला जाता था। मिलावट के इस दौर में शहरों में मिलनेवाली रबड़ी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दूध के मलाईदार लच्छों के लिए शहरी हलवाई अब ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल करने लगे हैं जिससे दूध को ज्यादा खौलाना-ओटाना भी नहीं पड़ता। गाढ़ा दूध ब्लाटिंग पेपर को ही मलाईदार लच्छे में बदल देता है। देहात की रबड़ी आज भी मिलावट से मुक्त है।
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Saturday, August 22, 2009

कैलेन्डर, मुर्गा और कलदार

संबंधित पोस्ट-1.रेगिस्तानी हुस्नोजमाल 2.गुलमर्ग में मुर्गे की बांग

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योरप में सुबह के कोलाहल से बना calare और फिर बना महिने का पहला दिन कैलेन्ड्स।
मु र्गे की बांग का सुबह से रिश्ता तो सदियों से जगजाहिर है मगर इसका संस्कृत और कैलेन्डर से भी अजीब मगर गहरा रिश्ता है। आम तौर पर हिन्दी में प्रचलित अंग्रेजी के कैलेन्डर का मतलब पोथी, तिथिपत्र या जंत्री आदि होता है मगर बोलचाल की हिन्दीं में कोई भी इस अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग नहीं करता। साल, महिना, तारीख के संदर्भ में कैलेन्डर से सबका काम चल जाता है। अलबत्ता हिन्दी में पंचांग शब्द का खूब प्रयोग होता है मगर इसे कैलेन्डर का पर्याय न मानकर हिन्दू तीज-त्यौहारों की जंत्री के रूप में ही काम में लाया जाता है। यूरोप में कैलेन्डर शब्द कैलेन्डियर के रूप में सन् 1205 के आसपास सूचीपत्र या बही के अर्थ में पुरानी फ्रैंच में नमूदार हुआ । यहां वह लैटिन के कैलेन्डेरियम से आया जहां इसका मतलब था लेखापत्र या खाताबही। लैटिन में ये आया रोमन कैलेन्ड्स से। रोमन कैलेन्डर में प्रत्येक माह के पहले दिन को कैलेन्डे कहते हैं। दरअसल प्राचीन रोम के पुरोहित चंद्र की स्थिति का अध्ययन कर समारोहपूर्वक नए मास की जोर-शोर से घोषणा करते थे। इसे ही calare कहा जाता था। अंग्रेजी का call शब्द भी इससे ही बना है। रोमन में calare का अर्थ होता है पुकारना या मुनादी करना।
भाषा विज्ञान के नजरिये से calare का जन्म संस्कृत के कल् या इंडो-यूरोपीय मूल के गल यानी gal से माना जाता है। इन दोनों ही शब्दों का मतलब होता है कहना या शोर मचाना, जानना-समझना या सोचना-विचारना। गिनना, गणना करना, युक्ति लगाना, संभालना, अंश आदि। कल् धातु की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। नदी-झलने की कल-कल और भीड़ के कोलाहल में इसी कल् धातु की ध्वनि सुनाई पड़ रही है। पक्षियों की चहचह और कुहुक के लिए प्रचिलत कलरव भी इसी कड़ी में आता है। यही नहीं, हंस का एक नाम कलहंस भी है। रोने-ठुनकने के लिए कलपना क्रिया भी इसी धातुमूल से निकली है। कल् से बनी क्रिया कलन् के साथ जब संस्कृत का सम् उपसर्ग लगता है तो बनता है संकलन जो समष्टिवाचक शब्द है। वस्तुओं का ढेर, चीज़ों को इकट्ठा करना, जोड़ना, एकत्रित करने की क्रियाएं ही संकलन में आती हैं। वि उपसर्ग में अलगाव का भाव है। कल से वि को युक्त करने से बनता है 5aविकल जिसका मतलब है व्याकुलता, मन का टूटना आदि। कलनम् का अर्थ होता है धब्बा, दाग़। इसीलिए बदनामी, अपमान, लांछन आदि के अर्थ में हिन्दी का कलंक शब्द इसी कड़ी का हिस्सा है।
हिंदी में रुपए के लिए कलदार शब्द प्रचलित है। खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह शब्द धड़ल्ले से एक-दो रुपए के सिक्के के लिए प्रयोग होता है। कल् का रिश्ता गणना करने से भी है और इसका मतलब अंश भी होता है। कल में निहित गणना दरअसल युक्ति ही है। हिन्दी में कल से अभिप्राय यंत्र, मशीन अथवा यांत्रिक कौशल से है। कलपुर्जा इसी कड़ी का शब्द है। पूर्वी भारत में हैंडपम्प को चांपाकल कहते हैं। चांप से अभिप्राय उस भुजा से है जो लीवर होता है। यहां कल शब्द का अर्थ मशीन ही है। दरअसल लॉर्ड कार्नवालिस (31दिसंबर1738 - 5 अक्टूबर 1805) के जमाने में भारत में मशीन के जरिए सिक्कों का उत्पादन शुरू हुआ। लोगों नें जब सुना कि अंग्रेज `कल´ यानी मशीन से रुपया बनाते हैं तो उसके लिए `कलदार´ शब्द चल पड़ा।
रा सोचे पंजाबी के गल पर जिसका मतलब भी कही गई बात ही होता है| इसी तरह कलकल या कलरव के मूल मे भी यही कल् है। साफ़ है कि इन्गलिश की कॉल, संस्कृत का कल् और पंजाबी का गल एक ही है। गौरतलब है कि संस्कृत में इसी कल् से बना है उषकाल: यानी सुबह-सुबह का शोर यानी मुर्गे की बांग। कल् या गल के आधार पर आइरिश भाषा में बना cailech जिसका मतलब भी मुर्गा ही होता है। ग्रीक, स्लोवानिक और अन्य यूरोपीय भाषाओं में कई शब्द बनें जिनका मतलब मुर्गा या शोर मचाना ही था। इस तरह देखें तो उषकाल: यानी मुर्गे की बांग बनी दिन की शुरूआत का प्रतीक। योरप में सुबह के शोर यानी कल् से बना calare और फिर बना महिने का पहला दिन कैलेन्ड्स। और फिर इसने पूरे साल के एक एक दिन का हिसाब रखने वाली पोथी यानी कैलेन्डर का रूप ले लिया। [सम्पूर्ण संशोधित पुनर्प्रस्तति]

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Thursday, August 20, 2009

खमीर, कीमियागरी और किमख़्वाब

alchemyसंबंधित कड़ी-शराब, खुमार और अक्ल पे परदा 
सायन विज्ञान को अंग्रेजी में कैमिस्ट्री कहते हैं। अंग्रेजी का कैमिस्ट्री शब्द स्पेनी के अलकैमी alchemy से आया है जो अरबी के अल-कीमिया al-kimia से बना है जिसका मतलब रूपांतरण है। रसायन विज्ञान या कैमिस्ट्री के अंतर्गत मोटे तौर पर तत्व और योगिकों का निर्माण और गुणधर्मों का अध्ययन शामिल है। कैमिस्ट्री शब्द की मूल धातु कैमी chemy के बारे में भाषाविद् एकमत नहीं हैं। इसके ग्रीक, हिब्रू, मिस्री, फारसी और चीनी मूल का होने के तर्क पेश किए जाते रहे हैं। कैमी शब्द की उत्पत्ति के विभिन्न तर्कों के बावजूद यह तय है कि यह शब्द एक ही आधार से उठा है। इससे मिलते जुलते शब्द पूर्व, मध्यएशिया और यूरोप की भाषाओं में हैं जिससे यह तथ्य सिद्ध होता है। हिन्दी में कैमिस्ट्री को रसायनशास्त्र कहते हैं जो रसायन शब्द से बना है। आयुर्वेद में रसायन शब्द का प्रयोग आता है। रसशास्त्र का प्रयोग जहां साहित्य में हुआ है वहीं यह चिकित्सा विज्ञान में भी प्रयुक्त हुआ है। पारा को शोधित कर उससे विभिन्न भस्म, चूर्ण आदि बनाए जाते थे जो औषधियों के काम आते थे। इसीलिए आयुर्वेद में पारा को रसराज कहा गया है। पारे से निर्मित विभिन्न औषधियां रसायन कहलाती थीं। यह रसायन शब्द अरबी के अलकैमी के निकट है।

कैमी chemy या कीमिया chemria शब्द में किसी न किसी तरह से रूपांतरण की बात ही उभर रही है। रासायनिक क्रियाओं का ज्ञान भी मनुष्य को कुछ प्राकृतिक घटनाओं के जरिये ही हुआ। दावानल अर्थात जंगल की आग लगने के बाद मनुष्य ने देखा कि किन्हीं धातुओं के अंश ताप की वजह से पिघल कर यौगिक में ढल गए। इसी तरह वानस्पतिक खाद्य पदार्थों के सड़ने के बाद उनके गुणधर्म में आए बदलाव को उसने स्वाद और उसके असर के जरिये महसूस किया। अरबी, फारसी और उर्दू में आज कीमिया रसायन, कैमिस्ट्री या सोना-चांदी बनाने की विद्या को कहा जाता है। अलकैमिस्ट को उर्दू, फारसी में कीमियागर कहते हैं और यह शब्द हिन्दी में भी प्रचलित है जिसका अर्थ  हुनरमंद, रसायनज्ञ  आदि होता है। कुछ भाषाविज्ञानी सेमिटिक भाषा परिवार की आरमेइक ज़बान के खम्रः शब्द से कीमिया की व्युत्पत्ति मानते हैं। अरबी का ख़मीर शब्द इसी मूल का है जिसका अर्थ होता है किण्वन अथवा नशा। मूलतः खम्रः में आवरण अथवा वृद्धि का भाव है। गौरतलब है कि अनाज अथवा फलों
...कीमिया शब्द की व्युत्पत्ति का आधार स्पष्ट नहीं है,पर इतना तय है कि यह शब्द एशियाई मूल से ही उभरा है...
से मदिरा के निर्माण की अवस्था को किण्वन या फर्मेंटेशन कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में कहें तो ख़मीर उठने की प्रक्रिया से ही शराब का निर्माण होता है। दरअसल नशा, प्रमाद बुद्धि को ढक लेता है जिसे दिमाग पर पर्दा पड़ना कहते हैं। यही है खमीर और खुमार। खुमार नशे के बाद वाली यानी उतार वाली अवस्था तो है मगर चढ़ते नशे के लिए भी खुमार शब्द का प्रयोग होता है। खमीर की प्रक्रिया दरअसल जीवाणुओं की वृद्धि की प्रक्रिया है। इसीलिए खमीरी रोटी को डबलरोटी कहते हैं क्योंकि खमीर की वजह से उसके आकार में वृद्धि हो जाती है।

हालांकि कीमिया के अर्थ में खम्र धातु का आधार बहुत मज़बूत नहीं है। केमिस्ट्री की मूल धातु chemy की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के ख़ीमिया khymeia से हुई है जिसका मतलब था धातु निर्माण की ग्रीक तकनीक। इसके पीछे ग्रीक शब्द khumeia को आधार माना गया जिसका मतलब होता है एक दूसरे में मिलाना। आशय ताप भट्टियों में पिघली धातुओं को एक दूसरे में मिलाने से है। मगर इस ग्रीक शब्द का आधार भी अरबी का अलकैमी ही है। ज्यादातर भाषाविद सेमिटिक परिवार की भाषा मिस्री अरबी से अलकैमी की उत्पत्ति मानते हैं मगर इसका कोई मज़बूत आधार पेश नहीं करते।  इजिप्शियन शब्द khemia का मतलब होता है रूपांतरण। विकीपीडिया के मुताबिक मिस्र के प्राचीन पुरालेखों में सोने, चांदी से यौगिक निर्माण के संदर्भ में khēmia शब्द का उल्लेख है। पर्शियन में कीमिया का मतलब सोना होता है और इसे भी इस शब्द का आधार माना जाता है। एक अन्य मज़बूत मान्यता कैमी chemy या कीमिया chemia  के चीनी मूल के बारे में है। आज समूचा पश्चिमी जगत यह मानता है कि प्राचीनकाल में चीन तकनीक और प्रोद्योगिकी में पाश्चात्य जगत से काफी आगे था। कैमिस्ट्री की मूल धातु chem की समानता चीनी शब्द kim से है जिसका अभिप्राय है धातुओं के रूपांतर की कला। इसका एक रूप चिन chin है। जोसेफ नीधम की पुस्तक साइंस एंड सिविलाइजेशन ऑफ चाइना के मुताबिक अरबों के चीन से बहुत पुराने सम्पर्क रहे हैं। इन सम्पर्कों का जरिया सिल्करूट से होने वाला व्यापार था जो ईसा से भी सदियों पहले से पश्चिम और पूर्व की संस्कृति को जोड़ने वाला महामार्ग था। कोई ताज्जुब नहीं कि अरबी और ग्रीक में chemy शब्द दरअसल चीनी भाषा के kim का रूपांतर हो। चीनी भाषा में chin mi शब्द का मतलब है सोना गलाना। अरबी का alchemy1कीमिया इसी से बना होने की संभावना है।
प्राचीनकाल में प्रचलित एक प्रसिद्ध कपड़े किमख्वाब का रिश्ता भी अलकैमी से जोड़ा जाता है और इसके जरिये इस शब्द के चीनी आधार को मज़बूती मिलती है। किमख़्वाब एक बेहद कीमती कपड़ा है जिसे रेशम और स्वर्णतन्तुओं से बुना जाता है। यह शब्द चीनी, जापानी, अरबी, तुर्की, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी में समान रूप से जाना जाता है। पश्चिम में इसे किन्कॉब kincob कहा जाता है जिसके मायने हैं स्वर्णनिर्मित कपड़ा। चीनी में इसे चिनहुआ, फारसी में किमख्वा और हिन्दी में किमख्वाब कहा जाता है। मूलतः यह चीनी भाषा से ही अन्य भाषाओं में गया है। चीनी में किन का अर्थ है स्वर्ण और हुआ का अर्थ होता है पुष्प। भाव है स्वर्णतन्तुओं की फुलकारी वाला वस्त्र अथवा स्वर्णतन्तुओं से निर्मित फूलो जैसे नर्म एहसास वाला महीन वस्त्र। शुक्ला दास की फैब्रिक आर्टः हैरिटेज आफ इंडिया में बताया गया है कि जापान में भी किमख्वाब को चिनरेन कहते हैं जो वहां चीनी भाषा से ही गया है।
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Wednesday, August 19, 2009

गद्देदार गद्दी और गदेला

 mattressesज़रूर पढ़ें- बिस्तर बिछौने का बंदोबस्त
बो लचाल में बिछौना के लिए गद्दा शब्द खूब प्रचलित है। हिन्दी की बोलियों जैसे मालवी, राजस्थानी और पूरवी में गदेला शब्द भी प्रचलित है। इसी कड़ी में आते हैं गद्दा या गद्दी जैसे शब्द। बिस्तर या बिछौना के लिए ये शब्द बहुत आम हैं बल्कि बिस्तर बिछौने से कहीं ज्यादा व्यापक इनकी अर्थवत्ता है। गौर करें बिस्तर-बिछौने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि बिछायत की सामग्री अथवा शयन करने का आसन। गद्दा या गद्दी की महिमा न्यारी है।

हिन्दी में गद्दा अगर बिस्तर है तो गद्दी भी बिछौना है मगर इसके साथ ही वह राजसिंहासन भी है। एक ऐसा आसन है जिस पर सामंत लोग विराजते हैं। गद्दी एक ऐसी पीठ या पीठिका भी है जिस पर बैठने से व्यक्ति की महत्ता का बोध होता है। यह शब्द बना है संस्कृत के गर्द् से जिसमें आसन, सीट, उच्च स्थान, रथ का आसन आदि के भाव हैं। जाहिर सी बात है कि प्रभावशाली व्यक्ति को प्राचीनकाल से ही उच्च स्थान पर बैठाने की परिपाटी रही है ताकि जनसमूह में उसकी भूमिका स्पष्ट हो सके। हालांकि प्रभावशाली या प्रमुख व्यक्ति को ऊंचे स्थान पर बैठाने की आदिम रिवायत के पीछे मुख्य कारण जन समूह को दिखाई देने की सुविधा ही रही होगी। लोगों के हुजूम में चाहे जितना ही महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यों न उपस्थित हो, एक ही धरातल पर स्थित होने से उसका सभी को नजर आना तब तक संभव नहीं है जब तक उसे ऊंचा न उठाया जाए। इस तरह महत्वपूर्ण दर्जा पाए लोगों को ऊंचे स्थान पर बैठाने की परिपाटी शुरु हुई होगी। आज हरकोई अपने लिए गद्दी चाहता है। रात का बिछौना नहीं बल्कि सिंहासन, कुर्सी के रुतबेवाली गद्दी।
संस्कृत के गर्द् में यही भाव समाए हैं। जाहिर सी बात है कि कालांतर में जनसमूहों अर्थात कबीलों का नेता जो बाद में राजा बना, ऊंचे सिंहासन पर विराजने लगा।  मनुष्य ने तब तक इतनी तरक्की कर ली थी कि अपने राजा को न सिर्फ ऊंचे आसन पर बैठाए(जो कि लम्बे समय तक पत्थर की ऊंची शिला ही रही) बल्कि उस आसन को सुविधाजनक और आरामदेह भी बनाए। इसी मुकाम पर आकर गर्द् में निहित ऊच्चासन वाले भाव गद्देदार होने लगते हैं। जिस ऊंचे आसन की बात गर्द् में निहित है उसे मुलायम पत्तियों, फूलों और रेशों से सज्जित कर दोहरी, तिहरी परतदार बनाया गया। सबका नेता ऐसे ही नर्म आसन पर बैठने का हकदार होता है। इस तरह गर्द् में ऊंचे आसन का जो भाव था उसमें गुदगुदापन, नर्माहट आदि भी जुड़ गईं। कालांतर में गद्दा, गद्दी, गदेला आदि के साथ बिछौना, बिछायत अथवा बिस्तर का भाव प्रमुख हो गया। ध्यान दें, सामान्यजन gns_singhasan.333143046_stdका गदेला या गद्दा चाहे सिंहासन नहीं है मगर है तो तब भी आमतौर पर बिछाए जाने वाले आसनों से कुछ ऊंचा ही। स्पष्ट है कि गद्दे में पहले ऊंचाई का भाव प्रमुख था मगर कालांतर में उसमें गुदगुदाने वाला भाव प्रमुख हो गया। गद्दे के साथ जो नर्माहट का भाव चस्पा हुआ कालांतर में उससे ही गुदगुदी, गुदगुदाना, गदबदा जैसे शब्द जन्में होंगे जिनमें मोटाई, नरमाई के साथ आमोद का भाव भी जुड़ा हुआ है। रॉल्फ़ लिली टर्नर का कोश भी इस व्युत्पत्ति की पुष्टि करता है । 
दिलचस्प यह भी कि ग़रीब अगर सोने-बिछाने के इस आसन का प्रयोग करे तो वह गुदड़ी, गोदड़ी, गुदड़िया कहलाएगी। विभिन्न प्रत्ययों और उपसर्गों के जरिये समाज अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है इसका उदाहरण गुदड़ी में मिलता है। अड़ा, अड़ी, इया जैसे प्रत्ययों के जरिये किन्ही वस्तुओं, पदार्थों में हीनता या क्षुद्रता का सफलतापूर्वक आरोपण किया जाता है जैसे छकड़ा(शकट), जोगड़ा(जोगी), गुदड़ी(गद्दा), तबकड़ी(तबाक) आदि। गुदड़ी की तरह ही कथरी/कथड़ी/कथलिया भी एक बिछावन-ओढ़ावन का नाम है। गरीबी से उभरी प्रतिभा के लिए हिन्दी में गुदड़ी का लाल कहावत प्रचलित है। आमतौर पर कथरी बचे हुए कपड़ों, चिथड़ों से बनाया हुआ बिछावन होता है जिसे गद्दे के भी नीचे बिछाया जाता है। कथरी किसी भी घर में देखी जा सकती है। मितव्ययी और पुनर्प्रयोग की पुरातन भारतीय शैली का नमूना है कथरी जिसमें पुराने अनुपयोगी कपड़ों का इस्तेमाल बिछावन के तौर पर हो जाता है।  थिगले लगे वस्त्र को भी कथरी  कहा जाता है। यह शब्द बना है संस्कृत के कन्था से जिसमें झोला-झंगा, पैबंद लगा चीवर जिसे भिक्षुक धारण करते हैं अथवा गुदड़ी का भाव है। कन्थाधारिन् का अर्थ ही भिक्षुक अथवा सन्यासी है।
पंजाब में रुई अथवा एक किस्म वस्त्र को दगला कहते हैं। सामान्यतौर पर यह जैकेटनुमा होता है जो मूलतः मोटे सूती कपड़े का होता है जिसमें रूई भरी होती है। यह दगला दरअसल इसी कड़ी से बना है। मध्यक्षेत्र में गर्द् से गद्दा, गद्दी जैसे शब्द बनें। वर्ण विपर्यय के जरिया गर्द (गरद) ने गदेला का रूप धरा। इस गदेला के साथ पश्चिमी सीमांत में जाकर एक बार फिर वर्णविपर्यय की प्रक्रिया घटी और यह बन गया दगला यानी वास्कट या जैकेट। एक तरह से इसे मोटा अंगरखा भी कह सकते हैं। आमतौर पर बॉडीगार्ड को अंगरक्षक कहते हैं मगर दिलचस्प तथ्य है कि अंगरखा भी अंग+रक्षकः से मिलकर बना है अर्थात जिससे शरीर की रक्षा हो। वस्त्र या पोशाक का आविष्कार इसलिए नहीं हुआ था क्योंकि मनुष्य को लज्जाबोध सताता था, बल्कि इसीलिए हुआ था क्योंकि मनुष्य को प्रकृति के बदलते तेवरों से अपने शऱीर की रक्षा करनी थी। इसीलिए मनुश्य के शरीर की रक्षा अंगरक्षक, बॉडीगार्ड या पहरेदार ने नहीं की बल्कि अंगरखे ने की।
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Tuesday, August 18, 2009

अंग्रेजी से मुक्ति वैद्यकी से नाता [बकलमखुद-97]

पिछली कड़ी- दो महिनों में सत्रह फिल्में… 

logo baklam_thumb[19]_thumb[40] दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और छियानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

वै द्य कृष्णगोपाल जी पारीक काशी से वैद्यकी सीख कर आए तो सब से पहले सरदार के ननिहाल में पहुँचे और नाना जी के साथ रहे। सरदार की माँ ने राखी बांधी तो माँ के भाई और सरदार के मामा हुए। बाद में वे बारां बसे जहाँ पिताजी पहले पहल अध्यापक हुए। जल्दी ही यह रिश्तेदारी अत्यंत समीपता में बदल गई। वे विद्वान थे, उन्हें आयुर्वेद के प्रमुख पाँच-सात ग्रंथ कंण्ठस्थ थे। कंठस्थ करने के इस गुण का शतांश भी सरदार में होता तो वह अंग्रेजी की दुविधा होते हुए भी विश्वविद्यालय नहीं तो अपना कॉलेज तो टॉप कर ही लेता। मामाजी ने बाराँ में आयुर्वेद का महाविद्यालय स्थापित कर दिल्ली विद्यापीठ से संबद्धता हासिल की। उन्हें विद्यार्थियों की जरूरत थी। उन के संपर्क के सभी मेट्रिक पास लोग उन के विद्यार्थी होने लगे। सरदार को भी उस विद्यालय में प्रवेश लेना पड़ा।
ब अपनी पढ़ाई के साथ वैद्यकी सीखने का काम और आ पड़ा। दादाजी और पिताजी को इस में कोई आपत्ति न थी, बल्कि वे खुश थे कि लड़का ब्राह्मणों की एक और विद्या सीख रहा था। हर रविवार और दूसरी छुट्टी के दिनों मामा जी के अस्पताल जा कर बाकायदा प्रायोगिक प्रशिक्षण लेना होता। पहले की तरह मंदिर में दाज्जी की मदद भी करनी होती और उन के लिए सप्ताह में एक-दो जन्म-पत्रिकाओं की गणित भी करनी होती। उन्हों ने फलित ज्योतिष की कुछ पुस्तकें भी सरदार को पढ़ने को दी लेकिन इन्हें पढ़ने का समय कहाँ था? वहाँ तो हर कोई सरदार को वह सब सिखा देना चाहता था, जो वह खुद जानता था। इन सब के बीच अंग्रेजी पर पार पाने का यत्न भी जारी था।
वार्षिक परीक्षा हो गई। सरदार पास हो गया। लेकिन अंकतालिका ने सब सपने तोड़ दिए। सब के साथ उसे खुद आश्चर्य था कि सबसे अच्छा विद्यार्थी इतने कम अंकों से कैसे पास हुआ। बहुतों ने सहानुभूति जताई और हिम्मत बढ़ाई। सरदार ने फिर से कमर कस ली, अंग्रेजी को नहीं छोड़ा। अंग्रेजी ने फिर अपना रंग दिखाया। त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स के दूसरे साल में फिर से फेल होना पड़ा। इस असफलता ने भी उस की हिम्मत न तोड़ी थी। लेकिन जीवन के दो वर्ष खराब होना कुछ अर्थ रखता था। हिन्दी की पुस्तकें अब मिलने लगी थीं। अंग्रेजी के खिलाफ लड़ाई को लम्बित किया और फिर से हिन्दी का दामन पकड़ा। हिन्दी ने अपना रंग दिखाया। इस बार अच्छे अंकों से सफलता मिल गई। सरदार अब बी.एससी. के अंतिम वर्ष में था। इस बीच बहुत कुछ और भी घटा था। कॉलेज की कहानी लेखन प्रतियोगिता में पुरस्कार मिल रहे थे। कविता में रुचि सुनने तक ही सीमित थी। भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकें पढ़ने-गुनने से कविताएँ तो क्या किसी भी चीज को कंठस्थ करने का समय कहाँ शेष था?
स बीच सरदार के अंदर बहुत कुछ घटा था।
...हिन्दी की किताबें अब मिलने लगी थीं, मगर दो साल खराब होना मायने रखता था। अंग्रेजी के खिलाफ लड़ाई को लम्बित रखा और फिर से हिन्दी का दामन पकड़ा...
दुनिया के बारे में नजरिया बनने लगा था। दुनिया खूबसूरत होनी चाहिए, यह सपना था। पर वह पूरा कैसे हो? इस का पुख्ता उत्तर कहीं भी नहीं मिलता था। धार्मिक पुस्तकें एक ही हल बताती थीं कि जब भी पाप बहुत बढ़ जाएगा तो स्वयं भगवान अवतार लेंगे और सब कुछ ठीक कर देंगे। भागवत पुराण कहता कि कल्कि अवतार को तो अभी हजारों वर्ष शेष हैं। तब तक तो न जाने कितनी पीढियाँ गुजर जाएंगी। वहाँ तो निरीश्वरवादी बुद्ध को भी भगवान का अवतार बता दिया गया था। विभिन्न पुराणों में घोर विरोधाभास थे। जिस देवता के नाम से पुराण था वही सृष्टिकर्ता था। सब देवताओं के बीच नातेदारी के संबंध थे। धार्मिक वक्ता लगातार लोगों को अच्छा बनने की प्रेरणा देते थे। लेकिन जिसे भी नजदीक से देखा उस का स्वयं का आचरण उन के अपने उपदेशों के अनुकूल नहीं पाया। उन से तो दादाजी, पिताजी, मामा जी जैसे लोग अधिक अच्छे थे जो अपने कर्तव्यों का पालन करते थे, उन्हें सच्चे कर्मयोगी कहा जा सकता था। बी.एससी. के पहले ही वर्ष में डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत, कोशिका विज्ञान, आनुवंशिकी और परमाणु भौतिकी विस्तार से पढ़ने को मिले। अब दुनिया को समझने का एक नया दृष्टिकोण विकसित होने लगा।
रदार को लगने लगा था कि ईश्वर यदि हुआ भी तो उस ने सृष्टि को रच दिया और कुछ नियम बना दिए। सृष्टि के छोटे से छोटे कण और बड़े से बड़े पिण्ड को इन नियमों का पालन करना होता है। ईश्वर केवल दृष्टा है, या फिर यह कि यह प्रकृति ही स्वयंभू ईश्वर है। हमें तो बस यह समझना है कि वे नियम क्या हैं। वैज्ञानिकों ने बहुत कुछ जान लिया है और जो नहीं जाना है उसे जानने के यत्न में लगे हैं। अज्ञात तो बहुत कुछ है लेकिन अज्ञेय कुछ भी नहीं। अब यह भी लगने रहा था कि दुनिया को बदलने भगवान का अवतार नहीं होगा। इसे बदलेंगे, तो इंसान ही। इंसानों के पहले तो किसी ने कुछ न बदला था। दुनिया इंसान के आने के बाद ही बदलना आरंभ हुई और बदलने की उस की गति दिनों दिन तेज होती जाती है। सरदार अब पढ़ने के लिए ऐसी पुस्तकों की तलाश में था, जिन से यह जानने को मिले कि अब तक दुनिया कैसे बदली है? और आगे कैसे बदला जा सकता है।
स बीच छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छुटपुट कहानियाँ और लघुकथाएँ छपने लगी थीं। बी.एससी. में माध्यम हिंदी हो जाने के उपरांत पढ़ने की अधिक चिंता नहीं थी। मामूली अध्ययन से अच्छे अंक आ रहे थे। लेकिन आगे भविष्य की चिंता सताने लगी थी। आजीविका क्या होगी? आयुर्वेद विद्यापीठ से विशारद का तमगा जरूर मिलने वाला था। पर उसे आजीविका का साधन बनाना सरदार को रुचिकर नहीं लगा। डाक्टर बनने का जो सपना लादा गया था, वह बहुत पीछे छूट चुका था। इस बीच कोटा से कुछ दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ हो चुका था। उन्हें नगर के समाचार भेजने लगा। पत्रकार होने का तमगा मिल गया। लेकिन यह भी आमदनी का अच्छा स्रोत न था। यही मार्ग दिखाई देते थे कि स्नातक हो कर राज्य सेवा के लिए प्रयास किए जाएँ, या विज्ञान के किसी विषय में स्नातकोत्तर हो कर अध्यापन अपनाया जाए, या फिर किसी महानगर में जा कर पत्रकारिता में ही जोर आजमाइश की जाए।

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