Sunday, September 30, 2007

इंशाजी की रामायन, उर्दू की आखिरी किताब से

यूं तो उर्दू में व्यंग्य को उभारने की पैदाइशी ताक़त है मगर कुछ साहित्यकार ऐसे भी हुए हैं जो मूलतः कवि, कहानीकार या उपन्यासकार रहे मगर जब कभी व्यंग्य पर उनकी कलम चली तो लगा मानों तंजनिगारी ही उनकी पहचान है। इब्ने इंशा साहब की उर्दू की आखिरी किताब ऐसी ही मिसाल पेश करती है।
रामजी पर मचे बवाल के संदर्भ में यह किताब याद आ रही थी खासतौर पर रामायन पर लिखा आखिरी किताब का रामायण और महाभारत वाला पाठ। छठे दशक में यह किताब लिखी गई थी। और यह भारत में १९८८ में राजकमल से प्रकाशित हुई और तब से अब तक इसके कई संस्करण निकल चुके है। पहली बार जो पढ़ चुके हैं वे फिर देख लें और जिन्होने नहीं पढ़ी है वे अब बांच लें-


रामायन रामचंद्रजी की कहानी है। ये राजा दसरथ के प्रिंस ऑफ वेल्स थे। लेकिन उनकी सौतेली मां कैकेयी अपने बेटे भरत को राजा बनाना चाहती थी। उसके बहकाने पर राज दसरथ ने रामचंद्रजी को जौदह बरस के लिए घर से निकाल दिया। उनकी रानी सीता और उनके भाई लक्षमन भी साथ हो लिए। बनवास के लिए निकलते वक्त रामचंद्रजी के पास कुछ न था , बस एक खड़ाऊं थी, वही भी भरत ने रखवा ली, कि आपकी निशानी हमारे पास रहनी चाहिए। उस खड़ाऊं को वह तख़्त के पास, बल्कि ऊपर रखता था। ताकि रामचंद्रजी का कोई आदमी चुराकर न ले जाय।
जंगल में रहने की वजह से उन्हें दिन गुज़ारने में चंदां (थोड़ी भी ) तक़लीफ न होती थी । रामजी तो आखि़र रामजी थे, ज़्यादा काम लक्षमन यानी बिरादरे-खुद ( उनके भाई ) किया करते थे। एक रोज़ जबकि राम और लक्षमन दोनों शिकार पर गए हुए थे , लंका रा राजा रावन आया और सीताजी को उठाकर ले गया । इस पर रामचंद्रजी और रावन में लड़ाई हुई। घमसान का रन पड़ा, जैसा कि दशहरे के त्योहार में आपने देका होगा ।
हनुमानजी और उनके बंदरों ने रामचंद्रजी का साथ दिया और वे रावन और उनके राक्षसों को मारकर जीत गए। पुराने ख्याल के हिन्दू इसीलिए बंदरों की इतनी इज्जत करते हैं और उनको इन्सानों पर तरजीह देते हैं।

5 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

आपने रेकमेन्ड किया है तो इब्ले इंशा जी यह किताब जरुर पढ़ी जायेगी. आभार जानकारी के लिये. आप जानकारियों का पिटारा हैं. सहेजने योग्य. चिट्ठाजगत आपको पाकर धन्य हुआ.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

ये किताब अपने पास है बिरादर. साल १९९४ में परिदृश्य प्रकाशन, मुम्बई से ख़रीदी थी. अच्छा किया जो दोबारा पढ़ने की उत्कंठा जगा दी.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

उड़न तस्तरीजी से लगता है, तंज़निगार का नाम टाइप करने में चूक हो गयी. इब्ले इन्शां से तो कुछ नहीं बनता. इब्न-ए-इंशा सही लफ्ज़ है, जिसका मतलब होता है इंसान का बेटा; जैसे कि इब्न-ए-बतूता या इब्न-ए-मरियम. धन्यवाद!

Imraan said...

क्या किसी धर्म का मखोल उड़ना सही बात है? नहीं न अगर उन्होंने कुछ ऐसा लिखा दिया तो क्या होगा जवाब दो! और जिसने जो लिखा वो लिखा पैर आप क्यों इतने उत्साह से ये गलत बाते दिखा रहे हो! और फिर भी भारत जैसे देश में इन लोगो को कुछ नहीं कहा जाता

Pratik Jain said...

इमरान से सौ प्रतिशत सहमत

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin